गुरुवार, 8 नवंबर 2007

७ पर्यावरण परिक्रमा

एक और पृथ्वी ले रही है आकार
नासा के स्पीटजर अंतरिक्ष टेलिस्कोप ने पिछले दिनों रहस्योद्घाटन किया है कि ४२४ प्रकाश वर्ष दूर सितारों के बीच पृथ्वी जैसा एक ग्रह आकर ले रहा है । वैज्ञानिकों ने इसका नामकरण एचडी- ११३७६६ किया गया है । एजेंसी के अंतरिक्ष यात्रियों ने एक बड़े क्षेत्र में गर्म धूल की खोज की हैं । इससे मंगल के बराबर या इससे बड़ा ग्रह आकार ले सकता है, जो हमारे सूर्य से थोड़ा बड़ा होगा । वैज्ञानिकों का अनुमान है कि एक करोड़ वर्ष में किसी स्टार की आयु चट्टानी ग्रह में बदलने लायक हो जाती है । इस सिस्टम में पृथ्वी के आकार लेने की संभावना अच्छी है । अगर यह सिस्टम अधिक पुराना नहीं होता तो ग्रह का आकार लेने वाली डिस्क गेसों से भरी होती । ऐसी हालत में बृहस्पति जैसा गैसों वाला ग्रह बनने की प्रबल संभावना होती है । अपनी इस खोज पर वैज्ञानिकों ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि हमने प्रार्थिव ग्रह के निर्माण की प्रक्रिया को पकड़ने में अद्भूत सफलता हासिल की है ।
दुनिया के दस प्रदूषित कस्बों में दो भारतीय
दुनिया के सबसे ज्यादा प्रदूषित दस कस्बों में दो भारतीय कस्बे भी शामिल हैं । ये हैं उड़ीसा का सुकिंदा और गुजरात का वापी । पिछले दिनों अमेरिका के एक स्वतंत्र पर्यावरण संगठन द्वारा प्रकाशित की गई रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के इन दो औद्योगिक कस्बों में ३० लाख लोग भयंकर प्रदूषण से घिरे हुए हैं । रिपोर्ट में बताया गया है कि सुकिंदा में १२ ऐसी औद्योगिक इकाइयाँ है, जिनमें प्रदूषण से निपटने के कोई उपाय नहीं किए गए हैं । ये कारखाने सीधे हवा और पानी में जहरीले रसायन छोड़ रहे हैं। इस कारण इन कस्बों में रह रहे लोग एक तरह से मौत के मुहाने पर खड़े हैं । ब्लैकस्मिथ इंस्टीट्यूट की टॉप १० कस्बों और शहरों की सूची में पूर्व सोवियत संघ, रूस, चीन, भारत, पुरू और जाम्बिया के स्थान शामिल हैं ।
इसमें कहा गया है कि इन सभी शहरों में एक करोड़ २० लाख लोग गंभीर प्रदूषण से घिरे हैं । इनके भयंकर खतरों के प्रति आगाह करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि केमिकल, मेटल और माइनिंग उद्योगों से निकलने वाले प्रदूषण से फेफड़ों और हृदय संबंधी बीमारियाँ बढ़ रही है और समय पूर्व मृत्यु के मामलों में वृद्धि हुई है। ब्लेकस्मिथ इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर रिचर्ड फ्यूलर कहते हैं कि प्रदूषण का सबसे ज्यादा असर बच्चें पर पड़ रहा है । प्रदूषित शहरों में बाल मृत्यु दर भी अन्य जगहरों की अपेक्षा ज्यादा है।
कचरे से बिजली बनाने की परियोजना
भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी और पृथ्वी विज्ञान, शहरी विकास, पर्यावरण एव वन और नवीन एवं अक्षय ऊर्जा स्त्रोत मंत्रालय जल्दी ही गठबंधन बनाकर ठोस कचरे से बिजली बनाने हेतु एक पायलट परियोजना शुरू करेंगे । विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी और पृथ्वी विज्ञान मंत्री कपिल सिब्बल ने `पर्यावरण सम्मेलन-२००७' में यह जानकारी दी । श्री सिब्बल ने कहा कि देश के प्रथम श्रेणी के ४२३ शहरों में हर साल करीब ४.२ करोड़ टन ठोस कचरा निकलता है जिसमें से बहुत कम का इस्तेमाल पुनर्चक्रण के जरिए बिजली बनाने में हो पाता है । श्री सिब्बल ने बताया कि हैदराबाद में एक परियोजना के तहत ठोस कचरे को ठोस ऊर्जा में बदलकर ६.२ मेगावाट बिजली बनाई जा रही है । इसी दिशा में आगे बढ़ते हुए जल्दी ही ये चारों मंत्रालय साथ मिलकर एक पायलट परियोजना किसी बड़े शहर में शुरू करेंगे । इसकी सफलता के बाद इसे उनके मंत्रालय की आर्थिक सहायता से देश के अन्य बड़े शहरों में लागू किया जाएगा ताकि बड़े पैमाने पर निकलने वाले ठोस कचरे का इस्तेमाल बिजली बनाने में हो । इससे पर्यावरण क्षरण रोकने में भी मदद मिलेगी । श्री सिब्बल ने कहा कि बड़े शहरों में इस समय प्रति दिन एक लाख १५ हजार टन ठोस कचरा निकलता है जिसमें से ८३ हजार ३०० टन केवल प्रथम श्रेणी के ४२३ शहरों में होता है । बड़े पैमाने पर उत्पन्न होने वाले इस ठोस कचरे का सही से निपटारा होना जरूरी है। श्री सिब्बल ने कहा कि आगे चलकर इस क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग किया जाना चाहिए । उन्होंने कहा कि विकसित देशों ने अपने उत्सर्जन को ९९ प्रतिशत से घटाकर पाँच प्रतिशत करने संबंधी क्योटो संधि की शर्तो का पालन नहीं किया । अब उनमें से अधिकांश देश दावा कर रहे हैं कि वे उत्सर्जन को साल २०३० से २०५० के बीच पाँच प्रतिशत के स्तर पर लाएँगे ।
