रविवार, 14 अक्तूबर 2012

हमारा भूमण्डल
पर्यावरण ऋण को नकारते विकसित राष्ट्र
सोशल वॉच
    मनुष्य की परिस्थिति को मापने के लिए महज राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद को पैमाना बना लेने के दुष्परिणाम हम सभी के सामने है । भारत का बढ़ता सकल घरेलू उत्पाद और बढ़ती गरीबी का समानांतर चलना दर्शाता है कि मानव विकास सूचकांक को नए सूचकांको से मापने की आवश्यकता है ।
    विश्व के अठारह प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ताआें एवं विद्वानों द्वारा गठित सिविल सोसायटी रिफ्लेक्शन ग्रुप ऑन ग्लोबल डेवलपमेंट यानि वैश्विक विकास परिप्रेक्ष्य में नागरिक समाज के चिंतन समूह ने सुझाव दिया है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, राष्ट्रों एवं विश्व के द्वारा अर्थव्यवस्था, समता, बेहतरी, मानवाधिकार एवं सुस्थिरता को मापने के लिए हर हाल में नए सूचकांको की खोज करेंं । चिंतन समूह द्वारा हाल ही में रियो डी जेनेरिया में आधिकारिक रूप से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि अब समय आ गया है कि हम समानांतर रूप से आर्थिक, वित्तीय, खाद्य एवं जलवायु संकट जो कि विकास और आर्थिक प्रगति के इस प्रबल मॉडल की असफलता दर्शाता हो और जो समाज में प्रगति को सकल घरेलू उत्पाद के माध्यम से भ्रमित करता हो और असमानता और सामाजिक न्याय की अवहेलना करते हुए मात्र गरीबी को ही एक प्राथमिक तकनीकी चुनौती मानता हो, ये सबक लेना चाहिए । अध्ययन ने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से अनुशंसा की है कि वह पारम्परिक विकास अवधारणा से परे भी देखे एवं उत्तर एवं दक्षिण में हुई सामाजिक प्रगति के मॉडल एवं माप पर मूलभूत रूप से पुन: विचार करे ।
    रिपोर्ट में कहा गया है कि सन् १९५३ में संयुक्त राष्ट्र राष्ट्रीय लेखा प्रणाली (एस.एम.ए.) के निर्माण ने राष्ट्रों के मध्य आर्थिक सूचकांकों की तुलना को संभव बनाया और सकल घरेलू उत्पाद को कमोवेश विकास का पर्यायवाची माना जाने लगा । लेकिन सकल घरेलू उत्पाद किसी अर्थव्यवस्था की पूरी तस्वीर सामने नहीं रखता । उदाहरण के लिए यह असमानता नहीं दर्शाता, यह ऐसी सभी संपत्तियां, जिसमेें आर्थिक ढांचे, जैव विविधता एवं पारिस्थितिकी तंत्र, संस्कृतिएवं मानव पूंजी शामिल हैं, के निर्माण एवं विध्वंस को भी सामने नहीं लाता । इतना ही नहीं यह परिवार के सदस्यों द्वारा अपने परिवारों को नि:शुल्क प्रदान की जाने वाली सेवाआें का भी हिसाब नहीं रखता, जबकि बाजार में इसी तरह की उपलब्ध सेवाआें से इस मद का आसानी से निर्धारण हो सकता है ।
    चिंतन समूह ने अपने अध्ययन में देशों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति का मूल्यांकन संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यू.एन.डी.पी.) द्वारा सन् १९९० से गणना किए जा रहे मानव किवास सूचकांक, आर्गेनाइजेशन फॉर इकानॉमिक को ऑपरेशन एवं डेवलपमेंट (ओईसीडी), जिसमें कि विश्व की ३४ सर्वाधिक समृद्ध अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं, की वर्ष २०११ से तैयार रिपोर्ट और भूटान के राष्ट्रीय सुख समृद्धि सूचकांक के आधार पर किया है ।
    संयुक्त राष्ट्र संघ के अनेक विशेषज्ञ सुस्थिर विकास का नया सूचकांक निर्मित करने हेतु पूर्ववर्ती तीनों स्तंभों समाज, पर्यावरण एवं अर्थव्यवस्था को एक साथ ही रखना चाहते हैं । यह विचार आकर्षक है और इसके समर्थकों को मानना है कि इससे जीडीपी के हौवे से छुटकारा मिल सकती है । लेकिन आर्थिक प्रदर्शन एवं सामाजिक प्रगति आकलन आयोग के नोबल पुरस्कार प्राप्त् अर्थशास्त्री सदस्य जोसेफ स्टिग्ल्जि एवं अर्मत्य सेन एवं फ्रांसीसी अर्थशास्त्री ज्यां पाल फिटोउस्सी इसके ठीक विपरीत विचार का समर्थन करते हुए कहते है सुस्थिरता का प्रश्न वर्तमान बेहतर स्थितियों या आर्थिक प्रदर्शन से जुड़ा हुआ है और इसे पृथक से देखा जाना अति आवश्यक हैं ।
    इस तिकड़ी ने अपनी रिपोर्ट को समेटते हुए बेहतरी के सूचकांक एवं सुस्थिरता पर विमर्श करते हुए इस बात पर अत्यधिक जोर दिया है कि ये दोनोंअपनी प्रकृति मेंएकदम विपरीत हैं । इस संदर्भ में उन्होने कार के डेश बोर्ड के प्रतीक को चुनते हुए कहा है कि वहां रफ्तार एवं बचे हुए पेट्रोल को दो अलग-अलग स्थानों पर प्रदर्शित किया जाता है । एक हमें जानकारी देता है कि गन्तव्य तक पहुंचने में कितना समय लगेगा और दूसरा हमें दर्शाता है कि गन्तव्य तक पहुंचने में कितने संसाधन (पेट्रोल) की आवश्यकता है और यदि इसकी समय पर पूर्ति नहीं की गई तो यह गन्तव्य पर पहुंचने से पहले यह समाप्त् भी हो सकता है । यदि इन दोनों को मिला दिया जाएगा तो ड्रायवर भ्रमित हो जाएगा ।
    इनके अनुसार किसी भी गतिविधि की सुस्थिरता उसकी सम्पत्ति या निश्चित भंडारण के पुर्नउत्पादन से ही संभव है । यदि चारागाहों से अधिक घास काट ली जाएगी तो वे गायब हो जाएंगे । यदि सीमा से अधिक मछलियों का शिकार कर लिया गया तो वे लुप्त् हो जाएंगी । इसी तरह कार्बनडाई ऑक्साइड का अत्यधिक उत्सर्जन जो कि जीवाश्म ईधन के अत्यधिक प्रयोग को इस वजह हो रहे जलवायु परिवर्तन से बचने के लिए वातावरण मेंजाने से पहले रोकना पड़ेगा ।
    क्या मापा जाए - चिंतन समूह का निष्कर्ष है कि सकल घरेलू उत्पाद जीवन की गुणवत्ता को नहीं मापता न ही सुस्थिरता का माप है और इतना ही नहीं यह आर्थिक प्रदर्शन को मापने का भी सही पैमाना नहीं है । रिपोर्ट में कहा गया है कि स्टिग्ल्टि्स, सेन एवं फिटोउस्सी आयोग के अनुसार सही तस्वीर जानने के लिए सूचकांक की समीक्षा एवं इनका एक दूसरे से तारतम्य बैठाना आवश्यक है । असमानता एवं वितरण को आंकने के संबंध में समूह में गिनी गुणांक का जिक्र करते हुए कहा गया है कि ये तो मात्र विश्व बैंक में एवं कुछ ही अन्य देशों के मौजूद हैं । नीति निर्माताआें या शोधकर्ताआें के लिए असमानता कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है । एक बेहतर माप के लिए यूएनडीपी को अपनी गणना में असमानता को समाहित करने वाले मानव विकास सूचकांक में इन तीनों घटकों आयु, शिक्षा एवं प्रतिव्यक्ति आय को समाहित करना चाहिए ।
    इसी के साथ इसमें अन्य विभिन्न सूचकांक जैसे कुपोषण, नैतिकता, शिक्षा का स्तर या सशुल्क एवं नि:शुल्क कार्य में दिया गया समय, आपस में संवाद, अवकाश एवं आपसी मेलजोल को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए । रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि इसके बिना अर्थव्यवस्था भले ही विकसित हो जाए लेकिन मानव पूंजी या सामाजिक पूंजी का तो हृास ही होगा ।
    वर्ष २००९ में २९ प्रमुख वैज्ञानिकों ने नौ ग्रहीय सीमाआें की पहचान की थी । इनमें से तीन जलवायु, वैश्विक नाईट्रोजन चक्र एवं जैव विविधता के संबंध मेंतो मानकों का उल्लघंन हो ही रहा है । वैश्विक सुस्थिरता हेतु प्रत्येक देश या आर्थिक इकाई (निर्माता या उत्पादक) द्वारा किए जा रहे उल्लघंन को मापना आवश्यक है । इसकी सीमाआें पर उल्लघंन को मापने से ही इस प्रणाली के सुधार के लिए चुकाए जाने वाले मुल्य की गणना की जा सकती है । अतएव सिद्धांत के तौर पर तो यह मानना ही पड़ेगा कि प्रदूषणकर्ता को तो भुगतान करना ही पड़ेगा और उसे इसे पर्यावरणीय ऋण की संज्ञा देना होगी । लेकिन प्रदूषण फैलाने वाले देश उन पर चढ़े हुए ऋण के बारे में कुछ सुनना ही नहीं चाहते ।

कोई टिप्पणी नहीं: