रविवार, 17 अप्रैल 2016

सिहंस्थ -५ 
उज्जैन : अतीत का इतिहास 
(कार्यालय संवाददाता द्वारा)

पुण्य-सलिला क्षिप्रा तट पर स्थित भारत की महाभागा अनादि नगरी उज्जयिनी को भारत राष्ट्र की सांस्कृतिक काया का मणिपूर चक्र माना गया है । इसे भारत की मोक्षदायिका सप्त् प्राचीन पुरियों में एक माना गया है । प्राचीन विश्व की याम्योत्तार:, शून्य देशान्तरद्ध रेखा यहीं से गुजरती थी । विभिन्न नामों से इसकी महिमा गाई गयी है । महाकवि कालिदास द्वारा वर्णित श्री विशाला-विशाला नगरी तथा भाणों में उल्लिखित सार्वभौम नगरी यही रही है । इस नगरी में ऋषि सांदीपनि, महाकात्यायन, भास, भर्तृहरि, कालिदास, वराहमिहिर- अमरसिंहादि नवरत्न, परमार्थ, शूद्रक, बाणभट्ट, मयूर, राजशेखर, पुष्पदन्त, हरिषेण, शंकराचार्य वल्लभाचार्य, जगदगुरू आदि संस्कृति चेता महापुरूषों का घनीभूत संबंध रहा है । वृष्णि-वीर कृष्ण बलराम, चण्डप्रद्योत, वत्सराज उदयन, मौर्य राज्यपाल अशोक सम्राट सम्प्रति, राजा विक्रमादित्य, महाक्षत्रम चष्टन व रूद्रदामन, परमार नरेश वाक्पति मंजुराज, भोजदेव व उदयादित्य, आमेर नरेश सवाई जयसिंह, महादजी शिन्दे जैसे महान् शासकोंका राजैनतिक संस्पर्श इस नगरी को प्राप्त् हुआ है । 
मुगल सम्राट अकबर, जहॉगीर व शाहजहॉ की भी यह चहेती विश्राम-स्थली रही है । पुण्य-सलिला क्षिप्रा तट पर बसी अवन्तिका अनेक तीर्थो की नगरी है । इन तीर्थो पर स्नान, दान, तर्पण, श्रद्धा आदि का नियमित क्रम चलता रहता है । ये तीर्थ सप्त्सागरों, तड़ागों, कुण्डों, वापियों एवं शिप्रा की अनेक सहायक नदियों पर स्थित रहे हैं । शिप्रा के मनोरम तट पर अनेक दर्शनीय व विशाल घाट इन तीर्थस्थलों पर विद्यमान है जिनमें त्रिवेणी-संगम, गोतीर्थ, नृसिंह तीर्थ, पिशाचमोचन तीर्थ, हरिहर तीर्थ, केदारतीर्थ, प्रयाग तीर्थ, ओखर तीर्थ, भैरव तीर्थ, गंगा तीर्थ, मंदाकिनी तीर्थ, सिद्ध तीर्थ आदि विशेष उल्लेखनीय है । प्रत्येक बारह वर्षो में यहां के सिंहस्थ मेले के अवसर पर लाखोंसाधु व करोड़ों यात्री स्नान करते हैं । 
सम्पूर्ण भारत ही एक पावन क्षेत्र है । उसके मध्य में अवन्तिका का पावन स्थान है । इसके उत्तर में बदरी-केदार, पूर्व में पुरी, दक्षिण में रामेश्वर तथा पश्चिम में द्वारका है जिनके प्रमुख देवता क्रमश: केदारेश्वर, जगन्नाथ, रामेश्वर तथा भगवान श्रीकृष्ण है । अविन्तका भारत का केन्द्रीय क्षेत्र होने पर भी अपने आप में एक पूर्ण क्षेत्र है, जिसके उत्तर में दर्दुरेश्वर, पूर्व में पिंगलेश्वर, दक्षिण में कायावरोहणेश्वर तथा पश्चिम में विल्लेश्वर महादेव विराजमान है । इस क्षेत्र का केन्द्र स्थल महाकालेश्वर का मन्दिर है । भगवान महाकाल क्षेत्राधिपति माने गये है । इस प्रकार भगवान महाकाल न केवल उज्जयिनी क्षेत्र अपितु सम्पूर्ण भारत भूमि के ही क्षेत्राधिपति है । प्राचीन काल में उज्जयिनी एक सुविस्तृत महाकाल वन में स्थित रही थी । यह वन प्राचीन विश्व में विश्रुत अवन्ती क्षेत्र की शोभा बढ़ाता था । 
स्कन्द पुराण के अवन्तिखण्ड के अनुसार इस महावन मेंअति प्राचीन काल में ऋषि, देव, यक्ष, किन्नर, गंधर्व आदि की अपनी-अपनी तपस्या स्थली रही है । अत: वही पर महाकाल वन में भगवान शिव ने देवोचित शक्तियों से अनेक चमत्कारिक कार्य सम्पादित कर अपना महादेव नाम सार्थक किया । सहस्त्रों शिवलिंग इस वन में विद्यमान  थे । इस कुशस्थली में उन्होनें ब्रह्मा का मस्तक काटकर प्रायश्चित्त किया था तथा अपने ही हाथों से उनके कपाल का मोचन किया था । महाकाल वन एवं अवन्तिका भगवान शिव को अत्यधिक प्रिय रहे हैं, इस कारण वे इस क्षेत्र को कभी नहीं त्यागते । अन्य तीर्थो की अपेक्षा इस तीर्थ को अधिक श्रेष्ठत्व मिलने का भी यह एक कारण है । 
इसी महाकाल वन में ब्रह्मा द्वारा निवेदित भगवान विष्णु ने उनके द्वारा प्रदत्त कुशों सहित जगत कल्याणार्थ निवास किया था । उज्जैन का कुशस्थली नाम इसी कारण से पडा । इस कारण यह नगरी ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश इन तीनोंदेवों का पुण्य-निवास रही है । 
उज्जयिनी नामकरण के पीछे भी एक प्रकार की पौराणिक गाथा जुड़ी है । ब्रह्मा द्वारा अभय प्राप्त् कर त्रिपुर नामक दानव ने अपने आंतक एवं अत्याचारों से दवों एवं देव-गण समर्पित जनता को त्रस्त कर दिया । आखिरकार समस्त देवता भगवान शिव की शरण में आये । भगवान शंकर ने रक्तदन्तिका चण्डिका देवी की आराधना कर उनसे महापाशुपतास्त्र प्राप्त् किया, जिसकी सहायता से वे त्रिपुर का वध कर  पाये । उनकी इसी विजय के परिणाम स्वरूप इस नगरी का नाम उज्जयिनी पड़ा । इसी प्रकार अंधक नामक दानव को भी इसी महाकाल वन में भगवान शिव से मात खान पड़ी, ऐसा मत्स्य पुराण में उल्लेख है । 
परम भक्त प्रहलाद ने भी भगवान विष्णु एवं शिव से इसी स्थान पर अभय प्राप्त् किया था । भगवान शिव की महान विजय के उपलक्ष्य में इस नगरी को स्वर्ग खचित तोरणों एवं यहां के गगनचुम्बी प्रासादों को स्वर्ग-शिखरों से सजाया गया था । अवन्तिका को इसी कारण कनकशंृगा कहा गया । कालान्तर में इस वन का क्षेत्र उज्जैन नगर के तेजी से विकास एवं प्रसार के कारण घटता गया । कालिदास के  साहित्य से ज्ञात होता है कि उनके समय में महाकाल मन्दिर के आसपास केवल एक उपवन था, जिससे गंधवती नदी का पवन झुलाता रहता था । समय की विडम्बना ! आज अवन्तिका उस उपवन से भी वंचित है । गरूड़ पुराण के अनुसार पृथ्वी पर सात मोक्षदायीनी पूरिया है उनमें अविन्तकापुरी सर्वश्रेष्ठ है । उज्जैन का महत्व समस्त पुरियों में एक तिल अधिक है । 
अयोध्या मथुरा, माया, काशी कांची अवन्तिका ।
यह नगर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक, सप्त्पूरियों में से एक मोक्षदायिनी पुरी, द्वादश व चौरासी दोनों शक्तिपीठों से सम्पन्न एवं पवित्र कुम्भ मेले लगने वाले चार शहरों में से एक नगर उज्जैन है । राजा भर्तहरि की गुफा भी यही पर है । ऐसी मान्यता है कि उज्जैनी भगवान विष्णु का पद कमल है ।
इस शहर की महिमा अपार है, त्रेता युग में भगवान श्रीराम  स्वयं अपने पिताश्री का श्राद्ध करने उज्जैन आये थे और जहां श्राद्ध कर्म किया था वही घाट राम घाट कहलाने   लगा । इसी राम घाट पर सिंहस्थ महापर्व का शाही स्नान होता है । धार्मिक तथा ऐतिहासिक दोनों दृष्टि से उज्जैन का महत्व उल्लेखनीय है ।
उज्जैन के अनेक नाम प्रचलित रहे है - उज्जैनी, प्रतिकल्पा, पदमावती, अवन्तिका, भोगवती, अमरावती, कुमुदती, विषाला, कनकश्रंृगा, कुशस्थली  आदि । यह कभी अंवति जनपद का प्रमुख नगर एवं राजधानी भी रहा था अत: यह नगरी अवन्तिकापुरी कहलाई । 
उज्जैनी शब्द का अर्थ विजयनी होता है जिसका पाली रूपांतर उज्जैन है । वैसे उज्जैयिनी संस्कृत शब्द है इसका अर्थ है उत् + जयिनी अर्थात उत्कर्ष के साथ विजय देने वाली इसीलिए कहा गया है कि उज्जैन एक आकाश की तरह है जिसकी गुणों का कभी बखान नहीं किया जा सकता । 
उज्जैन की ऐतिहासिकता का प्रमाण ई.सन ६०० वर्ष पूर्व मिलता   है । तत्कालीन समय में भारत में जो सोलह जनपद थे उनमें अवंति जनपद भी एक था । अवंति उत्तर एवं दक्षिण इन दो भागों में विभक्त होकर उत्तरी भाग की राजधानी उज्जैन थी तथा दक्षिण भाग की राजधानी महिष्मति थी । उस समय चंद्रप्रद्योत नामक सम्राट सिंहासनारूत्रढे थे । प्रद्योत के वंशजों का उज्जैन पर ईसा की तीसरी शताब्दी तक प्रभुत्व था ।
मौर्य साम्राज्य मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त् मौर्य यहां आया था, उसका पुत्र अशोक यहाँ का राज्यपाल रहा  था  । उसकी एक भार्या वेदिसा देवी से उसे महेन्द्र और संघमित्रा दो संतान प्राप्त् हुई जिसने कालांतर में श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया था, मौर्य साम्राज्य के अभुदय होने पर मगध सम्राट बिन्दुसार की मृत्योपरान्त अशोक ने उज्जयिनी के शासन की बागडोर अपने हाथों में सम्हाली और उज्जयिनी का सर्वागीण विकास किया । सम्राट अशोक के पश्चात् उज्जयिनी ने दीर्घ काल तक अनेक सम्राटों का उतार चढ़ाव   देखा । 
मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद उज्जैन शको और सातवाहनों की प्रतिस्पर्धा का केन्द्र बन गया । शकों के पहले आक्रमण को उज्जैन के वीर विक्रमादित्य के नेतृत्व में यहाँ की जनता ने प्रथम सदी ईसा पूर्व विफल कर दिया था । कालांतर में विदेशी पश्चिमी शासकों ने उज्जैन हस्त गत कर लिया । चस्टान व रूद्रदमन इस वंश के प्रतापी व लोकप्रिय महाक्षत्रप सिद्ध हुए । गुप्त् साम्राज्य चौथी शताब्दी ई. मे गुप्तें और औलिकरों ने मालवा से इन शको की सत्ता समाप्त् कर दी । शकों और गुप्तें के काल में इस क्षेत्र का अद्वितीय आर्थिक एवं औद्यगिक विकास हुआ । 
छठी से दसवी सदी तक उज्जैन कालचुरियों, मैत्रकों, उत्तरगुप्तें, पुष्यभूतियों, चालुक्यों, राष्ट्रकूटों व प्रतिहारों की राजनैतिक व सैनिक स्पर्धा का दृश्य देखता रहा । 
उज्जयिनी में आज भी अनेक धार्मिक पौराणिक एवं ऐतिहासिक स्थान है जिनमें भगवान महाकालेश्वर मन्दिर, गोपाल मन्दिर, चौबीस ख्ंाभा देवी, चौसठ योगिनियां, नगर कोट की रानी, हरसिद्धी, गढ़कालिका, काल भैरव, विक्रांत भैरव, मंगलनाथ, सिद्धवट, बोहरों का रोजा, बिना नीवं की मस्जिद, गज लक्ष्मी मन्दिर, बृहस्पति मन्दिर, नवगृह मन्दिर, भूखी माता, भर्तृहरि गुफा, पीरमछन्दर नाथ समाधि, कालिया देह पैलेस, कोठी महल, घंटाघर, जन्तर मंतर महल, चिंतामन गणेश आदि प्रमुख है । 
आज का उज्जैन वर्तमान उज्जैन नगर विध्यपर्वतमाला के समीप और पवित्र तथा ऐतिहासिक क्षिप्रा नदी के किनारे समुद्र तल से १६७८ फीट की ऊंचाई पर २३ डिग्री ५० उत्तर देशांश और ७५ डिग्री ५० डिग्री अक्षांश पर स्थित है । नगर का तापमान और वातावरण समशीतोष्ण है । यहां की भूमि उपजाऊ है । कालजयी कवि कालिदास और महान रचनाकार बाणभट्ट ने नगर की खूबसूरती को जादुई निरूपति किया है । कालिदास ने लिखा है कि दुनिया के सारे रत्न उज्जैन मे है और समुद्रों के पास सिर्फ उनका जल बचा है । 
उज्जैन नगर और अंचल की प्रमुख बोली मोठी मालवी है । हिन्दी भी प्रयोग में है । उज्जैन इतिहास के अनेक परिवर्तनों का साक्षी है । 
उज्जैन की प्रतिष्ठा प्रमुख रूप से श्री महाकालेश्वर के कारण है । यह देशों के बारह ज्योतिर्लिंगों में शामिल है । ज्योतिर्लिंग की विशेषता है कि इसमें शक्ति, प्राण या ज्योति अंतनिर्हित  है । 

कोई टिप्पणी नहीं: