रविवार, 17 अप्रैल 2016

सिहस्थ -२ 
महाकाल की नगरी : धर्म, संस्कृतिऔर संस्कार
आनंद शंकर व्यास 

भारत के इतिहास में उज्जयिनी का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है । रामायण, महाभारत, विविध पुराणों तथा काव्य ग्रंथों में इसका आदरपूर्वक  उल्लेख हुआ है । धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से इसका अद्वितीय स्थान है । इसी पावन नगरी के दक्षिण-पश्चिम भू-भाग में पुण्य-सलिला क्षिप्रा के पूर्वी तट से कुछ ही अन्तर पर भगवान महाकालेश्वर का विशाल मन्दिर स्थित है । महाकाल की गणना द्वादश ज्योतिर्लिगों में की गयी है, जो शिव-पुराण में दिये गये द्वादश ज्योतिर्लिगों माहात्मय से स्पष्ट है :- 
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्री शैले मल्लिकार्जुनम ।
उज्जयिन्यां महाकालमोंडकारे परमेश्वरम् ।।
केदारे हिमवत्पृष्ठे डाकिन्यां भीमशंकरम् ।
वाराणस्यां च विश्वेशं त्रयम्बंक गौमतीतटे ।।
वैद्यनाथं चिताभूमौ नागेशं दारूकावने । 
सेतुबन्धे च रामेशं घृष्णेशं च शिवालये ।।
एतानि ज्योतिर्लिगानि प्रातरूत्थाय य: पठेत् । 
जन्मान्तरकृतं पापं स्मरणेन विनश्यत ।।
उक्त द्वादश ज्योतिर्लिगों में महाकालेश्वर का प्रमुख स्थान है । पुराणों के अनुसार महाकाल को ज्योतिर्लिग के साथ-साथ समस्त मृत्युलोक के स्वामी के रूप में भी स्वीकार किया गया है :- 
आकाशे तारकं लिगं पाताले हाटकेश्वरम् ।
मृत्युलोके महाकालं लिंगत्रयं नमोस्तुते ।।
इस प्रकार तीनोंलोकों (आकाश, पाताल एवं मृत्यु लोक) के अलग-अलग अधिपतियों में समस्त मृत्यु लोक के अधिपति के रूप में महाकाल को नमन किया गया है । महाकाल शब्द से ही काल (समय) का संकेत मिलता है । 
कालचक्र प्रवर्त्तकों महाकाल: प्रतापन: कहकर कालगणना के प्रवर्त्तक रूप में महाकाल को स्वीकार किया गया   है । महाकाल को ही काल-गणना का केन्द्र बिन्दु मानने के अन्य कारण भी है । अवंतिका को भारत का मध्य-स्थान (नाभि क्षेत्र) माना गया है और उसमें भी महाकाल की स्थिति मणिपूर चक्र (नाभि) पर मानी गयी है । 
आज्ञाचक्रं स्मृता काशी या बाला श्रुतिमूर्धानि ।
स्वाधिष्ठानं स्मृता कांची मणिपूरमवंतिका ।।
नाभिदेश महाकालस्तन्नाम्ना तत्र वै हर: ।
(मणिपुर चक्र) योगियों के लिये कुंडलिनी हैं, कुंडलिनी जागृत करने की क्रिया योग के क्षेत्र में महत्वपूर्ण मानी जाती है, अत: मणिपुर चक्र पर स्थित भगवान महाकाल योगियों के लिये भी सिद्धस्थल है । 
इसी प्रकार भूमध्यरेखा भौगोलिक कर्क रेखा को उज्जयिनी में ही काटते है, इसलिए भी समय गणना की सुगमता इस स्थान को प्राप्त् है । कर्क रेखा तो स्पष्ट है ही, भूमध्य रेखा के लिए भी ज्योतिष के विभिन्न सिद्धांत ग्रंथों में प्रमाण उपलब्ध है :- 
राक्षसालयदेवैक: शैलयोर्मध्यसूत्रगा: । 
रोहीतकमन्वती च यथा सन्निहितं सर: ।।
भास्कराचार्य पृथ्वी की मध्य रेखा का वर्णन इस प्रकार करते है :-
यल्लंकोज्जयिनीपुरोपरि कुरूक्षेत्रादिदेशान् स्पृशन् ।
सूत्रं मेरूगतं बुधैर्निगदिता सा मध्यरेखा भुव: ।।
जो रेखा लंका और उज्जयिनी में होकर कुरूक्षेत्र आदि देशों को स्पर्श करती हुई मेरू में जाकर मिलती है, उसे भूमि की मध्य रेखा कहते है । इस प्रकार भूमध्य रेखा लंका से सुमेरू के मध्य उज्जयिनी सहित अन्यान्य नगरों का स्पर्श करती जाती हैं, किन्तु वह कर्क रेखा को एक ही स्थान उज्जयिनी में, मध्य स्थल पर नाभि (मणिपूर चक्र) स्थान पर काटती है, जहॉ स्वयंभू महाकाल विराजमान हैं । इसीलिये ज्योतिर्विज्ञान के सिद्धांतकार भारत के किसी भी क्षेत्र में जन्मे हो अथवा उनका कार्य या रचना क्षेत्र कहीं भी रहा हो, सभी ने एकमत से कालचक्र प्रवर्तक महाकाल की नगरी उज्जयिनी को ही काल-गणना का केन्द्र स्वीकार किया था । आज भी भारतीय पंचांगकर्त्ता उज्जयिनी मध्यमोदय लेकर ही पंचाग की गणना करते    हैं । इस प्रकार अदृश्य रूप से काल गणना के प्रवर्तक तथा प्रेरक महाकाल है । 
दृश्य रूप में श्वास-निश्वास से लेकर दिन, मास, ऋतु, अयन एवं वर्ष की गणना का संबंध सूर्य से है । एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक एक दिन (दिन के सूक्ष्म विभाग घटी, पल, विपल आदि) और दिनों से मास, ऋतु, वर्ष, युग-महायुग और कल्प आदि की गणना चलती रहती है । ऐसे अनेक कल्पों के संयोग (जो वाचनिक संख्याआेंसे परे हो) को ही महाकाल कहते हैं । सूर्य प्रतिदिन (२४ घंटे में) एक उदय से दूसरे उदय पर्यन्त ३६० अंश २१,६०० कलाऍ चलता है, यही स्वस्थ मनुष्य की २४ घंटे में श्वासों की संख्या भी है । अर्थात् सूर्य की प्रत्येक कला के साथ मनुष्य के श्वास-निश्वास की क्रिया जुड़ी हुई है और सभी में आत्म-रूप स वह विद्यमान है । 
कहने का तात्पर्य यह कि काल-गणना में दृष्ट (सूर्य) अदृष्ट (महाकाल) में सामंजस्य है । महाकाल ज्योतिर्लिंग हैं और ज्योतिर्लिग की दिव्य ज्योति के दर्शन  चर्मचक्षु से नहीं होते, तप से प्राप्त् दिव्य चक्षु से ही हो सकते है । सूर्य स्वत: अग्नितत्व, ज्योति के पुंज, तेज और प्रकाश के कारण हैं । अत: महाकाल ज्योतिर्लिग हैं और सूर्य स्वत: ज्योति के पुंज हैं, महाकाल ही सूर्य हैं और सूर्य ही महाकाल हैं ।   इस प्रकार समस्त भूलोक के स्वामी और स्वत: प्रणवस्वरूप होने से ही महाकाल प्रमुख ज्योतिर्लिग हैं ।

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