ग्लोबल वार्मिंग से निपटने हेतु समुद्र मंथन
लाख उपायों के बावजूद ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ रहा है । इसे कम करने के लिए वैज्ञानिकों के पास एक नया और अनोखा प्रस्ताव आया है । प्रस्ताव में कहा गया है कि समुंद्र की गहराई में छिपे खनिजों को एक मशीन के जरिए पानी में मिला देने से वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा घटाई जा सकती है । इस मिक्सिंग के लिए समुद्र में शक्तिशाली पंप लगाए जाएँगे । वैज्ञानिक इसे समुद्र मंथन की प्रक्रिया कह रहे हैं । साइंस पत्रिका नेचर में प्रकाशित एक पत्र में जेम्स लवलॉक और क्रिस रेप्ली ने पेशकश की है कि ग्लोबल वार्मिंग से आकस्मिक रूप से निपटने के लिए समुद्र में बड़े आकार के खड़े पाइप लगाए जा सकते हैं । इनके जरिए सैकड़ों मीटर की गहराई वाले खनिज युक्त पानी को सतह के पानी में मिलाया जा सकता है। इससे शैवाल जैसी समुद्री वनस्पतियाँ ऊपर आ जाएँगी और प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के जरिए कार्बन डाइ ऑक्साइड को कम करेंगी । इससे वातावरण में इस गैस के स्तर में काफी कमी आएगी । वैज्ञानिक इसे उम्मीद के तौर पर देख रहे हैं । उनका मानना है कि इस तकनीक से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा कम करने में मदद मिल सकती है । साथ ही समुद्र में मौजूद अथाह खनिज पदार्थोंा का भी सही दिशा में उपयोग किया जा सकेगा।
ट्यूबवेलों से उलीचा जा रहा है भूजल
देश के ५७२३ आकलित क्षेत्रों में से विभिन्न राज्यों के ८३९ क्षेत्रों को अत्यधिक भूजल दोहन वाले क्षेत्रों के रूप में वर्गीकृत किया गया है । इन क्षेत्रों में भूजल का वार्षिक दोहन इनके प्रतिपूर्ति स्त्रोतों से ज्यादा है । जल संसाधन मंत्रालय के प्रवक्ता ने उक्त जानकारी दी । उन्होंने बताया कि देश में कृषि कार्यो, पेयजल और अन्य कार्यो में भूजल के इस्तेमाल की लंबी परंपरा रही है, लेकिन नलकूपों के जरिए सिंचाई करने की वजह से भूजल के स्तर में तेजी से गिरावट आई है । अत्यधिक दोहन वाले ८३९ क्षेत्रों में भूजल स्तर में मानसून के पूर्व या मानसून के बाद अथवा दोनों अवधियों में उल्लेखनीय गिरावट पाई गई है । प्रवक्ता ने अनुसार इसके अलावा २२६ क्षेत्रों को गंभीर श्रेणी में रखा गया है और इन क्षेत्रों में भूजल की प्रतिपूर्ति वार्षिक प्रतिपूर्ति स्त्रोतों की क्षमता पर ९०-१०० प्रतिशत के बीच है । इन क्षेत्रों में भी मानसून पूर्व और उसके बाद की अवधि में भूजल की दीर्घकालिक गिरावट का रहना पाया गया है । यह जानकारी केन्द्रीय भूजल बोर्ड और राज्यों द्वारा भूजल संसाधनों द्वारा मिलकर कराए गए आकलन मंे उभरकर सामने आई है । कृषि अर्थशास्त्र तथा नीतिगत अनुसंधान केन्द्र द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार १९८० के मध्य से लेकर १९९० के मध्य तक डार्क अथवा क्रिटिकल ब्लॉकों की संख्या में प्रतिवर्ष ५.५ प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई । यदि वृद्धि की यही दर बनी रहती है तो भी दो दशकों के अंदर देश के एक-तिहाई ब्लॉक डार्क ब्लॉक की श्रेणी में शामिल हो जाएँगे । सन् १९६० से सघन खेती की वजह से भूजल का इतना ज्यादा दोहन हुआ है कि गुजरात के मेहसाणा जैसे क्षेत्रों तथा हरियाणा और पंजाब के कुछ भागों में किसानों द्वारा ५०० मीटर तक की गहराई के ट्यूबवेल लगाना एक आम बात हो गई है ।

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