रविवार, 17 अप्रैल 2016

सिहंस्थ -६
विश्व का नाभिस्थल है उज्जयिनी
शैलेन्द्र पाराशर
भारत की ह्दयस्थली उज्जयिनी की भौगोलिक स्थिति अनूठी है । खगोलशास्त्रिों की मान्यता है कि यह नगरी पृथ्वी और आकाश के मध्य में स्थित है । भूतभावन महाकाल को कालजयी मानकर ही उन्हें काल का देवता माना जाता है । 
कालगणना के लिये मध्यवर्ती स्थान होने के कारण इस नगरी का प्राकृतिक, वैज्ञानिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महत्व भी बढ़ जाता है । इन्हीं सब कारणों से यह नगरी सदैव कालगणना और कालगणना शास्त्रों  के लिए उपयोगीर रही है । इसीलिये इसे ग्रीनवीच के नाम से भी जाना जाता है । भारत की यह प्राचीन ग्रीनवीच उज्जयिनी देश के मानचित्र में २३.९ अंश उत्तर अक्षांस एवं ७४.७५ अंश पूर्व रेखांश पर समुद्र सतह से लगभग १६५८ फीट ऊंचाई पर बसी है । इसीलिये इसे कालगणना का केन्द्र बिन्दु कहा जाता है और यही कारण है कि प्राचीनकाल से यह नगरी ज्योतिष का प्रमुख केन्द्र रही है । जिसके प्रमाण में राजा जयसिंह द्वारा स्थापित वैधशाला आज भी इसी नगरी को कालगणना के क्षैत्र में अग्रणी सिद्ध करती है । 

कालगणना प्रवृत्तियों की केन्द्र उज्जियिनी का केनवास सदैव विशाल रहा है । कालगणना के साथ-साथ ऐसा प्रतीत होता है कि इस नगरी में मानो काल और ईश्वर समाहित होकर एकाकार स्वरूप में महाकालेश्वर हो गये हों । स्कंदपुराण के अनुसार कालचक्रो प्रवर्तकों महाकाल: प्रतायन: भूतभावन महाकालेश्वर को समय गणना का प्रवर्तक माना गया है । 
श्रीमद् भगवत गीता में योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा अहमेवाक्षय: कालोधाताहं विश्चतोमुख: । उज्जयिनी नगरी को भारत के मध्य नाभिदेश में स्थापित होने के कारण इस नगरी को नाभिप्रदेश अथवा मणिपुरचक्र माना गया है । 
आज्ञाचक्रं स्मृता काशी या बाला श्रुतिमूर्धनि । 
स्वाधिष्ठानं स्मृता कांची मणिपुरम् अवंतिका ।।
विश्वभर का केन्द्र बिन्दु उज्जयिनी है, यह खगोलशास्त्रियों की मान्यता है । इसीलिये इसी नगरी से काल का निर्धारण, निरूपण तथा नियंत्रण किया जाता रहा है । भौगोलिक गणना के अनुसार प्राचीन आचार्यो ने उज्जैन को ९ रेखांश पर माना है, कर्क रेखा भी यहीं से जाती है । इस प्रकार कर्क रेखा और भूमध्य रेखा एक दूसरे को उज्जयिनी में ही काटती है । 
यह भी माना जाता है कि संभवत: धार्मिक दृष्टि से महाकालेश्वर का स्थान ही भूमध्य रेखा और कर्क रेखा के मिलन स्थल पर हो, वहीं नाभिस्थल होने से पृथ्वी के मध्य में स्थित है । इन्हीं विशिष्ट भौगोलिक स्थितियों के कारण कालगणना, पंचाग निर्माण और साधना की सिद्धी के लिये इस नगरी को महत्वपूर्ण माना गया है । यहीं से मध्यमोदयपर सम्पूर्ण भारत के पंचाग का निर्माण होता है । ज्योतिष के सूर्य सिद्धांत ग्रंथ में भूमध्य रेखा के बारे में वर्णन आया है :-
राक्षसालयदेवौक: शैलयो-र्मध्यसूत्रगा । 
रोहितकमवन्ती च यथा सन्निहितं सर: ।।
रोहतक, अवन्ती और कुरूक्षेत्र ऐसे स्थल हैं, जो इस रेखा में आते हैं । इस प्रकार भूमध्य रेखा लंका से सुमेरू तक जाते हुए उज्जयिनी सहित अनेक नगरों को स्पर्श करती हुई जाती है । चित्रा दृश्य पक्ष के जनक श्री केतकर और रैवतपक्ष के बालगंगाधर तिलक ने भी क्रमश: अपने चित्रा एवं रैवत पक्षों में उज्जयिनी के मध्यमोदय कोही स्वीकारा था । गणित और ज्योतिष के विद्वान वराहमिहिर का जन्म उज्जैन जिले के कायथा ग्राम में लगभग शक ४२७ में हुआ था । वे एकमात्र ऐसे विद्वान थे, जिन्होने ज्योतिष की समस्त विधाआें पर लेखन कर ग्रंथ की रचना की थी । उनके ग्रंथ में पंचसिद्धांतिका, बृहत्संहिता, बृहज्जातक विवाह पटल, यात्रा एवं लघुजातक आदि प्रसिद्ध हैं । कालगणना और ज्योतिष की परम्पराएँ एक दूसरे से सम्बद्ध रही हैं ।
इस नगरी के केन्द्र बिन्दु से कालगणना का अध्ययन जिस पूर्णता के साथ किया जाना संभव है, वह अन्यत्र कहीं से संभव नहीं है, क्योंकि लिंगपुराण के अनुसार सृष्टि का प्रारंभ यहाँ से ही हुआ है । प्राचीन भारतीय गणित के विद्वान आचार्य भास्कराचार्य ने लिखा है - 
थल्लकोज्जयिनी पुरोपरि कुरूक्षेत्रादि देशानस्मृशत् ।
     सूत्रं सुमेरूगतं बुधेर्निगदता सामध्यरेखा भव: ।।
प्राचीन भारत की समय गणना का केन्द्र बिन्दु होने के कारण ही काल के आराध्य महाकाल हैं, जो भारत के द्वादश ज्योर्तिलिंगों में से एक हैं । प्राचीन भारतीय मान्यता के अनुसार जब उत्तर ध्रुव की स्थिति पर २१ मार्च से प्राय: ६ मास का दिन होने लगता है, तब ६ मास के तीन माह व्यतीत होने पर सूर्य दक्षिण क्षितिज से बहुत दूर हो जाता है, उस समय सूर्य ठीक उज्जैन के मस्तक पर रहता है । उज्जैन का अक्षांश का सूर्य की परम क्रांति दोनों ही २४ अक्षांश पर मानी गयी है । सूर्य के ठीक नीचे की स्थिति उज्जयिनी के अलावा संसार के किसी नगर की नहीं है । 
वराह पुराण में उज्जैन नगरी को शरीर का नामिदेश (मणिपुर चक्र) और महाकालेश्वर को इसका अधिष्ठाता कहा गया है । महाकाल की यह कालजयी नगरी विश्व की नाभिस्थली है । जिस प्रकार माँ की कोख में नाभि से जुड़ा बच्च जीवन के तत्वो का पोषण करता है, काल, ज्योतिष, धर्म और अध्यात्म के मूल्यों का पोषण भी इसी नाभिस्थली से होता रहता है । यह नगर भारत के प्राचीनतम शिक्षास्थली का केन्द्र रहा है । भारतीय मूल्यों की रक्षा, उनका संवर्धन एवं उसको अक्षुण्ण बनाये रखने का कार्य यहीं पर हुआ है । सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग में इस नगरी का महत्व प्राचीन शास्त्रों में गाया जाता है । 
इस नगरी से काल की सही गणना और ज्ञान प्राप्त् किया जाता   है । इस नगरी में महाकाल की स्थापना का रहस्य यही है तथा कालगणना का सही मध्य बिन्दु है । मंगल ग्रह की उत्पत्ति का स्थान भी उज्जयिनी को ही माना जाता है । यहाँ पर ऐतिहासिक नवग्रह मन्दिर और वैधशाला की स्थापना से कालगणना का मध्य बिन्दु होने के प्रमाण मिलते है । इस संदर्भ यदि इस नगरी में लगातार अनुसंधान, प्रयोग और सर्वेक्षण किये जाये तो ब्रह्माण्ड के अनेक अनछुये पक्षों को जाना जा सकता है । इस अर्थ में सृष्टि और प्रलय के अनुत्तरित प्रश्नों के हल को भी ढॅूंढा जा सकता है । 

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