जलाशयों की जीवंत विरासत
बिपिनचंद्र चतुर्वेदी
प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग, संरक्षण एवं विनाश के सन्दर्भ में हमें तीन प्रमुख वैश्विक प्रवृत्तियां नजर आती हैं । पहली, जो उपयोग से ज्यादा संरक्षण पर ध्यान देती है । दूसरी, जो प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग के साथ-साथ उनकी समािप्त् से पहले सचेत होकर संरक्षण के लिए जुट जाती है । तीसरी, जो उपयोग तो विनाशक स्तर तक करती है लेकिन संरक्षण बिल्कुल नहीं करती । आज के परिवेश में ज्यादातर लोग तीसरी प्रवृत्ति के पोषक नजर आते हैं, इसीलिए जनोपयोगी प्राकृतिक संसाधनों का धीरे-धीरे विलोप हो रहा है । यह बात जगजाहिर है कि भारत में प्राचीन तालाबों, जोहड़ों व कुण्डों की मौजूदा हालात बहुत ही दयनीय है एवं उचित संरक्षण के अभाव में यह और भी बिगड़ती जा रही है । विभिन्न क्षेत्रों के तालाबों व कुण्डों की जानकारी समेटने की महत्वूपर्ण कोशिश कई अलग-अलग लोगों ने की है । लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जलाशयों की ऐतिहासिक विरासत को दस्तावेजों में समेटने का संगठित प्रयास मेरठ स्थित ``जनहित फाउंडेशन'' द्वारा किया गया है । इस शोध कार्य को अंजाम देने वाले हरिशंकर शर्मा के अनुसार उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती यह आई कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जलाशयों पर छोटी-बड़ी कोई भी पुस्तक उपलब्ध नहीं थी । वैसे नई दिल्ली स्थित सेन्टर फॉर साइंस एंड इनवायमेंट (सीएसई) ने सन् १९९७ में प्रकाशित ``डाइंग विजडम'' में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ प्रमुख तालाबों का वर्णन मिलता है । इसके बावजूद यह नवीनतम दस्तावेज इस क्षेत्र में तालाब व अन्य जल स्त्रोतों की जानकारी प्राप्त् करने का अच्छा माध्यम है । ``पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जलाशय: ऐतिहासिक विरासत'' नामक पुस्तक में उन्होंने तालाबों व कुण्डों की प्रमुख जानकारी जुटाने के साथ-साथ उनके ऐतिहासिक सरोकारों को प्राचीन धर्मग्रंथों से खोजने की जहमत भी उठाई है । मेरठ जिले का ``सूरज कुण्ड'' अत्यधिक महत्वपूर्ण तालाब था, जो अब पूर्ण रूप से सूख चुका है । एक मील क्षेत्र में फैले इस तालाब का अस्तित्व गंगनहर बनने के बाद तक तो कायम था । आबू नाला बनने के बाद शहर का गंदा पानी आने से इस तालाब की मौत हो गई । सन् १९८० ई. में बना ``श्री राम ताल'' ४० वर्ष पूर्व तक गंग नहर से भरे जाने तक तो जीवित था, लेकिन बाद में जब इसे नलकूपों से भरा जाने लगा तो यह तालाब सूख गया । मध्य काल में मेरठ से गढ़मुक्तेश्वर मार्ग पर किठौर कस्बे के चारों और ``किठौर के तालाब'' काफी प्रसिद्ध थे । अब सिर्फ उत्तर व दक्षिण के तालाब ही शेष बचे हैं और दक्षिण तालाब १२५ एकड़ से सिकुड़ कर सिर्फ ४० एकड़ में ही रह गया है । मोदीनगर के समीप ढिडाला गांव में करीब ४० बीघे में फैले ``प्राकृतिक झील'' के आस-पास जाड़े के मौसम में प्रवासी पक्षी भोजन के तलाश में आज भी यहां आते हैं । इस तरह मेरठ जिले में ही पिलोखड़ी का तालाब, लुप्त् नवचण्डी ताल, लुप्त् सरोवर, श्रीराम ताल, पक्का तालाब, दुर्वासा ताल, गंधारी तालाब, कौशिकी तालाब, जरत्कारू ऋषि का तालाब, जाटों का तालाब, बूढ़ी गंगा झील, शहजहांपुर का तालाब, नंगली ताल, गंगाल तालाब, सेठों का तालाब, करनावाल का तालाब आदि अपना स्वर्णिम इतिहास समेटे हुए दुदर्शा की गाथाएं कह रहे हैं । मुजफ्फरनगर जिले में अति प्राचीन ``मोती झील'' का पानी किसी समय मोती के समान स्वच्छ हुआ करता था । यह जलाशय मौजूदा काली नदी के अस्तित्व में आने से पहले से मौजूद था, यह नदी भी आज काफी उथली होकर सिकुड़ चुकी है । शामली तहसील में महाभारत कालीन प्राचीन तालाब ``हनुमान टीला'' को स्थानीय युवकों ने करीब ढाई साल की मेहनत के बाद जीर्णोद्धार करके भव्य बना दिया है । कैराना कस्बे में स्थित ``नवाबों का तालाब'' का जीर्णोद्धार शाहजहां के वंशज हकीम मुकर्रब खान ने कराया था। इस कस्बे में महाभारत काल में कर्ण द्वारा निर्मित ३६० विशाल कुआें का जिक्र भी आता है, वर्तमान में इनमें से २-४ के ही अवशेष प्राप्त् होते है । जानसठ तहसील के बिहारी गांव में स्थित ``कांच का तालाब'' के बारे में कहा जाता है कि महाभारत काल में मीलों तक फैलेपाण्डवों के विहार स्थल के मध्य में स्थित इस भव्य व विशाल तालाब के समीप ही कौरव-पाण्डव की निर्णायक द्यूत क्रीड़ा सम्पन्न हुई थी । आज वह एक घांस-फूंस-जंगली वनस्पति से अटा हुआ पानी से युक्त लगभग १००० मीटर का गड्ढा मात्र रह गया है । तालाब में पहले स्वर्ण निर्मित सीढ़ी होने के कारण इसे कंचन ताल कहा जाता था, जो बाद में अपभ्रंश होकर ``कांच का तालाब'' कहलाने लगा । बुढ़ाना से तीन किमी दूर स्थित महाभारत काल से भी प्राचीन ``बनी का तालाब'' करीब ६ एकड़ में फैला है । महाभारत काल में द्वैपायन नाम से प्रसिद्ध इस तालाब के बारे में कहा जाता है कि मृत्यु से पूर्व दुर्योधन इसी में छिपे थे । जानसठ तहसील में ही १८वीं शताब्दी में मराठो द्वारा मन्दिर, तालाब व कुंए बनवाए गये थे, जिसमें से एक ``चार दीवाली वाला कुआं'' का पानी आज भी अपने औषधीय गुणों के कारण जाना जाता है । आजादी के बाद भी इस विशाल कुएं से आस-पास के कई गांववासी पेयजल लेते थे एवं इससे थोड़ी बहुत सिंचाई भी होती थी । इसी तालाब में मुंझैड़ा गढ़ी गांव में अष्टभुजी १६ मीटर गोलाई का ``बाय वाला कुआं'' (बावड़ी) में आज भी भरपूर पानी रहता है । इस क्षेत्र में आज भी उस काल में ५३ छोटे बड़े कुएं व बावड़ी मौजूद हैं । मवाना-बिजनौर मार्ग पर बहसूमा कस्बे में १८वीं शताब्दी में तत्कालीन शासक जैतसिह ने महाभारत कालीन चिन्हों को देखकर एक विशाल तालाब बनवाया था, जो ``जैतसिंह का तालाब'' के नाम से जाना जाता है । उस समय यह तालाब स्थानीय आवश्यकताआे के साथ-साथ बाहरी आक्रमणकारियों से रक्षा भी करता था । गौरवपूर्ण अतीत वाला यह तालाब सन् १९९५ तक अतिक्रमण विहीन एवं स्वच्छ पानी से लबालब था, जो अब अतिक्रमण से आधा रह गया है । जिले में मीरापुर से दक्षिण-पश्चिम में मौजूद १०० बीघे में फैला ``कच्च-पक्का तालाब'' कुछ जाट युवकों के प्रयत्न से अतिक्रमण से बचा हुआ है । महाभारत काल से बसे हुए नगर कांधला के चारो तरफ करीब १२ बड़े तालाब हुआ करते थे । मुगल काल में इन बड़े एवं कई छोटे-छोटे तालाबों को नहरों के माध्यम से आपस में जोड़कर प्रभावी जल निकासी के साथ-साथ सिंचाई के उपयोग में लाया जाता था । इन तालाबों के आपसी सम्पर्क को सड़क आदि विभिन्न आधुनिक निर्माणों के माध्यम से बाधित किये जाने से अब ये तालाब समाप्त् होते जा रहे हैं । इनके अलावा जिले में कई ऐतिहासिक तालाब जिनका थोड़ा-बहुत अस्तित्व बरकरार है उनमें कुटी तालाब, देवी मन्दिर वाला तालाब, ज्ञानेश्वर ताल, हास कुण्ड, टन्ढे़डा के तालाब, मीरापुर के तालाब, भंराई वाला तालाब, सतियों वाला तालाब, एवं शेखपुर का तालाब प्रमुख हैं । गाजियाबाद जिले में, ऐतिहासिक दूधेश्वर महादेव मन्दिर व सरोवर, नृग का कुआं सहित नौ सरोवर एवं कुआे का वर्णन किया गया है । इनमें से हसनपुर की ``प्राकृतिक झील'' आज भी बहुत विशाल भूभाग में फैली हुई है । जिले के मसूरी औद्योगिक क्षेत्र में दादरी मार्ग पर ३५ हेक्टेयर क्षेत्र में फैली इस झील के एक तिहाई हिस्से में पानी है एवं शेष नमभूमि है । यह विदेशी पक्षियों का प्रवास स्थल माना जाता है । जिले में लालकुआं से डेढ़ कि.मी. की दूरी पर स्थित ``कुत्ते के तालाब'' के बारे में कहावत है कि इसमें नहाने मात्र से कुत्ते के काटे का असर समाप्त् हो जाता है । मोदीनगर से लगभग ६ कि.मी. दूर मछरी गांव के पास २० एकड़ में फैला ``सिद्ध बाबा कौड़िया तालाब'' के बारे में कहावत है कि इसमें नहाने से चर्म रोग दूर हो जाता है । करीब ५०० वर्ष पूर्व प्राकृतिक तालाब के इस गुण को महसूस करके एक बनजारे ने इस विशाल तालाब का स्वरूप दिया था । बागपत जिले में राम ताल, सेठों का तालाब एवं हिण्डन झील के बारे में वर्णन किया गया है । जिले में मात्र तीन तालाबों के बारे जिक्र आता है और वो भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं । किसी समय हिण्डन नदी मौजूदा ``हिण्डन झील'' से होकर बहती थी और आगे धूमकर वर्तमान नदी की धारा के स्थान पर आ जाती थी । बाद में नदी के किनारों को बांध देने के पश्चात नदी का यह पुराना स्थल झील में बदल गया, जो अब सूखकर समाप्त् होने के कगार पर है । मध्य काल में उपरोक्त तालाब ज्यादातर सिंचाई के लिए इस्तेमाल किए जाते रहे हैं, लेकिन आज इनमें से मात्र कुछ ही सिंचाई के लिए इस्तेमाल होते हैं । भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय के पास सूक्ष्म सिंचाई परियोजनाआे के नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों पर यदि नजर डाले तो सन् २०००-०१ में इन चार जिलों में मात्र पांच तालाबों में ही सिंचाई क्षमता तैयार की गई हैं । उनमें से गाजियाबाद जिले में ३ तालाब सिंचाई के लिए इस्तेमाल होते हैं, जबकि बागपत जिले के दो तालाब सिंचाई के लिए इस्तेमाल ही नहीं होते हैं। इस तरह सन् २०००-०१ में तालाबों से सकल रूप से २९१ हेक्टेयर सिंचाई क्षमता (पूर्ण क्षमता) का इस्तेमाल हुआ । पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चार जिलों में मात्र ६२ तालाबों एवं कुण्डों के बारे में संक्षिप्त् जानकारी निश्चित तौर पर आंखे खोलने वाली है, जिससे पता लगता है कि उनमें से ज्यादातर आज या तो लुप्त्प्राय स्थिति में है या फिर जलविहीन । इन तालाबों व कुण्डों के लुप्त् होने का एक प्रमुख कारण यह है कि आधुनिक विकास की चाहत में एक तरफ तो इनके जलग्रहण क्षेत्रों को अवरूद्ध किया जा रहा है, दूसरी तरफ प्राकृतिक जल स्त्रोतों के जल निकास मार्ग को बाधित किया जा रहा है । विकास के दौर में इनकी प्रासंगिकता बरकरार रखना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि ये स्थानीय आवश्यकता की पूर्ति के साथ-साथ प्रकृति चक्र में एक कड़ी के तौर पर कार्य करते हैं । शोधकर्ता द्वारा जुटाये गये कई महत्वपूर्ण जानकारियों के स्त्रोत का उल्लेख नहीं होने से यह दस्तावेज कुछ अधूरा सा लगता है । इन संसाधनों की जमीनी सच को उजागर करने के बाद लेखक इनके भावी उपायों के बारे में जिक्र करते तो यह दस्तावेज और बेहतर बन सकता था । इन तालाबों व कुण्डों के बारे में वर्तमान सच जानने के बाद भी क्या इनके संरक्षण के बजाय इन्हें इनके हाल पर छोड़ना उचित होगा ? इनके संरक्षण के लिए यदि अब भी चेतना नहीं आती है तो शायद आगामी पीढ़ी इनके अस्तित्व के बारे में सिर्फ ऐसे ही कुछ दस्तावेजों के माध्यम से ही जान सकेगी । ***
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