बैंगन की छांव में चिंतन
अरूण डिके
भारतीय पारम्परिक कृषि में अन्तर्निहित संभावनाआें को खोजे बगैर विदेशी व हानिकारक विदेशी बीजों, रासायनिक खादों एवं कीटनाशकों के प्रति हमारे कृषि वैज्ञानिकों का आग्रह उनकी हठधर्मिता ही दर्शा रहा है । बैंगन के पौधे को २८ फीट से भी ऊँचे एक वृक्ष में परिवर्तित कर हमारे एक सीमांत किसान ने हम सबके सामने एक उदाहरण प्रस्तुत किया है । क्या हम सब इससे कोई सबक लेंगे ?
महाराष्ट्र के सावंतवाड़ी के एक युवा कृषक भगवान बोवलेकर ने २८.५ फुट ऊंचे वृक्ष से ४ क्विंटल बैंगन की फसल लेकर बी.टी. बैंगन का प्रचार करने वालों के मुंह पर ताला जड़ दिया है । इस प्रक्रिया में महाराष्ट्र के इस युवा कृषक ने बैंगन के एक वृक्ष से ५०० ग्राम वजन के ८५७ बैंगन पैदा कर लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी अपना नाम दर्ज करा लिया है । उनका यह अजूबा देखने इस्तांबुल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, स्वीडन, कतर और स्पेन के कृषि वैज्ञानिक भी पहुंचे थे । भगवान का उद्देश्य केवल रिकार्ड के लिए उत्पादन नहीं था बल्कि जैविक खेती का प्रचार करना भी था । इस वृक्ष में १७ विभिन्न वनस्पतियों के रस भी डाले थे ।
वह शीघ्र ही इसका पेटेंट भी करा रहे हैं । वैसे सन् २००८ में उनके द्वारा उगाए बैंगन की ऊंचाई थी ३५ फुट । उन्होंने इस संदर्भ में अखबारों में विज्ञापन छपवाए व कई लोगों को बताया लेकिन किसी ने भी उन्हें प्रोत्साहित नहीं किया । लेकिन भगवान ने जिद नहीं छोड़ी । २ साल बाद उनके द्वारा लगाए गए बैंगन की ऊंचाई २८.५ फुट ही थी । तब उन्हें पता चला कि विश्व का सबसे ऊँचा बैंगन वृक्ष २१.१ फुट ही दर्ज हुआ है ।
हाल ही देवास जिले के नेमावर गांव में नर्मदा के किनारे मालपानी ट्रस्ट के दीपक सचदे ने ४०० नारियल लदा पेड़ भी प्राकृतिक खेती से खड़ा किया था । दो-दो एकड़ में फैले बरगद के पेड़ तो आपको कई जगह मिल जाएंगे ।
यह सब बताने का एकमात्र उद्देश्य केवल यही है कि हमारी मिट्टी और गाय के गोबर मेंइतनी ताकत है कि वे आपको मनचाहा अन्न पैदा करके दे सकते हैं । यह समझ में नहीं आता कि इस अभिनव प्राकृतिक खेती को छोड़, हमारे राजनेता और प्रौद्योगिकी से उगाई गई फसलों के पीछे लालायित हैंं बगैर किसी भी रसायन के प्राकृतिेक खेती से रिकार्ड उत्पादन लेने वाले लाखों किसान भी हमारे यहां मिल जाएंगे । उनके इन मौन उद्यमों को अंधेरे में रखकर तथा जनमानस में भारत की पिछड़ी खेती का भ्रम फैलाने वालों के खिलाफ संवेदनशील नागरिकों को अब सचेत हो जाना चाहिए ।
