गांधी जंयती पर विशेष
चरखा और करघा
रमेश थानवी
कबीर और गंाधी के समयकाल मे करीब पांच शताब्दियोंका अंतर है । लेकिन दोनों ने जिस अंतिम व्यक्ति के हित के लिए कार्य किया वह आज भी वंचित जीवन जी रहा है । कबीर के करघे और गांधी के चरखे की आवाज इतनी मधुर है कि कर्कश आवाजोंके आदि हो चले हमारे कान शायद उस मधुरता का रसास्वादन करने लायक ही नहीं बचे हैं । इन विषम परिस्थितियों में भी कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक कहीं कहीं ये स्वर आज भी मौजूद हैं और भरोसा दिलाते हैं कि कबीर और गांधी वैचारिक परम्परा अनंत तक प्रवाहित रहेगी ।
कबीर करघे पर कपड़ा बुनते थे । झीनीझीनी चदरिया बुनते थे । ऐसे जतन से बुनते थे कि कोई उसे ओढ़े पर मैली ना करे । झीनी भी इसलिए बुनते थे कि उनकी बुनी चदरिया किसी के तन पर बोझ ना बने और जब चाहे तब छोड़ दे, उतार दे और पार उतर जाए ।
कबीर के इस करघे में जो ताने-बाने थे, वे उनकी साधना से बने थे । साधना के साथ उनके तप से बने थे और तप के साथ उनके त्याग से बने थे । घर में लाख तंगी हो मगर कबीर के करघे से उतरा हुआ कपड़ा सिर्फ ऐसे ही दामों में बिकता था कि हर गरीब उसे ओढ़ सके, पहन सके । कबीर को मुफलिसी में रहना मंजूर था मगर मुनाफे की रोटी खाना गवारा नहीं था ।
कबीर के इस करघे का तप था कि वह जन-जन का तन ढकता था । कबीर का अपना तन भले अधढका, अधनंगा रहे, मगर कबीर को चिंता औरों की थी । लोक की थी और लोक-लाज की थी ।
कबीर के इस करघे का ताना-बाना कथनी और करनी के मेलमिलाप से बना था । वहां कथनी और करनी में कोई भेद नहीं था । जो किया जा रहा है वही कहा भी जा रहा है और जो कहा जा रहा है वह सिर्फ सच है । ऐसा सच है, जो इस जुलाहे ने खुद उघाड़ कर देखा है, स्वयं उद्घाटित किया है । यह ऐसा सच है, जो जानने से पहले कहा गया है और जिसे जानने के लिए खोजा गया है और खोजते हुण् उसे पाया गया है । ऐसे और इतने खरे सत्य से और कर्म से बुना गया ताना-बाना जो चादर बनाएगा, वह कैसी होगी इसका अंदाज तो कोई भी सुधी पाठक लगा सकता है ।
कबीर के जिस करघे से कपड़ा बुनने में तल्लीन थे, उसको बुनने को मुख्य उद्देश्यउनका सत्यान्वेषण था और उनका सत्याग्रह था । कबीर पहले सत्याग्रही थे । गांधी दूसरे ।
कबीर के करघे और गांधी के चरखे के बीच एक करीब का रिश्ता है । यह रिश्ता एक-दूसरे का पूरक-परिपूरक रिश्ता है । कबीर के समय और समाज का संकट कुछ ऐसा था कि उनके करघे का सूत अनायास ही रीत गया, खत्म हो गया । जैसा कि समय सबके साथ करता है कबीर के साथ भी हुआ । करघा भी धरा का धरा रह गया और कबीर भी अपनी खुशी से सहसा चल बसे । उनका जाना एक तरह से मृत्यु को वरण करना था । पूरी तैयारी के साथ काशी छोड़कर वे मगहर चले गए थे और जानते थे कि वहीं उन्हें शरीर छोड़ना है । यह इच्छा-मृत्यु स्वयं कबीर के लिए भले सामयिक रही हो मगर समाज के लिए तो एक बड़ी दुर्घटना थी । उस काल विशेष के एक बड़े सामाजिक सत्याग्रह के आगे विराम लगा दिने वाली घटना थी । विराम न भी कहें तो एक लंबा अर्द्ध-विराम तो लगा ही गया था ।
इस अर्द्ध-विराम को हटाने के लिए एक दूसरे संत का आगमन हुआ । ये संत गांधी थे । उन्होनेंचरखे का चयन ही इसलिए किया कि कबीर के करघे का सूत कभी रीते नहीं और उसे निरन्तर कता-कताया सूत मिलता रहे । अकेले गांधी नहींथे, जो चरखा कातने लगे थे बल्कि उनके साथ करोड़ों हिन्दुस्तानी थे, जो चरखा कातने लगे थे । इस चरखे के सूत का अंतर्सबंध भी जन-जन की जरूरत से था ।
कबीर भी अधनंगे थे और गांधी भी । किसी को यह स्वीकार करने में शर्म नहीं आनी चाहिए कि तब तीन-चौथाई देश अधनंगा था । आज भी आधा देश अधनंगा ही है और आधा बेशकीमती कपड़ों के अंबार में दफन हुआ जा रहा है । शर्म आज भी नहीं है । मगर सच्चई आज की यह है कि आज कोई चरखा नहीं कात रहा है ।
गांधी का चरखा कबीर के करघे को बनाए रखने के लिए था । तो कबीर का करघा जन-जन की जरूरत को पूरी करने के लिए था । ऊपर से दिखने में तो यह वस्त्र की जरूरत थी, मगर भीतर से देखने में यह जरूरत मानवीय सूत, इंसानी बाने को बनाए रखने की थी । गरज यह थी कि इंसानी बाना जस का तस बना रहे और आदमी-आदमी से सिर्फ प्रेम करता रहे । जीवनपर्यत सिर्फ ढाई आखर सीखता रहे और फिर इन्हीं ढाई अक्षरों को ताजिंदगी जीता रहे और जीने देता रहे।
गांधी भी इंसानी भेदभाव के खिलाफ थे और इंसानी लिबास की एकरूपता के हिमायती थे । उनके यहां भी जात-पात का कोई अर्थ नहीं था । गांधी भी सत्य के आलोक मेंहर हकीकत को देखना चाहते थे और कबीर भी सिवाय सत्य के और कुछ भी जानना जरूरी नहींसमझते थे ।
आज मुड़कर के देखें तो लगता है कि गांधी का आना जैसे कबीर के सच को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी था । कबीर के करघे और गांधी के चरखे के बीच एक रूहानी रिश्ते को देखने का काम मैं भी अपनी किसी अंत:प्रज्ञा के मार्फत ही कर पा रहा हॅू । तर्क शास्त्री यदि कुछ जानना चाहेंगे तो मैं यही कहूंगा कि दोनों रिश्तों को तर्क से नहीं समझा जा सकता । इसे तो बस प्रेम की पूर्णता से ही जाना जा सकता है ।
रमेश थानवी
कबीर और गंाधी के समयकाल मे करीब पांच शताब्दियोंका अंतर है । लेकिन दोनों ने जिस अंतिम व्यक्ति के हित के लिए कार्य किया वह आज भी वंचित जीवन जी रहा है । कबीर के करघे और गांधी के चरखे की आवाज इतनी मधुर है कि कर्कश आवाजोंके आदि हो चले हमारे कान शायद उस मधुरता का रसास्वादन करने लायक ही नहीं बचे हैं । इन विषम परिस्थितियों में भी कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक कहीं कहीं ये स्वर आज भी मौजूद हैं और भरोसा दिलाते हैं कि कबीर और गांधी वैचारिक परम्परा अनंत तक प्रवाहित रहेगी ।
कबीर करघे पर कपड़ा बुनते थे । झीनीझीनी चदरिया बुनते थे । ऐसे जतन से बुनते थे कि कोई उसे ओढ़े पर मैली ना करे । झीनी भी इसलिए बुनते थे कि उनकी बुनी चदरिया किसी के तन पर बोझ ना बने और जब चाहे तब छोड़ दे, उतार दे और पार उतर जाए ।
कबीर के इस करघे में जो ताने-बाने थे, वे उनकी साधना से बने थे । साधना के साथ उनके तप से बने थे और तप के साथ उनके त्याग से बने थे । घर में लाख तंगी हो मगर कबीर के करघे से उतरा हुआ कपड़ा सिर्फ ऐसे ही दामों में बिकता था कि हर गरीब उसे ओढ़ सके, पहन सके । कबीर को मुफलिसी में रहना मंजूर था मगर मुनाफे की रोटी खाना गवारा नहीं था ।
कबीर के इस करघे का तप था कि वह जन-जन का तन ढकता था । कबीर का अपना तन भले अधढका, अधनंगा रहे, मगर कबीर को चिंता औरों की थी । लोक की थी और लोक-लाज की थी ।
कबीर के इस करघे का ताना-बाना कथनी और करनी के मेलमिलाप से बना था । वहां कथनी और करनी में कोई भेद नहीं था । जो किया जा रहा है वही कहा भी जा रहा है और जो कहा जा रहा है वह सिर्फ सच है । ऐसा सच है, जो इस जुलाहे ने खुद उघाड़ कर देखा है, स्वयं उद्घाटित किया है । यह ऐसा सच है, जो जानने से पहले कहा गया है और जिसे जानने के लिए खोजा गया है और खोजते हुण् उसे पाया गया है । ऐसे और इतने खरे सत्य से और कर्म से बुना गया ताना-बाना जो चादर बनाएगा, वह कैसी होगी इसका अंदाज तो कोई भी सुधी पाठक लगा सकता है ।
कबीर के जिस करघे से कपड़ा बुनने में तल्लीन थे, उसको बुनने को मुख्य उद्देश्यउनका सत्यान्वेषण था और उनका सत्याग्रह था । कबीर पहले सत्याग्रही थे । गांधी दूसरे ।
कबीर के करघे और गांधी के चरखे के बीच एक करीब का रिश्ता है । यह रिश्ता एक-दूसरे का पूरक-परिपूरक रिश्ता है । कबीर के समय और समाज का संकट कुछ ऐसा था कि उनके करघे का सूत अनायास ही रीत गया, खत्म हो गया । जैसा कि समय सबके साथ करता है कबीर के साथ भी हुआ । करघा भी धरा का धरा रह गया और कबीर भी अपनी खुशी से सहसा चल बसे । उनका जाना एक तरह से मृत्यु को वरण करना था । पूरी तैयारी के साथ काशी छोड़कर वे मगहर चले गए थे और जानते थे कि वहीं उन्हें शरीर छोड़ना है । यह इच्छा-मृत्यु स्वयं कबीर के लिए भले सामयिक रही हो मगर समाज के लिए तो एक बड़ी दुर्घटना थी । उस काल विशेष के एक बड़े सामाजिक सत्याग्रह के आगे विराम लगा दिने वाली घटना थी । विराम न भी कहें तो एक लंबा अर्द्ध-विराम तो लगा ही गया था ।
इस अर्द्ध-विराम को हटाने के लिए एक दूसरे संत का आगमन हुआ । ये संत गांधी थे । उन्होनेंचरखे का चयन ही इसलिए किया कि कबीर के करघे का सूत कभी रीते नहीं और उसे निरन्तर कता-कताया सूत मिलता रहे । अकेले गांधी नहींथे, जो चरखा कातने लगे थे बल्कि उनके साथ करोड़ों हिन्दुस्तानी थे, जो चरखा कातने लगे थे । इस चरखे के सूत का अंतर्सबंध भी जन-जन की जरूरत से था ।
कबीर भी अधनंगे थे और गांधी भी । किसी को यह स्वीकार करने में शर्म नहीं आनी चाहिए कि तब तीन-चौथाई देश अधनंगा था । आज भी आधा देश अधनंगा ही है और आधा बेशकीमती कपड़ों के अंबार में दफन हुआ जा रहा है । शर्म आज भी नहीं है । मगर सच्चई आज की यह है कि आज कोई चरखा नहीं कात रहा है ।
गांधी का चरखा कबीर के करघे को बनाए रखने के लिए था । तो कबीर का करघा जन-जन की जरूरत को पूरी करने के लिए था । ऊपर से दिखने में तो यह वस्त्र की जरूरत थी, मगर भीतर से देखने में यह जरूरत मानवीय सूत, इंसानी बाने को बनाए रखने की थी । गरज यह थी कि इंसानी बाना जस का तस बना रहे और आदमी-आदमी से सिर्फ प्रेम करता रहे । जीवनपर्यत सिर्फ ढाई आखर सीखता रहे और फिर इन्हीं ढाई अक्षरों को ताजिंदगी जीता रहे और जीने देता रहे।
गांधी भी इंसानी भेदभाव के खिलाफ थे और इंसानी लिबास की एकरूपता के हिमायती थे । उनके यहां भी जात-पात का कोई अर्थ नहीं था । गांधी भी सत्य के आलोक मेंहर हकीकत को देखना चाहते थे और कबीर भी सिवाय सत्य के और कुछ भी जानना जरूरी नहींसमझते थे ।
आज मुड़कर के देखें तो लगता है कि गांधी का आना जैसे कबीर के सच को आगे बढ़ाने के लिए जरूरी था । कबीर के करघे और गांधी के चरखे के बीच एक रूहानी रिश्ते को देखने का काम मैं भी अपनी किसी अंत:प्रज्ञा के मार्फत ही कर पा रहा हॅू । तर्क शास्त्री यदि कुछ जानना चाहेंगे तो मैं यही कहूंगा कि दोनों रिश्तों को तर्क से नहीं समझा जा सकता । इसे तो बस प्रेम की पूर्णता से ही जाना जा सकता है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें