शनिवार, 12 जनवरी 2008

आवरण



संपादकीय

गण तन्त्र से मुक्त कब होगा ?
२६ जनवरी १९५० को हमारे देश में संवैधानिक सरकार की शुरूआत हुई । इसी दिन से प्रत्येक वर्ष २६ जनवरी गणतन्त्र दिवस के रूप में मनाया जाता है । एक सम्पूर्ण प्रभुत्व लोकतन्त्रात्मक गणराज्य का आदर्श हमारा लक्ष्य है । देश के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार अभिव्यक्ति , विश्वास, निष्ठा और पूजा की स्वतंत्रता, सामाजिक स्तर और अवसर की समानता होगी, ऐसा संविधान में कहा गया है । यह देश का दुर्भाग्य ही है कि स्वतंत्रता के समय सत्ता में जन तो परिवर्तित हो गया लेकिन तंत्र वहीं रहा । अंग्रेजी साम्राज्यवाद में अंग्रेजों ने अपने सत्ता केन्द्रों की सुरक्षा के लिए जिस तंत्र और तंत्रज्ञों का जाल बुना था दुर्भाग्य से हमने जनतंत्र के रूप में इसे ऐसा ही स्वीकार कर लिया यही कारण हुआ कि पुराने नौकरशाह स्वतंत्रता के बाद राजनीतिज्ञो के सेवक या सलाहकार के स्थान पर उनके मालिक हो गए । नौकरशाही के गलत रवैये के कारण ही आज स्थिति यह है कि आम आदमी को उसको सही, जरूरी और सम्भव सहायता नौकरशाहों की दया पर निर्भर है, पटवारी से मुख्य सचिव तक हमारे नौकरशाह सही मालिक होने का अभिनय बखूबी कर रहे हैं और मालिक होने का भ्रम पाले गणदेवता (नागरिक) बेचारा हाथ जोड़कर याचक की भूमिका से अब तक ऊपर नहीं उठ सका है । यह गणतंत्र के नाम पर छलावा नहीं तो क्या है ? सेवा भावना से गरीब के दर्द को समझकर काम कर सकने की भावना किसी भी प्रशासक में नहीं है । आदमी की औकात उनके सामने आंकड़ों के रूप में है कि इतनों की इतनी सहायता देनी है व्यक्ति नहीं लक्ष्य प्रमुख हैं इसलिए रोज लक्ष्यपूर्ति के दावे किये जाते हैं । व्यक्ति की अस्मिता जहां गोण हो जाए इससे ज्यादा दुभाग्यपूर्ण क्षण और क्या हो सकता है ? समाज परिवर्तन में हमारे प्रयास और सरकारी नीतियां इसीलिए असफल हो रही है कि अधिकारियों के मन में आम आदमी के प्रति प्रेम श्रद्धा या आदर का कोई स्थान नहीं है, आम आदमी को अधिकारीगण हिकारत की दृष्टि से देखते है । आज सही गणतंत्र में नागरिक सुविधाआे की दृष्टि से जरूरी हो गया है कि `गण' को तंत्र से जितना सम्भव हो सके मुक्ति को दिशा में ले जाया जाए, तंत्र से पूर्ण मुक्ति ही सच्च्े गणतंत्र की स्थापना में सहायक होगी, जब तक तो गणतंत्र के नाम पर तंत्र वालों की मौज चलती रहेगी । ***

प्रसंगवश

नदी को राष्ट्रीय संपत्ति क्यों नहीं माना जाता?
पिछले दिनोंकेंद्रीय जल संसाधन मंत्री सैफुद्दीन सोज ने यह सुझाव दिया कि देश की प्रमुख नदियों को राष्ट्रीय नदियाँ और राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर केंद्रीय शासन के क्षेत्राधिकार में शामिल किया जाना चाहिए । केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री ने ऐसी बारह नदियों को `राष्ट्रीय' घोषित करने का सुझाव दिया है । ये नदियाँ हिमालय व काराकोरम, विंध्य, सतपुड़ा, छोटा नागपुर, सह्यादि व पश्चिमी घाट पर्वत श्रृंखलाआे से निकलती हैं और अरब सागर व बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं । गंगा, सिंधु, नर्मदा, कावेरी, महानदी, ब्रह्मपुत्र, कृष्णा, ताप्ती, दामोदर, यमुना, सतलज, चंबल, झेलम आदि नाम अत्यंत श्रृद्धा एवं प्रेम से लिए जाते हैं । देश में १३५०० किलोमीटर लंबी नदियों की अनेक सहायक नदियाँ और शाखाएँ भी हैं । नदियाँ प्रकृति की देन हैं और मानव जाति के विकास, समृद्धि एवं कल्याण की आधार हैं । नदियाँ मानव-सभ्यता के विकास का स्त्रोत रही हैं । उनसे जो जल प्राप्त् होता है, वह पीने के पानी के अलावा मानवीय स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग, व्यवसाय, परिवहन, निर्माण कार्य, सफाई और बिजली उत्पादन के लिए भी काम आता है । सिंचाई और विद्युत के लिए इतनी खास जरूरत है । मगर इन नदियों पर किसी खास स्थान, क्षेत्र, राज्य का आधिपत्य स्वीकार कर हम दूसरे राज्य के लोगों को नदी के कारण मिलने वाले लाभों से वंचित कर देते हैं । भारतीय संविधान में `जल' को राज्यों के क्षेत्राधिकार वाली सूची में रखा गया है। इसलिए नदी के जल को लेकर अनेक मौकों पर विभिन्न राज्यों में परस्पर विवाद चलते रहते हैं । कम से कम उन नदियों को जो एक से अधिक राज्यों के क्षेत्र में बहती है, राष्ट्रीय नदी घोषित करना चाहिए और अंतरराज्यीय विवादों से मुक्त कर देना चाहिए । भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची की ५६वीं प्रविष्टि में केन्द्र को अधिकार दिया गया है कि वह अंतरराज्यीय नदी विवादों का निराकरण कर सकता है । मगर नदी का उद्गम, प्रवाह क्षेत्र और निस्तार अलग-अलग राज्यों में हो और प्रत्येक राज्य उसके जल पर अपना दावा करें और क्षेत्रीय तत्व अपना प्रभुत्व दिखलाना चाहे तो विकास का सिलसिला धीमा होना स्वाभाविक है । आखिर नदी तो प्रकृति की देन है और जल का निर्माण मनुष्य या राज्य नहीं करता है । जैसे देश की धरती पूरे देश की है, वैसे नदी भी पूरे देश की है, यह मानने में किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिए ? नदी किसी एक स्थान या क्षेत्र की नहीं हो सकती है ।इस भावना से नदी विवादों को सुलझाया जाना चाहिये । ***

२ सामयिक

जलाशयों की जीवंत विरासत
बिपिनचंद्र चतुर्वेदी
प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग, संरक्षण एवं विनाश के सन्दर्भ में हमें तीन प्रमुख वैश्विक प्रवृत्तियां नजर आती हैं । पहली, जो उपयोग से ज्यादा संरक्षण पर ध्यान देती है । दूसरी, जो प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग के साथ-साथ उनकी समािप्त् से पहले सचेत होकर संरक्षण के लिए जुट जाती है । तीसरी, जो उपयोग तो विनाशक स्तर तक करती है लेकिन संरक्षण बिल्कुल नहीं करती । आज के परिवेश में ज्यादातर लोग तीसरी प्रवृत्ति के पोषक नजर आते हैं, इसीलिए जनोपयोगी प्राकृतिक संसाधनों का धीरे-धीरे विलोप हो रहा है । यह बात जगजाहिर है कि भारत में प्राचीन तालाबों, जोहड़ों व कुण्डों की मौजूदा हालात बहुत ही दयनीय है एवं उचित संरक्षण के अभाव में यह और भी बिगड़ती जा रही है । विभिन्न क्षेत्रों के तालाबों व कुण्डों की जानकारी समेटने की महत्वूपर्ण कोशिश कई अलग-अलग लोगों ने की है । लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जलाशयों की ऐतिहासिक विरासत को दस्तावेजों में समेटने का संगठित प्रयास मेरठ स्थित ``जनहित फाउंडेशन'' द्वारा किया गया है । इस शोध कार्य को अंजाम देने वाले हरिशंकर शर्मा के अनुसार उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती यह आई कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जलाशयों पर छोटी-बड़ी कोई भी पुस्तक उपलब्ध नहीं थी । वैसे नई दिल्ली स्थित सेन्टर फॉर साइंस एंड इनवायमेंट (सीएसई) ने सन् १९९७ में प्रकाशित ``डाइंग विजडम'' में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ प्रमुख तालाबों का वर्णन मिलता है । इसके बावजूद यह नवीनतम दस्तावेज इस क्षेत्र में तालाब व अन्य जल स्त्रोतों की जानकारी प्राप्त् करने का अच्छा माध्यम है । ``पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जलाशय: ऐतिहासिक विरासत'' नामक पुस्तक में उन्होंने तालाबों व कुण्डों की प्रमुख जानकारी जुटाने के साथ-साथ उनके ऐतिहासिक सरोकारों को प्राचीन धर्मग्रंथों से खोजने की जहमत भी उठाई है । मेरठ जिले का ``सूरज कुण्ड'' अत्यधिक महत्वपूर्ण तालाब था, जो अब पूर्ण रूप से सूख चुका है । एक मील क्षेत्र में फैले इस तालाब का अस्तित्व गंगनहर बनने के बाद तक तो कायम था । आबू नाला बनने के बाद शहर का गंदा पानी आने से इस तालाब की मौत हो गई । सन् १९८० ई. में बना ``श्री राम ताल'' ४० वर्ष पूर्व तक गंग नहर से भरे जाने तक तो जीवित था, लेकिन बाद में जब इसे नलकूपों से भरा जाने लगा तो यह तालाब सूख गया । मध्य काल में मेरठ से गढ़मुक्तेश्वर मार्ग पर किठौर कस्बे के चारों और ``किठौर के तालाब'' काफी प्रसिद्ध थे । अब सिर्फ उत्तर व दक्षिण के तालाब ही शेष बचे हैं और दक्षिण तालाब १२५ एकड़ से सिकुड़ कर सिर्फ ४० एकड़ में ही रह गया है । मोदीनगर के समीप ढिडाला गांव में करीब ४० बीघे में फैले ``प्राकृतिक झील'' के आस-पास जाड़े के मौसम में प्रवासी पक्षी भोजन के तलाश में आज भी यहां आते हैं । इस तरह मेरठ जिले में ही पिलोखड़ी का तालाब, लुप्त् नवचण्डी ताल, लुप्त् सरोवर, श्रीराम ताल, पक्का तालाब, दुर्वासा ताल, गंधारी तालाब, कौशिकी तालाब, जरत्कारू ऋषि का तालाब, जाटों का तालाब, बूढ़ी गंगा झील, शहजहांपुर का तालाब, नंगली ताल, गंगाल तालाब, सेठों का तालाब, करनावाल का तालाब आदि अपना स्वर्णिम इतिहास समेटे हुए दुदर्शा की गाथाएं कह रहे हैं । मुजफ्फरनगर जिले में अति प्राचीन ``मोती झील'' का पानी किसी समय मोती के समान स्वच्छ हुआ करता था । यह जलाशय मौजूदा काली नदी के अस्तित्व में आने से पहले से मौजूद था, यह नदी भी आज काफी उथली होकर सिकुड़ चुकी है । शामली तहसील में महाभारत कालीन प्राचीन तालाब ``हनुमान टीला'' को स्थानीय युवकों ने करीब ढाई साल की मेहनत के बाद जीर्णोद्धार करके भव्य बना दिया है । कैराना कस्बे में स्थित ``नवाबों का तालाब'' का जीर्णोद्धार शाहजहां के वंशज हकीम मुकर्रब खान ने कराया था। इस कस्बे में महाभारत काल में कर्ण द्वारा निर्मित ३६० विशाल कुआें का जिक्र भी आता है, वर्तमान में इनमें से २-४ के ही अवशेष प्राप्त् होते है । जानसठ तहसील के बिहारी गांव में स्थित ``कांच का तालाब'' के बारे में कहा जाता है कि महाभारत काल में मीलों तक फैलेपाण्डवों के विहार स्थल के मध्य में स्थित इस भव्य व विशाल तालाब के समीप ही कौरव-पाण्डव की निर्णायक द्यूत क्रीड़ा सम्पन्न हुई थी । आज वह एक घांस-फूंस-जंगली वनस्पति से अटा हुआ पानी से युक्त लगभग १००० मीटर का गड्ढा मात्र रह गया है । तालाब में पहले स्वर्ण निर्मित सीढ़ी होने के कारण इसे कंचन ताल कहा जाता था, जो बाद में अपभ्रंश होकर ``कांच का तालाब'' कहलाने लगा । बुढ़ाना से तीन किमी दूर स्थित महाभारत काल से भी प्राचीन ``बनी का तालाब'' करीब ६ एकड़ में फैला है । महाभारत काल में द्वैपायन नाम से प्रसिद्ध इस तालाब के बारे में कहा जाता है कि मृत्यु से पूर्व दुर्योधन इसी में छिपे थे । जानसठ तहसील में ही १८वीं शताब्दी में मराठो द्वारा मन्दिर, तालाब व कुंए बनवाए गये थे, जिसमें से एक ``चार दीवाली वाला कुआं'' का पानी आज भी अपने औषधीय गुणों के कारण जाना जाता है । आजादी के बाद भी इस विशाल कुएं से आस-पास के कई गांववासी पेयजल लेते थे एवं इससे थोड़ी बहुत सिंचाई भी होती थी । इसी तालाब में मुंझैड़ा गढ़ी गांव में अष्टभुजी १६ मीटर गोलाई का ``बाय वाला कुआं'' (बावड़ी) में आज भी भरपूर पानी रहता है । इस क्षेत्र में आज भी उस काल में ५३ छोटे बड़े कुएं व बावड़ी मौजूद हैं । मवाना-बिजनौर मार्ग पर बहसूमा कस्बे में १८वीं शताब्दी में तत्कालीन शासक जैतसिह ने महाभारत कालीन चिन्हों को देखकर एक विशाल तालाब बनवाया था, जो ``जैतसिंह का तालाब'' के नाम से जाना जाता है । उस समय यह तालाब स्थानीय आवश्यकताआे के साथ-साथ बाहरी आक्रमणकारियों से रक्षा भी करता था । गौरवपूर्ण अतीत वाला यह तालाब सन् १९९५ तक अतिक्रमण विहीन एवं स्वच्छ पानी से लबालब था, जो अब अतिक्रमण से आधा रह गया है । जिले में मीरापुर से दक्षिण-पश्चिम में मौजूद १०० बीघे में फैला ``कच्च-पक्का तालाब'' कुछ जाट युवकों के प्रयत्न से अतिक्रमण से बचा हुआ है । महाभारत काल से बसे हुए नगर कांधला के चारो तरफ करीब १२ बड़े तालाब हुआ करते थे । मुगल काल में इन बड़े एवं कई छोटे-छोटे तालाबों को नहरों के माध्यम से आपस में जोड़कर प्रभावी जल निकासी के साथ-साथ सिंचाई के उपयोग में लाया जाता था । इन तालाबों के आपसी सम्पर्क को सड़क आदि विभिन्न आधुनिक निर्माणों के माध्यम से बाधित किये जाने से अब ये तालाब समाप्त् होते जा रहे हैं । इनके अलावा जिले में कई ऐतिहासिक तालाब जिनका थोड़ा-बहुत अस्तित्व बरकरार है उनमें कुटी तालाब, देवी मन्दिर वाला तालाब, ज्ञानेश्वर ताल, हास कुण्ड, टन्ढे़डा के तालाब, मीरापुर के तालाब, भंराई वाला तालाब, सतियों वाला तालाब, एवं शेखपुर का तालाब प्रमुख हैं । गाजियाबाद जिले में, ऐतिहासिक दूधेश्वर महादेव मन्दिर व सरोवर, नृग का कुआं सहित नौ सरोवर एवं कुआे का वर्णन किया गया है । इनमें से हसनपुर की ``प्राकृतिक झील'' आज भी बहुत विशाल भूभाग में फैली हुई है । जिले के मसूरी औद्योगिक क्षेत्र में दादरी मार्ग पर ३५ हेक्टेयर क्षेत्र में फैली इस झील के एक तिहाई हिस्से में पानी है एवं शेष नमभूमि है । यह विदेशी पक्षियों का प्रवास स्थल माना जाता है । जिले में लालकुआं से डेढ़ कि.मी. की दूरी पर स्थित ``कुत्ते के तालाब'' के बारे में कहावत है कि इसमें नहाने मात्र से कुत्ते के काटे का असर समाप्त् हो जाता है । मोदीनगर से लगभग ६ कि.मी. दूर मछरी गांव के पास २० एकड़ में फैला ``सिद्ध बाबा कौड़िया तालाब'' के बारे में कहावत है कि इसमें नहाने से चर्म रोग दूर हो जाता है । करीब ५०० वर्ष पूर्व प्राकृतिक तालाब के इस गुण को महसूस करके एक बनजारे ने इस विशाल तालाब का स्वरूप दिया था । बागपत जिले में राम ताल, सेठों का तालाब एवं हिण्डन झील के बारे में वर्णन किया गया है । जिले में मात्र तीन तालाबों के बारे जिक्र आता है और वो भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं । किसी समय हिण्डन नदी मौजूदा ``हिण्डन झील'' से होकर बहती थी और आगे धूमकर वर्तमान नदी की धारा के स्थान पर आ जाती थी । बाद में नदी के किनारों को बांध देने के पश्चात नदी का यह पुराना स्थल झील में बदल गया, जो अब सूखकर समाप्त् होने के कगार पर है । मध्य काल में उपरोक्त तालाब ज्यादातर सिंचाई के लिए इस्तेमाल किए जाते रहे हैं, लेकिन आज इनमें से मात्र कुछ ही सिंचाई के लिए इस्तेमाल होते हैं । भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय के पास सूक्ष्म सिंचाई परियोजनाआे के नवीनतम उपलब्ध आंकड़ों पर यदि नजर डाले तो सन् २०००-०१ में इन चार जिलों में मात्र पांच तालाबों में ही सिंचाई क्षमता तैयार की गई हैं । उनमें से गाजियाबाद जिले में ३ तालाब सिंचाई के लिए इस्तेमाल होते हैं, जबकि बागपत जिले के दो तालाब सिंचाई के लिए इस्तेमाल ही नहीं होते हैं। इस तरह सन् २०००-०१ में तालाबों से सकल रूप से २९१ हेक्टेयर सिंचाई क्षमता (पूर्ण क्षमता) का इस्तेमाल हुआ । पश्चिमी उत्तर प्रदेश के चार जिलों में मात्र ६२ तालाबों एवं कुण्डों के बारे में संक्षिप्त् जानकारी निश्चित तौर पर आंखे खोलने वाली है, जिससे पता लगता है कि उनमें से ज्यादातर आज या तो लुप्त्प्राय स्थिति में है या फिर जलविहीन । इन तालाबों व कुण्डों के लुप्त् होने का एक प्रमुख कारण यह है कि आधुनिक विकास की चाहत में एक तरफ तो इनके जलग्रहण क्षेत्रों को अवरूद्ध किया जा रहा है, दूसरी तरफ प्राकृतिक जल स्त्रोतों के जल निकास मार्ग को बाधित किया जा रहा है । विकास के दौर में इनकी प्रासंगिकता बरकरार रखना इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि ये स्थानीय आवश्यकता की पूर्ति के साथ-साथ प्रकृति चक्र में एक कड़ी के तौर पर कार्य करते हैं । शोधकर्ता द्वारा जुटाये गये कई महत्वपूर्ण जानकारियों के स्त्रोत का उल्लेख नहीं होने से यह दस्तावेज कुछ अधूरा सा लगता है । इन संसाधनों की जमीनी सच को उजागर करने के बाद लेखक इनके भावी उपायों के बारे में जिक्र करते तो यह दस्तावेज और बेहतर बन सकता था । इन तालाबों व कुण्डों के बारे में वर्तमान सच जानने के बाद भी क्या इनके संरक्षण के बजाय इन्हें इनके हाल पर छोड़ना उचित होगा ? इनके संरक्षण के लिए यदि अब भी चेतना नहीं आती है तो शायद आगामी पीढ़ी इनके अस्तित्व के बारे में सिर्फ ऐसे ही कुछ दस्तावेजों के माध्यम से ही जान सकेगी । ***

४ जनजीवन

धारावी : वैधानिक लूट का नया औजार
निधि जामवाल/मौरीन नन्दिनी/रावलीन कौर
दक्षिणी मुम्बई के उत्तरी किनारे पर स्थित एशिया की सबसे बड़ी गंदी बस्ती `धारावी' आजकल बिल्डरों की आंख का तारा बनी हुई है । बांद्रा और वर्ली जैसे पाश इलाके से जुड़ी इस बस्ती ने न केवल हजारों व्यक्ति निवास करते हैं बल्कि यहां से अपना रोजगार भी संचालित करते हैं । गंदी बस्ती पुर्नवास प्राधिकरण का कहना है कि विकसित होने के बाद १४००४ करोड़ रू. के अनुमानित मूल्य में बिकने वाली इस संपत्ति से भवन निर्माताआे (बिल्डरों) के करीब ४७५४ करोड़ रू. का लाभ प्राप्त् होगा । वहीं विशेषज्ञों का मानना है कि लाभ इससे कई गुना अधिक होगा । महाराष्ट्र गृह एवं क्षेत्र विकास प्राधिकरण (एम.एच.ए.डी.) के पूर्व अध्यक्ष चन्द्रशेखर प्रभु की गणना के अनुसार बिल्डरों को करीब २१००० करोड़ रू. प्राप्त् होंगे । २२३ हेक्टेयर में फैलेइस भूखंड में से १४४ हेक्टेयर को १ जून २००७ को हथिया लिया गया है। ९२५० करोड़ रू. के धारावी पुनर्विकास परियोजना के लिये महाराष्ट्र सरकार ने हितग्राहियों से प्रस्ताव भी आमंत्रित कर लिए हैं । इस योजना में औसत सरकारी आंकड़ों के हिसाब से ५७००० परिवारों का पुनर्वास होना है । ४० हेक्टेयर में ७ करोड़ वर्ग फिट निर्माण हेतु १०० से अधिक कंपनियों ने रूचि दिखाई है । मुंबई स्थित एमएम कन्सलटेंट के मुकेश मेहता द्वारा १९९५ में कल्पित इस योजना को बस्ती निवासियों के लिए ऐसा सुनहरा अवसर बताया गया है जिसके अंतर्गत उन्हें बहुमंजिला भवनों में २२५ स्के. फीट के फ्लेट मुफ्त में मिल जाएंगे और बाकी की जमीन बेच दी जाएगी । इन भवनों का प्रथम १५ वर्ष तक रखरखाव भी बिल्डर को ही करना होगा । परंतु यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि एक कार की पार्किंग हेतु २४८ स्के. फीट स्थान की आवश्यकता होती है और यहां एक पूरे परिवार को मात्र २२५ स्के. फीट स्थान उपलब्ध करवाया जा रहा है । एक महत्वपूर्ण तथ्य जिसे सरकार नजरअंदाज कर रही है वह यह है कि यह सिर्फ रहवासी क्षेत्रभर नहीं है अपने आप में यह एक `विशेष आर्थिक क्षेत्र' भी है। यहां पर रिसायकलिंग से लेकर मिट्टी के बर्तन बनाने, खाद्य प्रसंस्करण व चमड़ा उद्योग तक हैं । यहां के निवासियों का कहना है कि वे धारावी के विकास का भी समर्थन तो करते हैं परंतु उस तरह से नहीं जिस तरीके से सरकार ने सोचा है । हाल फिलहाल यहां १५० स्के. फीट से लेकर १००० स्के. फीट तक की करीब ५००० खाद्य प्रसंस्करण इकाईयां कार्यरत हैं । ये चकली, फरसान, नमकीन व चिप्स जैसे नामचीन उत्पादों का निर्माणकरती हैं । साथ ही यहां २० चमड़ा शोधन इकाईयों भी कार्यरत हैं जिनका सालाना कारोबार ८० करोड़ रू. से अधिक का है । नए धारावी में इनके लिए कोई जगह नहीं होगी क्योंकि इन्हें प्रदूषण फैलाने वाला माना जाता है । वहीं यहां ४ से ५ हजार इकाईयां पुर्नसंचरण (रिसायकलिंग) का कार्य करती हैं, जिनका प्रतिदिन का लेनदेन १ करोड़ रू. से ज्यादा का होता है । वहीं ये प्रतिदिन ४ हजार टन से जयादा कबाड़ का पुनर्चक्रण भी करती हैं । इन्हीं सबके बीच `कुम्हारवाड़ा' स्थित है जो कि ५ हेक्टेयर (१७ एकड़) में फैला है एवं २००० परिवारों की जीविका इस व्यवस्था पर निर्भर है । ये सभी बहुत ही सुंदर पारंपरिक व डिजायनर मिट्टी बर्तन बनाते हैं । उनका कहना है कि अचानक बाहरी लोग आकर हमारी जमीन और हमारी खुशहाली में रूचि लेने लग गए हैं। स्थानीय कुम्हारों का कहना है कि हमारी जमीन व जीविका को छीनने के किसी भी प्रयत्न का पुरजोर विरोध किया जाएगा। वैसे कुम्हारों ने योजना के विरूद्ध बम्बई उच्च् न्यायालय वृहत मुम्बई नगर निगम, और एमएचएडीए में अपील दायर कर दी हैं । दिल्ली स्थित शहर नियोजक ए.जी.के. मेनन का कहना है कि `योजना व्यक्तियों से संबंधित होना चाहिए न कि धन से । धारावी योजना पूर्णतया पूंजी आधारित रणनीति पर निर्भर है । आकल्पक इस भूमि को मात्र एक आर्थिक संसाधन के रूप में देख रहे हैं और उसे अधिकतम भी करना चाहते हैं ।' धारावी की यह योजना पूर्णतया बिल्डर समुदाय के हित को ध्यान में रखकर बनाई गई है । गंदी बस्ती पुनर्वास प्राधिकरण की वर्तमान प्रचलित नीति में बिल्डर को उसके द्वारा विकसित प्रत्येक एक फुट भूमि के बदले ०.७५ स्के. फीट भूमि की पात्रता है । परंतु धारावी के मामले में यह अनुपात बदल दिया गया है । यहां पर पुनर्वास हेतु २२५ स्के. फीट के फ्लेट के बदले बिल्डर को ३०० स्के. फीट का फ्लेट मिलेगा । शहरी भूमि सीलिंग अधिकार व नियम, सन् १९७६ के अंतर्गत सरकार सिर्फ गरीबों को घर उपलब्ध करवाने के लिए ही भूमि का अधिग्रहण करा सकती है । परंतु सरकार बजाय यह करने के कह रही है कि वह जवाहरलाल नेहरू शहरी नवीनीकरण मिशन के अंतर्गत ऋण प्राप्त् करने की पूर्व शर्त को पूरा करने के लिए इस कानून मेंही परिवर्तन कर देगी । शहरी सीलिंग कानून के अनुसार मुम्बई में निजी अधिपत्य हेतु ५०० वर्ग मीटर से बड़े भूखंड की पात्रता नहीं है । अतिरिक्त भूमि सरकार को वापस करनी होगी । इस नियम के तहत पिछले २६ वर्षो में सरकार केवल ४० हेक्टेयर भूमि ही अधिग्रहित कर पाई है । वहीं मुम्बई स्थित बिल्डर हीरानंदानी कंसट्रक्शन ने इस कानून का उल्लंघन करते हुए मुम्बई और थाणे में २०० हेक्टेयर उस भूमि का दुरूपयोग किया जिसके अंतर्गत १४० हेक्टेयर भूमि का आबंटन कमजोर वर्गो को एक कमरे के आवास उपलब्ध करवाने हेतु किया गया था । यहां पर उनके लिए एक कमरा भी नहीं बना । मुम्बई की १.२० करोड़ की आबादी में से आधी गंदी बस्तियों में रहती है । बैंगलोर स्थित आल्टरनेटिव ला फोरम का अध्ययन बतलाता है कि मुम्बई के ६० लाख गंदी बस्ती निवासियों के पास यहां की कुल भूमि का मात्र १२.५ प्रतिशत क्षेत्र ही है । जिसका मूल्य ८०००० करोड़ रू. है । परंतु सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि जहां एक ओर हजारों हजार लोग बेघर हैं वहीं एक लाख से ज्यादा फ्लेट खाली पड़े हुए हैं । शहरीकरण हेतु राष्ट्रीय आयोग का कहना है कि मुम्बई की खाली पड़ी भूमि में से ५५ प्रतिशत सिर्फ ९१ व्यक्तियों के स्वामित्व में है । इस स्वामित्व को सरकार और प्रशासन दोनों ही मान्यता प्रदान कर रहे हैं। महाराष्ट्र के आवास विभाग के मुख्य सचिव एस.एस.क्षत्रिय का कहना है कि `ऐसा नहीं है कि मुम्बई में आवास उपलब्ध नहीं हैं। परंतु ये गरीबों की पहुंच से बाहर हैं । बहुत थोड़े से बिल्डर मुम्बई के आवास क्षेत्र पर नियंत्रण किए हुए हैं। इस गठजोड़ को तोड़कर आवास क्षेत्र के विनियमन करने की आवश्यकता है ।' वैसे सरकार ने बस्ती निवासियों के लिए एक फार्मूला भी बनाया है । इसके अंतर्गत जिनके पास २५१ स्के. फीट से लेकर १००० स्के. फीट तक के आवास है उन्हें २२५ स्के. फीट नि:शुल्क (छोटे घरवालों की तरह) दिया जाएगा और अतिरिक्त ६७५ स्के. फीट उसे बिल्डर से कमेटी द्वारा तय किये गए मूल्य पर खरीदना होगा । स्थानीय जनता का कहना है कि पहली बात तो यह है कि सरकार हमसे हमारी भूमि लेकर यह कह रही है कि अब हम उसे बिल्डर से बाजार मूल्य पर पुन: खरीदें । दूसरा सरकार ने अभी तक उस समिति को अंतिम रूप नही दिया है जो कि यह बताएगी कि अतिरिक्त स्थान खरीदने की दर क्या होगी और यह भी नहीं बताया कि इसका बाजार मूल्य क्या होगा ? इस योजना के अंतर्गत ८५ प्रतिशत भूमि रहवासी और १५ प्रतिशत व्यावसायिक होगी । स्थानीय निवासियेां का कहना है कि हमोर लिए तो सब कुछ व्यावसायिक जैसा ही है । अभी जबकि योजना ने मूर्त रूप लेना भी प्रारंभ नहीं किया है तभी इस सम्पत्ति के भाव आसमान छूने लगे हैं । यहां पर व्यावसायिक सम्पत्ति का भाव २५ से ३०००० रू. प्रति स्के. फीट और रहवासी का ५ हजार रू. हो गया है । योजना के चलते इसके और भी बढ़ने की आशंका है क्योंकि पास के ही बांद्रा-कुर्ला काम्प्लेक्स में हाल फिलहाल के भाव ५०००० रू. स्के. फीट हैं । धारावी बचाआे समिति के अध्यक्ष राजू कोरडे का कहना है कि योजना निर्माण हेतु बुलाई गई निविदाएं गैर कानूनी हैं और वे इसके खिलाफ न्यायालय में जाएंगे । केन्द्र सरकार ने गंदी बस्तियों के लिए एक नीति का प्रारूप तैयार किया था पंरतु वह अभी तक प्रारूप रूप में ही है। इस प्रारूप नीति का भी विरोध हो रहा है क्योंकि यह निजी व सार्वजनिक भागीदारी पर आधारित है । साथ ही यह गरीबों के भूमि अधिकार की बात भी नहीं करती । अन्य नीतियों की तरह यह भी विश्व बैंक की निजी-सार्वजनिक भागीदारी नीति पर आधारित है । अनेक संगठनों का मानना है कि जबकि वे भूमि का पूरा मूल्य गरीबों से ही वसूल कर लेना चाहते हैं तो इसमें सामाजिक कल्याण की बात कहां आती हैं ? इस समस्या के समाधान को लेकर विचार सामने आ रहे हैं । इस बात में कोई मतभेद नहीं है कि गरीबों के लिए आवास की नीति कल्याणकारी होनी चाहिए साथ ही इसमें सुरक्षा की गारंटी भी होनी चाहिए । इस संबंध में एक मत इस हेतु स्वतंत्र नियामक की नियुक्ति की बात करता है जिससे कि संबंधित नियम बनाए जा सकें । वहीं दूसरा वित्तिय अनुशंसाआें की बात करता है । वैसे इस संबंध में केन्द्रीय शहरी विकास मंत्रालय की प्रतिक्रिया का सभी को इंतजार है । परंतु इस दिशा में सर्वप्रथम कदम एक कार्यान्वित हो सकने वाली `राष्ट्रीय गंदी बस्ती नीति' का निर्माण ही है । ***

५ विशेष लेख

वन रहवास और वनवासी
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
प्राकृतिक वनों से सजीव तथा निर्जीव वातावरण के अन्त: संबंध के अध्ययन को वन पारिस्थितिकी कहते हैं। वनों के सजीव कारको में मानव का महत्व सर्वाधिक है । अपनी सभ्यता के आदिकाल में मानव अन्य जीवो के समान पूर्णत: प्रकृति और वनों पर आश्रित था । आदिम मानव अपनी जीविका के लिए वैसा ही आचरण करता था जैसा अन्य वन्य जीव करते थे। तब वन रहवासी मानव पूर्ण रूपेण वनों पर निर्भर था । वह कंद मूल फल खाता था और गुफा कंदराआे में आश्रय पाता था । इस प्रागैतिहासिक काल में वनवासी मानव की गुणवत्ता सामान्य जंगली पशुआे जैसी थी। हाँ, अपने वृद्धि विवेक के बल पर मानव हिसंक पशुआे को भी अपने अधीन करने लगा । इसीलिए मानव को वन पारिस्थितिक, वन रहवास और प्रकृति का सर्वहारा जीवित घटक माना जाता है । मानव और पर्यावरण संबंधों का स्वरूप समय के साथ-साथ परिवर्तित हो रहा है । अनुकूल प्राकृतिक पर्यावरण ने मानवीय विकास प्रक्रिया को गति प्रदान की जिससे मानव आदिम अवस्था से आधुनिक समुन्नत एवं विकसित अवस्था तक की यात्रा पूर्ण कर सका । मानवीय सभ्यता का विकास नदियों के किनारे हुआ और हमारी संस्कृति पर आरण्यक पारिस्थितिक प्रभाव ही प्रमुख रहा । यही कारण है कि मानव ने जहाँ विकास के नित नये प्रतिमान गढ़ते हुए वैज्ञानिक उपलब्धियाँ एवं प्रशस्तियाँ हासिल कीं, वहीं कुछ लोगों के सहज आरण्यक जीवन पर सभ्यता के विकासशील चरणों का प्रभाव या तो पड़ा ही नहीं अथवा नगण्य रहा, और ऐसे लोग ही आदिवासी कहलाते हैं। यह आदिवासी जंगलों में जंगली पशुआे का शिकार करते हैं । जंगली कन्द मूल फल खाकर अपना पेट भरते हैं । इस प्रकार जंगलों को जीवंत रखते हुए वनरहवासी वन-वनिताआे के साथ आत्मीय रहते थे । प्राकृतिक संसाधनों के रूप में वनों ने न केवल मानवीय सभ्यता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया है वरन मानव अस्तित्व वनों के अवलम्बन से ही जुड़ा हुआ है । असल में वातावरण और वन पारिस्थितिक ह्रास की समस्या तब शुरू हुई जब वन वनस्पतियों से आदमी ने असहज व्यवहार शुरू किया एक बार रिश्ते बिगड़े तो बिगड़ते ही चले गये । शिकार का रूप विकृत हुआ और बहुत सी दुर्लभ वन्य जीव प्रजातियाँ विलुप्त्ता के कगार पर आ गई । दुनिया में र्निवनीकरण बढ़ा। विडम्बना यह है कि हमने वनों के महत्व को अपनी चर्चा में तब सम्मिलित किया है जबकि वनों का व्यापक स्तर पर विनाश हो चुका है तथा गहन प्राकृतिक वन २० प्रतिशत से भी कम भूभाग पर शेष बचे हैं। भूमध्य सागरीय, पूर्व एशिया तथा मध्य पूर्व के देशों के मानसूनी एवं शीतोष्ण प्रदेशों में वनों की अनियंत्रित एवं अनियोजित कटाई हुई है । आँकड़ों के अनुसार ब्रिटेन में ९० प्रतिशत, स्वीडन एवं फिनलेंड में ५० प्रतिशत से अधिक वनों का विनाश हो चुका है । कहा जा सकता है कि विश्व का मात्र ४२४०५ लाख हेक्टेयर भूभाग ही वनाच्छादित शेष बचा है । विश्वभर में वन रहवासी आदिवासी जातियों पर अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया है । कांगो के पिग्मी, लूजान के पहाड़ी क्षेत्रों के नीग्रो, न्यूगिनी के पपुआ, श्रीलंका के वेद्दा, राजस्थान के भील तथा मध्यप्रदेश के गोड़ अपने कबीलाई जीवनके लिए विख्यात है। यह आदिवासी वन प्रांतरों के प्राकृतिक स्वरूप की न केवल रक्षा करते हैं वरन् उनसे अपनी जीविका भी पाते हैं । वनवासी आदिवासी लोगों की प्राकृतिक जिजीविषा को विगत सुनामी आपदा के वक्त हम सभी ने देखा और समझा है कि किस तरह यह वन रहवासी प्रकृति के सृजन और ध्वंस को शिद्दत से जानते हैं । वह प्रकृति की धड़कनों को पहचानते हैं । समुद्र की लहरों की संगति और विसंगति को पढ़ सकते है । तभी तो सुनामी ने जहाँ एक बड़े भू-भाग में सांस्कृतिक सेंध लगाई, वहीं आदिवासी ऊँचे सुरक्षित स्थानों पर चैन की बंशी बजाते रहे और आपदा उन्हें छूने भी नहीं पाई । क्योंकि वह प्रकृति के करीब थे, प्रकृति के साथ से इतने मस्त रहते हैं कि मानवीय सभ्यता से उनका निस्प्रह भाव टूट नहीं पाता है । दूसरी ओर प्रकृति पर कथाकथित सभ्य मानवीय हस्तक्षेप और अतिक्रमण का अत्यधिक विनाशकारी प्रभाव हमारी जैव विविधता पर पड़ा है । हमने प्रकृति को तहस-नहस किया है । वन विनाश और हमारे सभ्यता जनित प्रदूषण के कारण वायुमण्डल में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा में अत्यधिक वृद्धि हुई है । जिससे ग्रीन हाउस प्रभाव तथा ग्लोबल वॉर्मिंग की समस्या सामने आ रही है । धरती के गर्माने से हिमनदो के पिघलने के कारण समुद्र सतह के ऊपर उठने का खतरा भी उत्पन्न हो गया है । वन विनाश से जलचक्र भी बाधित हुआ है । देश में भूमिगत जल स्तर घटा है । जल स्त्रोतों का ह्रास हुआ है । वर्षा अनियमित हुई है जिससे अकाल तथा सूखे की स्थिति भी दृश्यमान होती रहती है । जलवायु में ऐसे परिवर्तन हुए हैं कि धरती पर मरूस्थलों का विस्तार हो रहा है । हमारी उपजाऊ कृषि भूमि का ह्रास ही नहीं हुआ है वरन् वन रहवास और वन वासियों के अस्तित्व पर ही संकट आ गया है क्योंकि वन संरक्षण प्रकल्पों के प्रकम में आदिवासियों पर तरह तरह के प्रतिबंध लगे थे, जिसके परिणामस्वरूप वन रहवासी न तो स्वयं जी पा रहे हैं न हीं अपने जिजीविषा प्रदायक वनों को ही सुरक्षित रख पा रहे हैं । उनसे अपने पितृ तुल्य वनों का विछोह असहनीय हो रहा है मातृ वत्सला धरती की गोद से दूर उनका विस्थापन उन्हें उद्धेलित और आंदोलित कर रहा है । आज एक गलतफहमी हमारे समाज में जन्म ले चुकी है कि वनों को वनवासी नहीं वरन सरकारें तथा वन विभाग ही बचा सकता है । किन्तु हमें वन, वन रहवास तथा वनवासियों के सदियों पुराने रिश्तों को समझना होगा । केन्द्रीकृत कानून न तो वनवासियों का हित साधन कर सकता है और न ही वन संरक्षण कर सकता है । मेरा मन्तव्य बार-बार बनने वाले वन कानून की पड़ताल करना या इसका विश्लेषण करना कदापि नहीं है किन्तु इतना संज्ञान अवश्य है कि मूल समस्या हमारे अपने ही आचरण से जुड़ी हुई है । वन तथा वन्य जीव एवं वन रहवासियों का सदा सदा से अटूट रिश्ता है । हमारे वन क्षेत्र सामान्यत: नदियों के जलग्रहण क्षेत्र होते हैं जो जैविक विविधता के साथ-साथ हमारी प्रकृति के हरिमिता को संजोते हैं और हमारे रक्षा कवच होते हैं क्योंकि हमारी साँसों की डोर वन वनस्पतियों से ही तो जुड़ी है । प्राण रक्षक वन वनस्पतियों के संरक्षण का काम सामुदायिक स्तर पर अच्छा हो सकता है। हमारे सामने अनेकानेक उदाहरण है जबकि हमने अपनी कर्म साधना से बंजर भूमि को भी उर्वरा बना लिया और व्यापक स्तर पर वनरोपण भी किया और अब हम ही विकास के नाम पर विनाशक पथ पर गमन कर रहे हैं । कानून के शिकंजे में वनवासी अपनी जीविका से दूर हो रहे हैं अत: हमे वन संरक्षण के साथ साथ वनवासियों की जिनीविषा को भी ध्यान में रखना ही होगा। केन्द्र सरकार ने वन रहवासों पर वनवासियों का हम सुरक्षित रखने के लिए वन विधेयक अधिनियम पास किया है । अभी इस कानून का क्रियान्वयन ठीक से हो भी नहीं पाया है, कि विरोध के स्वर मुखरित होने लगे हैं और कानून की खामियाँ गिनाई जाने लगी हैं । दरअसल अधिकार तो सब चाहते हैं किन्तु कर्तव्यों से बेखबर हैं । जल जंगल जमीन को बचाये रखना हर दृष्टि से हमारी प्राथमिकता है । साथ ही जंगल से जुड़े हर जीव-जंतु ही नहीं वरन जंगल के सदियों से हमदर्द रहे वनवासियों का जीवन भी सुरक्षित करना, वन पारिस्थितिकी का ही हिस्सा है क्योंकि मनुष्य केवल कारक ही नहीं है, कर्ता भी है । अत: गैर जरूरी बहसो में उलझ कर वक्त बर्बाद करने के स्थान पर सार्थक संवाद और संरक्षण के प्रबध जरूरी है । वन सन्वर्धन के प्रयास जरूरी है । आज यह भी जरूरी है कि कानून की नजर को साफ सुथरा बनाया जाये, न कि उसकी दृष्टि में धुंधलका समाया जाये। कानून का काम सरलता, सुख और शांति देना है । कानून कभी भी जन विरोधी नहीं हो सकता अत: कानून के रास्ते में आने वाली छोटी-छोटी कठिनाइयों को सार्थक संवाद और विचार विमर्श द्वारा दूर करना चाहिए । कानून की जानकारी सभी संबंधित पक्षों को सुलभ कराना, कानून की बारीकियों को समझना और समझाना और कानून का अनुपालन करना सभी का कर्तव्य है । स्वयं सेवी संगठन इस कार्य में सरकार और जनता की मदद कर सकते है । दरअसल लड़ाई जीविका की है । जंगल के रख रखाव में आदिवासी अभी भी कारगर सिद्ध हो रहे हैं । उनकी जीविका भी इस प्रकार से वन एवं वनोपज पर टिकी होती है कि दोनों में संतुलन और सह अस्तित्व बना रह सके। जंगल में तेन्दुपत्ता, साल, महुआ, आँवला, सवई घास और अन्य वनस्पतियाँ वनवासियों की जीविका संसाधन है । कच्च माल, जड़ी बूटियाँ आदि पर वनवासियों का हक है तो उन्हें उनका हक मिलना ही चाहिए । वनवासी समुदाय को भी अपने हक के दायरे में रहकर वनों की सुरक्षा एवं संरक्षण का कार्य ईमानदारी से करना चाहिए । यहाँ एमनेस्टी इंटरनेशनल के निदेशक मुकुल शर्मा का कथन ध्यान देने योग्य है - ``वन अधिकार अधिनियम बनाने और पारित कराने का लम्बा दौर चला है फिर भी विडंबना है कि इस दौर में वन अधिकारों के प्रति संवदेनशीलता बढ़ाने और वन क्षेत्रों में अशांति कम होने की बजाय द्वंद, विस्थापना, प्रदूषण, हिंसा में बढ़ोत्तरी हुई है । करीब दो दशकों की जद्दोजहद के बाद संयुक्त राष्ट्र ने इस साल (२००७) सितम्बर में आदिवासियों के अधिकारों का घोषणापत्र स्वीकार किया और भारत सरकार ने इसके इलाके और प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकारों की मान्यता है । इस घोषणा पत्र के संदर्भ में भी आज केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के सामने चुनौती है कि वे इस मौजँूसमय और अवसर का इस्तेमाल करते हुए आदिवासी और बाकी समाज के बीच एक नया रिश्ता बनाने की कोशिश करें।'' दरअसल ``जनजातीय व अन्य वनवासी समुदाय (वनाधिकार मान्यता) विधेयक - २००६'' को पर्यावरण व वन्य जीव संरक्षण से जुड़ी एजेंसियों और वन विभाग के अधिकारी इसे वन विनाश के आमंत्रण के रूप में दे रहे हैं । अत: उनके संशय को भी दूर किया ही जाना चाहिए। यद्यपि सब कुछ जन आचरण नीतियाँ और कानून के पहलुआे पर निर्भर है तथा इस बात पर भी निर्भर है कि हम अपने पर्यावरण के प्रति कितने चिंतित है क्योंकि केवल कानून कभी भी कारगर नहीं होता यह उसे क्रियान्वित करने और कराने वालों की नीयत और हमारे नैतिक चरित्र पर भी निर्भर करता है कि हम स्थितियों को किस रूप में लेते हैं । यहाँ पर स्वतंत्र टिप्पणीकार व्योमेश चंद्र जुगरान की टिप्पणी को संदर्भित करना समीचीन होगा - ``जिन घोषित उद्देश्यों के लिए कानून लाया गया, वे फलीभूत होते हैं या नहीं । पर जहाँ तक वन विनाश के न्योते और असुरक्षा की चिंता का प्रश्न है, तो इस प्रलाप का कोई औचित्य नहीं है । नए कानून पर हाय-तौबा मचाने वालों से पूछा जा सकता है कि वर्ष १९२७ में पहले भारतीय वन कानून के जरिये वनवासियों के हक-हकूक पर सेंध लगाने और फिर समय-समय पर बनाये गए सख्त कानूनो के जरिये उन्हें हमेशा के लिए जंगलों से खदेड़ने के बाद क्या हमारे वन्य क्षेत्रों का आशातीत विस्तार हुआ ? यदि नहीं, तो यह मानने के वाजिब कारण होने चाहिए कि वनों का सच्च विकास वनवासियों के साये में ही हो सकता है ।'' शायद इसीलिए नए वन अधिनियम की प्रस्तावना में कहा गया है कि औपनिवेशिक युग से लेकर स्वतंत्रता के छह दशक व्यतीत हो जाने तक वनवासियों की उपेक्षा करना `ऐतिहासिक अन्याय' था । इसीलिए नये कानून के द्वारा वनवसियों को वन, भूमि पर रहवास बनाने, उन पर स्वामित्व, पाने तथा आजीविका हेतु खेती-बाड़ी का अधिकार होगा । पहले जिन छोटी-छोटी वनोपज को वनवासी चोरी छिपे एकत्र करके बेचने पर मजबूर थे उन्हें व्यवस्थित ढंग से प्राप्त् अधिक आत्मीय हो सकेंगे । बाँस झाड़ियों पर लगने वाले फल, शहद, गोंद, मोम, नारियल (श्रीफल), सुगन्धित एवं औषधीय पौध, मछलियाँ तथा अन्य वनोपज रूप वस्तुआे पर उनका अधिकार हो सकेगा और वह उन्हें एकत्रित कर उचित मूल्य पर बेचकर अपनी जिजीविषा बनाये रख सकेंगे । किन्तु यहाँ यह विशेष हिदायत है कि वह शिकार कदापि नहीं करेंगे । उन्हें आखेट पर पूर्ण प्रति प्रतिबंध का पालन ईमानदारी से करना होगा । वन्य जीवो को जाल में फँसाने और उनके किसी भी अंग को निकालने का कार्य पूर्णत: वर्जित होगा, और वह वन एवं वन्य जीवों के रक्षक बनकर रहेंगे। निश्चित ही जंगल के गीत को वनवासी से अधिक भला कौन समझ सकता है । वन का मीत वनवासी ही हो सकता है । प्रभु श्री राम जी ने वनवास को केवल गौरवान्वित किया वरन वन जीवन का मर्म पूर्ण मर्यादा से दिया । अब वनवासियों एवं आदिवासियों का दायित्व है कि वह उस मर्म को समझें । पर्यावरण को संरक्षित रखें तथा लोक परम्पराआे को और मजबूत कर उनसे गहरे से जुड़े । हमारी संस्कृति सदैव प्रकृति की रक्षक रही है । वनवासियों में ही आदिम मानव के अवशेष और लोक मानस के तत्व निहित है । इसीलिए लोकानुरंजक अभिव्यक्तियों में सन्निहित मनमोदिनी एवं मनस्तोषिणी प्रवृत्तियाँ वन रहवासी जीवन की शैली को सुनीति बनाती है और उनके श्रेयस संस्कार एवं सरोकार लोकशैली में लोकगीतों में व्यवहृत होते हैं । जिनमें जीवन का स्पदंन सहजता से झलकता है और शुद्धि प्रक्रिया सुचारू रहती है । हमारा उद्देश्य प्रकृति, वन एवं वन्य जन्तुआे को संभालना है न कि प्रकृति से जुड़े जीवन को उजाड़ना । हमारे जीवन का संकल्प संघात है आघात नहीं । खुद जियें और दूसरों को भी जीने दें यही ध्येय होना चाहिए । ***

७ पर्यावरण परिक्रमा

जलवायु परिवर्तन पर भविष्य की चिंता
सारी दुनिया जलवायु में आने वाले बदलाव को लेकर चिंतित है और वैश्विक तापमान में वृद्धि के खतरों से आतंकित है, फिर भी आगे का रास्ता तय करने की बजाय इस बहस में समय गँवा रही है कि इसके लिए कौन कितना जिम्मेदार है और पहले कौन कार्रवाई शुरू करें । हाल ही में इंडोनेशिया के बाली में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में दुनिया के १८७ देशों के प्रतिनिधियों ने दो सप्तह तक विचार-विमर्श किया । मगर उसके क्या परिणाम निकले और सम्मेलन को सफल माना जाए या असफल, इन प्रश्नों का उत्तर बतलाना बहुत मुश्किल है। केवल इतना ही कहा जा सकता है कि अब सभी देश स्वीकार करने लगे हैं कि वैश्विक तापमान वृद्धि एक वास्तविकता है और उसका निराकरण करने के लिए कुछ न कुछ करना होगा । सम्मेलन इस निष्कर्ष तक पहुँच पाया, इतनी ही उसकी सफलता है । मगर अमेरिका, योरप, चीन व भारत देश ग्रीन हाउस गैस के प्रदूषण स्तर को निर्धारित स्तर तक कम करने के उपाय लागू करने के प्रस्ताव पर एकमत नहीं हो सके । इस मुद्दे पर बातचीत आगे जारी रहेगी । दुनिया के देश क्योटो सम्मेलन में यह प्रस्ताव रख चुके हैं कि पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के लिए ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन की मात्रा घटानी होगी । अमेरिका और विकसित औद्योगिक देशों में यह उत्सर्जन सर्वाधिक है । विकासशील देशों में भी शहरीकरण और आधुनिकीकरण के कारण इसकी मात्रा तेजी से बढ़ रही है । चीन और भारत इसके मुख्य उदाहरण हैं। अन्य देशों में भी जंगल काटने, शहर बसाने, सड़कें बनाने व स्वचलित वाहनों का प्रचलन बढ़ने के कारण जहरीली गैस तापमान बढ़ा रही है । संभव है कि शीघ्र ही आर्कटिक प्रदेशों में जमी बर्फ पिघल जाए और मुंबई जैसे भूभाग जलमग्न हो जाए । प्राकृतिक प्रकोप और दुर्लभ जैविक जातियों के पूर्णत: लुप्त् होने के खतरे विद्यमान है । सन् २०१२ में क्योटो अनुबंध की अवधि समाप्त् हो रही है । मगर अभी तक अमेरिका ने उस पर हस्ताक्षर ही नहीं किए है । अमेरिका की सहमति लेने के लिए योरपीय महासंघ ने जो प्रस्ताव रखा था, वह भी स्वीकार नहीं हुआ । यह तय हुआ कि २००९ के पूर्व अंतिम निर्णय ले लिया जाएगा । मगर तब तक पर्यावरण और भी विकृत हो चुका होगा तब परिस्थिति नियंत्रित करना कठिन हो जाएगा । इस बात की भी गारंटी नहीं है कि २००९ तक सहमति हो ही जाएगी । सहमति हो या न हो, जरूरी यह है कि प्रत्येक देश अपने यहाँ गैस-उत्सर्जन का स्तर घटाने और पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण करने का कार्यक्रम पूरी तरह से जारी रखे ।
देश में आठ नए एटमी संयंत्र स्थापित होंगे
देश में ऊर्जा की कमी को पूरा करने व परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता बढ़ाने के लिए आठ नए परमाणु ऊर्जा संयंत्रों पर काम चल रहा है। इन नए संयंत्रों में प्रत्येक की क्षमता ७०० मेगावाट होगी । भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र के निदेशक श्रीकुमार बनर्जी ने कहा कि इन नए प्रस्तावित आठ संयंत्रों को ६० वर्षो तक चलाने के लिए करीब अस्सी हजार टन यूरेनियम की आवश्यकता होगी । उन्होंने कहा कि देश के पास इस समय यूरेनियम का पर्याप्त् भंडार है । इस समय आंध्र प्रदेश में यूरेनियम की खदान मिली है जबकि मेघालय में भी यूरेनियम मिलने की जानकारी है । उन्होंने कहा कि परमाणु संयंत्रों के नए तरह से डिजाइन करने का प्रयास किया जा रहा है, इससे उनकी उम्र बढ़ जाएगी । फिलहाल परमाणु संयंत्र की आयु तकरीबन ४० वर्ष होती है । इस दिशा में भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र के वैज्ञानिक निरंतर शोध कर रहे हैंऔर परमाणु संयंत्रों की आयु बढ़ाने की कार्य योजना पर काम कर रहे हैं । श्री बनर्जी ने परमाणु ऊर्जा से विद्युत उत्पादन पर कहा कि इस समय हम इससे केवल तीन प्रतिशत बिजली उत्पादन कर रहे हैं जिसे १५ से २० प्रतिशत तक पहुंचाने का लक्ष्य है । देश में इस समय प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष ६०० किलोवाट बिजली का उत्पादन हो रहा है, जबकि अमेरिका में खपत १३००० किलोवाट प्रतिवर्ष है । अब भारत को भी अपना बिजली उत्पादन बढ़ाना है और हमें उम्मीद है कि अगला १५ वर्षो में हम ऐसा कर पाएंगे । श्री बनर्जी ने कहा कि यदि भारत को विकसित देशों की कतार में शामिल होना है तो से कोयला, जल विद्युत के साथ परमाणु बिजली के उत्पादन की चुनौती को स्वीकार करना होगा और इसी लक्ष्य को हासिल करने के लिए नए संयंत्र लगाने की योजना पर काम हो रहा है ।
कोटा थर्मल की राख बनी मुसीबत
राजस्थान में कोटा सुपर थर्मल पावर स्टेशन से निकलने वाली राख (फ्लाई ऐश) एक बार फिर मुसीबत का कारण बनती जा रही है । कभी इस राख के ढेर आसपास के इलाके में रहने वाले लोगों के लिये मुसीबत की वजह थी तो अब इस राख का व्यावसायिक उपयोग शुरू होने के बाद राख से भरे और उसके गुबार उड़ाते ट्रकों के कारण यह राहगीरों के लिए परेशानी का सबब बनती जा रही है । प्रशासन अब इस पर लगाम कसने की तैयारी में है । कोटा सुपर थर्मल पावर स्टेशन की इकाइयों से विद्युत उत्पादन में इस्तेमाल होने वाले कोयले से निकलने वाली राख के कारण शुरूआती दौर में थर्मल प्लांट के पिछवाड़े राख के ढेर लग गये थे और एक बड़े तालाब तथा कई छोटे पोखर राख के कारण अनुपयोगी हो गये थे । दूर दूर तक इस राख के ढेर ही लगे रहते थे। पिछले कुछ सालों से इस राख का सीमेंट सड़कें और इंर्ट बनने में बड़े पैमाने पर व्यावसायिक उपयेाग शुरू होने के बाद राख के ढेरों से छुटकारा मिल गया और कोटा सुपर थर्मल पावर स्टेशन के प्रबंधक ने भी राहत की सांस ली । लेकिन अब इस राख का लदान कर उसे ले जाने वाले ट्रकों के परिवहन के दौरान उनसे उड़ने वाले गुबार के कारण अब यह राख राहगीरों के लिये परेशानी का सबब बनती जा रही है । इन दिनों राष्ट्रीय राजमार्ग ७६ का निर्माण कार्य द्रुतगति से चलने के कारण सड़क निर्माण में बड़े पैमाने पर इस राख का इस्तेमाल हो रहा है । प्रतिदिन बड़ी संख्या में ट्रक कोटा सुपर थर्मल पावर स्टेशन के पिछवाड़े बनें राख के ढेर से राख भरकर आबादी क्षेत्र से होते हुये गुजरते हैं । इन ट्रकों में भरी राख को ढककर ले जाने की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं होने के कारण न केवल इस राख का गुबार उड़ता जाता है बल्कि सड़क पर भी राख बिखरती चली जाती है जिसके कारण राहगीरों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ता है। कई बार यह राख इतनी अधिक मात्रा में उड़ती है कि चारों तरफ सघन धुंध ही दिखाई देता है । स्थानीय लोगों और विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा इन राख उड़ाते ट्रकों पर प्रतिबंध लगाये जाने की मांग किये जाने के बाद कोटा सुपर थर्मल पावर स्टेशन और राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के अधिकारियों सहित जिला प्रशासन के अधिकारी भी हरकत में आये हैं और राख उड़ाने वाले ट्रकों पर लगाम कसने का निर्णय किया गया है ।
अब बच जाएगा दुनिया का सबसे पुराना चिनार का पेड़
काश्मीर स्थित दुनिया के सबसे पुराने चिनार के पेड़ की अंत: राज्य सरकार को भी अब सुध आ गई है । इस पेड़ का संरक्षण अब बतौर सांस्कृतिक व ऐतिहासिक धरोहर की तर्ज पर करने का फैसला लिया गया है । इस सिलसिले में स्थानीय लोगों को भी शामिल करने के लिए प्रशासन ने पिछले दिनों इस ऐतिहासिक पेड़ के नीचे एक समारोह का आयोजन किया । बड़गाम जिले के छत्तरगाम गांव में स्थित चिनारके एक विशाल पेड़ को दुनिया का सबसे पुराना चिनार होने का गौरव हासिल है । गांव में स्थानीय जियारत से कुछ दूरी पर स्थित यह पेड़ गांव वालों की आस्था का प्रतीक भी है । इसके बावजूद यह अतिक्रमण की मार झेल रहा है । सरकार ने इसे बतौर पर्यटन स्थल विकसित करने का फैसला किया है । पर्यटन निदेशक फारूक शाह ने कहा कि यूरोप में भी एक ऐसी जगह है जो पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है । हमने इस पेड़ को बतौर ऐतिहासिक धरोहर व पर्यटन स्थल के तौर पर विकसित करने का फैसला किया है । बड़गाम के डीसी ख्वाजा अहमद रेंजू ने कहा कि पर्यटन इस गांव की रूपरेखा बदल सकता है और यह पेड़ इनके लिए तरक्की का माध्यम होगा । उन्होंने कहा कि पेड़ तक पहुंचने के लिए कम से कम सड़क तो खुली मिलनी चाहिए व उसके नीचे बैठने की जगह होनी चाहिए । छत्तरगाम में चिनार का पेड़ दुनिया का सबसे विशाल और बड़ा चिनार है । इस पेड़ को सन् १३७४ में सैय्यद कासिम ने लगाया था । यह पेड़ शुरू से ही लोगों की आस्था का केन्द्र रहा है । इसका व्यास ३१.८५ मीटर और ऊंचाई १४.७८ मीटर है । अलबत्ता, स्थानीय लोगों को अब भी सरकारी बातों पर यकीन नहीं है । पहली बार सरकारी तौर पर इस पेड़ के संरक्षण के लिए कहा गया तो स्थानीय लोगों ने इस पर प्रसन्नता जाहिर करते हुए सरकार को सहयोग का वादा किया है ।***

८ विरासत

रामचरित मानस में पर्यावरण चेतना
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
मानव सभ्यता के विकास के प्रारम्भिक काल से आज तक जितने भी लोकनायक हुए हैं राम इन सभी में महानायक हैं । लोकदृष्टा तुलसीदास का मानना है कि सभी प्राणियों में साक्षात् राम आत्मवत् हैं वहीं जीवन के केन्द्र में है , सारा संसार उनकी रचनात्मक चेतना का प्रतिबिम्ब है ।
सिया राम मय सब जानी ।
करौं प्रणाम जोरि जुग जानी ।।
गोस्वामी तुलसीदास का समय भारतीय समाज व्यवस्था का ऐसा आदर्श काल था, जिससे समाज को सदैव नयी चेतना और नयी प्रेरणा मिलती है । इस काल की समृद्ध प्रकृति और सुखी समाज व्यवस्था हजारों वर्षोंा से जन सामान्य को प्रभावित और आकर्षित करती रही है । इसलिये रामराज्य हमारा सांस्कृतिक लक्ष्य रहा है । रामचरितमानस में भारतीय समाज के गौरवशाली अतीत की मधुर स्मृतियाँ संजोयी गयी हैं । देश की श्रेष्ठ पर्यावरणीय विरासत के प्रति समाज में जागरूकता पैदा करना भी मानसकार का लक्ष्य रहा होगा । मानसकार ने यह बताने का प्रयास किया है कि रामायणकालीन भारत में समाज में पेड़-पौधो,नदी नालों, व जलाशयों के प्रति लोगों में जैव सत्ता का भाव था । यही कारण है कि प्रकृति के अवयवों जैसे - नदी, पर्वत, पेड़-पौधें, जीव-जन्तुआे सभी का व्यापक वर्णन मानस में सर्वत्र मिलता है ।
नदी पर्यावरण का प्रमुख घटक है । दुनिया की सभी प्राचीन सभ्यताआे का विकास प्राय: नदियों के तट पर हुआ था । हमारे देश में काशी, मथुरा, प्रयाग, उज्जैन और अयोध्या जैसे आध्यात्मिक नगर नदियों के तट पर स्थित है । गंगा हमारे देश में प्राचीनकाल से पूज्य रही है, गोस्वामीजी लिखते है गंगा का पवित्र जल पथ की थकान को दूर कर सुख प्रदान करने वाला हैं।
गंगा सकल मुद मूला ।
सब सुख करिन हरनि सब सूला ।।
इसलिए ईश्वर के स्वरूप श्रीरामचन्द्रजी स्वयं गंगा को प्रणाम करते हैं तथा अन्य से भी वैसा ही कराते हैं ।
उतरे राम देवसरि देखी ।
कीन्ह दंडवत हरषु विसैषी ।।
लखन सचिव सियँ किए प्रनामा ।
सबहि सहित सुखु पायउ रामा ।।
मानस में गंगा यमुना तथा संगम के चित्रण के अतिरिक्त सरयू नदी का विवरण भी है । सरयू का निर्मल जल आसपास के वायु मण्डल को भी शुद्ध किए हुए है
बहइ सुहावन त्रिविध समीरा ।
भइ सरजू अति निर्मल नीरा ।।
इसके अतिरिक्त स्थान स्थान पर सई, गोदावरी, मन्दाकिनी आदि नदियों का वर्णन रामचरितमानस में आया है उस समय की सभी नदियाँ स्वच्छ एवं पवित्र जल से परिपूर्ण थी
सरिता सब पुनीत जलु बहहीं ।
पर्वत प्रकृति के महत्वपूर्ण अवयव हैं । पर्वतराज, हिमालय भारतमाता के मुकुट के रूप में प्राचीन काल से ही प्रतिष्ठित है। हिमालय के अतिरिक्त चित्रकूट पर्वत का चित्रण रामचरितमानस में विस्तृत रूप से आया है । पर्वत पर हरियाली थी एवं वन्य जीव ऋषि मुनियों के स्वाभाविक मित्र के रूप में आश्रमों में निवास करते थे ।
जहँ जहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे ।
उचित बास हिं मधुर दीन्हें ।
चित्रकुट गिरि करहु निवासु ।
तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू ।।
सैलु सुहावन कानन चारू ।
करि केहरि मृग विहग बिहारू ।।
मानस के अरण्य काण्ड में पम्पा सरोवर का वर्णन अत्यन्त मनोहारी हैं ।
प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने से अनेक विकृतियाँ उत्पन्न होती है । प्रकृति के सानिध्य में न रहने वाले जीव जंतुआें का अस्तित्व संकटग्रस्त हो जाता है । जब श्री रामचन्द्रजी की प्रार्थना पर समुद्र ध्यान नहीं देता है, तो वे क्रोधयुक्त होकर धनुष बाण उठाते हैं जिससे समस्त जलचर व्यथित हो उठते हैं -
संधोनेउ प्रभु बिसिव कराला ।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला ।
मकर उरग झष गन अकुलाने ।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने ।।
वास्तव में प्रकृति हमें स्वाभाविक रूप से अपने उपहार देती है । कृतज्ञ भाव से बिना छेड़छाड़ किये उन्हें ग्रहण करना चाहिए। असीमित स्वार्थ विकृति उत्पन्न करता है, जो अन्तत: प्रलयकारी है । प्रकृति की इस प्रवृत्ति को समुद्र के माध्यम से मानस में अभिव्यक्ति मिली है
सागर निज मरजादा रहही ।
डारहिं रत्नहिं नर लहहीं ।।
मानसकार ने दोहे व चौपाइयों के माध्यम से हमें पर्यावरण एवं प्रकृति के विविध अवयवों से परिचित कराया है । मानस में इस काल के स्वाभाविक प्रकृति चित्रण ने मनोहारी हरी भरी धरती और वन्य-जीवन के प्रति प्रेममूलक संबंधों एवं पर्यावरण के संरक्षण में समाज के अंतिम व्यक्ति तक को भागीदार बनाये जाने का आदर्श समाज के सामने उपस्थित किया है। इस प्रकार प्रकृति के संतुलन में संस्कृति की शाश्वतता का युग संदेश हमारे लिये इस काल की महत्वपूर्ण विरासत है ।
मानसकार तुलसी ने मानस में पृथ्वी से लेकर आकाश तक सृष्टि के पाँचों तत्वों की विस्तृत चर्चा की है। भारतीय मनीषा की यह मान्यता रही है कि मनुष्य शरीर मिट्टी, अग्नि, जल, वायु और आकाश इन्हीं पाँच तत्वों से मिलकर बना है । इसका दूसरा आशय यह भी है कि प्रकृति निर्मल और पवित्र रहने पर प्राणीमात्र के लिये फलदायी और सुखदायी होती है ।
छिती जल पावक गगन समीरा ।
पंच रचित अति अधम सरीरा ।।
इस काल में पर्यावरण इतना संतुलित था कि कृषि, पशुपालन और अन्य कार्येंा में कभी कोई बाधा नहंी आती थी। इस समय समाज में धन-धान्य की किसी भी प्रकार की कमी नहीं थी । एक जगह वर्णन है :-
विंधु मय पुरखनहि रवि तप जेतनेहि काज ।
मांगत वारिद जल देत श्रीरामचंद्र के राज ।।
इस प्रकार सर्दी-गर्मी और बरसात का मौसम चक्र अपनी संतुलित गति से चलता था । उस समय में न बाढ़ का संकट था, न ही सूखे का संकट होता था इस प्रकार प्रकृति के समन्वयकारी सहयोग में समाज की स्थिति कैसी थी इस पर तुलसी लिखते हैं -
दैहिक दैविक भौतिक तापा ।
राम राज नहीं काहुहि व्यापा ।।
इस आधार पर कहा जा सकता है कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक को सुख, संतोष और आनंद उपलब्ध था अर्थात् सर्वत्र शान्तिपूर्ण मंगलमय वातावरण था । इसके साथ ही राम , लक्ष्मण और सीताजी वन में भी आनंदित और प्रसन्नचित थे । मानस में एक प्रसंग में कहा गया है कि -``वन में खाने के लिए फल हैं, सोने के लिए धरती माँ का आंचल है और धूप से बचने के लिये छाया देने वाले वृक्ष हैं , ऐसे में खड़ाऊ पहनकर चलने की क्या जरूरत है ? वहां धरती की हरी-हरी दूब नंगे पांवों को स्वत: ही सुखद लगती थी ।
बिनु पानी ही गमन,
फल भोजन, भूमि शयन तरू छांहि ।
भरत - मिलन के समय के आत्मीय क्षणों में सत्कार के लिए राम कहते हैं कि जाओ कंद मूल फूल ले आओ-
चाहिए कीन्ह भरत पहुनाई
कंद मूल फल आनहू जाई ।
अयोध्या नगरी से प्रारंभ हुई पुरूषोत्तम राम की संस्कृति चेतना यात्रा में प्रकृति का भरपूर योगदान रहा है। यह लोक जागरण यात्रा कई नदियों के किनारे विभिन्न भाषी-भाषी अनेक जातियों को जोड़ती हुई, अनेक पर्वतमालाआे और गंगा यमुना के मैदानों से गुजरती हुई विंध्याचल , दण्डकारण्य, पंचवटी, किष्किंधा और रामेश्वर होती हुई श्रीलंका पहुंचती है । इसमें लोक जीवन, लोक संस्कृति और प्रकृति के प्रसाद का त्रिवेणी संगम है । इस संस्कृति यात्रा में राज सत्ता पर लोकजीवन का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है । यहां प्रकृति के साथ पारिवारिक रिश्तों का लंबा सिलसिला चलता है । वनवास काल में पेड़, पहाड़, नदियाँ और वन्य प्राणी सभी सीता एवं राम के सहयोगी बनते हैं । ये सभी उस विराट् परिवार के सदस्य हैं , जिसके मुखिया स्वयं राम हैं । इसलिये यहाँ राम एवं सीता का सख्य भाव केवल शबरी, गिद्ध, जटायु या वानरों तक ही सीमित नहीं है वह तो सरयू, गंगा और गोदावरी जैसी नदियों, जलाशयों और वृक्षों से लेकर व्यापक वन-सौंदर्य तक फैला हुआ है ।
वन्य जीवन से जुड़े अनेक प्रसंगों का मानस में सुन्दर वर्णन है । राम जब वनवास में जा रहे थे उस समय का विवरण है कि राम के वनगमन मार्ग में अनेक पर्वत प्रदेश, घने जंगल , रम्य नदियाँ और उनके किनारों पर रमण करते हुए सारस और अन्य पक्षीगण, खिले -खिले कमल दल वाले जलाशय और उनके अपने जलचर हैं , इतना ही नहीं उनके पास ही झ्रुंड के झुंड हिरण, मदमस्त गेंडे, भैंसे और हाथी सभी मौज में घूम रहे हैं, इन्हें न तो सुरक्षा की चिंता है और न ही कोई किसी से भयभीत है । इस प्रकार का नैसर्गिक परिदृश्य राम को जगह-जगह दिखाई देता है । वृक्षों एवं वन्य जीवों के प्रति राम एवम् सीता का लगाव भी कम नहीं है । पशुआे से वे इस प्रकार का व्यवहार करते हैं मानों वे उनके परिवार के सदस्य हों। मानस में कहा गया है कि वनवास में सीताजी जंगल में हिरणों को नित्यप्रति हरी घास खिलाती थी ।
इस प्रकार अनेक प्रसंग हैं, उनमें से कुछ का प्रतीकात्मक उल्लेख किया गया जो वर्तमान में भी प्रासंगिक हैं, देखा जाय तो इन प्रसंग और संदर्भोंा की चर्चा आज ज्यादा जरूरी हो गयी है । प्रकृति प्रेमी राम को अपना आदर्श मानने वाले समाज की आज की स्थिति क्या है ? वन, उपवन और उद्यानों को छोड़ दें तो आजकल तुलसी का पौधा भी घरों से गायब होता जा रहा है । प्राय: बड़े घरों के लॉन एवम् गमलों में केक्टस दिखाई देता है । घर में भीतरी सजावट में भी ज्यादातर लोगों का प्रकृति प्रेम प्लास्टिक के फूल पत्तों के माध्यम से अभिव्यक्त होता है । अधिकतर घरों में कांच के गमलों में प्लास्टिक के फूल पौधे बैठक कक्ष की अलमारी या टी.वी. टेबल की शोभावृद्धि करते हैं । आज हम जितने सभ्य और सुसंस्कृत समाज में जी रहे हैं, उतने ही प्रकृति से दूर होते जा रहे हैं ।
यहां यह स्मरण करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि हम प्रकृति से जुड़कर ही प्रकृति पुरूष राम से जुड़ पाएेगें । क्या हमारे प्रकृतिउन्मुख क्रियाकलापों की स्थिति और उसका स्तर हमारे लोकजीवन के आदर्श श्री राम के रिश्ते को परिभाषित करने की कोई कसौटी हो सकती है ? ***

९ ज्ञान विज्ञान

सूर्य से सीधे रिचार्ज होंगे सैटेलाइट

ऊर्जा के सबसे बड़े स्त्रोत सूर्य से धरती के लिए बिजली पैदा करने की योजना पर वैज्ञानिकों ने काम शुरू कर दिया है । इसके लिए बाकायदा एक अध्ययन कर लिया गया है, जिसमेंबताया गया है कि सैटेलाइट सिस्टम के माध्मय से सौर ऊर्जा से बिजली बनाकर सीधे धरती पर भेजी जा सकेगी । अरबोंडॉलर की इस महत्वाकांक्षी योजना से बिजली की कमी से निपटा जा सकेगा । साथ ही अंतरिक्ष में मौजूदा सैटेलाइटों की विद्युत आपूर्ति भी सुचारू हो सकेगी । वैज्ञानिकों द्वारा इस संबंध में किए गए अध्ययन में कहा गया है कि अमेरिकी सेना जब अन्य देशों में जाकर युद्ध लड़ेगी तब वहाँ आने वाली बिजली की परेशानी से निपटने में सेना को इस माध्यम से मदद मिलेगी । इस ७५ पेज की रिपोर्ट में सौर ऊर्जा से बिजली पैदा करने वाली योजना को आर्थिक विकास में मददगार बताया गया है । वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि आर्बिट में इस तकनीक का प्रयोग वर्ष २०१२ तक किया जा सकेगा। वैज्ञानिक रिपोर्ट के मुताबिक इस तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए अंतरिक्ष में पेंटागन आकार के सोलर पैन लगाना होंगे, जो सैटेलाइट के माध्यम से सूर्य की किरणों को सीधे बिजली बनाकर धरती पर लगे रिसीवर में भेज सकेंगे ।

रसोई के कचरे से घर में बनाएँ बायोगैस

केले का छिलका, सब्जियों का कचरा और किचन से निकलने वाली ऐसी ही अन्य चीजों को डस्टबिन में फेंकने से पहले अब दो बार सोच लें, क्योंकि यही वेस्ट आपके लिए बायोगैस तैयार करने का काम कर सकता है । पुणे स्थित उत्कृष्ट ग्रामीण तकनीकी संस्थान (एआरटीआई) के निदेशक आनंद करवे कहते हैं कि रसोईघरों से निकलने वाले सब्जियों आदि के कचरे से घर में ही बायोगैस तैयार करने का मिनी प्लांट लोगों के बीच काफी लोकप्रिय हो रहा है । इससे अपने जरूरत के अनुसार बायोगैस तैयार की जा सकती है । इस छोटे से प्लांट के लिए एक हजार घन लीटर के दो प्लास्टिक टैंक की जरूरत है, जिनमें किचन से निकलने वाले अपशिष्ट पदार्थोंा को डाला जा सके । वे कहते हैं कि घरेलू पदार्थों से तैयार होने वाली बायोगैस मुख्यत: मीथेन और कार्बन डाइ ऑक्साइड का मिश्रण होती है और इसे सीधे इंर्धन के रूप में उपयोग किया जा सकता है । श्री करवे और उनके साथ ४० लोगों की टीम ने अब तक देशभर में तीन हजार और देश के बाहर दो हजार प्लांट लगा दिए हैं । पुणे की कई होटलों और रेस्टोरेंट में यह सिस्टम लगाने के बाद एलपीजी की खपत काफी कम हो गई है। श्री करवे कहते हैं कि सिस्टम को लगवाने में ज्यादा खर्चा भी नही आता है । मात्र छह हजार रूपये में इसे घर में लगवाया जा सकता है । श्री करवे कहते हैं कि कॉम्पेक्ट बायोगैस प्लांट तकनीक को विकसित करने में उन्हें तीन साल का समय लगा और यह पूरी तरह किचन वेस्ट पर आधारित है। रसोई से निकलने वाला कचरा गाय के गोबर से भी अच्छा मीथेन का स्त्रोत है । वे कहते हैं कि एक किलोग्राम किचन वेस्ट २४ घंटे में जितनी बायोगैस तैयार करता है उतनी ही गैस ४० किलो गोबर से तैयार होने में ४० दिनों का समय लगता है । गोबर की अपेक्षा किचन वेस्ट की क्षमता ४०० गुना ज्यादा है । श्री करवे कहते हैं कि यह छोटा सा बायोगैस संयंत्र होटलों और रेस्टोरेंट के लिए फायदे का सौदा है, क्योंकि होटलों में किचन वेस्ट सबसे ज्यादा निकलता है। इससे रेस्टोरेंट के कचरे को प्राकृतिक तरीके से नष्ट भी किया जा सकेगा और उससे बनने वाली बायोगैस का उपयोग पुन: रेस्टोरेंट में किया जा सकेगा ।
कम्प्यूटर बता देगा दवाइयों के साइड इफेक्ट

दवाइयों के साइड इफेक्ट्स का पता अब मनुष्यों पर उनके प्रयोग से पहले ही लगा लिया जाएगा । कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने ऐसा कम्प्यूटर आधारित सिस्टम तैयार किया है जो मनुष्यों पर दवाइयों के साइड इफेक्ट्स की जानकारी देगा । इससे फायदा यह होगा कि साइड इफेक्ट्स का पहले से पता लग जाने का कारण उनके फार्मूले में आवश्यक फेरबदल करना आसान हो जाएगा । यूनिवर्सिटी की टीम के प्रमुख और फार्मेकोलॉजी के प्रोफेसर फिलिप बोर्न और सेन डिएगो बोर्न और सेन डिएगो सुपर कम्प्यूटर सेंटर के ली जेई द्वारा तैयार किया गया कम्प्यूटर मॉडल किसी भी दवाई में शामिल सभी तत्वों के मॉलीक्यूल का अलग-अलग परीक्षण करता है । कम्प्यूटर सभी के त्रिआयामी हजारों स्ट्रक्चर बनाता है और उन्हें मनुष्यों के शरीर में मौजूद प्रोटीन वगैरह से क्रिया करके देखता है कि किस तत्व का शरीर के किस भाग पर नकारात्मक असर हो सकता है । ये सभी तत्वों की अलग-अलग रिपोर्ट तैयार करता है जिसका परीक्षण करके वैज्ञानिक साइड इफेक्ट्स का पता लगा सकते हैं । किसी भी नई दवाई का प्रयोग पहले चूहों या बंदरों पर करके देखा जाता है । जानवरों पर प्रयोग के बाद इन्हें मनुष्यों पर आजमाकर देखा जाता है। इसके बाद यदि कोई साइड इफेक्ट सामने आता है तब उसके फार्मूले में बदलाव किया जाता है । लेकिन अब जानवरों और मनुष्यों पर दवाई का प्रयोग करने से पहले उसे कम्प्यूटर परीक्षण से गुजरना होगा। सेन डिएगो स्थित कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों द्वारा तैयार किया गया वह कम्प्यूटर किसी नई दवाई से होने वाले हर तरह के साइड इफेक्ट के बारे में जानकारी देता है । इस परीक्षण में टेमोक्सीफेन को भी शामिल किया जा रहा है । इस दवाई का उपयोग ब्रेस्ट कैंसर के अधिकांश मामलों में किया जाता है ।
तलाक से पर्यावरण प्रभावित होता है

तलाक न सिर्फ घर को तोड़ता है बल्कि इससे पर्यावरण को भी नुकसान पहुँचता है । दुनियाभर के देशोंमें तलाक का आँकड़ा तेजी से बढ़ता जा रहा है और हर बार जब किसी परिवार में तलाक होता है तो एक घर के दो घर हो जाते हैं। यही बात पर्यावरण के लिए खतरा बनती जा रही है । मिशीगन स्टेट यूनिवर्सिटी में पर्यावरण पर तलाक के दुष्प्रभावों का अध्ययन कर रहे पारिस्थितिकी विशेषज्ञ जिआंगुओ लियू कहते हैं कि शादीशुदा व्यक्तियों की अपेक्षा तलाकशुदा व्यक्ति चाहे वह महिला हो या पुरूष संसाधनों का उपयोग उतनी दक्षता से नहीं कर पाते है। वे कहते हैं कि जब किसी दंपति में तलाक होता है तो महिला-पुरूष अलग हो जाते हैं और एक घर दो घरों में बदल जाता हैं। दोनों घरों में फिर अलग-अलग चीजों की जरूरत पड़ती है । इलेक्ट्रॉनिक से लेकर हर तरह के संसाधन दो हो जाते हैं। इसका सीधा असर पर्यावरण पर पड़ता है । लियू कहते हैं कि घर के सदस्यों की संख्या पर भी पर्यावरण की स्थिति निर्भर करती है । घर में यदि कम सदस्य है तो वे संसाधनों का उपयोग ज्यादा अच्छी तरह से नहीं कर पाते जबकि ज्यादा लोग उसी संसाधन में ठीक तरह से गुजारा कर सकते हैं । किसी घर में यदि कम सदस्य हैं तब भी उन्हें रेफ्रिजरेटर और एयर कंडीशन की जरूरत है, जबकि ज्यादा लोगों की जरूरतें भी उतनी ही क्षमता के रेफ्रिजरेटर और एयरकंडीशन में पूरी हो सकती हैं । इकोलॉजी और सोशल साइंस के बीच संबंधों पर रिसर्च कर रहे लियू कहते हैं कि उनकी खोज का पहली बार में तो लोग गलत मतलब निकाल लेते हैं, लेकिन बाद में सब समझ जाते हैं । वे उदाहरण देते हैं कि अमेरिका में वर्ष २००५ में एक करोड़ ६५ लाख घर तलाक के कारण टूट गए जबकि ६ करोड़ से ज्यादा लोग शादी के संबंध में बँधे । तलाकशुदा हर व्यक्ति ने हर महीने शादीशुदा व्यक्ति की अपेक्षा काफी ज्यादा बिजली, पानी खर्च किया । जब दो व्यक्ति घर में होते हैं तो वे टीवी, रेडियो, स्टोव से लेकर बिजली तक एक ही उपयोग करते हैं, लेकिन दो घर अलग हो जाने पर वहीं चीजें दोगुनी हो जाती हैं। उपरोक्त आँकड़ों के आधार पर देखें तो वर्ष २००५ में ६.९ बिलियन डॉलर हर साल अतिरक्ति संसाधनों पर खर्च हुआ और केवलपानी पर ही ३.६ बिलियन डॉलर अतिरिक्त खर्च हो गया । इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि तलाक के कारण पर्यावरण किस हद तक प्रभावित हो रहा है । ***

१० वातावरण

ग्लोबल वार्मिंग : जिम्मेदारी से भागता अमेरिका
जे. सकलेचा
कुछ साल पहले पर्यावरण कार्यकर्ता प्रोफेसर वांगारी एम. मथाई को शांति का नोबेल पुरस्कार दिए जारे पर उसे पर्यावरण के प्रति समर्पण का `सम्मान' निरूपित किया गया था । अब इस साल फिर यह प्रतिष्ठित सम्मान पर्यावरण के क्षैत्र को समर्पित किया गया है । यह पुरस्कार जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा गठित अंतर्राष्ट्रीय समिति (आइ्रपीसीसी) और अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अलगोर को संयुक्त रूप से देने की घोषणा की गई है । नोबेल पुरस्कार की इस घोषणा से साफ है कि जलवायु परिवर्तन, खासकर वैश्विक गर्माहट (ग्लोबल वार्मिंग) में बढ़ोतरी को लेकर दुनिया की चिंता बढ़ती जा रही है । विडंबना यह है कि जिस देश के एकपूर्व उपप्रमुख को यह पुरस्कार देने का ऐलान किया गया है , वही देश वैश्विक तापमान को बढ़ाने में सबसे आगे है । जी हां, यहां बात उसी अमरीका की हो रही है जो विश्व स्तर पर एक चौथाई ग्रीन हाउस गैस उगलकर ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में सर्वाधिक `योगदान' दे रहा है । नीम पर करेला यह कि उसने क्योटो संधि के अनुमोदन से भी इंकार करके इसकी सफलता पर ही सवालिया निशान लगा दिया है । ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने से चिंतित विश्व समुदाय ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव को कम करने के मकसद से इस संधि पर राज़ी हुआ है, लेकिन अमेरीका ने अपने `राष्ट्रहित' के नाम पर इसे पलीता लगाकर मानव जाति के कल्याण की सामूहिक वैश्विक प्रतिबद्धता की भावना को ताक पर रख दिया है । हम आगे बढ़ें, उससे पहले एक नजर क्योटो संधि पर डाल लेते हें । क्योटो प्रोटोकॉल या संधि को लेकर दिसंबर १९९७ में जापान के क्योटो शहर में वार्ताआे का क्रम शुरू हुआ था। इसी वजह से इसे `क्योटो संधि' नाम दिया गया हे । नवंबर २००४ में रूस द्वारा अनुमोदन के बाद इसके क्रियान्वयन का रास्ता साफ हो गया । यह १६ फरवरी २००५ से लागू कर दी गई । यह संधि विश्व के औद्योगिक देशों को छह ग्रीनहाउस गैसों - कार्बन डाइऑक्साईड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साईड, सल्फर हेक्साफ्लोराइड, एचएफसी और पीएफसी में एक निश्चित सीमा तक कटौती करने को आध्य करती है । इसके तहत वर्ष २०१२ तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के स्तर को १९९० के स्तर से ५.२ फीसदी कम करना है । वैसे विशेषज्ञों का मानना है कि यदि वाकई अस लक्ष्य को हासिल कर लिया जाता है प्रभावी तौर पर यह कटौती २९ फीसदी तक होगी। इस प्रकार बढ़ते वैश्विक तापमान के इस दौर में यह संधि पूरी मानव जाति के लिए वरदान साबित हो सकती है । लेकिन अड़ंगा है तो केवल अमरीका का। अमरीका ने इसका अनुमोदन करने से अंकार कर दिया। हालांकि पूर्व डेमोक्रेट राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने इस पर हस्ताक्षर किए थे लेकिन २००१ में जार्ज डब्ल्यू. बुश के राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने इसे अनुमोदन के लिए कांग्रेस में पेश नहंी किया । बुश ने संभवत: ऐसा सीनेट में इस तरह की किसी संधि के खिलाफ ९५-० से पारित एक प्रस्ताव के मद्देनजर किया था । सीनेट का कहना था कि वह ऐसी किसी `भेदभावपूर्ण' वैश्विक संधि का समर्थन नही कर सकती जो केवल औद्योगिक देशों पर बंधनकारी हो । यहां एक सवाल उठता है कि नोबेल पुरस्कार विजेता अल गौर अगर राष्ट्रपति होते तो कया वे अमरीकी संसद को ऐसी संधि के अनुमोदन के लिए मना पाते । वर्ष २३००० के राष्ट्रपति चुनाव मे बुश के ख्लिाफ अल गौर ही डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मदीवार थे और विवादास्पद मतगणना मेंबहुत ही कम अंतर से पराजित हुए थे । अल गोर दुनिया के उन चुनिंदा राजनीतिज्ञों में शामिल हैं , जो राजनीति की शतरंज पर मोहरे चलने के साथ- साथ पर्यावरण संरक्षण के प्रति भी सक्रिय रहे हैं। उप राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए वर्ष १९९४ में उन्होंने पृथ्वी दिवस के दिन विद्यार्थियों में पर्यावरण संरक्षण को लेकर जागृति पैदा करने के मकसद से `ग्लोब कार्यक्रम' शुरू किया था । उनकी चिंता के केन्द्र में ग्लोबल वार्मिंग सदैव से रहा है । वे जगह-जगह घुमकर इसके खतरों के प्रति अलख जगाते आए हैं । उनके संगठन `सेव अवरसेल्व्स' के तत्वावधान में ७ जुलाई २००७ को `लाइव अर्थ' नाम से संगीत कार्यक्रम का आयोजन किया गया था जिसमें संगीत के क्षैत्र की कई हस्तियों ने भागीदारी की थी । गोर ने क्योटो संधि की भी जोरदार पैरवी की है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि अमरीका के अन्य राजनेताआे की सोच उनकी जैसी नहीं है वे ऐसी किसी भी संधि को मानने को तैयार नहीं है जो अमरीका की अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर डाले । सवाल यह है कि कया अमरीका भी भागीदारी के बगैर क्योटो जैसी संधियों की कोई प्रासंगिकता है ? दिक्कत यह है कि अमरीका ऐसी संध्यिों को मानने को बिल्कुल तैयार नहंी है क्योंकि इसमें उसके आर्थिक हित आड़े आते हैं । अमरीका की जैसी नीति रही है, उसके चलते आगे भी उससे कोई विशेष उम्मीद नही रखी जा सकती और फिलहाल तो अमेरीका की अर्थव्यवस्था डांवाडोल चल रही है , डॉलर न्यूनतम स्तर पर है और `यूरो' के साथ संघर्षशील है , कच्च्े तेल की कीमते १०० डॉलर प्रति बैरल तक जा पहुंची है । ऐसे में अमरीका नहीं चाहेगा कि पर्यावरण संरक्षण के नाम पर उसकी अर्थव्यवस्था को कोई और धक्का लगे । लेकिन आईपीसीसी की हाल ही जारी रिपोट्र के संदर्भ में एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि आखिर अमरीका इस दुनिया में अपनी `बादशाहत' कायम करके कया पाना चाहेगा जो शायद अगले कुछ दशकों में रहने लायक भी नहीं बचेगी । आईपीसीसी ने १७ नवंबर को स्पेन के वैलेंशिया में जारी अपनी चौथी और अंतिम रिपोर्ट में कड़ी चेतावनी देते हुए कहा है कि ग्लोबल वार्मिंग की क्षतिपूर्ति नहीं हो पाएगी । इसके दुष्प्रभाव से कोई भी देश नहीं बच पाएगा । सैकड़ों वैज्ञानिकों व पर्यावरण विशेषज्ञों द्वारा तैयार इस रिपोर्ट की विश्वसनीयता असंदिग्ध है, इस पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता । शायद खुद अमरीका भी इसके निष्कर्षो से असहमति नहीं जता सकता । इसलिए इस रिपोर्ट की उपरोक्त चेतावनी से भी वह शायद ही असहमत होगा कि ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों से कोई भी देश नहीं बच सकता । यह सच है कि गरीब व विकासशील देशों को इसकी ज्यादा कीमत चुकानी होगी, लेकिन अमरीका जैसे विकसित देश भी इसके प्रभाव से अछूते नहीं रह पाएंगे । आखिर ऐसे किसी कवच का निर्माण तो अब तक अमरीका भी नहीं कर पाया है और न ही कर पाना संभव है कि बाहर पूरी दुनिया जलती रहे और वह कवच के भीतर बैठकर खुद को सुरक्षित महसूस कर सके । अंत में आईपीसीसी के अध्यक्ष डॉ. आर.के. पचौरी का यह कथन महत्वपूर्ण है जो उन्होंने अंतिम रिपोर्ट जारी करते हुए व्यक्त किया था, ``हमें अब उन मूल्यों या नैतिकता की जरूरत है जिनमें हर मानव अपनी जीवन प्रणाली व व्यवहार में बदलाव कर उस चुनौती का सामना करने के लिए कमर कस सके जो हमारे सामने पेश आ रही है ।'' क्या अमरीकी शासन इस पर ध्यान देंगे ? आखिर इस दुनिया को तपने से बचाने की जिम्मेदारी केवल मथाई, बहुगुणा, पचौरी या अल गोर की तो नहीं है ! ***

११ कविता

वनों में वसन्त
गिरधारी लाल मौर्य
आली री वसुन्धरा के वसन बसन्ती भये,
फूले तरू पात प्रीत लेली अगड़ाई है ।
गन्ध मकरन्द मिले पौन पुरूवाई चले,
कानन में मुध, ऋतु आज मुसकाई है ।
लाल-लाल टेसू फूले भृंग डाल-डाल झूले,
अम्बर में इन्द्र-चाप मानो उगि आई है ।
महुआ मदाये आम मञ्जरी गादाये सखि,
ऐसेहँू में आली `गिरधारी' सुधि आई है ।।
फूले हैं रसाल, ताल विकसे जलज वृन्द,
मन्द-मन्द मारूत अजीर में डोलै लगी ।
कुञ्ज-वन-बागन में आयो ऋतुराज सखि,
सौरभ समीर अंग-अंग में चलै लगी ।
कली मुसुकाये इतराये अली डाल-डाल
पातन छिपाये पिक राग में बोलै लगी ।
ढोल और मृदंग तान, नाहीं देत बनै कान,
`गिरधारी' फागुनी-बयार है चलै लगी ।।
दारू से सदन, तृन-पात से वसन मञ्जु,
फल-फूल मूल जन-जन को लुटाती हो ।
व्याधि जो असाधि वसुधा को कहँु घेरती जो,
मूरि बन मातु सन्जीवनी पिलाती हो ।
तीन गुन प्राकृत में कौतुकी कृपा है तेरी,
प्राण-वायु देके जीव-जन्तु को जिलाती हो ।
कहें गिरधारी, धन्य धन्य है तुम्हारी दृष्टि
सृष्टि से अनिष्ट वनदेवी तँू मिटाती हो ।।
* * *

१२ पर्यावरण समाचार

बारूद की गंध के प्रभाव से पक्षियों का पलायन
छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित दक्षिण बस्तर क्षेत्र में गोला बारूद विस्फोट की गंध से प्रवासी पक्षियों ने इस क्षेत्र को अलविदा कह दिया है और राष्ट्रीय पक्षी मोर तथा अन्य पक्षियों की चहचाहट भी अब यहां सुनाई नहीं पड़ती है । बस्तर प्रकृति बचाव समिति के संस्थापक शरद वर्मा ने बताया कि दक्षिण बस्तर क्षेत्र में जहां जमींदारी थी वहां आज भी विशाल तालाब मौजूद है । बीजापुर जिले के भोपालपट्टनम, बीजापुर, गुदमा और कुटरू में आज भी विशाल तालाब मौजूद हैं । इन इलाकों में विदेशी मेहमान पक्षी सैकड़ों की संख्या में आते थे । सैकड़ों प्रवासी पक्षी इन दिनों तिब्बत, मंगोलिया, सायबेरिया और भारत के विभिन्न राज्यों से बतख, चिड़िया जिनके पंख गहरे लाल रंग के होते थे जो यहां आकर मछली एवं हरी घांस को अपना भोजन बनाते थे । और एक समय सीमा के बाद वे वापस चले जाते थे । पिछले सालों से मेहमान पक्षियों का आना बंद हो गया है । क्योंकि इन क्षेत्रों में गोला बारूद और विस्फोट की गंध पूरे जंगल और तालाब के क्षेत्र में फैली हुई है । कभी मोर इस इलाके में बहुतायत में पाये जाते थे और घने जंगल होने के कारण अन्य पक्षियों का भी बसेरा था । अब मोर नजर नहीं आते और अन्य पक्षियों की चहचहाट सुनाई नहीं पड़ती है।
गंगा एक्सप्रेस वे से नदी के अस्तित्व पर संकट
मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त् जलयोद्धा राजेन्द्रसिंह ने कहा है कि बलिया से नोएडा तक एक हजार किलोमीटर से ज्यादा दूरी की गंगा एक्सप्रेस वे से गंगा नदी के अस्तित्व पर ही संकट पैदा हो जायेगा । श्री सिंह ने कहा कि यह परियोजना भारतीय संस्कृति व समृद्धि के विनाश का कारण बनेगी । एक्सप्रेस वे से गंगा का अस्तित्व समाप्त् हो जायेगा । भारत में नदियां वैसे भी संकट का सामना कर रही हैं । ज्यादातर नदियां सूख गयी हैं या सूखने के कगार पर हैं । देश में कोई ऐसी नदी नहीं हैं जो प्रदूषण से ग्रस्त न हो । श्री सिंह ने कहा कि गंगा एक्सप्रेस वे बन जाने से लाखों किसान अपनी उपजाऊ जमीन से हाथ धो बैठेंगे और उनकी आजीविका खतरे में पड़ जायेगी। इस एक्सप्रेस वे का फायदा कुछ पूंजीपतियों को ही मिलने जा रहा है ।