विज्ञान हमारे आसपास
हीलियम की खोज की कहानी
डॉ. विजय कुमार उपाध्याय
हीलियम एक रासायनिक तत्व है जिसकी परमाणु संख्या २ तथा संकेत कश है । यह एक रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, निष्क्रिय तथा एक-परमाणविक (मोना एटॉमिक) गैस है जो आवर्त सारणी के नोबल गैस समूह में प्रमुख है । अभी तक ब्रह्माण्ड में जितने तत्व पाए गए हैं उन सभी में अल्पतम क्वथनांक तथा अल्पतम हिमांक हीलियम का ही है । यानी यह सबसे कम तापमान पर उबलती और ठोस बनती है ।
सर्वाधिक हल्के तत्वों में हीलियम का स्थान दूसरा है तथा ब्रह्माण्ड में तत्वों की प्रचुरता के दृष्टिकोण से भी इसका स्थान दूसरा है । ब्रह्माण्ड में मौजूद सभी तत्वों का जो मिला-जुला द्रव्यमान है उसका २४ प्रतिशत भाग सिर्फ हीलियम का है । यह सभी भारी तत्वों के सम्मिलित द्रव्यमान के १२ गुना से भी अधिक है । ब्रह्माण्ड में हीलियम की यह प्रचुरता सूर्य तथा बृहस्पति ग्रह में हीलियम की प्रचुरता के लगभग बराबर है । हीलियम की इतनी प्रचुरता का कारण है इसके नाभिक की अति उच्च् बंधन ऊर्जा (बाइंडिंग एनर्जी) ।
हीलियम की खोज की कहानी
डॉ. विजय कुमार उपाध्याय
हीलियम एक रासायनिक तत्व है जिसकी परमाणु संख्या २ तथा संकेत कश है । यह एक रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, निष्क्रिय तथा एक-परमाणविक (मोना एटॉमिक) गैस है जो आवर्त सारणी के नोबल गैस समूह में प्रमुख है । अभी तक ब्रह्माण्ड में जितने तत्व पाए गए हैं उन सभी में अल्पतम क्वथनांक तथा अल्पतम हिमांक हीलियम का ही है । यानी यह सबसे कम तापमान पर उबलती और ठोस बनती है ।
सर्वाधिक हल्के तत्वों में हीलियम का स्थान दूसरा है तथा ब्रह्माण्ड में तत्वों की प्रचुरता के दृष्टिकोण से भी इसका स्थान दूसरा है । ब्रह्माण्ड में मौजूद सभी तत्वों का जो मिला-जुला द्रव्यमान है उसका २४ प्रतिशत भाग सिर्फ हीलियम का है । यह सभी भारी तत्वों के सम्मिलित द्रव्यमान के १२ गुना से भी अधिक है । ब्रह्माण्ड में हीलियम की यह प्रचुरता सूर्य तथा बृहस्पति ग्रह में हीलियम की प्रचुरता के लगभग बराबर है । हीलियम की इतनी प्रचुरता का कारण है इसके नाभिक की अति उच्च् बंधन ऊर्जा (बाइंडिंग एनर्जी) ।
वैज्ञानिकों के मतानुसार ब्रह्माण्ड में उपस्थित अधिकांश हीलियम का निर्माण महाविस्फोट (बिग बैंग) के दौरान हुआ था । इसके अलावा भारी मात्रा में नई हीलियम का निर्माण विभिन्न तारों में हाइड्रोजन के परमाणुआें के आपस में जुड़ने (संलयन) के कारण हो रहा है ।
हीलियम की उपस्थिति का प्रथम संकेत १८ अगस्त १८६८ को सूर्य के क्रोमोस्फीमर के वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम) मेंतीव्र चमकीली पीली रेखा के रूप में प्राप्त् हुआ था । इस रेखा की तरंग लम्बाई ५८७.४९ नैनोमीटर थी । इस पीली रेखा को फ्रांसीसी खगोलविद जूल्स जैंसन द्वारा पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान भारत में आंध्रप्रदेश के गंुटूर नामक स्थान पर देखा गया था । पहले तो जूल्स जैंसन ने वर्णक्रम की इस पीली रेखा को सोडियम से उत्पन्न समझा । उसी वर्ष २० अक्टूबर को ब्रिटिश खगोलविद नॉर्मन लॉकेयर ने सौर वर्णक्रम में एक पीली रेखा देखी जिसका नाम उन्होनें डी-३ फ्रानहॉफर रेखा रखा क्योंकि पीली रेखा सोडियम की ज्ञात डी-१ तथा डी-२ रेखाआें के निकट थी ।
लॉकेयर ने यह निष्कर्ष निकाला कि इस पीली रेखा का निर्माण सूर्य मेंमौजूद किसी ऐसे तत्व के कारण हो रहा है जो पृथ्वी पर अज्ञात है । लॉकेयर तथा ब्रिटिश रसायनविद एडवर्ड फै्रंकलैंड ने इस नए तत्व का नाम सूर्य के लिए ग्रीक शब्द हीलियोस के आधार पर हीलियम रखा ।
सन १८८२ में इटालियन भौतिकीविद लुइगी पालमियेरी ने जब माउंट वेसुवियस से प्राप्त् लावा का विश्लेषण किया तो पृथ्वी पर पहली बार डी-३ वर्णक्रम रेखा के आधार पर हीलियम की उपस्थिति का संकेत पाया । स्कॉटलैंड के रसायनविद सर विलियम रैमसे ने २६ मार्च १८९५ को क्लेवाइट नामक खनिज पर अम्लों की प्रतिक्रिया से पहली बार धरती पर हीलियम प्राप्त् करने मेंसफलता प्राप्त् की । क्लेवाइट यूरेनियम का एक अयस्क है । वस्तुत: रैमसे आर्गन की खोज कर रहे थे परन्तु गंधकाम्ल की अभिक्रिया से उत्पन्न गैस से ऑक्सीजन एवं नाइट्रोजन को अलग करने के बाद बची हुई गैस के वर्णक्रम मेंउन्होंने एक चमकीली पीली रेखा देखी जो सूर्य के वर्णक्रम में दिखाई पड़ने वाली डी-३ रेखा से मिलती-जुलती थी ।
उसी वर्ष स्वीडन निवासी दो रसायनविदों पेर थियोडोर क्लीव तथा अब्राहम लैंग्लेट ने स्वतंत्र रूप से उपसला नामक स्थान पर क्लेवाइट नामक खनिज से पर्याप्त् मात्रा में हीलियम गैस प्राप्त् की तथा उसका परमाणु भार निर्धारित किया । रैमर्स से भी पूर्व हीलियम को प्राप्त् किया था अमेरिकी भू-रसायनविद विलियम फ्रांसिस हिलब्रांड ने । हिलब्रांड ने यूरेनीनाइट नामक खनिज का विश्लेषण करते हुए वर्णक्रम में एक विशिष्ट प्रकार की पीली रेखा देखी । परन्तु उन्होंने गलती से इस रेखा को नाइट्रोजन से उत्पन्न मान लिया । जब रैमसे द्वारा हीलियम की खोज का समाचार हिलब्रांड को मिला तो उन्होंने बधाई संदेा भेजा जिसमें उन्होनें अपने द्वारा की गई चूक की भी चर्चा की ।
सन १९०७ में अर्नेस्ट रदरफोर्ड तथा थॉमस रॉयड्स ने प्रयोग द्वारा साबित किया कि अल्फा कण वस्तुत: हीलियम के नाभिक हैं । इसके लिए इन वैज्ञानिकों ने अल्फा कणों को निर्वात ट्यूब में दीवार को भेदकर भेजा तथा ट्यूब में डिस्चार्ज उत्पन्न कर भीतर की गई गैस के वर्णक्रम का अध्ययन किया । पाया गया कि ट्यूब में बनी नई गैस हीलियम है ।
सन् १९०८ में हॉलैंड के भौतिकीविद हाइक कैमरलिंग ओनेस हीलियम को एक डिग्री केल्विन से भी कम तापमान तक ठंडा कर उसे द्रव अवस्था में परिवर्तित करने में सफल हुए । उन्होंने इसे और अधिक ठंडा कर ठोस अवस्था में परिवर्तित करना चाहा, परन्तु सफलता नहीं मिली । परन्तु ओनेसे का ही एक छात्र विलियम हेड्रिक कीसोम १९२६ में एक घन सेंटीमीटर हीलियम पर दाब आरोपित करके ठोस अवस्था में परिवर्तित करने में पूर्णत: सफल हुआ ।
सन् १९३८ में रूसी भौतिकविद प्योत्र लियोनिदोविच कपित्सा ने यह पता लगाया कि परम शून्य तापमान पर हीलियम में गाढ़ापन (श्यानता) नगण्य परिमाण में होती है । इस गुण को अति-तरलता कहा जाता है ।
सन् १९०३ में संयुक्त राज्य अमेरिका के कैन्सास क्षेत्र में खनिज तेल के निष्कर्षण हेतु किए गए ड्रिलिंग के फलस्वरूप एक गर्म गैस का सोता (गीज़र) उत्पन्न हुआ । परन्तु यह गैस ज्वलनशील नहीं थी । कैन्सास के भू-विज्ञानवेत्ता इरेस्मस हैवर्थ ने उस गीज़र से निकलती दैस के नमूने का विश्लेषण कैन्सास विश्वविघालय के हैमिल्टन केडी तथा डैविड मैक फॉलैंण्ड नामक रसायनविदों की सहायता से किया तो पता चला कि उसमें आयतन के हिसाब से ७२ प्रतिशत नाइट्रोजन, १५ प्रतिशत मीथेन, १ प्रतिशत हाइड्रोजन तथा १२ प्रतिशत अपरिचित गैसें थी । बाद में किए गए विश्लेषणों से पता चला कि उसमें १.८४ प्रतिशत हीलियम थी । इस प्रकार यह तथ्य सामने आया कि पृथ्वी पर इस गैस की कमी के बावजूद अमेरिका के इस क्षेत्र मेंइसका काफी बड़ा भंडार मौजूद है । इस विशाल भंडार की उपलब्धता के चलते आज यूएस पूरे संसार मेंहीलियम का सबसे बड़ा उत्पादक तथा निर्यातक है ।
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अमरीकी नौसेना ने तीन छोटे प्रयोगिक हीलियम प्लांट प्रायोजित किए थे । उद्देश्य था अज्वलनशील तथा हवा से हल्की गैस भरे गुब्बारों की आपूर्ति करना । उपर्युक्त तीन प्लांटों में ५७०० घन मीटर गैस का उत्पादन किया गया जिसमें से ९२ प्रतिशत हीलियम थी । इसमें से कुछ हीलियम का उपयोग संसार के प्रथम हीलियम भरे एयरशिप सी-७ के लिए किया गया जिसका उपयोग अमरीकी नौसेना द्वारा किया गया ।
हीलियम का उपयोग मुख्य रूप से हवा से हल्के वायुयान के लिए होता आया है । इसी कारण द्वितीय युद्ध के दौरान हीलियम की मांग काफी बढ़ी थी । मैनहटन परमाणु बम परियोजना में भी हीलियम का उपयोग काफी आवश्यक हो गया था ।
भारत में परमाणु ऊर्जा विभाग के अधीनस्थ वैरिएबल एनर्जी साइक्लोट्रोन सेंटर द्वाा पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में स्थित बके्रश्वर के गर्म झरनों का अध्ययन करने पर पता चला कि यहां से निकलने वाली प्राकृतिक गैसों में हीलियम की भी काफी मात्रा है । सर्वेक्षणों से जानकारी मिली कि पश्चिम बंगाल के बक्रेश्वर तथा झारखंड के तंतलोई स्थित गर्म झरनों से पर्याप्त् मात्रा में हीलियम युक्त प्राकृतिक गैसें बुलबुलों के रूप में निकलती रहती हैं । इनमें हीलियम की मात्रा करीब १.३ प्रतिशत है । उपरोक्त दोनों गर्म झरनों वाले स्थान एक-दूसरे से लगभग २५ किलोमीटर की दूरी पर और कोलकाता से २५० कि.मी. की दूरी पर स्थित है ।
हीलियम की उपस्थिति का प्रथम संकेत १८ अगस्त १८६८ को सूर्य के क्रोमोस्फीमर के वर्णक्रम (स्पेक्ट्रम) मेंतीव्र चमकीली पीली रेखा के रूप में प्राप्त् हुआ था । इस रेखा की तरंग लम्बाई ५८७.४९ नैनोमीटर थी । इस पीली रेखा को फ्रांसीसी खगोलविद जूल्स जैंसन द्वारा पूर्ण सूर्य ग्रहण के दौरान भारत में आंध्रप्रदेश के गंुटूर नामक स्थान पर देखा गया था । पहले तो जूल्स जैंसन ने वर्णक्रम की इस पीली रेखा को सोडियम से उत्पन्न समझा । उसी वर्ष २० अक्टूबर को ब्रिटिश खगोलविद नॉर्मन लॉकेयर ने सौर वर्णक्रम में एक पीली रेखा देखी जिसका नाम उन्होनें डी-३ फ्रानहॉफर रेखा रखा क्योंकि पीली रेखा सोडियम की ज्ञात डी-१ तथा डी-२ रेखाआें के निकट थी ।
लॉकेयर ने यह निष्कर्ष निकाला कि इस पीली रेखा का निर्माण सूर्य मेंमौजूद किसी ऐसे तत्व के कारण हो रहा है जो पृथ्वी पर अज्ञात है । लॉकेयर तथा ब्रिटिश रसायनविद एडवर्ड फै्रंकलैंड ने इस नए तत्व का नाम सूर्य के लिए ग्रीक शब्द हीलियोस के आधार पर हीलियम रखा ।
सन १८८२ में इटालियन भौतिकीविद लुइगी पालमियेरी ने जब माउंट वेसुवियस से प्राप्त् लावा का विश्लेषण किया तो पृथ्वी पर पहली बार डी-३ वर्णक्रम रेखा के आधार पर हीलियम की उपस्थिति का संकेत पाया । स्कॉटलैंड के रसायनविद सर विलियम रैमसे ने २६ मार्च १८९५ को क्लेवाइट नामक खनिज पर अम्लों की प्रतिक्रिया से पहली बार धरती पर हीलियम प्राप्त् करने मेंसफलता प्राप्त् की । क्लेवाइट यूरेनियम का एक अयस्क है । वस्तुत: रैमसे आर्गन की खोज कर रहे थे परन्तु गंधकाम्ल की अभिक्रिया से उत्पन्न गैस से ऑक्सीजन एवं नाइट्रोजन को अलग करने के बाद बची हुई गैस के वर्णक्रम मेंउन्होंने एक चमकीली पीली रेखा देखी जो सूर्य के वर्णक्रम में दिखाई पड़ने वाली डी-३ रेखा से मिलती-जुलती थी ।
उसी वर्ष स्वीडन निवासी दो रसायनविदों पेर थियोडोर क्लीव तथा अब्राहम लैंग्लेट ने स्वतंत्र रूप से उपसला नामक स्थान पर क्लेवाइट नामक खनिज से पर्याप्त् मात्रा में हीलियम गैस प्राप्त् की तथा उसका परमाणु भार निर्धारित किया । रैमर्स से भी पूर्व हीलियम को प्राप्त् किया था अमेरिकी भू-रसायनविद विलियम फ्रांसिस हिलब्रांड ने । हिलब्रांड ने यूरेनीनाइट नामक खनिज का विश्लेषण करते हुए वर्णक्रम में एक विशिष्ट प्रकार की पीली रेखा देखी । परन्तु उन्होंने गलती से इस रेखा को नाइट्रोजन से उत्पन्न मान लिया । जब रैमसे द्वारा हीलियम की खोज का समाचार हिलब्रांड को मिला तो उन्होंने बधाई संदेा भेजा जिसमें उन्होनें अपने द्वारा की गई चूक की भी चर्चा की ।
सन १९०७ में अर्नेस्ट रदरफोर्ड तथा थॉमस रॉयड्स ने प्रयोग द्वारा साबित किया कि अल्फा कण वस्तुत: हीलियम के नाभिक हैं । इसके लिए इन वैज्ञानिकों ने अल्फा कणों को निर्वात ट्यूब में दीवार को भेदकर भेजा तथा ट्यूब में डिस्चार्ज उत्पन्न कर भीतर की गई गैस के वर्णक्रम का अध्ययन किया । पाया गया कि ट्यूब में बनी नई गैस हीलियम है ।
सन् १९०८ में हॉलैंड के भौतिकीविद हाइक कैमरलिंग ओनेस हीलियम को एक डिग्री केल्विन से भी कम तापमान तक ठंडा कर उसे द्रव अवस्था में परिवर्तित करने में सफल हुए । उन्होंने इसे और अधिक ठंडा कर ठोस अवस्था में परिवर्तित करना चाहा, परन्तु सफलता नहीं मिली । परन्तु ओनेसे का ही एक छात्र विलियम हेड्रिक कीसोम १९२६ में एक घन सेंटीमीटर हीलियम पर दाब आरोपित करके ठोस अवस्था में परिवर्तित करने में पूर्णत: सफल हुआ ।
सन् १९३८ में रूसी भौतिकविद प्योत्र लियोनिदोविच कपित्सा ने यह पता लगाया कि परम शून्य तापमान पर हीलियम में गाढ़ापन (श्यानता) नगण्य परिमाण में होती है । इस गुण को अति-तरलता कहा जाता है ।
सन् १९०३ में संयुक्त राज्य अमेरिका के कैन्सास क्षेत्र में खनिज तेल के निष्कर्षण हेतु किए गए ड्रिलिंग के फलस्वरूप एक गर्म गैस का सोता (गीज़र) उत्पन्न हुआ । परन्तु यह गैस ज्वलनशील नहीं थी । कैन्सास के भू-विज्ञानवेत्ता इरेस्मस हैवर्थ ने उस गीज़र से निकलती दैस के नमूने का विश्लेषण कैन्सास विश्वविघालय के हैमिल्टन केडी तथा डैविड मैक फॉलैंण्ड नामक रसायनविदों की सहायता से किया तो पता चला कि उसमें आयतन के हिसाब से ७२ प्रतिशत नाइट्रोजन, १५ प्रतिशत मीथेन, १ प्रतिशत हाइड्रोजन तथा १२ प्रतिशत अपरिचित गैसें थी । बाद में किए गए विश्लेषणों से पता चला कि उसमें १.८४ प्रतिशत हीलियम थी । इस प्रकार यह तथ्य सामने आया कि पृथ्वी पर इस गैस की कमी के बावजूद अमेरिका के इस क्षेत्र मेंइसका काफी बड़ा भंडार मौजूद है । इस विशाल भंडार की उपलब्धता के चलते आज यूएस पूरे संसार मेंहीलियम का सबसे बड़ा उत्पादक तथा निर्यातक है ।
प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अमरीकी नौसेना ने तीन छोटे प्रयोगिक हीलियम प्लांट प्रायोजित किए थे । उद्देश्य था अज्वलनशील तथा हवा से हल्की गैस भरे गुब्बारों की आपूर्ति करना । उपर्युक्त तीन प्लांटों में ५७०० घन मीटर गैस का उत्पादन किया गया जिसमें से ९२ प्रतिशत हीलियम थी । इसमें से कुछ हीलियम का उपयोग संसार के प्रथम हीलियम भरे एयरशिप सी-७ के लिए किया गया जिसका उपयोग अमरीकी नौसेना द्वारा किया गया ।
हीलियम का उपयोग मुख्य रूप से हवा से हल्के वायुयान के लिए होता आया है । इसी कारण द्वितीय युद्ध के दौरान हीलियम की मांग काफी बढ़ी थी । मैनहटन परमाणु बम परियोजना में भी हीलियम का उपयोग काफी आवश्यक हो गया था ।
भारत में परमाणु ऊर्जा विभाग के अधीनस्थ वैरिएबल एनर्जी साइक्लोट्रोन सेंटर द्वाा पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में स्थित बके्रश्वर के गर्म झरनों का अध्ययन करने पर पता चला कि यहां से निकलने वाली प्राकृतिक गैसों में हीलियम की भी काफी मात्रा है । सर्वेक्षणों से जानकारी मिली कि पश्चिम बंगाल के बक्रेश्वर तथा झारखंड के तंतलोई स्थित गर्म झरनों से पर्याप्त् मात्रा में हीलियम युक्त प्राकृतिक गैसें बुलबुलों के रूप में निकलती रहती हैं । इनमें हीलियम की मात्रा करीब १.३ प्रतिशत है । उपरोक्त दोनों गर्म झरनों वाले स्थान एक-दूसरे से लगभग २५ किलोमीटर की दूरी पर और कोलकाता से २५० कि.मी. की दूरी पर स्थित है ।
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