रविवार, 24 अप्रैल 2011

विश्व वसुंधरा दिवस पर विशेष


क्यों अनमनी है वसुंधरा
डॉ.सुनील कुमार अग्रवाल

हमारी वसुधा, रत्ना, सुवर्ण, जल, प्रजापति की कन्या । देवताआें के गण की अधिपति, जिसके आठ भेद है - धर, धु्रव, सोम, विष्णु, अनिल, अनल , प्रत्यूष और प्रभास । ऐसी वसुधा अपनी उर्वरा गोद में समस्त जीवों वनस्पतियों को एक स्थान पर समेटने का उद्यम करती है । कुबेर, शिव, सूर्य, वृक्ष, साधु आदि उसके सहायक है । धरती, सविता से छिटक कर अग्नि पुष्प सी प्रकट हुई और घूमने लगी अपनी धुरि पर और प्रदक्षिणा करने लगी अपने जनक आदित्य की । वसुधा अपनी समस्त शक्तियों के साथ अग्नि पुष्प से हिम पुष्प बनी किन्तु फिर भी अग्नि गर्भा ही रही क्योंकि उसे पकाने थे बीज, अन्न और धन- धान्य ताकि धरती पर पोषण क्रम चलता रहे अनवरत, अविराम । ऐसी मातृवत्सला वसुधा आज आकुल - व्याकुल है । प्रश्न यह है कि क्यों अनमनी है वसुधा?
हम अब धरती पर भार बनते जा रहे है और भय का वातावरण बना रहे है। आज नृतत्व, पार्थिव तत्व पर हावी हो रहा है जिससे धरती बेहाल है, प्रकृति लाचार है, पर्यावरण छीज रहा है और आदमी चीख रहा है । हम जीवन यापन का जो ढंग एवं जीवन शैली अपना रह है वह जीवनाधारी परितंत्र को तहस - नहस कर रहा है । नदियां आँसू बहा रही है, निर्वृक्ष हो रहे है वन, क्षत-विक्षत हो रहे है पर्वत, और टूट रहे है दृढ़ता के अनुबंध । आखिर हमारी धरती कब तक भार उठायेगी ।
तृण विहीन धरती अग्नि तपन से अकुलाएगी । जरा ठिठके, जरा विचारें कि आभारी रहते हुए हम धरती का भार तो नहीं बनते जा रहे है ? कहीं हमनें अपनी धरती के खिलाफ ही तो अघोषित युद्ध नहीं छेड़ दिया है ? क्या हमारी धरती हमारी ही हिंसक प्रवृत्तियों से मर रही है। तमाम प्रश्न प्रतिप्रश्न है । हमें अपनी धरती को बचाना है तो चिंतन करना ही होगा, संभलना ही होगा, वर्ना कैसे बचेगी वसुधा ? और कैसे हमारी उदर पूर्ति हेतु अनवरत मिलेगा वसुधान ? क्या सही दिशा में चल रही है हमारा अन्वेषण - अनुसंधान ?
प्रकृति पर विजय पाने की लालसा में हमनें अनेक अविष्कार किये, भौतिक विकास की शीर्षता पाने से पूर्व ही प्राकृतिक आपदाआें ने हमें फिर धरती पर ला पटका । सच तो यह है कि हमने वसंुधरा के तन को बुरी तरह नौच कर तृण विहीन और मलिन कर डाला है । जैव विविधता खतरे में है । तमाम पशु- पक्षी, पेड़ - पौधे, जड़ी बूटियाँ लुप्त् हो चुके हैअथवा लुप्त् प्राय है । मनुष्य भी आपदाआें से अभिशप्त् एवं व्याधि ग्रस्त है । हमनें भूमि को सेहत को खराब किया है । कुप्रबंध के कारण २५ से ५० प्रतिशत भूमि बेजान हो चुकी है । भूक्षरण में वृद्धि हुई है । खेती के परम्परागत तरीकों को छोड़कर हमने जो उन्नत तकनीक अपनाई है उससे धरती की उर्वरा शक्ति में और भी कमी आई है । विश्व में मरूस्थल बढ़ रहा है ।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार प्रति मिनट ४७ हेक्टेयर भूमि रेगिस्तान में बदल रही है । हमने पृथ्वी पर ऐसे उपक्रम रच डाले है कि वह दर्द से बेहाल है । दरअसल हम पृथ्वी की जीवनदायिनी ममता का परिहास उड़ रहे है । पृथ्वी के खिलाफ ही जंग कर रहे है । इस जंग की जड़ें हमारी अर्थव्यवस्था में है जो कि पर्यावरण और नैतिकता का सम्मान नहीं कर रही है । हमारी रीतियाँ और नीतियाँ, असमानता, अन्याय और लालच पर टिकी है । इन नीतियों से मिलने वाली खुशी टिकाऊ हर्गिज नहीं हो सकती है । इम इस तथ्य को भी भूल रहे हैं कि दुनिया में हर चीज बिकाऊ नहीं होती । वसुधा तो हमारा हर भार सहकर हम पर अपनी ममता लुटाती है । तृण-तृण से स्वयं बिंध कर हमारा भरण - पोषण करती है । किन्तु हमने पृथ्वी के खिलाफ ही बाजार खड़ा कर दिया है । क्या सरेआम ही लुटवा देगें वसुधा की अस्मिता ? यह विचारणीय प्रश्न है ।
हमारे जल जंगल जमीन पर, हमारे जीन (पित्रेक), कोशिका और हर अंग प्रत्यंग पर, हमारी जैव विविधता और सुगंध पर कौन रख रहा है अपना क्रूर पंजा और कर रहा है हमारी निजता को दर किनार ? कौन हमारे दिल - ओ - दिमाग पर जमाता जा रहा है अपना कब्जा ? क्यों हल - कुदाल बनाने वाले हाथ बना रहे है हथियार? क्यों हम उन रसायनों के प्रयोग पर सावधानी नहीं वर्तते जो हमारे भोजन को जहरीला कर रही है । हम धरती के साथ खिलवाड़ कर रहे है । हम बिना सोचे विचारें वह प्रविधियाँ अपनाते जा रहे है जो हमेें अंतत: नुकसान पहुँचा रही है । हमने संसाधनों को केवल लूटा है । उन्हें सहेजने का कोई भी कारगर प्रयास ईमानदारी से नहीं किया है । जब प्रकृति का सबकुछ लुट जायेगा । तब आदमी को होश आयेगा । और तब आदमी किसी अन्य को नहींवरन स्वयं अपने को लुटा पिटा जायेगा। हम करनी - भरनी का भाव भूल रहे है । हम जैसा बोएगें वैसा ही तो काटेंगे । हम जो कुछ देंगे वही तो पाएंगे ।
हम भौतिक रूप से जितने समृद्ध हो रहे है, सांस्कृतिक, नैतिक एवं पर्यावरणीय दृष्टि से उतने ही निर्बल एवं निर्धन हो रहे है । हम उस आधार को ही खो रहे है जहाँ हम आज भी खड़े है । हम यह भूल रहे है कि हम धरती का अन्न खाकर, पानी पीकर और प्राण वायु का सेवन कर ही जिन्दा है । दाल रोटी खाओ प्रभु का गुन गाओ यह भरे पेट की संतोषपूर्ण अभिव्यक्ति है किन्तु अब तो दाल रोटी भी दुर हुई जा रही है । चारों और पसरने लगी है भूख । हाय महंगाई तू कहाँ से आई यकीन मानिए यह मँहगाई कहीं ओर से नहीं आई । हमने ही अपने हाथों से आग लगाई और अब महसूस कर रहे है उसकी तपन । और सियासतदान भी मँहगाई रोकने के प्रति प्रकट कर हरे है अपनी लाचारी । ऐसे में बेचारी जनता कहाँ गुहार लगाए ? यह वैचारिक प्रश्न है ।
हमारी नीतियाँ ही ऐसी है कि कृषि और कृषक दोनों ही आहत है । धरती से उत्पादन घट रहा है। कृषि लागत बढ़ी है । इसका संबंध कृषि के बदलते स्वरूप और उसमें ऊर्जा या उर्वरकों के प्रािप्त् हेतु पेट्रोलियम पदार्थो पर बढ़ती निर्भरता भी है । खेती में जुताई, गुड़ाई निराई, कटनी, दौनी (थ्रेसिंग) आदि कार्यो में मशीनों का प्रयोग बढ़ा है जिनमें ऊर्जा हेतु पेट्रोलियम पदार्थ इस्तेमाल होते है । एक तथ्य और है कि प्राकृतिक तेल के स्त्रोत घटने की चिंता से उबरने के लिए मक्का गन्ना या अन्य उपज से एथनोल पैदा किया जा रहा है । जेट्रोफा से डीजल बनाया जा रहा है अत: खेतों में खाद्यान्न की जगह जेट्रोफा उगाया जा रहा है । इसमें रकबा घट रहा है । और खाद्यान्न की उपलब्धता पर दबाव बनता जा रहा है । स्वाद के लिए आदमी माँस खा रहा है । माँस के उत्पादन हेतु दस गुना अधिक अन्न की खपत होती है । बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के दबाव में लिए गए निर्णय भी आत्मघाती सिद्ध हो रहे है । और हम सो रहे हैं ।
कृषि क्षेत्रों की लगातार उपेक्षा हो रही है । उर्वरक एवं कीटनाशी के रूप में मानों धरती के साथ रासयनिक युद्ध छेड़ दिया हो । पारंपरिक बीजों के स्थान पर हमारी धरती की माटी और जलवायु के लिए अनुपयुक्त हाइब्रिड बीज किसानों को दिये जा रहे है । जो बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा आयतित है । यह बीज हमारी धरती के लिए माफिक तथा मुफीद नहीं हैं । कृषि प्रधान देश भारत की अपनी घाघ भडडरी की कहावतों को भूल हर हजारों करोड़ रूपया खर्च कर के हम उन विदेशी विशेषज्ञों से अपने किसानों को रू-ब-रू करा रहे है । जो विदेशी कम्पनियों के एजेन्ट है और भारतीय कृषि व्यवस्था को चौतरफा चौपट करने का षडयंत्र रच रहे है ।
समाचार है कि भारत सरकार ने अमेरिका से कृषि क्षेत्र में अनुसंधान हेतु बड़ा समझौता किया है । बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के यह एजेन्ट भारत में अपने हित साध्य ज्ञान को बाँटेगे । भारत के किसानों को अपने प्राच्य समुन्नत ज्ञान से दुर ले जाकर उन्हें अपनी जड़ों से काटेंगे । यूूं भी अमेरिका तथा यूरोपियन देशों का यही प्रयास तो सदा से रहा है कि भारत में कृषि की कमर टूटे, लागत बढ़े । ताकि भारत उसका मोहताज हो जाये । ताकि अपने यहां उत्पादित अखाद्य अनुपयुक्त खाद्यान्न को भारत में खपाया जाये । हमने औद्योगिकीकरण को वरीयता दी । कृषि के प्रति उपेक्षा का भाव रखा । यही कारण है कि अब जरूरी चीजों के भाव सातवें आसमान पर है । असमान वितरण भी महंगाई का बड़ा कारण है । बढ़ती आबादी ओर जमाखोरी का जोर भी है । कृषि तकनीक अब स्वनिर्भरा नहीं रही परम्परागत हल और बैल की जोड़ी को हम कभी का खेतों से हटा चुके है । कृषि के प्रति कृषकों का मोहभंग हुआ है । हमारे संज्ञान में अब मशीन ही मशीन है ।
हम यह तथ्य भूल रहे है कि देश में कृषि कर्म रोजगार देता है । रोजगार का दो तिहाई हिस्सा कृषि एवं कृषि आधारित प्रौद्योगिकी से जुड़ा है । अत: इस ओर भी सजगता जरूरी है । कि हम विकास अवश्य करें किन्तु कृषि को न नकारें । कहने का भाव यह है कि हमें अपनी वसुधानी- वसुधा में परिव्याप्त् प्रकृति तत्वों का सम्मान करना चाहिए तथा पृथ्वी से लगाव रखना चाहिए । प्रसिद्ध कवि त्रिलोचन की काव्य पंक्तियों में कहा गया है कि -
पृथ्वी मेरा घर है ,अपने इस घर को अच्छी तरह से मैं नहीं जानता
हाथों में वायु है आँखों में आकाश
सूरज की आभा को देखता हूँ
तारे सब सहचर है मेरे
पेड़ अपनी उंगलियों टहनियों को
हिला- हिलाकर मुझे बुलाते हैं
कानों में कहते है
आओ ... आओ यहां मेरे पास
बैठो जरा सुस्ताओ .....
***

1 टिप्पणी:

http://kavyalya.aimoo.com ने कहा…

pnice sharing
==================

Visit http://kavyalya.aimoo.com for poetry, stories, recipes, spiritual knowledge, jokes, shayari, literature, education and career information, bollywood & hollywood movies, full version softwares & games for pc & mobiles and much more in hindi, punjabi & english