प्रयासकैसे साफ हुई प्रदूषित नदी
संध्या रायचौधरी
नई सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना गंगा की सफाई के लिए बड़े पैमाने पर योजनाएं बनना शुरू हो गई है । गंगा की सफाई के साथ देश की अन्य नदियों का भी कायाकल्प होने की उम्मीद है । लेकिन हमें इस बात पर ज्यादा दुख करने की जरूरत नहीं है कि हमारे देश में नदियों के हाल खस्ता है ।
जर्मनी, चीन जैसे विशाल देशों में भी नदियां हमसे कहीं ज्यादा आंसू बहाती है । हां, यह बात अलग है कि उन देशों में नदियों को उनके हाल पर नहीं छोड़ दिया जाता है । करीब १० साल पहले जर्मनी की एल्बे नदी विश्व की सबसे ज्यादा प्रदूषित नदी थी । लेकिन आज उसकी गिनती विश्व की सबसे साफ नदियों में की जाती है । इसकी वजह यह है कि उस देश की सरकार ने नदियों को अपने देश की धरोहर माना है ।
संध्या रायचौधरी
नई सरकार की महत्वाकांक्षी परियोजना गंगा की सफाई के लिए बड़े पैमाने पर योजनाएं बनना शुरू हो गई है । गंगा की सफाई के साथ देश की अन्य नदियों का भी कायाकल्प होने की उम्मीद है । लेकिन हमें इस बात पर ज्यादा दुख करने की जरूरत नहीं है कि हमारे देश में नदियों के हाल खस्ता है ।
जर्मनी, चीन जैसे विशाल देशों में भी नदियां हमसे कहीं ज्यादा आंसू बहाती है । हां, यह बात अलग है कि उन देशों में नदियों को उनके हाल पर नहीं छोड़ दिया जाता है । करीब १० साल पहले जर्मनी की एल्बे नदी विश्व की सबसे ज्यादा प्रदूषित नदी थी । लेकिन आज उसकी गिनती विश्व की सबसे साफ नदियों में की जाती है । इसकी वजह यह है कि उस देश की सरकार ने नदियों को अपने देश की धरोहर माना है ।
कुछ ही साल पहले की बात है जब जर्मनी की नदियों में इतनी गंदगी थी कि इसमें रहने वाली मछलियां अल्सर से मर रही थी । आज ये नदियां एकदम साफ हैं । क्या एल्बे नदी से दुनिया सीख ले सकती हैं ? पानी और तैरता प्लास्टिक, सांस लेने बार-बार सतह पर आती अधमरी मछलियां, प्रदूषित पानी के कारण ऐसी स्थिति दुनिया के कई देशों में पैदा हो गई है । कुछ ही साल पहले तक जर्मनी की नदियों की भी यही हालत थी । लेकिन अब यहां मछलियां लौट आई है, खासकर चेक गणराज्य से निकल कर हैम्बर्ग के आगे उत्तरी सागर में जाने वाली एल्बे नदी का पानी काफी प्रदूषित था । १९९० में जर्मनी के एकीकरण तक नालियों का पानी सीधे एल्बे में डाल दिया जाता था ।
वर्ष १९८८ में शोधकर्ताआें ने पता लगाया कि एल्बे से जहरीले तत्व समुद्र में जा रहे हैं । इन जानलेवा रसायनों में १६,००० टन नाइट्रोजन, १०,००० टन फॉस्फोरस, २३ टन सीसा, और अति जहरीला रसायन पेंटाक्लोरो-फिनॉल शामिल था । हैम्बर्ग विश्वविघालय के जीव वैज्ञानिक फाइट हेनिष ने बताया मछलियों के मंुह में गंभीर अल्सर हो गए थे, जिसे कॉलफ्लावर अल्सर कहा जाता है । सांप जैसी दिखने वाली मछलियों की हालत भी खराब थी, छोटी मछलियों की त्वचा पर इन्फेक्शन हो गए थे ।
फिर नदियां कैसे साफ की गई ? पूर्व जर्मनी में कई फैक्ट्रियां बंद हो गई, गंदा पानी लगातार साफ किया गया और एल्बे के आसपास कड़े पर्यावरण नियमों ने उसे बचा लिया । फाइट हेनिष के मुताबिक जर्मनी की बाकी नदियों के लिए भी ऐसा ही किया गया । अब मछली पकड़ने वालों और तैराकों के लिए एल्बे खुली है । इसमें तैरने से कोई खतरा नहीं है, मछलियों सहित बाकी समुद्री जीव भी लौट रहे है । सन् २०१३ में एल्बे में २०० पॉरपॉइज मछलियाँ देखी गई, बसंत में ये मछलियां शिकार के लिए एल्बे में आती है ।
झीलों, तालाबों की तुलना में नदियों से प्रदूषण तेजी से समुद्र में पहुंचता है । नदियां तो कुछ हद तक खुद को साफ कर लेती हैं, लेकिन समुद्र में नुकसानदायक पदार्थ रह जाते है । हालांकि नदियों के तल में भी जहरीले पदार्थ जमा होते हैं । पिछले सालों में जर्मनी में आई बाढ़ के कारण ये जहरीले पदार्थ फिर से ऊपर आ सकते हैं और नदियों में पहुंच सकते हैं । बाढ़ के कारण नदी की तलछट हिलती है और यह नदी के पानी की तुलना में ज्यादा दिन तक प्रदूषित रहती है ।
चीन की टेक्निकल युनिवर्सिटी हरबुर्ग हैम्बर्ग में वेस्ट वॉटर मैनेजमेंट एंड वॉटर प्रोटेक्शन इंस्टीट्यूट में पढ़ाने वाले टेफोन कोएस्टर ने अपने शोध के आधार पर एक जर्नल मेंलिखा कि, बहुत पुरानी बात नहीं है जब पर्यावरण संरक्षण के नियम नहीं थे और इंसान प्रकृतिका फायदा उठाता था । कोएस्टर कहते है कि नदियां खास तौर पर इंसानी लापरवाही का शिकार होती है । हमने देखा है कि हम पानी में कुछ भी डाल देते हैं, यह फिर तेजी से समुद्र में चला जाता है, नजर से दूर तो दिमाग से भी दूर ।
आज शोधकर्ताआें का नजरिया बदल गया है गंदे पानी को साफ करने के लिए ज्यादा से ज्यादा निवेश किया जा रहा है - सिर्फ यांत्रिक शोधन (छानना वगैरह) में नहीं बल्कि बायो केमिकल सफाई में भी । साफ करने के तरीके भी बदले हैं । कोएस्टर कहते हैं अब पोषक तत्वों को अलग कर लिया जाता है नाइट्रोजन निकाली जाती है और फॉस्फोरस को हटा दिया जाता है ।
वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट में पानी की सफाई बड़े से छोटे वाले नियम पर चलती है । पहले यांत्रिक सफाई में बड़े आकार का कचरा अलग किया जाता है और फिर छोटे आकार का, फिर रेत अलग की जाती है क्योंकि इससे पंप को नुकसान हो सकता है । तलछटीकरण टैंक सुनिश्चित करता है कि पानी में घुले पदार्थोंा के अलावा सिर्फ बैक्टीरिया ही मौजूद हो ।
जर्मनी ने तो अपनी नदियां बचा ली लेकिन दुनिया के कई देशों में खासकर चीन और भारत में नदियां भारी प्रदूषण का शिकार हो रही है । क्या युरोपीय तरीके से इन नदियों की सफाई की जा सकती है ।
कोएस्टर काफी साल से चीन के साथ शोध में जुड़े हुए है । कोएस्टर का कहना है कि चीन में पानी के मुद्दे पर कई मुश्किलेंहैं जिन्हें सुलझाना जरूरी है । नदियों की सुरक्षा के लिए नियम और कानून तो हैं लेकिन उन्हें अच्छे से लागू नहीं किया जाता । फाइट हेनिष कहते हैं कि एल्बे के मामले में भी काफी काम अभी होना बाकी है, जबकि नदी अब धीरे-धीरे प्राकृतिक स्थिति में पहुंच रही है ।
पानी की गुणवत्ता सिर्फ रासायनिक तौर पर अच्छी हुई है, लेकिन नदी की संरचना और उसका प्राकृतवास और खराब हुआ है ।
भारत की युवा वैज्ञानिक शिली डेविड २००९ से जर्मनी के सेंटर फॉर मरीन ट्रॉपिकल इकोलॉजी में केरल की पम्बा नदी पर शोध कर रही है, वे भारत में दम तोड़ रही नदियों में फिर से जान फूंकना चाहती हैं ।
त्रिवेंद्रम के सेंटर फॉर अर्थ साइंस स्टडीज में रिसर्च करने के बाद शिली जर्मनी गई । उन्होनें डीएएडी की स्कॉलरशिप के लिए आवेदन किया । जेडएमटी ब्रेमन के प्रोफेसरों को अपने शोध का विषय बताने और समझाने के बाद शिली को दाखिला भी मिला और स्कॉलरशिप भी ।
जेडएमटी में वे दक्षिण भारत की तीसरी बड़ी नदी पर रिसर्च कर रही हैं । नदी प्रदूषण से बीमार है । अतिथि वैज्ञानिक के रूप में सुश्री शिली जेडएमटी के साथ मिलकर नदी और उसकी आसपास के पारिस्थिकी तंत्र को बचाना चाहती है । इसके लिए वे ६ से ८ महीने में भारत आती हैं । केरलकी पम्बा नदी से पानी के नमूने लेती हैं । खेतों में डाली जाने वाली खाद के नमूने जुटाए जाते हैं ।
नदी इंसानी दखलअंदाजी की वजह से मर रही है । सुश्री शिली कहती है - पम्बा नदी के आसपास बहुत कृषि संबंधी गतिविधियां होती हैं । अहम बात वहां श्रद्वालुआें का जमावड़ा भी है, शबरीमाला मन्दिर के श्रद्वालु । हम यह जांच करना चाहते हैं कि कैसे ये सारी गतिविधियां पानी की क्वालिटी पर असर डालती है । अब तक हमने देखा है कि श्रद्वालुआें से सीजन में नदी में प्रदूषण अथाह बढ़ जाता है ।
प्लास्टिक और रसायनों की वजह से पानी में जरूरी पोषक तत्व खत्म होते जा रहे हैं । पानी इतना खराब हो चुका है कि नदी के आसपास बसे इलाकों में बीमारियां फैल रही है । खेती पर असर पड़ रहा है । सुश्री शिली ऐसे बुनियादी कारणों का पता लगा रही है जो नदियों को जहरीला करते हैं । उदाहरण के लिए देखा जाए तो जर्मनी में डिटरजेंट फॉस्फेट फ्री होते हैं लेकिन भारत में अभी तक डिटरजेंट में मुख्य तत्व फॉस्फेट है, जो पानी को ज्यादा गंदा करता है ।
जैव विविधता के लिहाज से भारत में नायाब चीजें मिलती है । हिमालय में जहां यूरोप जैसी मछलियां है तो दक्षिण की नदियों में विषुवत रेखा जैसा जीवन है लेकिन कचरा इस खूबसूरती को खत्म कर रहा है । सुश्री शिली कहती हैं - पानी की क्वालिटी के लगातार गिरावट के चलते हम कह सकते है कि भारत में नदियां धीरे-धीरे मर रही हैं । पानी में ऑक्सीजन की मात्रा गिरने से नदी के भीतर चल रहा पारिस्थितिक तंत्र मरने लगता है । एक हद के बाद वैज्ञानिक भाषा में नदी को मृत घोषित कर दिया जाता है ।
वर्ष १९८८ में शोधकर्ताआें ने पता लगाया कि एल्बे से जहरीले तत्व समुद्र में जा रहे हैं । इन जानलेवा रसायनों में १६,००० टन नाइट्रोजन, १०,००० टन फॉस्फोरस, २३ टन सीसा, और अति जहरीला रसायन पेंटाक्लोरो-फिनॉल शामिल था । हैम्बर्ग विश्वविघालय के जीव वैज्ञानिक फाइट हेनिष ने बताया मछलियों के मंुह में गंभीर अल्सर हो गए थे, जिसे कॉलफ्लावर अल्सर कहा जाता है । सांप जैसी दिखने वाली मछलियों की हालत भी खराब थी, छोटी मछलियों की त्वचा पर इन्फेक्शन हो गए थे ।
फिर नदियां कैसे साफ की गई ? पूर्व जर्मनी में कई फैक्ट्रियां बंद हो गई, गंदा पानी लगातार साफ किया गया और एल्बे के आसपास कड़े पर्यावरण नियमों ने उसे बचा लिया । फाइट हेनिष के मुताबिक जर्मनी की बाकी नदियों के लिए भी ऐसा ही किया गया । अब मछली पकड़ने वालों और तैराकों के लिए एल्बे खुली है । इसमें तैरने से कोई खतरा नहीं है, मछलियों सहित बाकी समुद्री जीव भी लौट रहे है । सन् २०१३ में एल्बे में २०० पॉरपॉइज मछलियाँ देखी गई, बसंत में ये मछलियां शिकार के लिए एल्बे में आती है ।
झीलों, तालाबों की तुलना में नदियों से प्रदूषण तेजी से समुद्र में पहुंचता है । नदियां तो कुछ हद तक खुद को साफ कर लेती हैं, लेकिन समुद्र में नुकसानदायक पदार्थ रह जाते है । हालांकि नदियों के तल में भी जहरीले पदार्थ जमा होते हैं । पिछले सालों में जर्मनी में आई बाढ़ के कारण ये जहरीले पदार्थ फिर से ऊपर आ सकते हैं और नदियों में पहुंच सकते हैं । बाढ़ के कारण नदी की तलछट हिलती है और यह नदी के पानी की तुलना में ज्यादा दिन तक प्रदूषित रहती है ।
चीन की टेक्निकल युनिवर्सिटी हरबुर्ग हैम्बर्ग में वेस्ट वॉटर मैनेजमेंट एंड वॉटर प्रोटेक्शन इंस्टीट्यूट में पढ़ाने वाले टेफोन कोएस्टर ने अपने शोध के आधार पर एक जर्नल मेंलिखा कि, बहुत पुरानी बात नहीं है जब पर्यावरण संरक्षण के नियम नहीं थे और इंसान प्रकृतिका फायदा उठाता था । कोएस्टर कहते है कि नदियां खास तौर पर इंसानी लापरवाही का शिकार होती है । हमने देखा है कि हम पानी में कुछ भी डाल देते हैं, यह फिर तेजी से समुद्र में चला जाता है, नजर से दूर तो दिमाग से भी दूर ।
आज शोधकर्ताआें का नजरिया बदल गया है गंदे पानी को साफ करने के लिए ज्यादा से ज्यादा निवेश किया जा रहा है - सिर्फ यांत्रिक शोधन (छानना वगैरह) में नहीं बल्कि बायो केमिकल सफाई में भी । साफ करने के तरीके भी बदले हैं । कोएस्टर कहते हैं अब पोषक तत्वों को अलग कर लिया जाता है नाइट्रोजन निकाली जाती है और फॉस्फोरस को हटा दिया जाता है ।
वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट में पानी की सफाई बड़े से छोटे वाले नियम पर चलती है । पहले यांत्रिक सफाई में बड़े आकार का कचरा अलग किया जाता है और फिर छोटे आकार का, फिर रेत अलग की जाती है क्योंकि इससे पंप को नुकसान हो सकता है । तलछटीकरण टैंक सुनिश्चित करता है कि पानी में घुले पदार्थोंा के अलावा सिर्फ बैक्टीरिया ही मौजूद हो ।
जर्मनी ने तो अपनी नदियां बचा ली लेकिन दुनिया के कई देशों में खासकर चीन और भारत में नदियां भारी प्रदूषण का शिकार हो रही है । क्या युरोपीय तरीके से इन नदियों की सफाई की जा सकती है ।
कोएस्टर काफी साल से चीन के साथ शोध में जुड़े हुए है । कोएस्टर का कहना है कि चीन में पानी के मुद्दे पर कई मुश्किलेंहैं जिन्हें सुलझाना जरूरी है । नदियों की सुरक्षा के लिए नियम और कानून तो हैं लेकिन उन्हें अच्छे से लागू नहीं किया जाता । फाइट हेनिष कहते हैं कि एल्बे के मामले में भी काफी काम अभी होना बाकी है, जबकि नदी अब धीरे-धीरे प्राकृतिक स्थिति में पहुंच रही है ।
पानी की गुणवत्ता सिर्फ रासायनिक तौर पर अच्छी हुई है, लेकिन नदी की संरचना और उसका प्राकृतवास और खराब हुआ है ।
भारत की युवा वैज्ञानिक शिली डेविड २००९ से जर्मनी के सेंटर फॉर मरीन ट्रॉपिकल इकोलॉजी में केरल की पम्बा नदी पर शोध कर रही है, वे भारत में दम तोड़ रही नदियों में फिर से जान फूंकना चाहती हैं ।
त्रिवेंद्रम के सेंटर फॉर अर्थ साइंस स्टडीज में रिसर्च करने के बाद शिली जर्मनी गई । उन्होनें डीएएडी की स्कॉलरशिप के लिए आवेदन किया । जेडएमटी ब्रेमन के प्रोफेसरों को अपने शोध का विषय बताने और समझाने के बाद शिली को दाखिला भी मिला और स्कॉलरशिप भी ।
जेडएमटी में वे दक्षिण भारत की तीसरी बड़ी नदी पर रिसर्च कर रही हैं । नदी प्रदूषण से बीमार है । अतिथि वैज्ञानिक के रूप में सुश्री शिली जेडएमटी के साथ मिलकर नदी और उसकी आसपास के पारिस्थिकी तंत्र को बचाना चाहती है । इसके लिए वे ६ से ८ महीने में भारत आती हैं । केरलकी पम्बा नदी से पानी के नमूने लेती हैं । खेतों में डाली जाने वाली खाद के नमूने जुटाए जाते हैं ।
नदी इंसानी दखलअंदाजी की वजह से मर रही है । सुश्री शिली कहती है - पम्बा नदी के आसपास बहुत कृषि संबंधी गतिविधियां होती हैं । अहम बात वहां श्रद्वालुआें का जमावड़ा भी है, शबरीमाला मन्दिर के श्रद्वालु । हम यह जांच करना चाहते हैं कि कैसे ये सारी गतिविधियां पानी की क्वालिटी पर असर डालती है । अब तक हमने देखा है कि श्रद्वालुआें से सीजन में नदी में प्रदूषण अथाह बढ़ जाता है ।
प्लास्टिक और रसायनों की वजह से पानी में जरूरी पोषक तत्व खत्म होते जा रहे हैं । पानी इतना खराब हो चुका है कि नदी के आसपास बसे इलाकों में बीमारियां फैल रही है । खेती पर असर पड़ रहा है । सुश्री शिली ऐसे बुनियादी कारणों का पता लगा रही है जो नदियों को जहरीला करते हैं । उदाहरण के लिए देखा जाए तो जर्मनी में डिटरजेंट फॉस्फेट फ्री होते हैं लेकिन भारत में अभी तक डिटरजेंट में मुख्य तत्व फॉस्फेट है, जो पानी को ज्यादा गंदा करता है ।
जैव विविधता के लिहाज से भारत में नायाब चीजें मिलती है । हिमालय में जहां यूरोप जैसी मछलियां है तो दक्षिण की नदियों में विषुवत रेखा जैसा जीवन है लेकिन कचरा इस खूबसूरती को खत्म कर रहा है । सुश्री शिली कहती हैं - पानी की क्वालिटी के लगातार गिरावट के चलते हम कह सकते है कि भारत में नदियां धीरे-धीरे मर रही हैं । पानी में ऑक्सीजन की मात्रा गिरने से नदी के भीतर चल रहा पारिस्थितिक तंत्र मरने लगता है । एक हद के बाद वैज्ञानिक भाषा में नदी को मृत घोषित कर दिया जाता है ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें