रविवार, 7 सितंबर 2014

सामाजिक पर्यावरण
आजादी बचाने की छटपटाहट
किशनगिरी गोस्वामी

    आजादी केवल खुलकर बोलने या स्वच्छंद विचरण से ही स्थायी नहीं रह सकती । इसे कायम रखने के लिए आवश्यक है कि सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में समरसता हो । अगर व्यक्तिगत स्वार्थ इसी तरह हावी होता रहा तो हमारी स्वतंत्रता ही खतरे में पड़ जाएगी । आवश्यकता इस बात की है कि लोकतांत्रिक संरचना में आ रही गिरावट को तुरंत थामा जाए ।  
     लोकतंत्र में शासन प्रशासन वह आइना है, जिसके प्रतिबिम्ब से आम लोग अपना चेहरा मिलाते हैं और फिर अपना जीवन भी वैसा ही बनाना चाहते हैं । इसलिए जो सामने हैं या आगे हैं, उनकी जिम्मेदारी भी बड़ी होती है । सार्वजनिक जीवन के  मर्म और उसकी मर्यादा का पाठ  पढ़ाते हुए गांधीजी ने कहा है- `कि हम जिनके प्रतिनिधि होने का दावा करते हैं, उनके वर्तमान और भविष्य से हमारा क्या नाता है यह हमारी जीवनशैली से पता चलना चाहिए । अगर वर्तमान अभाव भरा है, तो उस अभाव में हमें भी हिस्सेदारी करनी होगी । भविष्य तिनका-तिनका जोड़ने की चुनौती दे रहा है, तो शासन-प्रशासन को भी तिनका-तिनका जोड़ते हुए दिखाई देना चाहिए । यह कोई चुनावी रणनीति या दूसरों को टेढ़ी स्थिति में डालने की चालाकी नहीं है, बल्कि अंदर से पैदा हुआ अहसास है । इसलिए यह खुद से शुरु होता है ।` सार्वजनिक धन से स्वयं शानदार तरीके से रहन-सहन ही अनैतिकता नहीं है, बल्कि सार्वजनिकजीवन में रहने की आकांक्षा रखना और अपने आर्थिक वैभव, सत्ता तक पहुंच आदि का प्रदर्शन करना भी अनैतिकता की श्रेणी में आता है । जनता का उपकार करने और जनता के बीच में रहने में जो बड़ा फर्क है, इसकी समझ ही अभी तक हमारे राजनेताओं में नहीं बनी है ।
    कभी-कभी यह सोचने के  लिए बाध्य होना पड़ता है कि क्या सभी गुण राजनेताओं में ही होते हैं या होना चाहिए ? वैसे चुनाव जीतने के बाद विद्वता, पाण्डित्य, ईमानदारी एवं सेवा आदि सब के सब गुण उनमें अचानक आ जाते हैं । तब वे चिंतक विद्वान, भविष्यदृष्टा, समाजसेवक एवं समाज सुधारक सभी होते हैं । इसके बावजूद धन के कारण देश, समाज और यहां तक कि घर परिवार भी पीछे छूट जाता है । विद्यार्थी होश संभालते ही पैकेज को आदर्श मानने लगते हैं । मानवता विहीन विज्ञान, श्रमहीन धन और आदर्शहीन राजनीति नामक इन तीन पापों ने समाज का काफी अकल्याण किया है ।
    राजनेता बनते ही व्यक्ति अचानक मामूली से गैरमामूली में तब्दील हो जाते हैं । तब वह पहला काम स्वयं को जमीन से डेढ़ इंच ऊपर उठाने का करते हैं । पहले उनके कदम जमीन पर पड़ते थे, बाद में वे हवा में पैर रखते हैं । अचानक उन्हें अपने आस-पास के लोग छोटे लगने लगते हैं । जब कोई कुछ अधिक ही ऊंचा उठता है, तो उसे नीचे वाले चींटी से ज्यादा कुछ नजर नहीं आते । जैसे-जैसे राजनेता का कद बढ़ता जाता है वैसे-वैसे वह गैर मामूलियत की ओर बढ़ने लगता है । वह आम से खास हो जाता है । हमारे नेता ही नहीं, अफसर और नव धनाढ्य इसकी खास मिसाल हैं । आधुनिक नेता मात्र वोटों, नोटों एवं अपने बेटों-पोतों के प्रति खूब संवेदनशील है ।
    वर्तमान में हमारी राज्यसत्ता विधायक गुणों से शून्य हो चुकी है । राष्ट्रीय समस्याओं के समाधान की दिशा में पहल करने की कौन कहें ? वह स्वयं समाधान के रास्ते में बड़ी रुकावट बन रही है और नई-नई समस्याओं को जन्म देकर राष्ट्रीय जीवन के संकट को बढ़ा रही हैं । अंग्रेजी राज में तो मुट्ठीभर अंग्रेज हमारे ऊपर राज करते थे । आज की १० प्रतिशत लोग ९० प्रतिशत के सीने पर सवार हैं । कुछ भी हो एक बड़ा परिवर्तन तो हुआ है कि अंग्रेजों की सरकार तलवार के बल पर बनी थी, लेकिन हमारी सरकार हमारे ही वोट से बनती है और हमारे ही नोट से ही चलती है ।
    इस देश के राजनेताओं ने यह तय कर लिया है कि वोटों की राजनीति के चलते देश और देशवासियों का कितना भी अपमान किया जाए, वह चलेगा । महंगाई बढ़ाने वाले कितने ही निर्णय लिए जाएं, सब वाजिब   होंगे । 
    जो संस्थाएं राजसत्ता को समाजोन्मुख बनाकर उसे जीवनीशक्ति प्रदान करती है और लोकतंत्र को जीवंत बनाती है, उन्हें पंगु बनाकर राज्यसत्ता स्वयं पंगु बन गई है और अब तो दृढ़तापूर्वक यह कहा जा सकता है कि अपने वर्तमान स्वरूप में राष्ट्र के विकास की दृष्टि से उसकी भूमिका पूरी तरह नकारात्मक हो गई है । लोकतंत्र के मंच पर छ: दशक से राजनीतिक नाटक खेला जा रहा है, जो क्रमश: गंभीर नाटक से प्रहसन और प्रहसन से त्रासदी में तब्दील होता जा रहा है । लोकतंत्र का यह वर्तमान नाटक अराजकता लाएगा या क्रांति, यह भविष्य के गर्भ में है ।
    भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था - `हमारी पीढ़ी के सबसे बड़े आदमी की यह आकांक्षा थी कि प्रत्येक आंख के आंसू को पोंछ दिया जाए । ऐसा करना हमारी शक्ति से बाहर हो सकता है, लेकिन जब तक आंसू और पीड़ा है, तब तक हमारा काम पूरा नहीं होगा ।` इसके उलट आज आम आदमी के सम्मान को तो सरकारी अधिकारियों एवं राजनेताओं ने ताक पर रख दिया है । अमीर-गरीब के बीच खाई दिन-ब-दिन बेहद चौड़ी होती जा रही है । जहां देश जलता हुआ, बिकता हुआ दिख रहा है वहीं ये राजनेता आजादी की कसमें खा-खाकर सत्ता सुख भोग रहे हैं । जिस जमीन को गुलामी से मुक्त कराने हेतु संग्राम किया गया था, उस जमीन का दर्द इन `काले अंग्रेजों` के जेहन में कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा है । यह कैसी आजादी है ? सरकारी अमले के बाहर कोई देखे-आजादी का क्या अर्थ है ? जनता का कोई भी सपना पूरा नहीं हुआ है । खोटे लोग अब सत्ता तक पहुंचने लगे हैं । क्या भद्र समाज सच में ऐसा मानता है कि कोई प्रामाणिक आदमी आज चुनाव में जीत सकता है ?
    आजादी का मतलब भोग-विलास के अपार साधन जुटाने का अवसर नहीं है । हमारी आजादी की मात्रा में तो इजाफा हो रहा है, पर उसकी गुणवत्ता गिर रही है अर्थात हम जितने आजाद हो रहे हैं, उतने ही गिरते जा रहे हैं । पहले हमने अहिंसा त्यागी, फिर सत्य त्यागा और अब ईमानदारी त्याग दी है। इसके बाद त्यागने को बचा ही क्या है ? जिन लोगों पर देश के खजाने की रक्षा का भार है, वे ही सबसे ज्यादा गबन और हेरा-फेरी कर रहे हैं । आजादी के पहले अगर देश के नौजवानों ने यह सब किया होता, तो हमारा देश आज भी गुलाम होता । हमें उनके बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए ।
    सबसे बड़ी समस्या यह है कि देश की कोई गहरी समझ और उसका वैकल्पिक खाका हमारे राजनेताओं के सामने है ही नहीं । दिहाड़ी की राजनीति से न तो देश चलते हैं और न बनते हैं । राष्ट्रीय प्रतिबद्धता की कमी से देश कराह रहा है । इसका निराकरण यह है कि हर व्यक्ति  अपने दायित्व का स्वयं वहन करें । जागरूक रहे । हमारे राजनेताओं को यह बात भी याद रखनी चाहिए कि  वे सिर्फ उसी सूरत में याद किए जाएंगे, जब वे अपनी आने वाली पीढ़ी को एक सुरक्षित और समृद्ध भारत सौंपकर जाएंगे ।

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