सोमवार, 5 नवंबर 2012

विशेष लेख
 पर्यावरण संरक्षण का बीजमंत्र
डॉ. सुनीलकुमार अग्रवाल

    जो तुम्हें पाना है उसे बोना आरंभ कर दें, यही तो बीज मंत्र है पर्यावरण संरक्षण का । आज हम जिन पेड़ों के फल खा रहे है क्या हमने इन्हें लगाया था ? यह पेड़ हमारे पुरखों द्वारा बीजारोपित किये गए, उनके द्वारा ही अभिसिचिंत किए गए और संभाले    गए । हम तो उनके प्रयास को ही प्रसाद के रूप में पा रहे हैं ।
    हमें भी अपनी संततियों के लिए सोचना चाहिए और वन - वनस्पतियों एवं जड़ी - बूटियों को बोना चाहिए । यह पेड़-पौधे ही तो हमारे जीवन का आधार हैं । आज प्राकृतिक संसाधनों के नवसृजन की आवश्यकता होती है अन्यथा प्रयोग होते होते शनै:-शनै: बड़े भण्डार और आधार भी समाप्त् हो जाते है । हमारे पास तो संसाधनों के संरक्षण का बीज मंत्र  है । इस मंत्र को समझने की आवश्यकता है ।
    शरीर, बुद्धि और भावनाएं, स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के साथ हम सबमें ही नैसर्गिक रूप से पाई जाती है । धन तथा संसाधनों को हम अर्जित भी करते हैं । अर्थात वह स्वउपार्जित होता है तथा पूर्वजों के द्वारा पूर्व संचित धन-संसाधन भी हमें उत्तराधिकार में मिलते हैं । प्राकृतिक संसाधनों के मामले में आज हम स्वउपार्जन से विमुख हुए हैं । हम संसाधनों को उत्तराधिकार में अधिकता से पा रहे है किन्तु हम इनका मूल्य नहीं समझ पा रहे हैं । तभी तो अपने कर्तव्य से विमुख है और संसाधनों की बर्बादी कर रहे है । यदि हम पेड़ काटते रहे, वन विनाश करते रहे । किन्तु हमने नये पेड़ नहीं रोपे तो एक ऐसी रिक्तता आ जाएगी जिसकी भरपाई बहुत मुश्किल होगी । यही तो बीज मंत्र है पर्यावरण संरक्षण का कि हम संसाधनों का अंकेक्षण करें ।
    पर्यावरण के बीज मंत्र को दृष्टिगत रखते हुए हमें पर्यावरण की गवेषणा करनी चाहिए । पर्यावरण की गवेषणा से आशय उन तत्वों की खोज है जो पर्यावरण का महत्वपूर्ण हिस्सा है किन्तु हमने उनकी कीमत को भुला दिया है । हमने प्रकृतिके उपादानों का दमन किया है । पर्यावरण टूट रहा है ऋतुचक्र व्यतिक्रमित हुआ तथा मौसम रूठ रहा है । भौतिकता के दबाव में नित्य नई खोजें जारी हैं । सारे ही अन्वेषण एवं अनुसंधान हमें प्राकृतिक संसाधनों के प्रति और भी अधिक अनुदार बना रहे  है । हम प्रकृति के मूल तत्वोंतथा बीज मंत्र से और भी अधिक दूर जा रहे है ।
    पर्यावरण के संदर्भ में आज गंभीर चिंतन की आवश्यकता है । गवेषणात्मक संदर्शो पर दृष्टिपात जरूरी है । हमारे ऋषि मुनियों ने गंभीर चिंतन किया था । उन्होनें कठिन साधना की और समाधान दिया है । मनीषियों के अनुसार ऋषि वह होता है जो चिंतन को विस्तृत फलक दे और मुनि वह होता है जो चिंतन को गहराई देता है । हमने भौतिक तथा लौकिक दोनो ही क्षेत्रों में प्रगति की है किन्तु अपने दिव्य आर्ष ज्ञान को भुला दिया । अपनी प्राकृतिक क्षमताआें को गंवा दिया । जो कुछ हमारे पास था हमने उसे खो दिया । उसी खोये हुए की खोज गवेषणा है । बदलते समय के साथ बदलती मान्यताआें के साथ अब जो कुछ आवश्यक है उसे हम पाना चाहते है, वह अन्वेषणा है । हमें पदार्थवादी न होकर आध्यात्मवादी होकर चिंतन करना होगा तथा प्रकृति पर्यावरण को निरन्तर बनाये रखने के प्रयास करने होगे ।
    बदलते वक्त के साथ हमारी प्राथमिकताएं बदल गई है  । धन सम्पदा वैभव के मायने बदल गए हैं । पहले गो-पालन को अधिक महत्व दिया जाता    था । अश्व पालन को महत्व दिया जाता था । वन प्रांतरों की अधिकता थी । अतुलित बल वैभव था, भारत भूमि में हम गौरवान्वित होकर गाते थे - जहाँ डाल डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा वह भारत देश है मेरा । दूध दही की नदियाँ बहती थी । अब पानी भी अपेय होता जा रहा है । सम्पूर्ण ऐश्वर्य का साधन सुलभ होेने पर भी हमने तहे दिल से स्वीकारा - गो धन गजधन बाजिधन और रतन धन खान, जब आवे संतोष धन सब धन धूरि  समान । आज चहुँ और असंतोष व्याप्त् है । ऐषणाआें में जी रहे है हम सभी । अत: ऐषणा ऐसी हो जो गाहृय हो । हमें गर्हित को तुरन्त अस्वीकारना चाहिए ।
    हमारे पास जो कुछ भी है उसे जगत नियंता को सौंप दें अर्थात आत्मवत सर्व भूतेषु का संज्ञान लेते हुए अपने साथ सबकी चिंता करें । व्यष्टि से समष्टिगत रहते हुए समर्पण का विधायी भाव रखें । प्रकृतिएवं पर्यावरण का चिंतन करें । कर्मशील बनें । यदि हम कुआँनहीं खोदेगे तो पानी नहीं    मिलेगा । कुआँभी खोदे और भूजल के पुर्नभरण - पुर्नसंचय को भी करते     रहे । धरती में जो पानी हमारे पुरखों के प्रयत्नों से सहेजा गया उसे भी तो हमें सुरक्षित रखना है । बूँद-बूँद पानी बचायेगे तभी तो घड़ा भरेगा । यही बीजमंत्र है जल संरक्षण का ।
    खेत-खलिहानों में हम कीटों, परिंदो से खाघान्न की रक्षा के उपाय करते हैं । किन्तु क्या हमने यह विचार किया है कि यह जीव जन्तु भी पर्यावरण के परितंत्रो का हिस्सा है और इनकी जीवनी जुडी है । रब की चिड़ियाँ रब के खेत, ईश्वर ने यह संसार रचा है । पेट दिये है तो उसे भरने का इंतजाम भी भरपूर किया है । हर जीव जन्तु का प्रकृति के संरक्षण संवर्धन में योगदान है । अत: हमें चींटी से लेकर हाथी तक, और यहाँ तक कि नेत्रों से अदृश्य रहने वाले सूक्ष्म जीवों की भी चिंता करनी चाहिए ।     यही बीज मंत्र है जैव विविधता के संरक्षण का ।
    पर्यावरण पारायण होना अर्थात पर्यावरण के संरक्षण के प्रति सजग होना आज की महती आवश्यकता है । पर्यावरण का पारायण ही हमेंपर्यावरण के प्रति विधायी बना सकता है । पर्यावरण के प्रति चैतन्य रख सकता   है । चेतना से ही संस्कार आते है । हम पर्यावरण से जुड़े और उसके मर्म को समझे । किसी भी विषय वस्तु को पढ़ना, गुनना, गुजरना और अमल करना ही पारायणता हे । अमलता तभी आती है जब हम निर्मल- निरामय हो । दरअसल पारायण शब्द में दार्शनिक भाव है जिसमें अस्तित्व के गुंफन का संकेत है ।
    पारायण शब्द दो शब्दों के संयोग से बना है पार और अयन । संस्कृत में पार: या पारम का अर्थ होता है दूसरा किनारा । अयन का अर्थ होता है रास्ता या मार्ग । यदि हम सही रास्ते पर चलते है तो मंजिल को पा लेते है । गंतव्य को पा लेते है, गंतव्य में ही मंतव्य है और उद्देश्य है । हमारा उद्देश्य हैं पर्यावरण को संरक्षित संवर्धित करना । पर्यावरण की समझ को इतना विस्तृत फलक देना, और विस्तार देना कि हम पर्यावरण के विनाश की आहट को सुन सके, और दूरगॉमी परिणाम को समझ सके । हमारी दृष्टि व्यापक हो तथा हमेंकार्यविधि का भी संज्ञान हो ।
    पर्यावरण परायण होने के लिए जरूरी है कि हम पर्यावरण विज्ञान और अध्यात्म के संतुलन को समझें । हमारा अतीत इस बात का साक्षी है कि आदिम से आधुनिक होते हुए हमने विराट प्रकृति के शाश्वत सौन्दर्य से तादात्य स्थापित किया है । अर्न्तज्ञान द्वारा ध्यान किया  है । पर्यावरण विमर्श द्वारा अब हमारे अन्त:करण में वैज्ञानिक दृष्टिबोध भी विकसित हो तथा हम अपनी संस्कृति एवं सभ्यता से भी जुड़े रहें । हमारी सोच तथ्यात्मक जो तार्किकता के साथ भावपूर्ण भी हो । हम प्रकृति के प्रति संवेदी हो और सत्य को समझें । यदि हम ऐसा भाव विकसित कर सके तो हम निश्चित रूप से पर्यावरण पारायणी हो सकेगे तथा विमर्श के बीज भी सुरक्षित रख सकेंगे । हमें अपने आसपास प्रतिदिन घटित स्थितियों पर पैनी दृष्टि रखनी होगी । उदाहरणार्थ हम जल की कमी से जूझ रहे है किन्तु पानी को सहेजने के प्रति गंभीर नहीं है ।
    हमारी जीवन शैली में दो बातें महत्वपूर्ण हैं । एक परम्परा जिसमें आस्था-विश्वास रहता है, दूसरी हमारी वैज्ञानिक सोच जिसमें विकास रहता     है । सभ्यताआें की भी अपनी वैज्ञानिक परम्परा भी होती है । अब तो हमारे पास वैधानिक वर्जनाएं भी हैं । जनसंचार माध्यमों का विकास हुआ है । किन्तु हम विकास एवं विनाश की सही विभाजक रेखा का निर्धारण नहीं कर पा रहे है और यही वर्तमान विद्रूप का कारण है । हमें वैज्ञानिक आधारगत प्रगतिपूर्ण सोच तथा आस्था विश्वास में सामंजस्य बनाना है । बौद्धिकता तथा नैतिकता से तालमेल साधना है । पर्यावरण के प्रति एक सकारात्मक सेाच विकसित करनी है । वैज्ञानिक आविष्कारों एवं उपलब्धियों का पर्यावरण संरक्षण में उपयोग करना है तथा विनाशक शक्तियों का विरोध करना है । यही बीज मंत्र है पर्यावरण विमर्श का ।
    पर्यावरण संरक्षण हेतु प्रकृतिदत्त उपहारों की त्याग के साथ ग्रहण करने का बीज मंत्र सहेजना होगा । हमें यह बात दिल और दिमाग से स्वीकारनी होगी कि हम जो कुछ भी संसार को देते है वह हमें कभी न कभी अपने जीवन में प्रतिदान में अवश्य मिलता है । समर्पण, सेवा और त्याग से हमारे व्यक्तित्व में विराटता आती है और हम विस्तारमना तथा महामना होते हैं । संकुचनहमारे अंदर स्वार्थ लाता है । स्वार्थी व्यक्ति सहृदयी नहीं हो पाता है । वह समाज से असंयुक्त हो जाता है । तब वह अपनी परछाईयों से लड़ता हुआ ही हार जाता  है । और हमेशा काल्पनिक शत्रुआें से स्वयं को घिरा हुआ पाता है । अत: पर्यावरण संरक्षण के लिए आत्मानुशासन जरूरी है ।
    पर्यावरण की अर्थवत्ता अब व्यापक विस्तार पा चुकी है । ब्रह्मांड से देहांड तक पर्यावरणीय चिंतन एवं विमर्श से बहुत सी बातें सामने आ रही है । बहुत सी अबूझ पहेलियां खुल रही है । हम पर्यावरण संरक्षण के उन बीजों को खोजना है जिनको दरख्तों को हम सहेज न सके । तार्किकता, वैज्ञानिकता, आध्यामिकता की खाद पाकर बीजों का अंकुरण होगा, जिससे नव-सृजन का मुकुलन होगा ।

   

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