जनजीवन
हम और हमारा पर्यावरण
आकांक्षा यादव
मनुष्य और पर्यावरण का संबंध काफी पुराना और गहरा है । पर्यावरण के बिना जीवन ही संभव नहीं है । प्राचीन गं्रथों में वर्णित पंच तत्व क्षिति, जल, पावक, गगन एवं समीर मिलकर पर्यावरण का निर्माण करते हैं । ये तत्व आवश्यकतानुसार समस्त जीव के उपयोग-उपभोग में अपनी भूमिका निभाते हैं । मानव अपनी आकांक्षाओं के लिए इन तत्वों पर निर्भर हैं । इनका एक निश्चित तारतम्य जीवन को नए प्रतिमान देता है, पर जब किन्हीं कारणों से इनका असंतुलन बिगड़ता है तो पर्यावरण-संतुलन भी बिगड़ता है, जो अंतत: न सिर्फ मानव बल्कि सभ्यताओं को प्रभावित करता है । ऐसे में जरूरत है कि इनका दोहन नहीं बल्कि सतत् विकास द्वारा सवंदेनशील उपयोग किया जाए ।
हम और हमारा पर्यावरण
आकांक्षा यादव
मनुष्य और पर्यावरण का संबंध काफी पुराना और गहरा है । पर्यावरण के बिना जीवन ही संभव नहीं है । प्राचीन गं्रथों में वर्णित पंच तत्व क्षिति, जल, पावक, गगन एवं समीर मिलकर पर्यावरण का निर्माण करते हैं । ये तत्व आवश्यकतानुसार समस्त जीव के उपयोग-उपभोग में अपनी भूमिका निभाते हैं । मानव अपनी आकांक्षाओं के लिए इन तत्वों पर निर्भर हैं । इनका एक निश्चित तारतम्य जीवन को नए प्रतिमान देता है, पर जब किन्हीं कारणों से इनका असंतुलन बिगड़ता है तो पर्यावरण-संतुलन भी बिगड़ता है, जो अंतत: न सिर्फ मानव बल्कि सभ्यताओं को प्रभावित करता है । ऐसे में जरूरत है कि इनका दोहन नहीं बल्कि सतत् विकास द्वारा सवंदेनशील उपयोग किया जाए ।
पर्यावरण के प्रति बढ़ती असंवेदनशीलता आज भयावह परिणाम उत्पन्न कर रही है । एक तरफ बढ़ती जनसंख्या, उस पर से प्रकृति का अनुचित दोहन, वाकई यह संक्रमणकालीन दौर है । यदि हम अभी भी नहीं चेते तो सभ्यताओं के अवसान में देरी नहीं लगेगी । वैश्विक स्तर पर देखें तो धरती का मात्र ३१ प्रतिशत क्षेत्र वनों से आच्छादित है, जबकि ३६ करोड़ एकड़ वन क्षेत्र प्रतिवर्ष घट रहा है । नतीजन ११४१ प्रजातियों के विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है । वहीं जंगलों पर निर्भर १.६ अरब लोगों की आजीविका खतरे में है ।
बढ़ते पर्यावरण-प्रदूषण ने जल-थल-नभ किसी को भी नहीं छोड़ा है । पृथ्वी का तीन चौथाई हिस्सा जलमग्न है, जिसमें करीब ०.३ फीसदी में से भी मात्र ३० फीसदी जल ही पीने योग्य बचा है। तभी तो ११० करोड़ लोगों को दुनिया में पीने के लिए साफ पानी तक नहीं मिलता । नतीजन, दुनिया में प्रतिवर्ष १८ लाख बच्च्े पानी की कमी और बीमारियों के कारण दम तोड़ देते हैं । वहीं प्रतिवर्ष २२ लाख लोग जल जनित बीमारियांे के चलते मौत के मुँह में समा जाते हैं । संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक २०२५ तक २.९ अरब अतिरिक्त लोग जल आपूर्ति के संकट में इजाफा ही करेंगे ।
यदि भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात करें तो जिस गंगा नदी को जीवनदायिनी माना जाता है, उसमें १ अरब लीटर सीवेज मिलता है । ऐसे में स्वाभाविक है कि गंगा में बैक्टीरिया का स्तर २८०० गुना बढ़ गया है । इसी प्रकार यमुना नदी की बात करंे तो अकेले राजधानी दिल्ली का ५७ फीसदी कचरा यमुना मंंे डाला जाता है । यहाँ ३०५३ मिलियन लीटर सीवेज पानी यमुना में हर रोज बहाया जाता है । कहना गलत न होगा कि ८० फीसदी यमुना दिल्ली में ही प्रदूषित होती है ।
सिर्फ जल ही क्यों, जिस वायु में हम साँस लेते हैं, वह भी प्रदूषण से ग्रस्त है। पिछले ५ सालों में वायु में ८-१० फीसदी कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ी है, नतीजन ५ करोड़ बच्च्े हर समय वायु प्रदूषण से बीमार होते हैं । अकेले एशिया में ५३ लाख लोग प्रदूषित वायु के चलते मौत के मुँह में चले जाते हैं । हाल ही में अमेरिका की येल और कोलंबिया विश्व विद्यालय के वैज्ञानिकों की ओर से १३२ देशों में कराए गए वायु गुणवत्ता अध्ययन की मानें तो वायु-प्रदूषण के मामले में भारत आखिरी दस देशों में शामिल है । १३२ देशों में भारत को १२५ वाँ स्थान मिला है, जबकि चीन का स्थान ११६वाँ है ।
एक तरफ बढ़ती जनसंख्या, दूसरी तरफ बढ़ता पर्यावरण-प्रदूषण ऐसे में उनके बीच परस्पर संतुलन की शीघ्र आवश्यकता है । मानव और पर्यावरण के मध्य असंतुलन से जहाँ अन्य जीव-जंतुओं व वनस्पतियों की प्रजातियाँ नष्ट होने के कगार पर हैं, वहीं ग्रीन हाउस के बढ़ते उत्सर्जन व ग्लोबल वार्मिंग से स्वच्छ साँस तक लेना मुश्किल हो गया है । मानवीय जीवन में बढ़ती भौतिकता एवं प्रकृति व पर्यावरण के प्रति बढ़ती उदासीनता, लापरवाही, बेपरवाही व दोहन ने विनाश-लीला का तांडव आरंभ कर दिया है । पृथ्वी पर बढ़ते तापमान के चलते जलवायु-परिवर्तन भी हो रहा है ।
एक वैज्ञानिक रिपोर्ट के अनुसार-जलवायु परिर्वतन से हर वर्ष लगभग तीन लाख लोग मर रहे हैं, जिनमें से अधिकतर विकासशील देशों के हैं । ग्लोबल हृयूमैनिटेरियन फोरम की एक रिपोर्ट के अनुसार-``१९०६ से २००५ के मध्यम पृथ्वी का तापमान ०.७४ डिग्री सेल्सयिस बढ़ा है और हाल के वर्षों में इसमें उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है । वर्ष २१०० तक यह तापमान न्यूनतम दो डिग्री सेल्सयिस बढ़ने के आसार हैं ।``
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक २०३० तक वैश्विक ऊर्जा की जरूरत में ६० फीसदी की वृद्धि होगी । ऐसे में निर्वहनीय विकास के लिए तत्काल ध्यान दिए जाने की जरूरत है । कोयला और पेट्रोल के अधिकाधिक उपयोग से वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ रही है, जिससे पृथ्वी के औसत तापमान में भी वृद्धि हो रही है । वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी पर संतुलित तापमान के लिए वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा ०.३ फीसदी रहना जरूरी है । इसमें असंतुलन भयावह स्थिति पैदा कर सकता है । ओजोन परत जहाँ पराबैंगनी किरणों से धरा की रक्षा करता है, वहीं नित्-प्रतिदिन बढ़ते एयर कंडीशनर व रेफ्रीजरेटर एवं प्लास्टिक उद्योग में उपयोग किए जाने वाले क्लोरोलोरो कार्बन के उत्सर्जन से ओजोन परत को नुकसान पहुँच रहा है । इससे जहाँ पराबैंगनी किरणों के प्रवाह के चलते त्वचा कैंसर जैसी बीमारियाँं उत्पन्न हो रही हैं, वहीं ग्लेशियरों के पिघलने के चलते तमाम दीपों व देशों पर खतरा मंडरा रहा है ।
आर्कटिक क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन पर २००४ में प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट में दावा किया गया है कि आर्कटिक क्षेत्र में विश्व के अन्य भागों की अपेक्षा तापमान-वृद्धि दुगनी गति से हो रहा है । वस्तुत: आर्कटिक क्षेत्र में बर्फीली सतहें अधिक कारगर ढंग से सूर्य-उष्मा का परावर्तन करती हैं, पर अब तापमान बढ़ने एवं हिमखंडों के तीव्रता से पिघलने के कारण अनाच्छादित भूक्षेत्र व सागर तल द्वारा अपेक्षाकृत अधिक ऊष्मा ग्रहण की जा रही है, जिससे यह क्षेत्र अत्यंत तीव्र गति से गर्म होता जा रहा है । ऐसे में महासागरों का जलस्तर बढ़ने से तमाम द्वीपों व देशों के विलुप्त होने का खतरा उत्पन्न हो गया है । इससे जहाँँ जनसंख्या पलायन की समस्या उत्पन्न हुई है, वहीं समुद्री जीव-जंतुओं के विलुप्त होने की संभावनाएं भी उत्पन्न हो गई हैं ।
वस्तुत: जब हम पर्यावरण की बात करते हैंतो यह एक व्यापक शब्द है, जिसमें पेड़-पौधे, जल, नदियाँ, पहाड़ इत्यादि से लेकर हमारा समूचा परिवेश सम्मिलित है। हमारी हर गतिविधि इनसे प्रभावित होती है और इन्हें प्रभावित करती भी है । कभी लोग गर्मी में ठंंडक के लिए पहाड़ोंं पर जाया करते थे, पर वहाँ भी लोगों ने पेड़ोंं को काटकर रिसॉर्ट और होटल बनाने आरंभ कर दिए । कोई यह क्यों नहीं सोचता कि लोग पहाड़ों पर वहाँ के मौसम, प्राकृतिक परिवेश की खूबसूरती का आनंद लेना चाहते हैं न की कंक्रीटों का । पर लगता है जब तक यह बात समझ में आयेगी तब तक काफी देर हो चुकेगी ।
ग्लोबल वार्मिंग अपना रंग दिखाने लगी है, लोग गर्मी में ४५ पर तापमान के आने का रो रहे हैं,पर इसके लिए कोई कदम नहीं उठाना चाहता । सारी जिम्मेदारी बस सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं की है । जब तक हम इस मानसिकता से नहीं उबरेंगे, तब तक पर्यावरण के नारों से कुछ नहीं होने वाला है । आइये आज कुछ ऐसा सोचते हैं, जो हम कर सकते हैं । जिसकी शुरुआत हम स्वयं से या अपनी मित्रमंडली से कर सकते हैं । हम क्यों सरकार का मुँह देखें ? पृथ्वी हमारी है, पर्यावरण हमारा है तो फिर इसकी सुरक्षा भी तो हमारा कर्तव्य है । कुछ बातों पर गौर कीजिये, जिसे हम अपने परिवार और मित्र-जनों के साथ मिलकर करने की सोच सकते हैं । आप भी इस ओर एक कदम बढ़ा सकते हैं ।
जैव-विविधता के संरक्षण एवं प्रकृति के प्रति अनुराग पैदा करने हेतु फूलों को तोड़कर उपहार में बुके देने की बजाय गमले में लगे पौधे भेंट किये जाएँ । स्कूल में बच्चें को पुरस्कार के रूप में पौधे देकर, उनके अन्दर बचपन से ही पर्यावरण संरक्षण का बोध कराया जा सकता है । इसी प्रकार सूखे वृक्षों को तभी काटा जाय, जब उनकी जगह कम से कम दो नए पौधे लगाने का प्रण लिया जाय । जीवन के यादगार दिनों मसलन- जन्मदिन, वैवाहिक वर्षगाँठ या अन्य किसी शुभ कार्य की स्मृतियों को सहेजने के लिए पौधे लगाकर उनका पोषण करना चाहिए, ताकि सतत-संपोष्य विकास की अवधारणा निरंतर फलती-फूलती रहे । यह और भी समृद्ध होगा यदि अपनी वंशावली को सुरक्षित रखने हेतु ऐसे बगीचे तैयार किये जाएँ, जहाँ हर पीढ़ी द्वारा लगाये गए पौधे मौजूद हों । यह मजेदार भी होगा और पर्यावरण को सुरक्षित रखने की दिशा में एक नेक कदम भी ।
आज के उपभोक्तावादी जीवन में इको-फ्रेडली होना बहुत जरूरी है । पानी और बिजली का अपव्यय रोककर हम इसका निर्वाह कर सकते हैं । फ्लश का इस्तेमाल कम से कम करें । शानो-शौकत में बिजली की खपत को स्वत: रोककर लोगों को प्रेरणा भी दे सकते हैं । इसी प्रकार री-सायकलिंग द्वारा पानी की बर्बादी रोककर और टॉयलेट इत्यादि में इनका उपयोग किया जा सकता है ।
मानव को यह नहीं भूलना चाहिए कि हम कितना भी विकास कर लें, पर पर्यावरण की सुरक्षा को ललकार कर किया गया कोई भी कार्य समूची मानवता को खतरे में डाल सकता है । अत: जरूरत है कि अभी से प्रकृति व पर्यावरण के संरक्षण के प्रति सचेत हुआ जाए और इसे समृद्ध करने की दिशा में तत्पर हुआ जाय ।
बढ़ते पर्यावरण-प्रदूषण ने जल-थल-नभ किसी को भी नहीं छोड़ा है । पृथ्वी का तीन चौथाई हिस्सा जलमग्न है, जिसमें करीब ०.३ फीसदी में से भी मात्र ३० फीसदी जल ही पीने योग्य बचा है। तभी तो ११० करोड़ लोगों को दुनिया में पीने के लिए साफ पानी तक नहीं मिलता । नतीजन, दुनिया में प्रतिवर्ष १८ लाख बच्च्े पानी की कमी और बीमारियों के कारण दम तोड़ देते हैं । वहीं प्रतिवर्ष २२ लाख लोग जल जनित बीमारियांे के चलते मौत के मुँह में समा जाते हैं । संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक २०२५ तक २.९ अरब अतिरिक्त लोग जल आपूर्ति के संकट में इजाफा ही करेंगे ।
यदि भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात करें तो जिस गंगा नदी को जीवनदायिनी माना जाता है, उसमें १ अरब लीटर सीवेज मिलता है । ऐसे में स्वाभाविक है कि गंगा में बैक्टीरिया का स्तर २८०० गुना बढ़ गया है । इसी प्रकार यमुना नदी की बात करंे तो अकेले राजधानी दिल्ली का ५७ फीसदी कचरा यमुना मंंे डाला जाता है । यहाँ ३०५३ मिलियन लीटर सीवेज पानी यमुना में हर रोज बहाया जाता है । कहना गलत न होगा कि ८० फीसदी यमुना दिल्ली में ही प्रदूषित होती है ।
सिर्फ जल ही क्यों, जिस वायु में हम साँस लेते हैं, वह भी प्रदूषण से ग्रस्त है। पिछले ५ सालों में वायु में ८-१० फीसदी कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ी है, नतीजन ५ करोड़ बच्च्े हर समय वायु प्रदूषण से बीमार होते हैं । अकेले एशिया में ५३ लाख लोग प्रदूषित वायु के चलते मौत के मुँह में चले जाते हैं । हाल ही में अमेरिका की येल और कोलंबिया विश्व विद्यालय के वैज्ञानिकों की ओर से १३२ देशों में कराए गए वायु गुणवत्ता अध्ययन की मानें तो वायु-प्रदूषण के मामले में भारत आखिरी दस देशों में शामिल है । १३२ देशों में भारत को १२५ वाँ स्थान मिला है, जबकि चीन का स्थान ११६वाँ है ।
एक तरफ बढ़ती जनसंख्या, दूसरी तरफ बढ़ता पर्यावरण-प्रदूषण ऐसे में उनके बीच परस्पर संतुलन की शीघ्र आवश्यकता है । मानव और पर्यावरण के मध्य असंतुलन से जहाँ अन्य जीव-जंतुओं व वनस्पतियों की प्रजातियाँ नष्ट होने के कगार पर हैं, वहीं ग्रीन हाउस के बढ़ते उत्सर्जन व ग्लोबल वार्मिंग से स्वच्छ साँस तक लेना मुश्किल हो गया है । मानवीय जीवन में बढ़ती भौतिकता एवं प्रकृति व पर्यावरण के प्रति बढ़ती उदासीनता, लापरवाही, बेपरवाही व दोहन ने विनाश-लीला का तांडव आरंभ कर दिया है । पृथ्वी पर बढ़ते तापमान के चलते जलवायु-परिवर्तन भी हो रहा है ।
एक वैज्ञानिक रिपोर्ट के अनुसार-जलवायु परिर्वतन से हर वर्ष लगभग तीन लाख लोग मर रहे हैं, जिनमें से अधिकतर विकासशील देशों के हैं । ग्लोबल हृयूमैनिटेरियन फोरम की एक रिपोर्ट के अनुसार-``१९०६ से २००५ के मध्यम पृथ्वी का तापमान ०.७४ डिग्री सेल्सयिस बढ़ा है और हाल के वर्षों में इसमें उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी दर्ज की गई है । वर्ष २१०० तक यह तापमान न्यूनतम दो डिग्री सेल्सयिस बढ़ने के आसार हैं ।``
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक २०३० तक वैश्विक ऊर्जा की जरूरत में ६० फीसदी की वृद्धि होगी । ऐसे में निर्वहनीय विकास के लिए तत्काल ध्यान दिए जाने की जरूरत है । कोयला और पेट्रोल के अधिकाधिक उपयोग से वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ रही है, जिससे पृथ्वी के औसत तापमान में भी वृद्धि हो रही है । वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी पर संतुलित तापमान के लिए वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा ०.३ फीसदी रहना जरूरी है । इसमें असंतुलन भयावह स्थिति पैदा कर सकता है । ओजोन परत जहाँ पराबैंगनी किरणों से धरा की रक्षा करता है, वहीं नित्-प्रतिदिन बढ़ते एयर कंडीशनर व रेफ्रीजरेटर एवं प्लास्टिक उद्योग में उपयोग किए जाने वाले क्लोरोलोरो कार्बन के उत्सर्जन से ओजोन परत को नुकसान पहुँच रहा है । इससे जहाँ पराबैंगनी किरणों के प्रवाह के चलते त्वचा कैंसर जैसी बीमारियाँं उत्पन्न हो रही हैं, वहीं ग्लेशियरों के पिघलने के चलते तमाम दीपों व देशों पर खतरा मंडरा रहा है ।
आर्कटिक क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन पर २००४ में प्रकाशित एक अध्ययन रिपोर्ट में दावा किया गया है कि आर्कटिक क्षेत्र में विश्व के अन्य भागों की अपेक्षा तापमान-वृद्धि दुगनी गति से हो रहा है । वस्तुत: आर्कटिक क्षेत्र में बर्फीली सतहें अधिक कारगर ढंग से सूर्य-उष्मा का परावर्तन करती हैं, पर अब तापमान बढ़ने एवं हिमखंडों के तीव्रता से पिघलने के कारण अनाच्छादित भूक्षेत्र व सागर तल द्वारा अपेक्षाकृत अधिक ऊष्मा ग्रहण की जा रही है, जिससे यह क्षेत्र अत्यंत तीव्र गति से गर्म होता जा रहा है । ऐसे में महासागरों का जलस्तर बढ़ने से तमाम द्वीपों व देशों के विलुप्त होने का खतरा उत्पन्न हो गया है । इससे जहाँँ जनसंख्या पलायन की समस्या उत्पन्न हुई है, वहीं समुद्री जीव-जंतुओं के विलुप्त होने की संभावनाएं भी उत्पन्न हो गई हैं ।
वस्तुत: जब हम पर्यावरण की बात करते हैंतो यह एक व्यापक शब्द है, जिसमें पेड़-पौधे, जल, नदियाँ, पहाड़ इत्यादि से लेकर हमारा समूचा परिवेश सम्मिलित है। हमारी हर गतिविधि इनसे प्रभावित होती है और इन्हें प्रभावित करती भी है । कभी लोग गर्मी में ठंंडक के लिए पहाड़ोंं पर जाया करते थे, पर वहाँ भी लोगों ने पेड़ोंं को काटकर रिसॉर्ट और होटल बनाने आरंभ कर दिए । कोई यह क्यों नहीं सोचता कि लोग पहाड़ों पर वहाँ के मौसम, प्राकृतिक परिवेश की खूबसूरती का आनंद लेना चाहते हैं न की कंक्रीटों का । पर लगता है जब तक यह बात समझ में आयेगी तब तक काफी देर हो चुकेगी ।
ग्लोबल वार्मिंग अपना रंग दिखाने लगी है, लोग गर्मी में ४५ पर तापमान के आने का रो रहे हैं,पर इसके लिए कोई कदम नहीं उठाना चाहता । सारी जिम्मेदारी बस सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं की है । जब तक हम इस मानसिकता से नहीं उबरेंगे, तब तक पर्यावरण के नारों से कुछ नहीं होने वाला है । आइये आज कुछ ऐसा सोचते हैं, जो हम कर सकते हैं । जिसकी शुरुआत हम स्वयं से या अपनी मित्रमंडली से कर सकते हैं । हम क्यों सरकार का मुँह देखें ? पृथ्वी हमारी है, पर्यावरण हमारा है तो फिर इसकी सुरक्षा भी तो हमारा कर्तव्य है । कुछ बातों पर गौर कीजिये, जिसे हम अपने परिवार और मित्र-जनों के साथ मिलकर करने की सोच सकते हैं । आप भी इस ओर एक कदम बढ़ा सकते हैं ।
जैव-विविधता के संरक्षण एवं प्रकृति के प्रति अनुराग पैदा करने हेतु फूलों को तोड़कर उपहार में बुके देने की बजाय गमले में लगे पौधे भेंट किये जाएँ । स्कूल में बच्चें को पुरस्कार के रूप में पौधे देकर, उनके अन्दर बचपन से ही पर्यावरण संरक्षण का बोध कराया जा सकता है । इसी प्रकार सूखे वृक्षों को तभी काटा जाय, जब उनकी जगह कम से कम दो नए पौधे लगाने का प्रण लिया जाय । जीवन के यादगार दिनों मसलन- जन्मदिन, वैवाहिक वर्षगाँठ या अन्य किसी शुभ कार्य की स्मृतियों को सहेजने के लिए पौधे लगाकर उनका पोषण करना चाहिए, ताकि सतत-संपोष्य विकास की अवधारणा निरंतर फलती-फूलती रहे । यह और भी समृद्ध होगा यदि अपनी वंशावली को सुरक्षित रखने हेतु ऐसे बगीचे तैयार किये जाएँ, जहाँ हर पीढ़ी द्वारा लगाये गए पौधे मौजूद हों । यह मजेदार भी होगा और पर्यावरण को सुरक्षित रखने की दिशा में एक नेक कदम भी ।
आज के उपभोक्तावादी जीवन में इको-फ्रेडली होना बहुत जरूरी है । पानी और बिजली का अपव्यय रोककर हम इसका निर्वाह कर सकते हैं । फ्लश का इस्तेमाल कम से कम करें । शानो-शौकत में बिजली की खपत को स्वत: रोककर लोगों को प्रेरणा भी दे सकते हैं । इसी प्रकार री-सायकलिंग द्वारा पानी की बर्बादी रोककर और टॉयलेट इत्यादि में इनका उपयोग किया जा सकता है ।
मानव को यह नहीं भूलना चाहिए कि हम कितना भी विकास कर लें, पर पर्यावरण की सुरक्षा को ललकार कर किया गया कोई भी कार्य समूची मानवता को खतरे में डाल सकता है । अत: जरूरत है कि अभी से प्रकृति व पर्यावरण के संरक्षण के प्रति सचेत हुआ जाए और इसे समृद्ध करने की दिशा में तत्पर हुआ जाय ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें