पर्यावरण परिक्रमा
विदेशों में भारतीय जड़ी-बूटियों की भारी मांग
अमेरिका, जापान, रूस और यूरोपीय देशों में भारतीय जड़ी बूटियों से तैयार दवाआें की भारी मांग है और इनके निर्यात से देश को हर साल करीब ३० अरब रूपए की कमाई होती है ।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जड़ी बुटियों से तैयार दवाआें और आयुर्वेदिक उत्पादों की सबसे ज्यादा मांग अमेरिका में है । अमेरिका के बाद भारतीय परम्परागत दवाआें का सबसे ज्यादा आयात करने वाला देश पाकिस्तान है । इसके अलावा जर्मनी, जापान, आस्ट्रेलिया, संयुक्त अरब अमीरात, नेपाल, रूस, इटली और फ्रांस में भी इन दवाआें की भारी मांग है । यूरोपीय देशों में भारतीय जड़ी बूटियों से तैयार दवाआें की मांग बढ़ रही है और वर्ष २०१३-१४ के दौरान इन देशों को ६.५ करोड़ डालर की दवाएं निर्यात की गई जो वर्ष २०१२-१३ की तुलना में २० प्रतिशत अधिक है । पड़ोसी देश पाकिस्तान में भारतीय जड़ी बूटियों और आयुर्वेदिक दवाआें की मांग लगातार बढ़ रही है । वर्ष २०११-१२ में इस पड़ोसी देश को २.९२ करोड़ डालर की औषधियां निर्यात की गई ।
वर्ष २०१३-१४ में अमेरिका को १५.५ करोड़ डालर मूल्य की भारतीय औषधियों का निर्यात किया गया जबकि वर्ष २०१२-१३ में यह आंकड़ा १८.२ करोड़ डालर और वर्ष २०११-१२ में ५० करोड़ डालर था । वर्ष २०११-१२ में भारत से ५० करोड़ डालर से ज्यादा मूल्य की ऐसी दवाएं निर्यात की गई । वर्ष २०१२-१३ में यह आंकड़ा ५२.८ करोड़ डालर था जबकि वर्ष २०१३-१४ में इसमें छह प्रतिशत की गिरावट देखी गई थी और यह निर्यात ४९.८ करोड़ डालर रह गया । इस गिरावट का मुख्य कारण दुनिया के कईदेशों में नियमों में बदलाव और कई देशों द्वारा स्वदेश में जड़ी बूटियों का उत्पादन है ।
बर्तन में छुपा है सेहत का खजाना
सेहतमंद खाना पकाने के लिए आपका तेल-मसालों पर तो पूरा ध्यान हैं, पर क्या आप खाना पकाने के लिए बर्तनों के चुनाव पर भी ध्यान देते है ? अगर आपका जवाब न है तो आज से ही इस बात पर भी ध्यान देना शुरू कर दें । भोजन की पौष्टिकता में यह बात भी मायने रखती है कि आखिर उन्हें किस बर्तन में बनाया जा रहा है । भोजन पकाते समय बर्तनों का मैटीरियल भी खाने के साथ मिक्स हो जाता है ।
एल्यूमीनियम, तांबा, लोहा, स्टेनलेस स्टील और टेफलोन बर्तन में इस्तेमाल होने वाली आम सामग्री है । बेहतर है कि आप अपने घर के लिए कुकिंग मटेरियल चुनते समय कुछ जरूरी बातों का ख्याल रखें और इसके लिए आपको उन बर्तनों के फायदे नुकसान के बारे में जानकारी होना जरूरी है ।
कास्ट लोहे के बर्तन देखने और उठाने में भारी, महंगे और आसानी से न घिसने वाले ये बर्तन खाना पकाने के लिए सबसे सही पात्र माने जाते है । शोधकर्ताआें की माने तो लोहे के बर्तन में खाना बनाने से भोजन में आयरन जैसे जरूरी पोषक तत्व बढ़ जाते हैं ।
एल्युमिनियम के बर्तन हल्के, मजबूत और गुड हीट कंडक्टर होते है । साथ ही इनकी कीमत भी ज्यादा नहीं होती । भारतीय रसोई में एल्युमिनियम के बर्तन सबसे ज्यादा होते है । एल्युमिनियम बहुत ही मुलायम और प्रतिक्रियाशील धातु होता है । इसलिए नमक या अम्लीय तत्वों के संपर्क में आते ही उसमें घुलने लगता है । इससे खाने का स्वाद भी प्रभावित होता है ।
तांबा (कॉपर) और पीतल के बर्तन हीट के गुड कंउक्टर होते है । इनका इस्तेमाल पुराने जमाने में ज्यादा होता था । ये एसिड और सॉल्ट के साथ प्रक्रिया करते हैं । नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के अनुसार खाने में मौजूद ऑर्गेनिक एसिड, बर्तनों के साथ प्रतिक्रिया करके ज्यादा कॉपर पैदा कर सकता है । इससे फूड प्वॉयजनिंग भी हो सकती है । इसलिए इनकी टिन से कोटिंग जरूरी है जिसे कलई भी कहते है ।
स्टेनलेस स्टील के बर्तन अच्छे, सुरक्षित और किफायती विकल्प है । इन्हें साफ करना भी बहुत आसान है । स्टेनलेस स्टील एक मिश्रित धातु है । इस धातु में न तो लोहे की तरह जंग लगता है और न ही पीतल की तरह यह अम्ल आदि से प्रतिक्रिया करती है । लेकिन इसे साफ करते समय सावधानी बरती जानी चाहिए ।
नॉन-स्टिक बर्तनों की सबसे खास बात यह है कि इनमें तेल की बहुत कम मात्रा या न डालो तो भी खाना बढ़िया पकता है । नॉन-स्टिकी होने की वजह से खाना चिपकता भी नहीं ।
अगले साल जारी होगे प्लास्टिक नोट
आरबीआई अगले साल परीक्षण के तौर पर प्लास्टिक के करेंसी नोट जारी करने की योजना बना रहा है । केन्द्रीय बैक जाली नोटों की समस्या से निपटने के लिए नोटों के सिक्योरिटी फीचर्स में सुधार भी करेगा । यह नैशनल बिल पेमेंट्स सिस्टम भी शुरू करेगा जिससे मध्यस्थों की भूमिका खत्म हो सकती है ।
आरबीआई ने २०१३-१४ के लिए अपनी सालान रिपोर्ट में कहा कि अगले साल तक प्लास्टिक नोट्स लॉन्च करने की उम्मीद है । आरबीआई नोट्स की लाइफ सुधारने के लिए दूसरे विकल्पों पर भी विचार कर रहा है । कई वर्षो तक विचार-विमर्श के बाद जनवरी २०१४ में आरबीआई ने प्लास्टिक के करेंसी नोट्स के लिए टेंडर जारी किया था । शिमला सहित पांच शहरों में पायलट टेस्टिंग की जाएगी । पायलट टेस्टिंग के आधार पर २०१५ में इसे लॉन्च किया जाएगा । इन नोटों की परफॉर्मेस देखने के बाद ही इस बारे में अंतिम फैसला किया जाएगा ।
प्लास्टिक के करेंसी नोटों पर दाग नहीं लगते और इन्हें आसानी से फाड़ा नहीं जा सकता है । कई देशों ने इसे आजमाने की कोशिश की है । हालांकि कॉटन फाइबर वाली करेंसी के मुकाबले इन नोटों को तैयार करने की लागत बहुत ज्यादा है ।
आरबीआई कोिच्च्, मैसूर, जयपुर, भुवनेश्वर और शिमला में प्लास्टिक करेंसी पेश कर सकता है । इन शहरों में मौसम एक-दूसरे से काफी अलग रहता है । फाइनेशल इन्वलूजन को बढ़ावा देने और कंज्यूमर के हितोंकी रक्षा के लिए आरबीआई नो योर कस्टमर से जुड़े नियमों की समीक्षा करने की योजना भी बना रहा है ।
बाघ के मूवमेंट पर होगी सैटेलाइट नजर
भोपाल के आस-पास के जंगलोंमें घूम रहे बाघों पर अब २४ घण्टे निगरानी रखी जाएगी । वन विभाग सैटेलाइट इलेक्ट्रानिक आई की मदद से यह काम करेगा । रातापानी अभयारण्य के अन्तर्गत आने वाले समरधा रेजू के कठौतिया, कलियासोत और केरवा के जंगलों में ई सर्विलांस कैमरेलगाने का काम शुरू कर दिया गया है । यह काम दो महीने मेंपूरा हो जाएगा ।
वन विभाग के अधिकारियों के अनुसार भोपाल के केरवाकलि-यासोत से लेकर, रातापानी अभयारण्य तक चार स्थानोंका चयन किया है, जहां ये इलेक्ट्रानिक आई लगाई जा रही है । इससे बाघों की सुरक्षा होगी । साथ ही शिकारियों पर शिंकजा भी कसा जा सकेगा । गौरतलब है कि भोपाल फॉरेस्ट सर्किल ने इस संबंध में सवा साल पहले एक प्रस्ताव राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण को भेजा था, जिसे छह महीने पहले मंजूरी मिल गई थी ।
इलेक्ट्रानिक आई एक प्रकार का सर्विलेंस वाइल्ड लाइफ ट्रैकिंग सिस्टम है । इसमें एक कैमरा होता है, जो सैटेलाइट व इंटरनेट से जुड़कर सीधे बाघ पर नजर रखेगा । सेटेलाइट से बाघों की निगरानी करने के मामले मेंमध्यप्रदेश देश का दूसरा राज्य होगा । फिलहाल यह व्यवस्था उत्तरप्रदेश के जिम कार्बेट नेशनल पार्क मेंलागू है ।
इस प्रोजेक्ट पर करीब साढ़े तीन करोड़ रूपए खर्च होगे । असंरक्षित वन क्षेत्र के लिए इस तरह का प्रस्ताव पहली बार तैयार किया गया है । चूंकि रातापानी अभयारण्य में बाघों की संख्या तेजी से बढ़ रही है । उस हिसाब से यहां पर बल नहीं है । ऐसे में ये सिस्टम लगाया जा रहा है, ताकि बाघों की निगरानी की जा सके ।
समुद्री जीवों को खतरे में डाल सकता है सनस्क्रीन
सनस्क्रीन आपकी त्वचा को भले ही अल्ट्रवायलेट किरणों (यूवी) से बचाता हो और समुद्र तट पर समय बिताने वालों के लिए सबसे जरूरी सामान हो, लेकिन इसके लिए पर्यावरण खतरे में पड़ सकता है ।
समुद्र में नहाने के दौरान जब आपकी त्वचा पर लगा सनस्क्रीन पानी में मिलता है तो विषाक्त प्रभाव उत्पन्न कर सकता है और यह छोटे समुद्री जीवों के लिए खतरनाक हो सकता है । बाद में यही छोटे जीव बड़े समुद्री जीवों को भोजन भी बनते हैं । यह अध्ययन जर्नल एनवायमेंटल साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी में प्रकाशित हुआ है । शोधकर्ता एटोनियो तोवार सानशेज ने पाया कि सनस्क्रीन में आम तौर पर पाए जाने वाले टाइटेनियम डाइऑक्साइड और जिंक ऑक्साइड अल्ट्रावायलेट किरणों और हाइड्रोजन पेरोक्साइड जैसे विषेल यौगिकों के सपंर्क में आकर प्रतिक्रिया करते हैं ।
विदेशों में भारतीय जड़ी-बूटियों की भारी मांग
अमेरिका, जापान, रूस और यूरोपीय देशों में भारतीय जड़ी बूटियों से तैयार दवाआें की भारी मांग है और इनके निर्यात से देश को हर साल करीब ३० अरब रूपए की कमाई होती है ।
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक जड़ी बुटियों से तैयार दवाआें और आयुर्वेदिक उत्पादों की सबसे ज्यादा मांग अमेरिका में है । अमेरिका के बाद भारतीय परम्परागत दवाआें का सबसे ज्यादा आयात करने वाला देश पाकिस्तान है । इसके अलावा जर्मनी, जापान, आस्ट्रेलिया, संयुक्त अरब अमीरात, नेपाल, रूस, इटली और फ्रांस में भी इन दवाआें की भारी मांग है । यूरोपीय देशों में भारतीय जड़ी बूटियों से तैयार दवाआें की मांग बढ़ रही है और वर्ष २०१३-१४ के दौरान इन देशों को ६.५ करोड़ डालर की दवाएं निर्यात की गई जो वर्ष २०१२-१३ की तुलना में २० प्रतिशत अधिक है । पड़ोसी देश पाकिस्तान में भारतीय जड़ी बूटियों और आयुर्वेदिक दवाआें की मांग लगातार बढ़ रही है । वर्ष २०११-१२ में इस पड़ोसी देश को २.९२ करोड़ डालर की औषधियां निर्यात की गई ।
वर्ष २०१३-१४ में अमेरिका को १५.५ करोड़ डालर मूल्य की भारतीय औषधियों का निर्यात किया गया जबकि वर्ष २०१२-१३ में यह आंकड़ा १८.२ करोड़ डालर और वर्ष २०११-१२ में ५० करोड़ डालर था । वर्ष २०११-१२ में भारत से ५० करोड़ डालर से ज्यादा मूल्य की ऐसी दवाएं निर्यात की गई । वर्ष २०१२-१३ में यह आंकड़ा ५२.८ करोड़ डालर था जबकि वर्ष २०१३-१४ में इसमें छह प्रतिशत की गिरावट देखी गई थी और यह निर्यात ४९.८ करोड़ डालर रह गया । इस गिरावट का मुख्य कारण दुनिया के कईदेशों में नियमों में बदलाव और कई देशों द्वारा स्वदेश में जड़ी बूटियों का उत्पादन है ।
बर्तन में छुपा है सेहत का खजाना
सेहतमंद खाना पकाने के लिए आपका तेल-मसालों पर तो पूरा ध्यान हैं, पर क्या आप खाना पकाने के लिए बर्तनों के चुनाव पर भी ध्यान देते है ? अगर आपका जवाब न है तो आज से ही इस बात पर भी ध्यान देना शुरू कर दें । भोजन की पौष्टिकता में यह बात भी मायने रखती है कि आखिर उन्हें किस बर्तन में बनाया जा रहा है । भोजन पकाते समय बर्तनों का मैटीरियल भी खाने के साथ मिक्स हो जाता है ।
एल्यूमीनियम, तांबा, लोहा, स्टेनलेस स्टील और टेफलोन बर्तन में इस्तेमाल होने वाली आम सामग्री है । बेहतर है कि आप अपने घर के लिए कुकिंग मटेरियल चुनते समय कुछ जरूरी बातों का ख्याल रखें और इसके लिए आपको उन बर्तनों के फायदे नुकसान के बारे में जानकारी होना जरूरी है ।
कास्ट लोहे के बर्तन देखने और उठाने में भारी, महंगे और आसानी से न घिसने वाले ये बर्तन खाना पकाने के लिए सबसे सही पात्र माने जाते है । शोधकर्ताआें की माने तो लोहे के बर्तन में खाना बनाने से भोजन में आयरन जैसे जरूरी पोषक तत्व बढ़ जाते हैं ।
एल्युमिनियम के बर्तन हल्के, मजबूत और गुड हीट कंडक्टर होते है । साथ ही इनकी कीमत भी ज्यादा नहीं होती । भारतीय रसोई में एल्युमिनियम के बर्तन सबसे ज्यादा होते है । एल्युमिनियम बहुत ही मुलायम और प्रतिक्रियाशील धातु होता है । इसलिए नमक या अम्लीय तत्वों के संपर्क में आते ही उसमें घुलने लगता है । इससे खाने का स्वाद भी प्रभावित होता है ।
तांबा (कॉपर) और पीतल के बर्तन हीट के गुड कंउक्टर होते है । इनका इस्तेमाल पुराने जमाने में ज्यादा होता था । ये एसिड और सॉल्ट के साथ प्रक्रिया करते हैं । नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के अनुसार खाने में मौजूद ऑर्गेनिक एसिड, बर्तनों के साथ प्रतिक्रिया करके ज्यादा कॉपर पैदा कर सकता है । इससे फूड प्वॉयजनिंग भी हो सकती है । इसलिए इनकी टिन से कोटिंग जरूरी है जिसे कलई भी कहते है ।
स्टेनलेस स्टील के बर्तन अच्छे, सुरक्षित और किफायती विकल्प है । इन्हें साफ करना भी बहुत आसान है । स्टेनलेस स्टील एक मिश्रित धातु है । इस धातु में न तो लोहे की तरह जंग लगता है और न ही पीतल की तरह यह अम्ल आदि से प्रतिक्रिया करती है । लेकिन इसे साफ करते समय सावधानी बरती जानी चाहिए ।
नॉन-स्टिक बर्तनों की सबसे खास बात यह है कि इनमें तेल की बहुत कम मात्रा या न डालो तो भी खाना बढ़िया पकता है । नॉन-स्टिकी होने की वजह से खाना चिपकता भी नहीं ।
अगले साल जारी होगे प्लास्टिक नोट
आरबीआई अगले साल परीक्षण के तौर पर प्लास्टिक के करेंसी नोट जारी करने की योजना बना रहा है । केन्द्रीय बैक जाली नोटों की समस्या से निपटने के लिए नोटों के सिक्योरिटी फीचर्स में सुधार भी करेगा । यह नैशनल बिल पेमेंट्स सिस्टम भी शुरू करेगा जिससे मध्यस्थों की भूमिका खत्म हो सकती है ।
आरबीआई ने २०१३-१४ के लिए अपनी सालान रिपोर्ट में कहा कि अगले साल तक प्लास्टिक नोट्स लॉन्च करने की उम्मीद है । आरबीआई नोट्स की लाइफ सुधारने के लिए दूसरे विकल्पों पर भी विचार कर रहा है । कई वर्षो तक विचार-विमर्श के बाद जनवरी २०१४ में आरबीआई ने प्लास्टिक के करेंसी नोट्स के लिए टेंडर जारी किया था । शिमला सहित पांच शहरों में पायलट टेस्टिंग की जाएगी । पायलट टेस्टिंग के आधार पर २०१५ में इसे लॉन्च किया जाएगा । इन नोटों की परफॉर्मेस देखने के बाद ही इस बारे में अंतिम फैसला किया जाएगा ।
प्लास्टिक के करेंसी नोटों पर दाग नहीं लगते और इन्हें आसानी से फाड़ा नहीं जा सकता है । कई देशों ने इसे आजमाने की कोशिश की है । हालांकि कॉटन फाइबर वाली करेंसी के मुकाबले इन नोटों को तैयार करने की लागत बहुत ज्यादा है ।
आरबीआई कोिच्च्, मैसूर, जयपुर, भुवनेश्वर और शिमला में प्लास्टिक करेंसी पेश कर सकता है । इन शहरों में मौसम एक-दूसरे से काफी अलग रहता है । फाइनेशल इन्वलूजन को बढ़ावा देने और कंज्यूमर के हितोंकी रक्षा के लिए आरबीआई नो योर कस्टमर से जुड़े नियमों की समीक्षा करने की योजना भी बना रहा है ।
बाघ के मूवमेंट पर होगी सैटेलाइट नजर
भोपाल के आस-पास के जंगलोंमें घूम रहे बाघों पर अब २४ घण्टे निगरानी रखी जाएगी । वन विभाग सैटेलाइट इलेक्ट्रानिक आई की मदद से यह काम करेगा । रातापानी अभयारण्य के अन्तर्गत आने वाले समरधा रेजू के कठौतिया, कलियासोत और केरवा के जंगलों में ई सर्विलांस कैमरेलगाने का काम शुरू कर दिया गया है । यह काम दो महीने मेंपूरा हो जाएगा ।
वन विभाग के अधिकारियों के अनुसार भोपाल के केरवाकलि-यासोत से लेकर, रातापानी अभयारण्य तक चार स्थानोंका चयन किया है, जहां ये इलेक्ट्रानिक आई लगाई जा रही है । इससे बाघों की सुरक्षा होगी । साथ ही शिकारियों पर शिंकजा भी कसा जा सकेगा । गौरतलब है कि भोपाल फॉरेस्ट सर्किल ने इस संबंध में सवा साल पहले एक प्रस्ताव राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण को भेजा था, जिसे छह महीने पहले मंजूरी मिल गई थी ।
इलेक्ट्रानिक आई एक प्रकार का सर्विलेंस वाइल्ड लाइफ ट्रैकिंग सिस्टम है । इसमें एक कैमरा होता है, जो सैटेलाइट व इंटरनेट से जुड़कर सीधे बाघ पर नजर रखेगा । सेटेलाइट से बाघों की निगरानी करने के मामले मेंमध्यप्रदेश देश का दूसरा राज्य होगा । फिलहाल यह व्यवस्था उत्तरप्रदेश के जिम कार्बेट नेशनल पार्क मेंलागू है ।
इस प्रोजेक्ट पर करीब साढ़े तीन करोड़ रूपए खर्च होगे । असंरक्षित वन क्षेत्र के लिए इस तरह का प्रस्ताव पहली बार तैयार किया गया है । चूंकि रातापानी अभयारण्य में बाघों की संख्या तेजी से बढ़ रही है । उस हिसाब से यहां पर बल नहीं है । ऐसे में ये सिस्टम लगाया जा रहा है, ताकि बाघों की निगरानी की जा सके ।
समुद्री जीवों को खतरे में डाल सकता है सनस्क्रीन
सनस्क्रीन आपकी त्वचा को भले ही अल्ट्रवायलेट किरणों (यूवी) से बचाता हो और समुद्र तट पर समय बिताने वालों के लिए सबसे जरूरी सामान हो, लेकिन इसके लिए पर्यावरण खतरे में पड़ सकता है ।
समुद्र में नहाने के दौरान जब आपकी त्वचा पर लगा सनस्क्रीन पानी में मिलता है तो विषाक्त प्रभाव उत्पन्न कर सकता है और यह छोटे समुद्री जीवों के लिए खतरनाक हो सकता है । बाद में यही छोटे जीव बड़े समुद्री जीवों को भोजन भी बनते हैं । यह अध्ययन जर्नल एनवायमेंटल साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी में प्रकाशित हुआ है । शोधकर्ता एटोनियो तोवार सानशेज ने पाया कि सनस्क्रीन में आम तौर पर पाए जाने वाले टाइटेनियम डाइऑक्साइड और जिंक ऑक्साइड अल्ट्रावायलेट किरणों और हाइड्रोजन पेरोक्साइड जैसे विषेल यौगिकों के सपंर्क में आकर प्रतिक्रिया करते हैं ।
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