गुरुवार, 8 नवंबर 2007

१० ज्ञान विज्ञान

अंतरिक्ष से धरती पर आएगी बिजली
ऊर्जा के सबसे बड़े स्त्रोत सूर्य से धरती के लिए बिजली पैदा करने की योजना पर वैज्ञानिकों ने काम शुरू कर दिया है। इसके लिए बकायदा एक अध्ययन कर लिया गया है, जिसमें बताया गया है कि सैटेलाइट सिस्टम के माध्यम से सौर ऊर्जा से बिजली बनाकर सीधे धरती पर भेजी जा सकेगी । अरबों डॉलर की इस महत्वाकांक्षी योजना से बिजली की कमी से निपटा जा सकेगा ।
वैज्ञानिकों द्वारा इस संबंध में किए गए अध्ययन में कहा गया है कि अमेरिकी सेना जब अन्य देशों में जाकर युद्ध लड़ेगी तब वहाँ आने वाली बिजली की पेरशानी से निपटने में सेना का इस इस माध्यम से मदद मिलेगी । इस ७५ पेज की रिपोर्ट में सौर ऊर्जा से बिजली पैदा करने वाली योजना को आर्थिक विकास में मददगार बताया गया है । वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि आर्बिट में इस तकनीक का प्रयोग वर्ष २०१२ तक किया जा सकेगा । वैज्ञानिक रिपोर्ट के मुताबिक इस तकनीक का इस्तेमाल करने के लिए अंतरिक्ष में पेंटागन आकार के सोलर पैनल लगाना होंगे, जो सैटेलाइट के माध्यम से सूर्य की किरणों को सीधे बिजली बनाकर धरती पर लगे रिसीवर में भेज सकेंगे । इस तकनीक पर काम कर रहे वैज्ञानिक को आशा है कि यदि तकनीक सफल रही तो नतीजे उम्मीद से बढ़कर मिलेंगे । इससे धरती पर काफी मात्रा में बिजली की आपूर्ति की जा सकेगी । साथ ही सैटैलाइटों को चलायमान रखने के लिए बिजली की जरूरत भी पूरी हो सकेगी ।
ई-कचरा बढ़ा रहा है शरीर के लिए खतरा
वैश्वीकरण के रास्ते पर अग्रसर भारत में जहां एक तरफ कम्प्यूटर और मोबाइल फोन जैसे तकनीकी उपकरणों के उपयोग में इजाफा हो रहा है, वहीं दूसरी ओर इलेक्ट्रानिक कचरे (ई-कचरा) में भी बढ़ोतरी हो रही है । इसमें मौजूद रासायनिक पदार्थो से मानव शरीर के लिए खतरा बढ़ता जा रहा है । विशेषज्ञों के अनुसार इलेक्ट्रानिक कचरे में मौजूद कैडमियम, क्रोमियम, लेड और पारा जैसे रयायनिक पदार्थोसे मनुष्य के प्रजनन तंत्र से लेकर एंडोक्राइन प्रणाली तक प्रभावित हो रहे हैं । इससे कैंसर जैसी बीमारियां होने का खतरा बढ़ गया है । ग्रीनपीस के टाक्सिक कंपेनर रमापति कुमार ने कहा कि इलेक्ट्रानिक सामन में कई तरह के छोटे-छोटै उपकरणों का इस्तेमाल होता है । इनमें लेड, कैडमियम, पारा, क्रोमियम, बेरीलियम, ब्रोमिनेटेड फ्लेम रिटाडेंट्स (बीएफआर), पोलीविनाइल क्लोराइड (पीवीसी) जैसे खतरनाक रासायनिक तत्वों का इस्तेमला किया जाता है ।
ये रासायनिक पदार्थ स्वास्थ्य और पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचाते है । इनके सपंर्क में लंबे समय तक रहने से तंत्रिका तंत्र, किडनी, हडि्डयों व प्रजनन तंत्र पर बुरा असर पड़ता है । गौरतलब है कि केडमियम का इस्तेमाल रिचार्जेबल कम्प्यूटर बैटरी में किया जाता है इसका सही तरीके से निपटान नहीं किए जाने से किडनी और हडि्डयों को नुकसान पहुंच सकता है । मर्करी का इस्तेमाल फ्लैट स्क्रीन डिस्प्ले के लिए लाइटिंग उपकरणों में किया जाता है । इससे दिमाग और केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर असर पड़ता है । बीएफआर से याददाश्त और सीखने की प्रक्रिया पर असर पड़ता है । कुमार ने कहा कि ई कचरा तमाम तरह के अपशिष्टों में सबसे तेजी से बढ़ रहा है । लोग जिस तेरी से कम्प्यूटर, टीवी और मोबाइल फोन बदल रहे हैं उससे यह खतरा और बढ़ गया है । एक अनुमान के मुताबिक दुनिया में हर साल २ करोड़ से ५.९ करोड़ टन ई कचरा पैदा हो रहा है । भारत में आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक हर साल १.४६ लाख टन कचरा पैदा हो रहा है । इन आंकड़ों में अवैध तरीके से रिसाइक्लिंग के लिए आयातित कम्प्यूटर शामिल नहीं है । भारत हर साल विकसित देशों से उतना ही इलेक्ट्रानिक कचरा आयात करता है जितना कि घरेलू स्तर पर उत्पन्न करता है ।
साबुन में पानी कम लगेगा !
साबुन कम लगने की गारंटी देने वाले विज्ञापनों के दिन लदने वाले हैं । वैज्ञानिक ने ऐसा साबुन तैयार कर लिया है, जो कम पानी में कपड़े धो सकता है। दुनिया में जल संकट तेजी से बढ़ते जा रहा है और आने वाले समय में पीने का पानी मुश्किल से मिलेगा तो कपड़े धोने की तो बात दूर है । इसी के मद्देनजर ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने ऐसा साबुन तैयार किया है, जिससे कपड़े धोने में कम पानी की जरूरत पड़ती है ।
आमतौर पर डिटरजेंट में सर्फेक्टेंट मॉलीक्यूल्स होते हैं, जो एक और गंदगी सोखते है और पानी के संपर्क में आते ही ये गंदगी छोड़ देते हैं । इसके अलावा ये बुलबुले भी बनाता है, जिसे निकालने के लिए अतिरिक्त पानी लगता है । आस्ट्रेलिया के ब्रिसबेन में शोधकर्ताआे ने ऐसा सर्फेक्टेंट बना लिया है, जो केवल बुलबुले बनाता है । यह जैविक डिटरजैंट की तरह रहेगा और इसका नाम दिया गया है पेपफेक्टेंट । यह नाम देने के पीछे औचित्य यह है कि यह पेस्टीसाइड्स से बनाया गया है । एनेटे डेक्सटर और उएन्टन मिडलबर्ग ने इसे ईजाद किया । उनका कहनाहै कि इस पेपफेक्टेंट की खासियत ये है कि इसे पानी की मात्रा के लिहाज से काम में लिया जा सकता है । उदाहरण के लिए लॉन्ड्री में प्रयुक्त होने वाले डिटरजेंट पीएच (पानी में क्षार और अम्ल की मात्रा का मापक) में बदलता है और जो धोते समय या कपड़े निचोड़ते समय प्रतीत होता है । जरूरत पड़ने पर डिटरजेंट में पेपफेक्टेंट मिलाकर निचोड़ने के समय लगने वाले पानी की मात्रा को कम किया जा सकता है ।
लंबे समय तक भूखे रह सकते हैं सांप
यह देखा गया है कि कुछ सांप दो-दो साल तक भूखे रह सकते हैं और इस अवस्था में भी पूरी तरह चौकन्ने रहते हैं । ताज़ा अनुसंधान से इसकी क्रियाविधि का खुलासा हुआ है । जीव वैज्ञानिक ऐसे कई जंतुआें को जानते हैं जो लंबे समय तक भूखे रह सकते हैं । इसके लिए वे दो किस्म की रणनीतियां अपनाते हैं ।
एक तरीको तो यह होता है कि शरीर के केन्द्रीय भाग का तापमाप काफी कम लिया जाता है ताकि कैलोरी की खपत कम से कम हो। पेंग्विन्स यही तरीका अपनाते हैं । दूसरी ओर, हेजहॉग्स जैसे कुछ अन्य जंतु ऐसी स्थिति आने से पहले खूब खाकर भोजन जमा कर लेते हैं और भुखमरी के दौरान अपनी गतिविधियां न्यूनतम कर लेते हैं । ध्रुवीय भालू जैसे कुछ प्राणी दोनों तरीके अपनाते हैं । मगर ऐसा लगता है कि सांप एक तीसरा ही तरीका अपनाते हैं । वे न तो अपने शरीर का तापमान कम करते हैं और न ही अपनी गतिविधियों को सीमित करते हैं । यानी भूखे रहकर भी वे सक्रिय और चौकन्ने बने रहते हैं । कुछ रैटस्नेक्स, धामन और अजगर लिए और उन्हें पिंजड़े में रखा गया इन पिंजड़ों में वे अपनी गतिविधि का स्तर नहीं बदल सकते थे; उन्हें निष्क्रिय रहने को मजबूर कर दिया गया था । वे अपने शरीर के तापमान को भी कम नहीं कर सकते थे क्योंकि पिंजड़ों का तापमान ठीक २७ डिग्री सेल्सियस रखा गया था । ऐसी `बेबसी' के हालात में इन सांपो को १६८ दिन तक भूखा रखा गया । मैकक्यू ने इन सांपों की ऑक्सीजन खपत नापी तो पता चला कि इनकी विश्राम अवस्था की शारीरिक क्रियाआें की दर ७२ प्रतिशत तक कम हो गई थी । यह अचरज की बात थी कि किसी जंतु की विश्राम अवस्था की चयापचय दर में इतनी कमी आ जाए क्योंकि यह दर तो पहले ही न्यूनतम मानी जाती है । अब सवाल यह था कि सांपों में यह क्षमता कैसे आई कि तापमान कम किए बगैर वे अपनी चयापचय दर कम लें। मैकक्यू को लगता है कि सांप सबसे सक्रिय अंगों की कोशिकाआें में ऊर्जा पैदा करने वाले माइटोकॉण्ड्रिया का घनत्व कम कर लेते हैं । इसके अलावा सांप एक और तरीका अपनाते हैं । आम तौर पर जब कोई जंतु भूख रहता है तो वह अपने आंतरिक संंग्रहित संसाधनों का उपयोग करता है । खास तौर से वसा का उपयोग किया जाता है । मगर वसा के कई अन्य कार्य भी हैं । इसलिए थोड़ी वसा का उपयोग होने के बाद जंतु शरीर में मौजूद प्रोटीन (यानी मांसपेशियों) को पचाने लगता है । यह ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकता । आम तौर पर यदि वसा का वज़न शरीर के कुल वजन के १० प्रतिशत से कम रह जाए, तो खतरे का संकेत होता है । मगर सांप इसे ५ प्रतिशत तक कम कर लेते हैं और फिर भी जीवित रहते हैं। यानी वे प्रोटीन देर से पचाना शुरू करते हैं। यही वजह है कि वे देर तक भूखे रह सकते हैं । और जब प्रोटीन का नंबर आता है, तब भी चयापचय की दर बहुत कम होने के कारण सांप की तंदुरूस्ती पर ज़्यादा असर नहीं पड़ता । शरीर की वसा का उपयोग करके प्रोटीन को बचाना जीवित रहने की एक रणनीति हो सकती है । मगर वैज्ञानिकों को लग रहा है कि ज़्यादा महत्वपूर्ण बात यह समझने की है कि सांप अपनी चयापचय दर को इतना कम कैसे कर लेते हैं । शायद हमें मानक चयापचय दर के बारे में पुनर्विचार करना पड़े ।

कोई टिप्पणी नहीं: