सोमवार, 5 नवंबर 2012

सामयिक
प्रकृति और पुरूष
शम्भु प्रसाद भट्ट स्नेहिल

    ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत पृथ्वी सौर परिवार का वह अत्यन्त महत्वपूर्ण सदस्य है, जो कि भौगोलिक ज्ञान के आधार पर सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करने वाला ग्रह है । पृथ्वी का तीन-चौथाई भाग स्थलीय है, जिसमें कि विश्व के विभिन्न देश विद्यमान है ।
    धार्मिक दृष्टि से सम्पूर्ण व्योमण्डल के साथ ही इस भू-धरा को संचालित एवं नियंत्रित करने वाली कोई अदृश्य व अलौकिक शक्ति है, जिसे मात्र एहसास ही किया जा सकता है, क्योंकि वह स्वयं निराकार परब्रह्म परमेश्वर है । जबकि संसार के विभिन्न राष्ट्रों का संचालन व नियंत्रण जनता के मध्य निर्वाचित एवं नियुक्त जनप्रतिनिधियों व राजा-महाराजाआें द्वारा किया जाता है ।
    संसार-सिन्धु में प्रकृतिही वह आवरण एवं आकृति है, जो कि प्राकृतिक सुन्दरता, विकटता विभिन्नता एवं विषमता के रूप में सर्वत्र व्याप्त् रहती   है । प्रकृति के मनोरम व विभिन्नता से भरे-पूरे दृश्यों को ही प्राकृतिकता कहते है अर्थात् जो स्वत: व्याप्त् है और जिसमें कृत्रिमता का कोई समावेश नहीं है ।    भू-मण्डल में फैले मैदान, पठार, रेगिस्तान, चट्टान, हिमाच्छादित पर्वत, नदी-नाले, झील और जंगल आदि सभी प्रकृति ही तो है । प्रकृति शब्द को वृहत् अर्थ में लिया जाता है क्योंकि यत्र-तत्र-सर्वत्र दृष्टिगोचर होने वाली सभी कुछ प्रकृति के अन्दर ही समावेशित है । प्र उपसर्गात्मक है, जो कि कृ धातु से बने कृति संयुक्त है, प्र  = परमेश्वर और कृति = रचना । इस प्रकार प्र+कृति = प्रकृति शब्द का स्पष्ट अर्थ है, परमेश्वर की रचना अर्थात वह रचना जो कि परमेश्वर द्वारा परोपकार के लिए ही रची गयी      है । सांसारिक कृति के पीछे ईश्वर का परमोद्देश्य भी यही रहा है कि यह समस्त प्राणियों के जीवनानुकूल रहते हुए उनका मार्ग प्रशस्त करे ।
    मानव को उसके जीवन की आवश्कतानुसार ही प्रकृति के अन्तर्गत व्याप्त् अथाह भण्डार का दोहन कर उपभोग  करने का अधिकार है, जबकि प्रकृति के संरक्षण एवं संवर्धन सम्बन्धी असीमित कर्तव्य है । एक बुद्धिजीवी प्राणी होने के कारण मानव का यह परम कर्तव्य है कि वह अधीनस्थ-असहाय व निरीह प्राणियोंकी सेवार्थ एवं कल्याणार्थ ही अधिक से अधिक समय व्यतीत    करे । प्रकृति के असीमित भण्डार का दोहन एवं उपभोग करना वह मानव की बुद्धि एवं योग्यता पर निर्भर है । उसके द्वारा प्रकृति का अनैतिक दोहन किया गया तो प्रकृति द्वारा चेतावनी के तौर पर समय-समय पर प्राकृतिक व दैवीय प्रकोप व घटनाआें के माध्यम से सचेत करने की चेष्ठा की जाती है ।
    पर्यावरण के विचलित होने से प्रदूषण का प्रभाव बढ़कर मानव ही नहीं अपितु सम्पूर्ण प्राणी-जगत के सम्मुख स्वस्थ जीवन जीने का प्रश्न खड़ा हो जाता है, वैसे तो प्रकृति आवश्यकतानुरूप उचित दोहन से मानव के लिये ईश्वरीय स्वयं सिद्ध वरदान स्वरूप है । जहाँ पुरूष उसकी कार्य क्षमता, शारीरिक बनावट एवं प्राणी प्रजनन शीलता के आधार पर पुल्ंलिग के अन्तर्गत एक नर है, वहीं प्रकृति उस सुन्दर आवरण, आकृति तथा उत्पादन क्षमता के आधार पर स्त्रीलिंग के अन्तर्गत रूत्री स्वरूपिणी नारी है । नर का नारी के साथ संसर्ग का परिणाम पुत्रोत्पत्ति है । इसी प्रकार मानव का प्रकृति में कार्य हेतु निरन्तर प्रगतिशील रहने पर विकास अवश्यम्भावी है ।
    धरती में उत्खनन कर कृषि कार्य करना, भवन निर्माण, यातायात हेतु सड़क निर्माण, विद्युत उत्पादन और प्रकृति प्रदत्त चीजों/वस्तुआें को वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा जीवनोपयोगी बनाना, यह सब मानव के सतत् संघर्ष एवं प्रयत्नशीलता का ही परिणाम है । यह कहा जा सकता है कि पुरूष रूपी साधन के माध्यम से विकास रूपी लक्ष्य की प्रािप्त् होती है । सृष्टि के प्रारम्भिक चरण में संसार संरचना के निमित्त परमेश्वर की माया से मनु नामक आदि पुरूष (नर) का श्रद्धा नाम्नी प्रकृति स्वरूपिणी  आदि स्त्री (नारी) से मेल हुआ । जिसका परिणाम मानव जाति का विकास है ।
    मनु की सन्तान होने से ही मानव नामक प्राणी को मनुष्य कहा जाता है । मानवीय भावना एवं व्यवहार के आधार पर मनुष्य के दो रूप देखने में आते है । प्रथमत: - इन्सान ओर द्वितीयत: - हैवान । इन्सान वही है, जो   ईश्वरीय शान एवं मान के अनुरूप न्यवहार एवं कार्य करे हैवान वह जो अपनी कठोरतम वाणी से दुसरों को हानि तथा ईश्वरीय मान-मर्यादा को अमान्य कर समाज को अपने न्यवहार से परेशानी एवं स्ंवय के सम्मानार्थ/लाभार्थ अन्यों के सम्मान को ठेस पहुँचायें । उसे दानव भी कहा जा सकता है ।
    प्रकृतिमें भावुकता तथा विभिन्न प्रकार की अत्याकर्षक वनस्पतियों सुन्दरता से युक्त स्थानों एवं प्राकृतिक वस्तुआें का भण्डार होने के कारण पूर्वकाल से ही यह पुरूष के लिए आकर्षक का केन्द्र बनी हुई है । सुन्दरता के प्रति आकर्षक होने के कारण महातपस्वी राजा पुरूरवा जैसे पुरूष भी उर्वसी नाम की अप्सरा के सम्मुख आत्मार्पित हो गये । आकर्षण इन्द्रास्त्र है, क्योंकि तपस्वियों के तपोबल को क्षीण करने के लिए देवराज इन्द्र बार-बार आकर्षणार्थ अप्सराआें की सुन्दरता रूपी अरूत्र का ही प्रयोग करत रहे है ।
    सुन्दरता एक ऐसा विशेषणात्मक शब्द एवं गुण है । जिससे आकर्षण जैसी क्रिया का होना स्वाभाविक हो जाता है । विपरीत लिंगी की सुन्दरता, आकर्षण अदायेंकठोर दिल मानव ही नहीं, दानव तक को भी मुलायम बनाकर पिघला देती है । आकर्षण शब्द आ उपसर्ग तथा कर्षण इन शब्दों के योग से बना है । आ का अर्थ निकटता से और कर्षण शब्द घर्षण से सम्बन्धित होने के कारण मिलकर कोई क्रिया करना है । इस प्रकार इसका स्पष्ट अर्थ है - किसी वस्तु प्राणी या स्थान के प्रति भावनात्मक लगाव व उसी में समायें रहने को चाह । प्रकृति सुन्दरता का आदि रूप है, इसलिए इसके प्रति लगाव व झुकाव तथा उसी समाये रहने की अभिलाषा का होना स्वाभाविक ही है ।
    आकर्षण शब्द क्रिया विशेषणात्मक है, जहां वह अपनी ओर आकृष्ट करने की क्रिया करता, वहींउसकी यह विशेषता एवं गुण भी है कि वह आकर्षित करने की क्षमता स्वयं रखता है । प्रकृति और पुरूष के मध्य आकर्षण ही ऐसा सेतु है, जो कि इन दोनों को परस्पर जोड़ने का कार्य करता है । जिस प्रकार मानव एक सामाजिक प्राणी है और समाज में न रहना उसकी मानवीय क्रिया पर प्रश्न चिन्ह है । उसी प्रकार इसके भावनात्मक जीव होने पर भी दूसरे को आकर्षित करने एवं आकर्षित होने की क्षमता का अभाव होना उसके सांसारिक, सामाजिक और पारिवारिक जीवन यापन में सन्देहास्पद स्थिति पैदा कर देता है ।
    प्रकृतिस्त्री स्वरूपिणी है, इसलिए पुरूष द्वारा संघर्ष या कार्य करना सार्थक है । यही विकास का द्योत्तक भी है । प्राय: देखा जाता है कि कृषि-कार्य अधिकतर महिला श्रम पर ही आधारित है । प्रकृति और स्वयं महिला दोनों समलिंगी मेल से विकास रूप परिणाम अर्थात् तृतीय वस्तु उत्पादन सम्भव नही है । इससे जमीनी उत्पादन क्षमता का स्तर पतन की ओर निरन्तर अग्रसर हो रहा है, यह वास्तविकता पुराधार्मिकता पर पूर्णत: आधारित है । यही स्थिति रही तो मानव के साथ अन्य प्राणियों के अस्तित्व के लिए खतरा मंडराने लगेगा, क्योंकि दो विपरीत लिंगी के मेल से ही प्राणी की विकास/वृद्धि सम्भव है ।
    अतीत के वर्षोमें मानवीय बौद्धिक स्तर चरणबद्ध रूप में विकसित होकर जो उच्चयु वर्ग में विद्यमान होता  था । वह वर्तमान विकास के साथ अल्पायु में ही विकसित होता चला जा रहा है, अन्तर मात्र बौद्धिक ज्ञान के सापेक्ष एवं निरपेक्ष क्रियान्वयन का है । आज निरपेक्षता का प्रतिशत बढ़ रहा है, यदि ज्ञान का शत-प्रतिशत उपयोग सकारात्मक कार्योंा में किया जाय तो विकास का क्रम निरन्तर प्रगति की ऊँचाईयों को छुयेगा । मानसिक विकास एवं वृहत् सोच प्रकृति के विभिन्न स्थानों की भौगोलिकता एवं आर्थिक-सामाजिक स्तर पर जन्मे पले-पोशे बच्च्े में अलग-अलग पाई जाती है ।
    नर-नारी के मध्य आकर्षण वेग रूप में प्रवाहित होकर प्रगाढ़ता बढ़ाते हुए परस्पर भावनाआें के आदान-प्रदान से एक दूसरे को बार-बार देखने की चाह, स्पर्श करने की इच्छा व आपस में खो जाने को अभिलाषाआें को जन्म देता है, जिससे जीवन से थका हतोत्साहित एवं नीरस मानव जीने की चाह लेकर आशा की किरण के सहारे जिन्दगी के क्षणों को व्यतीत करता है । जहाँ नर नारी के यौवन एवं सौन्दर्यता के साथ पहनावे व चाल-ढ़ाल से प्रथमदृष्टि ही आकर्षित हो जाता है । वहीं नारी नर के साहसिकता से भरे कार्योंा, सम्मानित पद, तन्दुरूस्त, गठीले सुन्दर शरीराकृति एवं व्यवहार की गम्भीरता से अध्ययन करने के बाद ही आकर्षित होती है । नारी की संवेदनशीलता एवं भावुकता ही उसे नर के दिखावा-खोखले वायदों के आगे त्वरित आत्मार्पित कर देती है ।
    प्रकृति के आंचल में अवस्थित हमारा यह महान राष्ट्र (भारतवर्ष) विभिन्न प्राकृतिक सुन्दरता से परिपूर्ण सामग्रियों से भरा-पूरा है । जिसे नारी (स्त्री) स्वरूपिणी मानते हुए माँ जैसे परम पूज्य व सम्मानित आत्मभाव के रूप में पूर्वकाल से ही भारत माता कहकर सम्बोधित करते आ रहे हैं ।

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