बुधवार, 25 जनवरी 2012

पर्यावरण डाइजेस्ट - २

पर्यावरण डाइजेस्ट की रजत जंयती
डॉ. शिवगोपाल मिश्र

हिन्दी में विज्ञान पत्रिकाआें की कमी अखरने वाली रही हैं । लगभग १०० वर्ष पूर्व जब प्रयाग से विज्ञान नामक मासिक पत्रिका निकली तो सारी हिन्दी प्रदेशों ने जमकर प्रशंसा की । किन्तु उस पत्रिका का कलेवर अनाकर्षक था और ग्राहक भी थोड़े थे। विज्ञान वालों की सबसे बड़ी कमी यही है कि हम किसी पत्रिका के निकलने पर हर्ष तो व्यक्त करते हैं किन्तु उसके ग्राहक बनकर उसका निरन्तर अनुशीलन नहीं कर पाते है । यही कारण है कि कुछेक पत्रिकाएँ प्रारम्भिक कुछ अंक निकालने के बाद गुल हो जाती हैं। मात्र सम्पादक के उत्साह तथा प्रयास से अब कोई पत्रिका दीर्घजीवी नहीं बन सकती ।
मुझे स्मरण है विज्ञान पत्रिका में पर्यावरण तथा प्रदूषण विषयक लेखों का प्रकाशन १९७० मेें शुरू हुआ तब से हर वर्ष उसके पर्यावरण विशेषांक निकलते रहे हैं और इन अंकों की स्थानीय बिक्री में हमेशा इजाफा होता रहा है ।

पर्यावरण ऐसा विषय है जिस पर देश के हर प्रदेश से कम से कम एक विज्ञान पत्रिका अवश्य प्रकाशित होनी चाहिए । पर्यावरण विषय से सम्प्रति तीन पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं - पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (भारत सरकार) द्वारा प्रकाशित पर्यावरण राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी) नागपुर द्वारा प्रकाशित पर्यावरण पत्रिका तथा समन्वय प्रकाशन, रतलाम (म.प्र.) से प्रकाशित पर्यावरण डाइजेस्ट । इधर कुछ वर्षो से चरखी दादरी, हरियाणा द्वारा एक नई पत्रिका पर्यावरण संजीवनी का प्रकाशन प्रांरभ हुआ है ।
यह प्रश्न सहज ही उठता है कि क्या अन्य हिन्दी प्रदेशों को पर्यावरण की चिन्ता नहीं है ? यदि है तो वे मौन क्यों हैं ? पर्यावरण ऐसी समस्या है जिसके सभी पक्षों पर निरन्तर शोध कार्य चलना चाहिए और परिणामों का प्रकाशन जनता के लाभार्थ किया जाना चाहिए । मात्र गंगा यमुना की सफाई, मैंग्रोवों के बचाव, जलवायु परिवर्तन, हरितगृह गैसें जैसी मुख्य घटनाआें पर ही विचार मंथन न होकर स्थानीय समस्याआें के निराकरण की दिशा में आगे बढ़ने की आवश्यकता है । बाढ़ें, बड़े-बड़े बॉध, गाजर घास, भूमि जल में फ्लोराइड, सेलेनियत की उपस्थिति, स्थानीय अपंगता, पशु-पक्षियों का लौप कीटनाशी अवशेष, जैव-कृषि, वर्मीकल्चर, टिशूकल्चर, ड्रिप सिंचाई पवन चक्कियाँ सौर चूल्हें, गोबर गैस आदि ऐसे विषय हैं जिनकी जानकारी जन-जन तक पहुंचनी चाहिए । स्पष्ट है कि ऐसी जानकारी केवल मासिक पत्रिकाआें के द्वारा ही संभव है ।
हमें यह बताते हुए हर्ष हो रहा है कि पर्यावरण डाइजेस्ट ऐसी एकमात्र मासिक पत्रिका है जो विगत २५ वर्षो से रतलाम से छपकर समस्त हिन्दी प्रदेशों में छा चुकी है । हमें इसके सम्पादक को बधाई देनी चाहिए जो पर्यावरण विषयक सामग्री का चयन, संकलन एवं लेखन कराकर उसे ऐसी सरल भाषा में प्रस्तुत करतें हैं कि जन सामान्य भी लाभान्वित हो सके ।
पर्यावरण डाइजेस्ट के वर्तमान सम्पादक डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित हैं जिनकी कार्यनिष्ठा से मैं अवगत हॅू । उनकी पत्रिका का आकार छोटा है, पृष्ठ संख्या ४८ रहती है, किन्तु मासिक प्रकाशन होने से समसामयिक विषयों एवं घटनाआें को इसमें बिना भेदभाव के स्थान दिया जाता है । इसके सम्पादक जिन विज्ञान पत्रिकाआें में पर्यावरण विषयक सामग्री छपी मिलती है उसे नि:संकोच उदधृत करके अपनी विशाल हृदयता का परिचय देते हैं । कभी-कभी इसमें स्वास्थ्य संबंधी उपयोगी लेख रहते हैं और सामयिक राजनीतिक चर्चा भी रहती है । इसमें चित्रों का अभाव रहता है । इसके लेखक मध्यप्रदेश तक ही सीमित न रहकर उत्तप्रदेश तथा दिल्ली मेंे भी रहते हैं । मुझे यह ज्ञात नहीं है कि लेखकों को पारिश्रमिक दिये जाने की व्यवस्था है या नहीं किन्तु लेखों को जिस त्वरा से प्रकाशित कर दिया जाता है उससे लेखक प्रसन्नचित्त रहते हैं और पाठकों को विविधता पूर्ण सामग्री पढ़ने को मिल जाती है । यदि विज्ञापनदाता इसमें अधिकाधिक विज्ञापन दें तो २५ वर्ष के बाद इसके कलेवर में वांछित सुधार संभव है ।
मैं एक विज्ञान पत्रिका का सम्पादक होने के नाते पर्यावरण डाइजेस्ट के दीर्घजीवन की आकांक्षा करता हॅू और चाहूंगा कि भविष्य में यह पत्रिका संस्थापक सम्पादक डॉ. सिंह के सरंक्षण में नई सज्जा से सबको सम्मोहित करें ।

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