ऊर्जा जगत
जापान : परमाणु ऊर्जा से छुटकारा
अरनब प्रतिम दत्ता
जापान परमाणु ऊर्जा से छुटकारा पाने का प्रयास कर तो रहा है लेकिन यह आसान नहीं है । एक ओर वैश्विक परमाणु लाबी का दबाव एवं परमाणु अपशिष्ट के निपटान मेंआ रही समस्याएं बाधा बन रही है तो दूसरी ओर वैकल्पिक ऊर्जा के निर्माण में होने वाले निवेश की व्यवस्था भी टेड़ी खीर है ।
भारत जिस तेजी से परमाणु ऊर्जा की ओर बढ़ने का प्रयास कर रहा है, उस प्रक्रिया में उसे रूककर एक बार जापान की वर्तमान स्थिति पर विचार करना चाहिए । दुविधा में पड़े जापान से हम सबको सबक सीखने की आवश्यकता है । दुविधा का कारण यह है कि वह अपने ५० परमाणु संयंत्र को चलाए रखे या विशिष्ट समय सीमा में इनसे छुटकारा पाए ? फुकुशिमा विध्वंस के बाद इससे संबंधित मतों में तीव्र अंतर नजर आ रहा है । जापान की सरकार द्वारा परमाणु ऊर्जा पर देश की निर्भरता कम करने के नवीनतम प्रयासों से और अधिक भ्रम पैदा हो गया है । जापान वर्तमान में अपनी विद्युत का ३० प्रतिशत परमाणु ऊर्जा से प्राप्त् करता है, ऐसे में इससे निजात पाना और अधिक कठिन हो जाता है ।
पिछले दिनों जापान द्वारा जारी क्रांतिकारी ऊर्जा एवं पर्यावरण नीति में सन् २०४० तक परमाणु ऊर्जा से छुटकारा पाने की बात कही गई है । इसमें इस बात पर जोर दिया गया कि नए परमाणु संयंत्रों का निर्माण नहीं किया जाएगा, ऊर्जा संयंत्रों की आयु को ४० वर्ष तक सीमित करना एवं इनके लायसेंस का किसी भी सूरत में नवीनीकरण न किया जाना और केवलउन्हीं को अनुमति देना, जो कि सुरक्षित प्रतीत हो रहे है, शामिल हैं । लेकिन पांच दिन बाद ही जापानी मंत्रीमण्डल ने इस नई नीति को स्वीकृतिदेने से इंकार कर दिया । लेकिन ठीक उसी दिन मंत्रीमण्डल के एक वरिष्ठ मंत्री ने अस्पष्ट सा वक्तव्य देते हुए कहा कि सरकार अभी भी इस नीति के आधार पर कार्य करेगी ।
इससे यह प्रतीत हो रहा है कि सरकार दोहरी मानसिकता का शिकार हो गई है क्योंकि उसके ऊपर परमाणु ऊर्जा के समर्थक एवं विरोधी दोनोंपक्षों का दबाव पड़ रहा है । पूरी गर्मी प्रधानमंत्री कार्यालय के बाहर परमाणु विरोधी प्रदर्शन जारी रहे । २२ अगस्त को प्रदर्शनों के एक हफ्ते के बाद याशिहिको नोडा ने प्रदर्शनकारियोंके एक समूह से अपने कार्यालय में भेंट की, जिसे समूह ने अपनी विजय बताया । इसी बीच जापान की औद्योगिक फेडरेशन कीडारेन ने इस परमाणु कार्यक्रम को अवास्तविक एवं पहुंच से दूर बताया । लेकिन वर्तमान मेंनीतियों को लेकर चल रही ढोल पोल से कोई भी प्रसन्न नहीं है ।
जापान के दो सर्वाधिक लोकप्रिय समाचार पत्रों में से एक आशी शिंबुन द्वारा किए गए सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि फुकुशिमा संयंत्र दुर्घटना के पश्चात् सरकार द्वारा उठाए गए सुरक्षा प्रयासों से दो तिहाई जनता संतुष्ट नहीं है । केवल एक प्रतिशत लोग ही अगस्त में उठाई गई पहल से संतुष्ट थे । रोचक तथ्य यह है कि उनमें से अधिकांश बजाए परमाणु ऊर्जा के पुन: नवीनीकृत ऊर्जा जैसे पवन एवं सौर ऊर्जा के प्रति अधिक उत्सुक थे ।
लेकिन केवल सार्वजनिक मत ही सरकार को प्रभावित नहीं कर सकता । किसी भी निर्णय को लेने से पहले अनेक अन्य मसलों को सुलझाया जाना आवश्यक है । इसमें ऊर्जा के अन्य प्रकारों की ओर बढ़ना, विदेश नीति (अमेरिका जापान का निकटस्थ व्यापारिक साझेदार है) परमाणु अपशिष्ट का निपटान (यह अधिकांशत: फ्रांस एवं ब्रिटेन जैसे विदेशी देशों में ही होता है) कार्बन कम करने के लक्ष्य और ४५ हजार ऐसे व्यक्ति जो कि परमाणु उद्योग में रोजगार पाते हैं के भविष्य को भी इस प्रक्रिया में सम्मिलित किया जाना आवश्यक है ।
परमाणु उस बुरी लत की तरह है, जिससे छुटकारा पाना कठिन है । परमाणु संयंत्रों को बंद कर देने का अर्थ परमाणु शून्यता नहीं है । इस संबंध में जापान को उच्च् क्षमता वाले परमाणु अपशिष्ट से दो-चार होना पड़ेगा, जिसे कि भावी पीढ़ी के लिए असीमित संसाधन के रूप में देखा जा रहा था । मीडिया रिपोर्ट के अनुसार जापान में ४५ टन से अधिक प्लूटोनियम का भंडार है, जिससे कि ५००० युद्धक परमाणु मिसाइलें बनाई जा सकती हैं । जापान में स्थित अधिकांश हल्के पानी रिएक्टर सह उत्पाद के रूप में इसे उत्पादित करते हैं । इसका बड़ा हिस्सा जापान एवं ब्रिटेन में रखा जाता है । लेकिन जापान द्वारा परमाणु ऊर्जा क्षेत्र से निकासी के निश्चय के पश्चात् इस बात मेंशंका है कि ये दोनों देश इस अत्यन्त जहरीले पदार्थ को अपने यहां रख पाएंगे ? मीडिया में ऐसे समाचार भी आए हैं कि शून्य परमाणु नीति की घोषणा के बाद जापान में ब्रिटेन के राजदूत सर डेविड वाटन ने मुख्य केबिनेट सचिव ओसामु फुजिमुरा से यह आश्वासन लेने के लिए मुलाकात की कि जापान उनकी धरती से परमाणु अपशिष्ट के कंटेनर वापस बुला लेगा । फ्रांस भी इसी तरह का अनुरोध करने का मन बना रहा है ।
यदि इन्हें वापस कर दिया जाता है तो यह अपशिष्ट कहां जाएगा ? वर्तमान में जापान में ओमोरी प्रीफेक्चर के पास अस्थायी तौर पर परमाणु अपशिष्ट के भण्डारण की सुविधा मौजूद है । लेकिन ऐसा हमेशा के लिए संभव नहींहै । परमाणु के विरूद्ध बढ़ते प्रतिरोध के चलते जापान में इससे संबंधित और अधिक सुविधाआें के निर्माण की अनुमति भी संभव नजर नहीं आती ।
जापान की दुविधा यही समाप्त् नहीं होती । सरकार का अनुमान है कि नवीनीकृत ऊर्जा एवं इसके आसपास ग्रिड के निर्माण हेतु ६२२ अरब अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता पड़ेगी और रातों रात इसकी व्यवस्था नहीं हो सकती । फुुकुशिमा परमाणु संयंत्र के बंद हो जाने के पश्चात् जापान की अमेरिका से आयात की गई गैस पर निर्भरता बहुत बढ़ गई है एवं उसके गैस आयात में २० प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है । जीवाश्म ईधन पर बढ़ती निर्भरता के चलते, भले यह अस्थायी क्यों न हो, जापान द्वारा सन् १९९२ के स्तर से कार्बन उत्सर्जन में २५ प्रतिशत की कमी कावायदा भी दूर की कौड़ी दिखाई देने लग गया है ।
क्या जापान का परमाणु संकट कभी खत्म होगा ? परमाणु ऊर्जा के क्षय से क्या कोई सबक लिया जाएगा ? जापान की तो दोनों ही स्थिति में इस वक्त वह स्वयं को शैतान और गहरे समुद्र के बीच पाता है ।
जापान : परमाणु ऊर्जा से छुटकारा
अरनब प्रतिम दत्ता
जापान परमाणु ऊर्जा से छुटकारा पाने का प्रयास कर तो रहा है लेकिन यह आसान नहीं है । एक ओर वैश्विक परमाणु लाबी का दबाव एवं परमाणु अपशिष्ट के निपटान मेंआ रही समस्याएं बाधा बन रही है तो दूसरी ओर वैकल्पिक ऊर्जा के निर्माण में होने वाले निवेश की व्यवस्था भी टेड़ी खीर है ।
भारत जिस तेजी से परमाणु ऊर्जा की ओर बढ़ने का प्रयास कर रहा है, उस प्रक्रिया में उसे रूककर एक बार जापान की वर्तमान स्थिति पर विचार करना चाहिए । दुविधा में पड़े जापान से हम सबको सबक सीखने की आवश्यकता है । दुविधा का कारण यह है कि वह अपने ५० परमाणु संयंत्र को चलाए रखे या विशिष्ट समय सीमा में इनसे छुटकारा पाए ? फुकुशिमा विध्वंस के बाद इससे संबंधित मतों में तीव्र अंतर नजर आ रहा है । जापान की सरकार द्वारा परमाणु ऊर्जा पर देश की निर्भरता कम करने के नवीनतम प्रयासों से और अधिक भ्रम पैदा हो गया है । जापान वर्तमान में अपनी विद्युत का ३० प्रतिशत परमाणु ऊर्जा से प्राप्त् करता है, ऐसे में इससे निजात पाना और अधिक कठिन हो जाता है ।
पिछले दिनों जापान द्वारा जारी क्रांतिकारी ऊर्जा एवं पर्यावरण नीति में सन् २०४० तक परमाणु ऊर्जा से छुटकारा पाने की बात कही गई है । इसमें इस बात पर जोर दिया गया कि नए परमाणु संयंत्रों का निर्माण नहीं किया जाएगा, ऊर्जा संयंत्रों की आयु को ४० वर्ष तक सीमित करना एवं इनके लायसेंस का किसी भी सूरत में नवीनीकरण न किया जाना और केवलउन्हीं को अनुमति देना, जो कि सुरक्षित प्रतीत हो रहे है, शामिल हैं । लेकिन पांच दिन बाद ही जापानी मंत्रीमण्डल ने इस नई नीति को स्वीकृतिदेने से इंकार कर दिया । लेकिन ठीक उसी दिन मंत्रीमण्डल के एक वरिष्ठ मंत्री ने अस्पष्ट सा वक्तव्य देते हुए कहा कि सरकार अभी भी इस नीति के आधार पर कार्य करेगी ।
इससे यह प्रतीत हो रहा है कि सरकार दोहरी मानसिकता का शिकार हो गई है क्योंकि उसके ऊपर परमाणु ऊर्जा के समर्थक एवं विरोधी दोनोंपक्षों का दबाव पड़ रहा है । पूरी गर्मी प्रधानमंत्री कार्यालय के बाहर परमाणु विरोधी प्रदर्शन जारी रहे । २२ अगस्त को प्रदर्शनों के एक हफ्ते के बाद याशिहिको नोडा ने प्रदर्शनकारियोंके एक समूह से अपने कार्यालय में भेंट की, जिसे समूह ने अपनी विजय बताया । इसी बीच जापान की औद्योगिक फेडरेशन कीडारेन ने इस परमाणु कार्यक्रम को अवास्तविक एवं पहुंच से दूर बताया । लेकिन वर्तमान मेंनीतियों को लेकर चल रही ढोल पोल से कोई भी प्रसन्न नहीं है ।
जापान के दो सर्वाधिक लोकप्रिय समाचार पत्रों में से एक आशी शिंबुन द्वारा किए गए सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि फुकुशिमा संयंत्र दुर्घटना के पश्चात् सरकार द्वारा उठाए गए सुरक्षा प्रयासों से दो तिहाई जनता संतुष्ट नहीं है । केवल एक प्रतिशत लोग ही अगस्त में उठाई गई पहल से संतुष्ट थे । रोचक तथ्य यह है कि उनमें से अधिकांश बजाए परमाणु ऊर्जा के पुन: नवीनीकृत ऊर्जा जैसे पवन एवं सौर ऊर्जा के प्रति अधिक उत्सुक थे ।
लेकिन केवल सार्वजनिक मत ही सरकार को प्रभावित नहीं कर सकता । किसी भी निर्णय को लेने से पहले अनेक अन्य मसलों को सुलझाया जाना आवश्यक है । इसमें ऊर्जा के अन्य प्रकारों की ओर बढ़ना, विदेश नीति (अमेरिका जापान का निकटस्थ व्यापारिक साझेदार है) परमाणु अपशिष्ट का निपटान (यह अधिकांशत: फ्रांस एवं ब्रिटेन जैसे विदेशी देशों में ही होता है) कार्बन कम करने के लक्ष्य और ४५ हजार ऐसे व्यक्ति जो कि परमाणु उद्योग में रोजगार पाते हैं के भविष्य को भी इस प्रक्रिया में सम्मिलित किया जाना आवश्यक है ।
परमाणु उस बुरी लत की तरह है, जिससे छुटकारा पाना कठिन है । परमाणु संयंत्रों को बंद कर देने का अर्थ परमाणु शून्यता नहीं है । इस संबंध में जापान को उच्च् क्षमता वाले परमाणु अपशिष्ट से दो-चार होना पड़ेगा, जिसे कि भावी पीढ़ी के लिए असीमित संसाधन के रूप में देखा जा रहा था । मीडिया रिपोर्ट के अनुसार जापान में ४५ टन से अधिक प्लूटोनियम का भंडार है, जिससे कि ५००० युद्धक परमाणु मिसाइलें बनाई जा सकती हैं । जापान में स्थित अधिकांश हल्के पानी रिएक्टर सह उत्पाद के रूप में इसे उत्पादित करते हैं । इसका बड़ा हिस्सा जापान एवं ब्रिटेन में रखा जाता है । लेकिन जापान द्वारा परमाणु ऊर्जा क्षेत्र से निकासी के निश्चय के पश्चात् इस बात मेंशंका है कि ये दोनों देश इस अत्यन्त जहरीले पदार्थ को अपने यहां रख पाएंगे ? मीडिया में ऐसे समाचार भी आए हैं कि शून्य परमाणु नीति की घोषणा के बाद जापान में ब्रिटेन के राजदूत सर डेविड वाटन ने मुख्य केबिनेट सचिव ओसामु फुजिमुरा से यह आश्वासन लेने के लिए मुलाकात की कि जापान उनकी धरती से परमाणु अपशिष्ट के कंटेनर वापस बुला लेगा । फ्रांस भी इसी तरह का अनुरोध करने का मन बना रहा है ।
यदि इन्हें वापस कर दिया जाता है तो यह अपशिष्ट कहां जाएगा ? वर्तमान में जापान में ओमोरी प्रीफेक्चर के पास अस्थायी तौर पर परमाणु अपशिष्ट के भण्डारण की सुविधा मौजूद है । लेकिन ऐसा हमेशा के लिए संभव नहींहै । परमाणु के विरूद्ध बढ़ते प्रतिरोध के चलते जापान में इससे संबंधित और अधिक सुविधाआें के निर्माण की अनुमति भी संभव नजर नहीं आती ।
जापान की दुविधा यही समाप्त् नहीं होती । सरकार का अनुमान है कि नवीनीकृत ऊर्जा एवं इसके आसपास ग्रिड के निर्माण हेतु ६२२ अरब अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता पड़ेगी और रातों रात इसकी व्यवस्था नहीं हो सकती । फुुकुशिमा परमाणु संयंत्र के बंद हो जाने के पश्चात् जापान की अमेरिका से आयात की गई गैस पर निर्भरता बहुत बढ़ गई है एवं उसके गैस आयात में २० प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है । जीवाश्म ईधन पर बढ़ती निर्भरता के चलते, भले यह अस्थायी क्यों न हो, जापान द्वारा सन् १९९२ के स्तर से कार्बन उत्सर्जन में २५ प्रतिशत की कमी कावायदा भी दूर की कौड़ी दिखाई देने लग गया है ।
क्या जापान का परमाणु संकट कभी खत्म होगा ? परमाणु ऊर्जा के क्षय से क्या कोई सबक लिया जाएगा ? जापान की तो दोनों ही स्थिति में इस वक्त वह स्वयं को शैतान और गहरे समुद्र के बीच पाता है ।
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