रविवार, 17 अप्रैल 2016

सिहंस्थ -४
सिंहस्थ एक आध्यात्मिक अनुभव
डॉ. भगवतीलाल राजपुरोहित 

भारतीय आध्यात्मिक जीवन में जल का बड़ा महत्व है । प्रत्येक उत्सव, धार्मिक कृत्य और पर्व के समय स्नान एक आवश्यक कार्य   है । यह स्नान घर अथवा कुंए आदि की अपेक्षा समीपवर्ती सरोवर, कुंड, नदी या समुद्र में करना अधिक पुण्यदायक माना जाता है । दैनिक संध्या पूजा में भी जल का होना आवश्यक है । आचमन, मार्जन, तर्पण, देवार्चन सबके लिए जल अपेक्षित है । 
विशेष पर्वो पर और उनमें भी विशेष स्थानों पर स्नान करना अधिक महत्वपूर्ण है । संवत्सर के आरंभ, चन्द्र-सूर्य ग्रहण, मकर एवं मेष की संक्राति, माद्य, वैशाख और कार्तिक की पूर्णिमा, रामनवमी, कृष्णा जन्माष्टमी, गंगा-दशहरा आदि के अवसर पर लाखों नर-नारी तीर्थ स्थानों में एकत्र होकर स्नान करते हैं । ग्रहों की विशेष स्थिति पर कुंभ और सिंहस्थ के स्नान की प्रथा इसी परम्परा की एक महत्वपूर्ण कड़ी है । 
केवल जल से किया गया स्नान ही स्नान नहीं है । मनु स्मृति में चार प्रकार के स्नान का उल्लेख है :- 
आग्नेयं भस्मना स्नानं, सलिलेन तु वारूणम् ।
आपोहिष्ठेति च ब्राह्मम् वायव्यं गोरजं स्मृतम् ।।
अर्थात् भस्म द्वारा स्नान आग्नेय, जल द्वारा स्ना वारूण, आपेहिष्ठा इत्यादि मंत्र से स्नान ब्राह्ा और गोधूलि से किया गया स्नान वायव्य कहलाता है । 
अग्नि पुराण के अनुसार जल स्नान के नित्य नैमित्तिक, काम्य, क्रियांग, मलापकर्ष और क्रिया छ: प्रकार हैं । महाभारत में कहा गया है कि स्नान करने वाले को बल, रूप, स्वर और वर्ण की शुद्धि स्पर्श और गंध की शुद्धता, ऐश्वर्य, कोमलता तथा सुन्दर स्त्री प्राप्त् होती है । 
वैदिक काल से ही जल के देवता वरूण की पूजा चली आ रही है । वास्तव में पवित्र नदियों में स्नान से पापों का नाश होने की यह भावना वरूणदेव के प्रत्यक्ष रूप के दर्शन की भावना से जुडी हुई है । विविध स्थानोंमें स्नान का महत्व उसकी ऐतिहासिकता, पवित्रता तथा परम्परा पर आधारित होता है । कंुभ का पर्व प्रयाग, हरिद्वार, नासिक तथा उज्जैन इन चार स्थान क्रमश: मनाया जाता है । निर्धारित विशेष समय तथा निर्दिष्ट पवित्र स्थान के कारण पर्व का महत्व बढ़ जाता है । 
इन पर्वो का महत्व इतना अधिक माना गया है कि पुराणों के अनुसार देवतागण भी स्नान के लिए धरती पर उतरे आते हैं । 
सेन्द्रासुरगणा: सर्वे सेन्द्रादित्या मरूदगणा: । 
स्त्रातुमायान्ति गौतम्यां सिंहस्थे च बृहस्पतौ ।।
पुराणों में सिंहस्थ संबंधी अनेक संदर्भ हैं । विशेष योग उस्थित होने पर स्नान की महत्ता का स्कन्द पुराण में स्पष्ट उल्लेख है :
सिंह राशिं गते जीवे मेषस्थे च दिवाकरे ।
तुला राशिं गते चन्द्रे स्वातिनक्षत्र संयुते ।।
सिद्धियोगे समायाते पंचात्मा योगकारक: ।
एवं योगे समायाते स्नानदानादिका क्रिया ।।
द्वादशाब्दे तु भो भद्रे ! शंकरेण कृतं स्वयम् ।
देवाताआें और दानवों द्वारा समुद्र मंथन से १४ रत्न प्राप्त् हुए जिनमें अंतिम था अमृत से भरा हुआ कुंभ या कलश । देवताआें ने सोचा कि यदि दानवों को अमृत मिला तो अमर हो जायेंगे । इस स्थिति को बचाने के लिए देवताआें के परामर्श से इन्द्र का पुत्र जयंत उस कलश को लेकर भागा दानव उसके पीछे चल पड़े । दानवों ने बलपूर्वक कलश छीनना चाहा । इस प्रयत्न में कलश से छलक कर अमृत की बूंदें हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन में गिरी । अत: इन स्थानों पर स्नान करना और वह भी अमृत गिरने के समय में मोक्षदायक माना जाता है । कलश से अमृत गिरने के कारण ही इस पर्व का नाम कुंभ पड़ा । सिंह राशि में बृहस्पति के स्थित होने के कारण उज्जैन में होने वाले कुंभ पर्व को सिहंस्थ के नाम से पुकारा जाता है । स्कन्द पुराण में कहा गया है - 
पृथिव्यां कुम्भपर्वस्य चतुर्था भेद उच्यते ।
चतु:स्थले नियतनात् सुधाकुम्भस्यं भूतले ।।
विष्णु पुराण में ऊज्जैन और हरिद्वार के संबंध में कहा गया है :- 
मेषराशिंगते सूर्य सिहंराश्यां बृहस्पतौ ।
अवन्तिकायां भवेत्कुंभ: सदामुक्ति प्रदायक: ।।
पद्यिनीनायके मेषे कुम्भराशिगते गुरौ ।
गंगा द्वारे भवेद् योग: कुम्भनामा तदोत्तमम । 
उज्जैन के स्नान का महत्व अधिक इसलिए भी है कि इसमें सिंहस्थ तथा कुंभ दोनों पर्व मिलते   हैं । उज्जैन के कुंभ पर्व में ये दस योग मुख्य होते है :- १. वैशाख मास, २. शुक्ल पक्ष, ३. पूर्णिमा, ४. मेष राशि पर सूर्य का होना, ५. सिंह राशि पर बृहस्पति का होना, ६ चन्द्र का तुला राशि पर होना, ७. स्वाति नक्षत्र, ८. व्यतिपात योग, ९. सोमवार, १०. स्थान उज्जैन । 
माधवे धवले पक्षे सिंहे जीवे त्वजे रवौ ।
तुलाराशौ क्षपानाथे स्वातिभे पूर्णिमातिथौ ।।
व्यतिपाते तु सम्प्राते चन्द्रवासरसंयुते ।
एते दश महायोगा: स्नानान्मुक्तिफलप्रदा: ।।
स्कन्द पुराण में उज्जैन तथा क्षिप्रा की प्रशस्ति मुक्तकंठ से की गई है । क्षिप्रा नदी के संबंध में निम्नलिखित विवरण दिया गया     है :- 
उज्जैन में अग्नि नामक एक ऋषि ने तीन हजार वर्ष तक कठोर तपस्या की । तपस्या के इन तीन हजार वर्षो में उन्होनें एक हाथ को ऊपर ही उठाये रखा । तपस्या के  पश्चात् जब उन्होनें अपने नेत्र खोले तब देखा कि उनके शरीर से दो स्त्रोत प्रवाहित हो रहे हैं - एक आकाश की ओर चला गया, जो बाद में चन्द्र बन गया और दूसरा धरती की ओर, जिसने बाद मे क्षिप्रा नदी का रूप धारण किया । 
सर्वत्र च दुर्लभा क्षिप्रा सोमस्सोम ग्रहस्तथा । 
सोमेश्वर: सोमवार: सकारा: पंचदुर्लभा: ।।
क्षिप्रा स्नान का महत्व अवंतिका खण्ड में इस प्रकार वर्णित है :- 
कार्तिक चैव वैशाखे उच्च्े नीचे दिवाकरे । 
क्षिप्रास्नानं प्रकुर्वीत क्लेशदु: खनिवारणम् ।।
सिहंस्थ कुंभ के उपरोक्त वर्णित दस महायोगों के अवसर पर यदि क्षिप्रा में स्नान किया जाये तो मुक्ति प्राप्त् होती है । इससे यह प्रमाणित होता है कि उज्जैन के सिंहस्थ कंुभ स्नान को कितना पवित्र माना गया है । 
पुराणों तथा धार्मिक परम्परा के अनुसार उज्जैन और सिहंस्थ कुंभ का अविनाभाव संबंध रहा है । भारतीय कला भवन, हिन्दू विश्वविघालय वाराणसी के आचार्य सुप्रसिद्ध कलाविद् डॉ. आनंदकृष्णजी के पास मालवा कलम का एक मुगलकालीन चित्र है जिसमें दिखाया गया है कि क्षिप्रा तट पर साधुआें के दो दलों में युद्ध हो रहा है जिसे अकबर निरपेक्ष भाव से देख रहा है । मानों धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता इसलिए वह मूक दर्शक है । 
इस सिहंस्थ कुंभ की राजकीय व्यवस्था का विधिवत् संदर्भ मराठा काल से प्राप्त् होता है । विक्रम स्मृति-ग्रंथ (पृ.५५५-६) में श्री भास्कर रामचन्द्र भालेराव ने इसका विवरण देते हुए उस व्यवस्था का संकेत किया है । महाराज राणोजी शिन्दे के राज्य काल में सिहंस्थ मेले की प्रतिष्ठा और राजकीय व्यवस्था का आरंभ हुआ । 
गुरू ग्रह मेषादि बारह राशियों में से प्रत्येक राशि पर हर बारहवें वर्ष आता है और बारह मास तक उसी राशि पर रहता है । सिंह राशि पर गुरू होने पर वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को क्षिप्रा नदी में स्नान करना पुण्य-मय माना जाता है । तदनुसार प्रति बारहवें वर्ष सिहंस्थ के मेले पर बैरागी, गुंसाई, उदासी, नाथ सम्प्रदायोंऔर  अघोरी पंथ तथा उन पंथों के अन्तर्गत सभी शाखा-उप शाखाआें के अनुयायियों का समूह उज्जैन में आता है । अनुयायियों और अखाड़ों का दृश्य देखते ही बनता    है । 
एक प्राचीन प्रमाण से तो वृश्चिक राशि पर गुरू होने पर उज्जैन मे मेला होने का उल्लेख पाया जाता है किन्तु अनन्तर सिहंस्थ गुरू में नासिक तीर्थ में एकत्रित साधु पड़ौस में ही पवित्र पर्व वैशाखा शुक्ल पूर्णिमा का उज्जैन ही आने लगे । महाराज राणोजी के समय से ही राजकीय सहायता से सिहंस्थ समारोहपूर्वक होने लगा । अतएव बहुत संभव है कि महाराष्ट्रस्थ नासिक में एकत्रित साधुआें को उज्जैन में खासतौर पर आमंत्रित कर सिंहस्थ गुरू के योग पर होने की प्रथा प्रचलित की गयी हो । एक प्राचीन कथा के अनुसार उज्जैन में कुंभ तब होता है जब सूर्य तुला में और बृहस्पति वृश्चिक में होता है । 
डॉक्टर काणे के धर्मशास्त्र का इतिहास के अनुसार जब बृहस्पति सिंह राशि में रहता है तो शत्रु पर आक्रमण, विवाह, उपनयन, गृह-प्रवेश, देवप्रतिमा-स्थापना आदि शुभकर्म नहीं होते । ऐसा विश्वास है कि सिंहस्थ बृहस्पति में सभी तीर्थ स्थान गोदावरी में आ जाते हैं अत: उस समय उसमें स्नान करना  चाहिए । सिहंस्थ गुरू में विवाह एवं उपनयन के संपादन के विषय में कई मत है । कुछ लोगों का कथन है कि विवाह एवं अन्य शुभ कर्म मघा नक्षत्र वाले बृहस्पति में वर्जित है । अन्य लोगों का कथन है कि गंगा एवं गोदावरी के मध्य के प्रदेशोंमें विवाह एवं उपनयन सिंहस्थ गुरू के सभी दिनों में वर्जित है किन्तु अन्य कृत्य मघा नक्षत्र में स्थित गुरू के अतिरिक्त कभी भी किये जा सकते   हैं । 
अन्य लोग ऐसा कहते हैं जब सूर्य मेष राशि में हो तो सिंहस्थ गुरू का कोई अवरोध नहीं है । ऐसा विश्वास किया जाता है कि अमृत का कुंभ जो समुद्र से प्रकट हुआ, सर्वप्रथम देवों द्वारा हरिद्वार में रखा गया, तब प्रयाग में और तब उज्जैन में और अंत में नासिक के पास त्रयंबकेश्वर में । 
उज्जैन पर मराठों के आधिपत्य के बाद सिहंस्थ पर्व के व्यवस्था में एक नया अध्याय प्रारंभ हुआ । उज्जैन में सिहंस्थ पर्व पर आने वाले स्नानार्थियों की सुविधा के लिए विशेष व्यवस्था की गई । यह व्यवस्था आज भी कायम है और इस अवसर पर शासन द्वारा यात्रियों को यथासंभव सभी सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाती है । 

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