मंगलवार, 24 जनवरी 2012

प्रदेश चर्चा

म.प्र. : संख्या और गुणवत्ता में उलझी शिक्षा
राजेन्द्र जोशी

देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू हो जाने के बाद बच्चों को विद्यालय पंहुचाने की होड़ में राज्य सरकारें यह भूल गई है कि शिक्षा में गुणवत्ता का भी स्थान होता है । आवश्यकता इस बात की है कि शिक्षण कार्य और शिक्षक दोनों को सम्मान की नजर से देखा जाए और अस्थायी शिक्षकों की भर्ती पर अविलंब रोक लगाई जाए ।
मध्यप्रदेश और केन्द्र सरकार द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों के शासकीय विद्यालयों में शिक्षा के प्रसार के लिए बड़े स्तर पर प्रयास किये जा रहे हैं । शिक्षा के लिए धन की कमी न हो इसलिए केन्द्र सरकार द्वारा आयकर पर शिक्षा उपकर लगाया गया है । विद्यार्थियों को उपलब्ध सुविधाआें में इजाफा भी किया गया है । लेकिन, ऐसा लगता नहीं है कि इन सुविधाआें के कारण शिक्षा के स्तर में सुधार हो रहा है । सरकारी दावे महज कागजी आँकड़े बन कर रह गए हैं । यह भविष्य के लिये सुखद संकेत नहीं है ।
गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए प्रदेश व देश में हर वर्ष नित नई योजनाएँ लाई जा रही हैं । इसी के चलते पिछले कई सालों में कई योजनाएं सामने आई हैं जैसे छात्रवृत्ति के साथ ही मध्यान्ह भोजन, नि:शुल्क पाठयपुस्तकें, नि:शुल्क गणवेश और सायकल प्रदाय ।
इन योजनाआें के क्रियान्वयन से लगता है मानोंबच्चों के विद्यालयों में दाखिले का प्रतिशत बढ़कर शत प्रतिशत हो गया होगा । शिक्षा के स्तर में तेजी से सुधार आ रहा होगा । यदि आँकड़ों पर गौर करें तो यह एकदम सही है । लेकिन ईमानदारी से वास्तविक मूल्यांकन किया जाए तो नीचे से ऊपर तक के कई कर्मचारी और अधिकारी नौकरी से हाथ धो बैठेगें ।
प्रदेश के लगभग हर जिले में शिक्षकों की कमी है । इस कमी की पूर्ति अतिथि शिक्षकों के द्वारा किए जाने के प्रयास किए गए हैं । उसके बावजूद योग्य अतिथि शिक्षकोंका बेहद अभाव है । दिहाड़ी मजदूरी से भी कम वेतन में योग्य लोग मिलना मुश्किल है । इस कारण इनकी नियुक्ति में योग्यता से समझौता किया जाता है । विज्ञान और गणित जैसे विषयों के लिए तो योग्य शिक्षकों की अत्यधिक कमी है । दूसरी समस्या इन अतिथि शिक्षकों की उपस्थिति है । सड़क पहुंच वाले गाँवों के विद्यालयों के लिए तो ये अतिथि शिक्षक मिल भी जाते हैं लेकिन, अन्दर के पहुँच विहीन गाँवों में नियुक्त होने के बाद भी ये वहां पर जाना पंसद नहीं करते । इन अतिथि शिक्षकों की अपने काम के प्रति लगाव में कमी का एक बड़ा कारण इन्हें दिया जाने अल्प मानदेय भी है ।
ऐसी स्थिति में सरकार के प्रयास मात्र खाना पूर्ति से अधिक कुछ नजर नहीं आ रहे हैं । नई शालाएँ खोली जा रही है, पूर्व से संचालित शालाआें को प्रोन्नत किया जा रहा है। प्रत्येक जिले में हर वर्ष जनप्रतिनिधियों की माँग पर शालाआें को प्रोन्नत कर उच्चतर माध्यमिक का दर्जा दिया जा रहा है । जबकि पूर्व की संस्थाआें में ही शिक्षकों की कमी है, तो प्रोन्नति होने के बाद शिक्षक कहाँ से आयेगें ? हकीकत में कई माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में प्राचार्य तक नहीं है और इनकी जिम्मेदारी संविदा शिक्षकों को उठानी पड़ रही है, जो प्रभारी प्राचार्य होने के साथ ही लिपिक और अध्यापन का कार्य भी सम्पादित कर रहे है ।
ऐसी स्थिति में शिक्षा क्षेत्र में गुणवत्ता आएगी कहाँ से ? वास्तव में होना यह चाहिए कि शासकीय विद्यालयों में जब तक शिक्षकों की पूर्ति न हो जाये तब तक नये विद्यालय खोलने या विद्यालयों प्रोन्नत करने पर रोक लगाई जानी चाहिए ।
दूसरी ओर सरकारी फरमान जारी किया गया कि शासकीय विद्यालयों में पहली कक्षा से आठवीं कक्षा तक अध्ययनरत विद्यार्थी अनुतीर्ण नहीं होने चाहिये यानी परिणाम शत प्रतिशत होना चाहिए । इस प्रावधान ने शिक्षकों की अध्यापन और विद्यार्थियों की पढ़ाई में रूचि कम की है ।
ग्रामीण क्षेत्रों में इस प्रावधान के दुष्परिणाम अब दिखाई देने लगे हैं, कक्षा ८वीं उत्तीर्ण करने वाले कई विद्यार्थियों को अभी भी ठीक से लिखना-पढ़ना तक नहीं आता है । ऐसे विद्यार्थि न सिर्फ आगे की कक्षाआें में असफल होते हैं, साथ ही कक्षा ९वीं में लगातार दो साल अनुत्तीर्ण होने नर विद्यालय से निकाल दिए जाते हैं साथ ही वे निराशा में पढ़ाई ही छोड़ देते हैं । ड्राप-आउट विद्यार्थियों की संख्या बढ़ती जा रही है, पता नहीं इन परिणामों से नीतियाँ बनाने वाले शिक्षाशास्त्री और उच्चाधिकारी अवगत है या नहीं ?
वहींे दूसरी और नाममात्र के साधनों और अल्प वेतन देकर शिक्षकीय कार्य प्रारम्भ करने वाले निजी शिक्षण संस्थान दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रहे है । इन विद्यालयों में साल दर साल जहां विद्यार्थियों की संख्या और साधन बढ़ रहे हैं वही संचालको का आर्थिक प्रगति का ग्राफ भी लगातार ऊपर जा रहा है ।

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