बरसों पहले तीसरी दुनिया की प्रगत खेती पर शोध करने वाले लंदन के स्कूल फॉर डेवलपमेंटल स्टडीज के तीन युवकों ने भारत के अलग-अलग प्रांतों में प्रगत खेती करने वाले उद्यमीकिसानों पर फॉरर्म्स फर्स्ट नाम की किताब लिखी थी । सैंकड़ों उदाहरण देकर उन्होंने सिद्ध किया था कि भारत में किसान ही सबसे बड़े अनुसंधानकर्ता हैं । ये लोग विपदाआें से लड़कर नई-नई चीजें खेतों में इजाद कर लेते हैं । उदाहरण के लिए चावल की कुछ किस्में जो कृषि वैज्ञानिकों ने कालबाध्य कर दी थीं उन्हें किसानों ने फिर से उगाकर लोकप्रिय बना दिया था । उसी प्रकार पंजाब और हरियाणा के किसानों ने गेहूं की फसल के लिए बताए गए खरपतवारनाशक रसायनों के छिड़काव को महंगा औस उबाऊ बताकर उस रसायन को रेती में मिलाकर दानेदान खरपतवारनाशक के नाम से प्रचारित किया और वह चल पड़ा । इतिहास साक्षी है कि इन दानेदार खरपतवारनाशक को पहले किसी भी अनुसंधान केन्द्र ने परखा नहीं था । यह सिद्ध करता है कि हमारे अनुसंधानकर्ता किस तरह आम किसानों से कटे हुए हैं और लोक परम्पराआें से निकले अनुसंधान को स्वीकारने में किस तरह हिचकिचाते हैं ।
खेती को गरीबों के लिए अन्न नहीं बल्कि मुनाफा पैदा करने वाला उद्योग मानकर मानसटोंे, कारगिल, वालमार्ट, सिंजेटा और बायर जैसी बहुराष्ट्रीय निगमों की गिद्ध दृष्टि अब भारत की खेती पर पड़ी हैं । हमारे शासकों के सामने आई.टी. की थाली परोसकर भारत के खेतो में बी.टी. जैसे प़्रौद्योगिकी बीज फैलाने वाली इन महाकाय शक्तियों के खिलाफ तो स्वयं ही अमेरिका के संवेदनशील और जिम्मेदार नागरिकों ने भी कमर कस ली है । इन संगठनों ने सैकड़ों किताबों, मासिक पत्रिकाआें और फिल्मों के माध्यम से संसार के संवेदनशील नागरिकों को चेताया हैं । आज ये संगठन वहीं कर रहे हैं जो कभी भारत का गौरवशाली अतीत रहा था ।
उदाहरण के भोजन का हर कौर बत्तीस बार चबाकर धीमा भोजन करो कहने वाली हमारी दादी मां का नुस्खा अब अमेरिका में प्रचलित हो चला है । पांच हजार से ज्यादा सीमांत कृषकों द्वारा चलाया जा रहा धीमा भोजन अभियान (स्लो फूड) अब १३० देशों मेें फैल चुका है । धरती माँ की तरह वहां भी अब टैरा मैडरे अभियान प्राकृतिक खेती की सिफारिश कर रहा है । अमेरिका में पाश्च्युराइज्ड दूध की थैलियों की जगह कच्चा दूध (रॉ मिल्क) मांगा जाने लगा है । फर्क सिर्फ इतना ही है कि वहां इसके लिए डॉक्टर की पर्ची लगती है ।
आज अमेरिका व इंग्लैंड की थालियों में परोसे जाने वाला भोजन औसतन प्रतिदिन डेढ़ से दो हजार किलो मीटर यात्रा करके आता है । वहां किसानों की जेब में एक रूपए का केवल १९वां भाग ही जाता है । बाकी का बिचौलिए, व्यापारी, परिवहन वाले और विज्ञापनदाता चाट जाते हैं । अब वहां भी स्थानीय खाद्यान्न और सब्जियों की मांग बढ़ रही है । अमेरिका के बड़े शहरों में छोटे-छोटे प्लॉट किराये पर लेकर वहां के जिम्मेदार नागरिक अपनी खुद की जैविक सब्जी उगाने को तत्पर हैं ।
अमेरिका का यू.सी.एस. (यूनियन ऑफ कन्सर्ड साइंटिस्ट) भी सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ एकजुट होकर सरकार के कान एंेठता रहता है ।
क्या हम उम्मीद करें कि कृषि प्रधान भारत के कृषि वैज्ञानिक भी जी हुजूरी से बचकर और बेवजह के डर के खोल से बाहर निकलकर किसानों के और अन्तत: देश के हित में इस पर्यावरण नाशक खेती का विरोध करेंगे ?
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