विस्थापन
सरदार सरोवर परियोजना की समीक्षा जरुरी
भारत डोगरा
सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई १७ मीटर बढ़ाने की अनुमति के साथ ही पुनर्वास की वास्तविकता और विस्थापन की विभीषिका के प्रश्न पुन: चर्चा में आ गए हैं । अनेक दस्तावेज व गांवों में रह रहे चर व अचर सभी यह सिद्ध कर रहे हैं कि पूर्ण पुनर्वास तो दूर अभी तो पूर्ण विस्थापन ही नहीं हुआ है। जबकि कुछ समय पूर्व तक नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण `जीरो बैलेंस` यानि पूरी नर्मदा घाटी खाली हो चुकी है की बात करता रहा है ।
आवश्यकता इस बात की है कि सरकारें इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाएं और लोक व देशहित में निर्णय लें ।
नर्मदा नदी पर बन रही सरदार सरोवर बांध परियोजना एक बार फिर से सुर्खियों में है । एक ओर सरकार बांध की ऊंचाई को १७ मीटर बढ़ाने के निर्णय पर आगे बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर नर्मदा बचाओ आंदोलन दो लाख या उससे अधिक उन विस्थापितों की रक्षा के लिए अंतिम मोर्चा संभाल रहा है जिनका पुनर्वास हो जाने का दावा सरकार ने किया है। परन्तु उनका वास्तविक पुनर्वास अभी तक नहीं हो सका है ।
सरदार सरोवर परियोजना की समीक्षा जरुरी
भारत डोगरा
सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई १७ मीटर बढ़ाने की अनुमति के साथ ही पुनर्वास की वास्तविकता और विस्थापन की विभीषिका के प्रश्न पुन: चर्चा में आ गए हैं । अनेक दस्तावेज व गांवों में रह रहे चर व अचर सभी यह सिद्ध कर रहे हैं कि पूर्ण पुनर्वास तो दूर अभी तो पूर्ण विस्थापन ही नहीं हुआ है। जबकि कुछ समय पूर्व तक नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण `जीरो बैलेंस` यानि पूरी नर्मदा घाटी खाली हो चुकी है की बात करता रहा है ।
आवश्यकता इस बात की है कि सरकारें इसे प्रतिष्ठा का प्रश्न न बनाएं और लोक व देशहित में निर्णय लें ।
नर्मदा नदी पर बन रही सरदार सरोवर बांध परियोजना एक बार फिर से सुर्खियों में है । एक ओर सरकार बांध की ऊंचाई को १७ मीटर बढ़ाने के निर्णय पर आगे बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर नर्मदा बचाओ आंदोलन दो लाख या उससे अधिक उन विस्थापितों की रक्षा के लिए अंतिम मोर्चा संभाल रहा है जिनका पुनर्वास हो जाने का दावा सरकार ने किया है। परन्तु उनका वास्तविक पुनर्वास अभी तक नहीं हो सका है ।
इस संदर्भ में सरकारी पक्ष व आंदोलन पक्ष द्वारा उपलब्ध करवाई गई जानकारियों में बहुत अंतर है। यह अंतर कुछ हद तक इस आधार पर समझ में आता है कि सरकार ने पुनर्वास की कुछ औपचारिकताओं को तो पूरा कर ही दिया है जैसे कि पुनर्वास स्थलों को चिन्हित करना व कुछ नकद क्षतिपूर्ति कर दी गई है । पर प्रश्न यह है कि क्या अधिकांश विस्थापित वास्तव में भली-भांति नए सिरे से बस पाए हैं? वहीं हकीकत यह है कि अनेक पुनर्वास स्थल खाली पड़े हैं और हजारों परिवार अभी भी डूब क्षेत्र मेें रह रहे हैं और बांध की ऊंचाई बढ़ने से वे संकटग्रस्त होते हैं ।
विस्थापन से सबसे अधिक प्रभावित राज्य मध्यप्रदेश में बहुत कम विस्थापित परिवारों से जमीन के बदले जमीन का वायदा पूरा हुआ है । वहीं नकदी मुआवजे में बहुत अधिक भ्रष्टाचार हुआ है। मध्यप्रदेश उच्च् न्यायालय द्वारा पुनर्वास से जुड़े भ्रष्टाचार की जांच न्यायमूर्ति (से.नि.) झा आयोग द्वारा कराई जा रही है ।
हमें स्मरण करना होगा कि मूल रूप से कितने वायदे विस्थापितों से किए गए थे (जिनके आधार पर परियोजना को स्वीकृति मिली थी)। इसी के बाद ही यह स्पष्ट होगा कि वास्तव में बहुत कम वायदे ही पूरे हुए हैं । यह स्थिति मध्यप्रदेश में स्पष्ट नजर आती है जहां अनेक फलते-फूलते गांव व समृद्ध खेती डूब क्षेत्र में आ रही है । आदिवासी हितों की रक्षा को एक राष्ट्रीय उद्देश्य माना गया है परंतु अनेक आदिवासी गांव भी इस परियोजना से डूब रहे हैं । इसके अतिरिक्त पर्यावरण व सुरक्षा संबंधी सरोकार हैंजो मोर्स समिति रिपोर्ट जैसे अनेक महत्वपूर्ण दस्तावेजों में पहले से ही दर्ज हो चुके हैं ।
एक अन्य बड़ा सवाल यह है कि आरंभ में इस परियोजना से जिन विभिन्न लाभों का दावा किया गया था, क्या वे वास्तव में प्राप्त हुए हैं ? परियोजना की स्वीकृति के समय सबसे अधिक समर्थन इस आधार पर प्राप्त किया गया था कि सौराष्ट्र व कच्छ के सूखाग्रस्त गांवों को इस परियोजना का पानी मिलेगा । यह लक्ष्य तो प्राप्त हुआ नहीं, बल्कि गांवों व खेती को मिलने वाला पानी उद्योगों या शहरों की ओर मोड़ दिया गया ।
लाभ-हानि का मूल्यांकन कर जब परियोजना को स्वीकृति दी गई तब इसकी लागत ४२०० करोड़ रुपए आंकी गई थी । जबकि वर्ष २०१२ में योजना आयोग ने इसकी लागत को लगभग ७०००० करोड़ रुपए आंका, जो अब बढ़कर ९०००० करोड़ रुपए तक पंहुच सकती है ।
विस्थापन से सबसे अधिक प्रभावित राज्य मध्यप्रदेश में बहुत कम विस्थापित परिवारों से जमीन के बदले जमीन का वायदा पूरा हुआ है । वहीं नकदी मुआवजे में बहुत अधिक भ्रष्टाचार हुआ है। मध्यप्रदेश उच्च् न्यायालय द्वारा पुनर्वास से जुड़े भ्रष्टाचार की जांच न्यायमूर्ति (से.नि.) झा आयोग द्वारा कराई जा रही है ।
हमें स्मरण करना होगा कि मूल रूप से कितने वायदे विस्थापितों से किए गए थे (जिनके आधार पर परियोजना को स्वीकृति मिली थी)। इसी के बाद ही यह स्पष्ट होगा कि वास्तव में बहुत कम वायदे ही पूरे हुए हैं । यह स्थिति मध्यप्रदेश में स्पष्ट नजर आती है जहां अनेक फलते-फूलते गांव व समृद्ध खेती डूब क्षेत्र में आ रही है । आदिवासी हितों की रक्षा को एक राष्ट्रीय उद्देश्य माना गया है परंतु अनेक आदिवासी गांव भी इस परियोजना से डूब रहे हैं । इसके अतिरिक्त पर्यावरण व सुरक्षा संबंधी सरोकार हैंजो मोर्स समिति रिपोर्ट जैसे अनेक महत्वपूर्ण दस्तावेजों में पहले से ही दर्ज हो चुके हैं ।
एक अन्य बड़ा सवाल यह है कि आरंभ में इस परियोजना से जिन विभिन्न लाभों का दावा किया गया था, क्या वे वास्तव में प्राप्त हुए हैं ? परियोजना की स्वीकृति के समय सबसे अधिक समर्थन इस आधार पर प्राप्त किया गया था कि सौराष्ट्र व कच्छ के सूखाग्रस्त गांवों को इस परियोजना का पानी मिलेगा । यह लक्ष्य तो प्राप्त हुआ नहीं, बल्कि गांवों व खेती को मिलने वाला पानी उद्योगों या शहरों की ओर मोड़ दिया गया ।
लाभ-हानि का मूल्यांकन कर जब परियोजना को स्वीकृति दी गई तब इसकी लागत ४२०० करोड़ रुपए आंकी गई थी । जबकि वर्ष २०१२ में योजना आयोग ने इसकी लागत को लगभग ७०००० करोड़ रुपए आंका, जो अब बढ़कर ९०००० करोड़ रुपए तक पंहुच सकती है ।
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