गुरुवार, 27 नवंबर 2008
१ गांधी जयंति पर विशेष
२ सामयिक
केले के पत्तों से होगी खाद्य पदार्थो की पैकिंग श्रीलंका सरकार पालीथीन के कचरे से पर्यावरण को बचाने के लिए अनूठा अभियान शुरू करने जा रही है सरकार ने भविष्य में खाद्य पदार्थो को पालीथीन में पैक करने की बजाय केले के पत्ते में पैक करने का फैसला किया है । श्रीलंका के कृषि मंत्रालय का दावा है कि पैकिंग के लिए खास तकनीक से तैयार केले के पत्ते में कई औषधीय गुण मौजूद होंगे। इस केले के पत्ते में पैक किया गया खाना फ्रीज में एक महीने और कमरे के तापमान में पांच दिन तक सुरक्षित रहेगा । इस संबंध में श्रीलंका के तेलिजाविला स्थित कृषि शोध संस्थान में भी काफी शोध किए गए है । उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशियाई देशों में खाद्य पदार्थो को सुरक्षित रखने के लिए प्राचीन काल से केले के पत्तों का प्रयोग किया जाता रहा है । ऐसा करना न केवल खाने की सुरक्षा बल्कि पौष्टिकता के लिहाज से भी फायदेमंद होता है । इसके उलट पालीथीन में कई रासायनिक यौगिक होते हैं । इनके नष्ट होने में काफी समय तो लगता ही है साथ ही पर्यावरण को भी बहुत नुकसान होता है ।
३ दीपावली पर विशेष
ग्लोबल वार्मिंग पर वैज्ञानिकों की रिपोर्ट पर्यावरण वैज्ञानिकों ने भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग की भयावह तस्वीर पेश करते हुए कहा है कि वर्ष २०३० तक यह लोगों को ध्रुवीय क्षेत्रों पर शरणार्थी बनकर रहने को मजबूर कर देगा । ओलिंपिक खेल सिर्फ साइबर स्पेस पर आयोजित होंगे और आस्ट्रेलिया का मध्य क्षेत्र पूरी तरह निर्जन हो जाएगा । पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाली ब्रिटिश संस्था फोरम फार द फ्यूचर और ह्रूलिट पैकर्ड प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने अपनी यह ताजा रिपोर्ट पर्यावरण को हो रहे नुकसान की ओर लोगों का ध्यान खींचने और इससे निबटने के उपायों को लेकर जन जागरूकता अभियान के लिए जारी की है । रिपोर्ट में कहा गया है कि मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट ने दुनिया की अर्थ व्यवस्थाआें की जिस कदर चूलें हिला दी हैं उसी तरह एक दिन ग्लोबल वार्मिंग की समस्या भी अर्थव्यवस्थआें में ऐसा ही भूचाल लाएगी । फोरम के अध्यक्ष पीटर मैडन के मुताबिक यह रिपोर्ट कोरे कयासों पर नहीं बल्कि पूरी तरह वैज्ञानिक अनुसंधान और तथ्यों पर आधारित है । यह धरती की भविष्य की तस्वीर पेश करती है, जो निश्चित रूप से अच्छी नहीं कही जा सकती । श्री मैडन ने कहा कि चीजों को सुधारने का अभी भी वक्त है लेकिन इसके लिए पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के स्थान पर स्वच्छ और हरित ऊ र्जा के इस्तेमाल को बढ़ावा देना, कम कार्बन उत्सर्जन वाली गतिविधियों पर ध्यान देना और प्राकृतिक स्रोतों के अंधाधुंध दोहन पर अंकुश लगाना होगा । उन्होने कहा भविष्य के इतिहासकार हमारे युग को जलवायु परिवर्तन के युग के नाम से पुस्तकों में दर्ज करेंगे ।
४ वन संरक्षण
बाघों का अवैज्ञानिक पुनर्वास चार वर्षोंा के लम्बे अंतराल के बाद सरिस्का पुन: अपने यहां बाघों की चहल- पहल देख रहा है । रणथम्भौर से बाघ का एक जोड़ा यहां लाकर छोड़ा गया है । तीन अन्य बाघों को भी शीघ्र ही यहा लाया जाएगा ।आजादी के बाद से पहला मौका है जब बाघ प्रजाति के किसी जानवर को इस तरह किसी अन्य वन्य में ले जाकर छोड़ा गया है । इस परियोजना में राजस्थान के वन विभाग, भारत सरकार और वन्य जीवन संस्था का सहयोग रहा है तो इससे बाघों की मौजूदा छोटी जनसंख्या के अनुवांशिक प्रबंधन को भी दिशा मिल जाएगी । पिछले कुछ दशकों में बाघ अभ्यारण्यों के आसपास रिहायशी और खेतीहर गतिविधियों में बहुत बढ़ोतरी हुई है जिसकी वजह से अभ्यारण्य एक दूसरे से पूरी तरह कट गए हैं अतएव सिंह प्रजाति के लिए स्थान परिवर्तन की संभावनाएं खत्म सी हो गई हैं । अभ्यारण्य के बाघों की कम जनसंख्या की वजह से आनुवांशिक अलगाव की परिणति अंत: प्रजनन में होगी । रणथम्भौर में भी ज्यादा बाघ नहीं है । यहां १९७३में प्रोजेक्ट टाइगर प्रारंभ करते समय वन- विभाग ने इनका आंकड़ा १३ बताया था । इन ३५ सालों में यह संख्या घटती - बढ़ती रही है । रणथम्भौर में बाघ की मौजूदा आबादी इन्हीं १३ मूल निवासियों की संतति है अत: इनके अंत: प्रजनन की प्रबल संभावना है । अतएव इसमें विस्तृत अध्ययन की दरकार है । सरिस्का में स्थानीय प्रजाति का वंश विषयक अध्ययन हो पाता इसके पूर्व ही वहां से बाघ विलुप्त् हो चुके थे । सरिस्का की इस बाघ बसाहट को अब वंश विषयक विविधता की आवश्यकता है । जानवरों के हित में इस दिशा में कार्य होना चाहिए परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि इस दिशा में महत्वपूर्ण आयामों की उपेक्षा की गई है । बाघों की पुर्नबसाहट के लिए अग्रिम योजना के साथ ही वर्षोंा का मैदानी अध्ययन और इसके पश्चात् लम्बे समय तक लगातार निरिक्षण की आवश्यकता होगी ।
५ ऊर्जा जगत
६ जनजीवन
आज विकसित विकासवादी अवधारणा की तफतीश करते हुए यह समझा रहा है कि पिछले करीब ३५० वर्षोंा से विकास का लाभ एक सीमित वर्ग को ही प्राप्त् हो रहा है । आम जनता इस स्थिति में पहुंच गई है जिसे सन्निपात की ही संज्ञा दी जा सकती है । भारत में जातिवाद और सम्प्रदायवाद से समाज के टूटने का खतरा जाहिर किया जाता है । यह खतरा इसलिए है कि हम समाज के विविधता भरे ढ़ांचे और चरित्र को बनाए रखना चाहते हैं । साथ ही समाज को उन लड़ाईयों से दूर रखना चाहते हैं जिससे समाज के बड़े हिस्से का हर स्तर पर नुकसान ही होना है । ये धर्म और जाति उन पुरानी व्यवस्थाआें के आधार रहे हैं जिन्हे आधुनिक व्यवस्था से दूर करने का लक्ष्य होता है । आधुनिक व्यवस्थाएं ये लक्ष्य राजनीतिक विचारधाराआें के आधार पर निर्धारित करती हैं । लेकिन पुरानी व्यवस्थाआें के जो आधार रहे हैं उनसे जुड़े वर्गोंा के हित पुरानी व्यवस्था में ही सुरक्षित होते हैं इसलिए वे किसी भी स्तर पर उसे बनाए रखना चाहते हैं इसीलिए वे किसी भी स्तर पर उसे बनाए रखना चाहते हैं । वे उन आधारों को एक विचारधारा में परिवर्तित करने और उसे स्थापित करने की लगातार कोशिश करते रहते हैं । लेकिन दूसरी तरफ आधुनिक व्यवस्थाआें की भी अपनी टकराहट होती है । वे नई - नई विचारधाराआें के लिए जगह बनाने की कोशिश करती हैं । आधुनिकतम होती व्यवस्थाआें में विचारधाराआें का आधार जाति, लिंग, धर्म और क्षेत्र से बदल जाता है। ऐसे समय लगता है कि जातियां समानता ग्रहण कर रही हैं । धर्म की भूमिका कम हो रही है । पूरी दुनिया ही एक क्षेत्र में बदल गई है । शोषित पीड़ित आबादी को मुक्ति मिल रही है । लेकिन एक उदाहरण से समझने की ये कोशिश की जा सकती है कि जो आधुनिक व्यवस्था में बदलने और विकास का अहसास है वह दूसरी तरफ कैसे एक अधीनता और असमानता को बनाए रखने की कोशिश ये आधुनिकतम कहलाने वाली विचारधारायें करती रहती है । सन् १६६० का एक तथ्य है । उस समय दिल्ली की आबादी लगभग पांच लाख थी । उसमें आधी से ज्यादा आबादी झुग्गी झोपड़ियों में रहती थी । इस संख्या का अनुमान १६६१ में दिल्ली में आग लगने की एक घटना के तथ्यों से भी लगया जा सकता है । उसमें ६० हजार झुग्गियां और झोपड़ियां जलकर राख हो गई थीं । दूसरी तथ्य खेत में अनाज पैदा करने वालों से जुड़ा है । दिल्ली और आगरा के इलाके में गेहँू का उत्पादन करने वाले खेतिहरों की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे गेहँू खरीद सकें । तीसरा तथ्य औरंगजेब के बाद इतिहास में मिलता है कि १७७० के आरम्भ में जितनी मौतें हुई और अनाज की जिस तरह से किल्लत देखी गई उतनी अतीत में न कभी देख गई थी और न ही सुनी गई थी। इन साढ़े तीन सौ वर्षोंा में व्यवस्थाएं आधुनिकतम होती चली गई हैं लेकिन ये कहने की जरूरत नहीं होगी कि व्यवस्थाएं कहां खड़ी रही हैं और आज भी हैं । उपरोक्त स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि राजनीतिक विचारधाराआें ने नई व्यवस्थाआें में विकास को एक ऐसा आधार बनाया जिसे केन्द्र में रखकर असमानताआें के पुराने आधारों को खत्म किया जा सकता है । इसीलिए विकास की अवधारणा के अंदर तमाम तरह के राजनीतिक विचारधाराआें के बीच तीखे संघर्ष होते रहे हैं । विकास की धुरी पर राजनीतिक सत्ताएं बिगड़ती रही हैं । लेकिन विकास को एक ऐसी विचारधारा के रूप में विकसित किया गया है । पुरानी व्यवस्थाआें के आधार पर जातिवादी, सम्प्रदायवादी आदि रहे हैं । उसी तर्ज पर विकासवादी जुड़ जाता है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने जाति और धर्म की तरह इसे एक विचारधारा के रूप में विकसित करने की कोशिश की है । भारतीय समाज को जातिवाद और सम्प्रदायवाद के मनोविज्ञान, मानसिक अवस्था और उसकी आक्रमकता के बारे में बताने की जरूरत नहीं हैं । लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि भारत जैसे देशों मेें विकासवाद और विकासवादियों का भी वही चरित्र है । भूमंडलीकरण की नई आर्थिक नीतियों के लागू करने के फैसले सरकार ने जितने चरणों के लिए हैं वे उस विचारधारा को कट्टरपंथी के रूप में विस्तारित करने के चरण रहे हैं । इस विचारधारा के कट्टरपंथी होने के कम से कम दो लक्षण यहां देखे जा सकते हैं । पहला लक्षण शाइनिंग इंडिया या भारत २०२० का नारा बनना हैं । यानी यह देखा जा रहा हे कि लोग अपनी पहले की स्थिति में ही हैं लेकिन सत्तायें विकासवादी कहलाती है ं। इसमें आवाज पैदा की जाती है कि कहीं दूरदराज सपने पूरे हो रहे हैं । दूसरे विकास पर सवाल उठाने वाले आक्रमण के शिकार होते हैं । दिल्ली में लाखों की तादाद में झुग्गियों के गिराए जाने से लेकर छत्तीसगढ़ में नदियों को बेच देने तक पर कोई सत्ता का बाल बांका नहीं कर सका और ना ही लाख से ऊपर की तादाद में किसानोंे की मौत को कोई देख पाया । जातिवाद और सम्प्रदायवाद की भयावहता इसी तरह ही तो देखी जाती है । विकासवाद भी उपरोक्त तथ्यों के आधार पर कम से कम साढ़े तीन सौ वर्षोंा पुरानी स्थिति में हमें खड़ा किए हुए है । वहां अनाज का अभाव और गेहँू के ऊँचे भाव से भूखमरी, मौत और कर्ज से किसानों की मौत में और आज की परिस्थिति में क्या अंतर है? पुराने विचार वहां और यहां केवल जाति, धर्म की तलाश करेंगे नई विचारधारा ने विकासवादी नामक एक नई जाति और धर्म को विकसित कर लिया है उसकी शिनाख्त कैसे होगी ? वैसे व्यवस्था आधार के रूपों का भी आधुनिकीकरण कर देती है । समाज ने जिन तमाम तरह की बहसों को जन्म दिया और वैचारिक लड़ाईयां लड़ीं वे उसकी सांस्कृतिक पूंजी हैं । इन्हें उनकी उपब्धियों के तौर पर देखा जा सकता है । लेकिन विकासवाद ने उन तमाम उपब्धियों और संस्कृतिक पूंजी पर अपना आक्रमण कर अधिकार जमा लिया है । यदि भारतीय समाज और राजनैतिक व्यवस्थाआें में इस विचारधारा के प्रभावों का अध्ययन किया जाए तो ये बेहद गहरे स्तर पर सक्रिय और सूक्ष्म स्तर पर आक्रमण दिखाई देगा । इसने अपनी भाषा विकसित की है और दूसरी तरफ आम जनता को बेजूबां करने के लिए भाषा छीन ली है । अब अक्सर यह सुना जाता है कि अजीब सा लगा रहा है या वह अजीब सा है । क्या कभी किसी समाज में ऐसा होता है कि उसके बीच कुछ खड़ा हो और वह अजीब सा लगे ? यदि आश्चर्यजनक चीजें अचानक खड़ी होती हों तो ऐसा हो सकता है। लेकिन यहां तो अजीबों की कड़ी तैयार दिख रही है और समाज उसे व्यक्त करने के लिए भाषा तैयार नहीं कर पा रहा है । सारे संबंध विघटन के दौर से गुजर रहे हैं । विकास जब तक एक योजना और कार्यक्रम है वह आक्रमणकारी नहीं हो सकता। जैसे ही वह विकास होता है उसके खतरे शुरू हो जाते हैं। विकासवाद ने तमाम और खासतौर से समानता मूलक राजनीतिक विचारों को रक्षात्मक स्थिति में ला दिया है । इसने व्यक्ति की हरेक इकाई को अपने प्रभाव में कर रखा है । हमें इसके बारे में सोचना होगा ।***
७ विशेष लेख
दवा परीक्षण और गरीब एक ओर हमारे देश दुनिया में आर्थिक उदारीकरण का झंडा फहराते हुए दुनिया के धनीमानी देशों के क्लब में बैठने को आतुर है, वह विश्व की एक बड़ी आर्थिक शक्ति बनने जा रहा है । मगर हमारी करीब आधी आबादी की गरीबी भी एक भयानक सच है । यही वजह है कि भारत एक और तरह की खतरनाक आउटसोर्सिंग का बड़ा केंद्र बनने जा रहा है । बहुत जल्दी नई दवाआें तथा टीकों का प्रयोग भारत के लोगों पर किया जा सकता है जिनके प्रयोग का प्रथम चरण किसी और देश के लोगों पर संपन्न हो चुका है, लेकिन भारत के औषध महानियंत्रक ने प्रथम कानूनी प्रक्रिया को आगे बढ़ा दिया है । यानी अब कानूनी रूप से किसी दवा या टीके का प्रयोग पशुआें पर करने के बाद सीधे हमारे यहाँ के लोगों पर हो सकेगा । सूचना टेक्नोलॉजी (आईटी) के क्षेत्र की आउटसोर्सिंग में उतार आने के बाद यह नया उद्योग विकसित होगा । उम्मीद की जा रही है कि चिकित्सा परीक्षण का उद्योग २०१२ तक ४५ हजार करोड़ रूपए तक पहुँच जाएगा । जाहिर है कि आर्थिक दृष्टि से इस आकर्षक उद्योग की गति को अब वापस मोड़ना कठिन होगा । यह भी सही है कि कानूनी तौर पर कई नई व्यवस्थाएँ की जाएँगी, ताकि गरीबों का शोषण न किया जा सके । लेकिन इस उद्योग का निशान अंतत: ऐसे गरीब बनेंगे, जिनकी मौत या जिनकी चिकित्सकीय हालत बिगड़ने का जिम्मेदार कोई नहीं होगा ।
८ वातावरण
कोयले से होने वाले उत्सर्जन और कोयले के अधिकाधिक इस्तेमाल स ेबचाव का एक रास्ता तो यह हो सकता है कि हम रीन्यूवेबल (नवीकरणीय) तकनीकों पर अपनी निर्भरता बढ़ाएँ । हमारे पास अपने ऊर्जा क्षेत्र में बदलाव की क्षमता भी है क्योंकि अभी हम निर्माण क्षेत्र में निवेश कर ही रहे हैं । यानी हमारे पास विकल्प मौजूद हैं। नि:संदेह, उत्सर्जन में कमी लाने का एक बड़ा विकल्प बायोमास है । जलवायु में परिवर्तन अपरिहार्य है । लेकिन इधर जो परिवर्तन देखने में आ रहे हैं उनसे समूचे परिस्थितिकी तंत्र पर कहर टूट पड़ा है । यही नहीं इस परिवर्तन ने हमारी जीवन शैली, समाज और समुदायों के अस्तित्व को ही चुनौती दे डाली है । इस के मद्देनजर इस आधी सदी तक वैश्विक तापमान में ४ से ५ डिग्री तक की बढ़ोतरी से जुड़ी चेतावनी खतरे की घंटी है । इस मायने में कि इस तरह की चेतावनियाँ पहले भी आती रही है लेकिन उन्हें ध्यान में रखकर कहीं भी संजीदगी से कोई काम नहीं हुआ । बातें बहुत हुइंर्, तापमान को कम करने के उपायों पर चर्चाएँ हुई, लेकिन उन पर ईमानदारी से अमल शुरू नहीं हो सका। हाल ही में लंदन से आई चेतावनी हमें सचेत करती है कि तापमान को स्थिर बनाए रखने या आशंका के मुताबिक उसमें बढ़ोतरी को एक सीमा तक रोके रखने की दिशा में हमारे प्रयास अभी जमीनी स्तर पर शुरू ही नहीं हो सके हैं। आईपीसीसी (इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाईमेट चेंज) ने अपनी एक रिपोर्ट में पिछले साल ही आगाह किया था कि जलवायु में गर्मी पर अब कोई संदेह नहीं रह गया है । विश्व की औसत हवा, महासागरों के बढ़ते तापमान, बड़े पैमाने पर बर्फ पिघलने और समुद्र - स्तर में बढ़ोतरी से अब यह साफ हो गया है कि धरती का तापमान बढ़ रहा है । वर्ष २००३ में भारत में मानसून से पहले चली गर्म हवाआें ने १४०० जानें ले ली । इसी साल अमेरिका पर ५६२ चक्रवातों का कहर टूटा जबकि इससे पहले १९९२ में वहाँ करीब ४०० चक्रवात आए थे । वर्ष २००७ में उत्तर ध्रुवीय सागर में सबसे ज्यादा बर्फ पिघलना भी इस बात की गवाही देता है कि तापमान में बढ़ोतरी हो रही है । एशिया में ग्लेशियरों के पिघलने से भारत, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश में पानीकी उपलब्धता पर गहरा असर पड़ा है । मसूलाधार बरसात और तूफानों से पाकिस्तान में भारी तबाही हुई । जलवायु के इस कदर परिवर्तन से यह बात तो सिद्ध हो चुकी है कि ये बदलाव मानवीय गतिविधियों का ही नतीजा है । अगर तापमान में यह वृद्धि जारी रही तो वर्ष २१०० तक वैश्विक तापमान में ५ से ७ डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोतरी हो सकती है । उस हालत में तूफानों की भयावहता बढ़ जाएगी, बर्फ तेजी से पिघलने लगेगी, गर्म हवाएँ अक्सर चलेंगी, समुद्र का जलस्तर भी तेजी से बढ़ेगा, विश्व की २५० मिलियन आबादी के लिए पानी मिलना दूभर हो जाएगा और ३० प्रतिशत प्रजातियों के विनाश का खतरा पैदा हो जाएगा । अगर कार्बन डाईआक्साइड कंसंट्रेशन की रेंज ३५०-४०० पीपीएम तक सीमित किया जा सका तो विश्व के औसत तापमान में बढ़त को २ से २.४ डिग्री सेल्सियस तक रोके रखा जा सकता है। हालाकि इसके बाद भी विश्व डेंजर जोन में तो पहुँच ही जाएगा । तापमान के लगातार बढ़ते साक्ष्यों और इस सचाई से विवादों की परतें हट जाने के बावजूद विश्व के अमीर देश जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियों को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं । ये देश जितनी मात्रा में ग्रीन हाउस उत्सर्जन कर रहे हैं उससे उभरते संसार के लिए कोई जगह ही नहीं बची है । यह उत्सर्जन लगातार बढ़ता चला जा रहा है । ईधन जलने से अमेरिका में मोटे तौर पर २० टन कार्बन डायऑक्साइड का उत्सर्जन होता है । प्रति व्यक्ति तुलना करने पर भारत में यह आँकड़ा १.१ और चीन में ४ टन ही बैठता है। इसमें संदेह नहीं है कि विकासशील मुल्क जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से जूझ रहे हैं। दूसरी तरफ अमेरिका और आस्ट्रेलिया जैसे अमीर देश उत्सर्जन के लिए भारत और चीन को ही ज्यादा जिम्मेदार मान रहे हैं । इनका कहना है कि जब तक भारत और चीन क्योटो प्रोटोकॉल पर दस्तखत नहीं करेंगे वे भी नहीं करने वाले । क्योटो प्रोटोकॉल को कमोबेश भुला ही दिया गया है । बहरहाल, जहाँ तक जलवायु परिवर्तन का ताल्लुक है विश्व के पास समय और विकल्पों की लगातार कमी हो रही है । तापमान को २डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने से रोकना वाकई एक बड़ी चुनौति होगी । इसके लिए उत्सर्जन में ५० से ८५ प्रतिशत तक की कमी लानी होगी । और वह भी २०५० तक। इसके लिए इंर्धन के इस्तेमाल की नीतियाँ बदलनी होंगी । इन चिंताजनक चुनौतियों से नरम विकल्पों के जरिए नहीं निपटा जा सकता। जहाँ तक ऊर्जा की बात है हमारे पास समय तो कम बचा ही है बजट भी पर्याप्त् नहीं रह गया है । इंटरनेशनल इनर्जी एजेंसी ने अपनी २००७ की एक रिपोर्ट में कहा है कि जिस दर से अभी उत्सर्जन हो रहा है उसमें भारी कटौती करनी पड़ेगी । लेकिन विकासशील विश्व के लिए इस चेतावनी के मायने क्या हैं ? खासकर तब जबकि ये देश ऊर्जा का इस्तेमाल अपनी जरूरत से कहीं कम कर रहे हैं । भारत में ऊर्जा क्षेत्र जटिल है । थार्मल पॉवर हमारे यहाँ उर्त्सजन के लिए मूल रूप से जिम्मेदार है । हालाँकि हमारे यहाँ बिजली पैदा करने के तमाम विकल्पों की तलाश की जा रही है लेकिन इसके लिए कोयले की खपत बढ़ना तय है । कोयले से होने वाले उत्सर्जन और कोयले के अधिकाधिक इस्तेमाल से बचाव का एक रास्ता तो यह हो सकता है कि हम रीन्यूवेबल (नवीकरणीय) तकनीकों पर बदलाव की क्षमता भी है क्योंकि अभी हम निर्माण क्षेत्र में निवेश कर ही रहे हैं । यानी हमारे पास विकल्प मौजूद हैं । निसंदेह, उत्सर्जन में कमी लाने काएक बड़ा विकल्प बायोमास है । लेकिन इसके लिए हरियाली बढ़ाने वाले रास्तों पर ईमानदारी से चलना पड़ेगा । ***
रतनजोत का तेल पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए घातक रतनजोत के उत्पादन व उपयोग को लेकर उठने वाले सवाल भी कम नहीं है । आस्ट्रेलिया समेत कई देशों ने इस पौधे को अवंाछित घोषित कर रखा है । शोधकर्ता बताते हैं कि थाईलैंड और अफ्रीकी देशों में पहले ही इस पौधे को बायोडीजल के बतौर इस्तेमाल करने का काम शुरू किया गया था लेकिन विभिन्न शोधों से पता चला कि रतनजोत का तेल पर्यावरण के लिए तो घातक है ही, मानव स्वास्थ्य के लिए भी यह लगभग जानलेवा हे । ऐसे निष्कर्षो के बाद इन देशोंमें रतनजोत के बीज से बायोडिजल की योजना ने दम तोड़ दिया । छ.ग. के युवा औषधि वैज्ञानिक व पर्यावरणविद पंकज अवधिया का कहना है कि बायोडिजल बनाने के लिए जिन सात पौधों का इस्तेमाल दुनियाभर में हो रहा है । उसमें रतनजोत अंतिम विकल्प माना जाता है । इसके पीछे रतनजोत के विषैले होने को मुख्य कारण बताते हुए वे कहते है, रतनजोत बेहद नुकसानदेह है । इसमें पाये जाने वाले करसिन की मारक क्षमता इस हद तक है कि इसका इस्तेमाल जैविक हथियार बनाने में किया जा सकता है । इसके तेल में १२ डी आक्सी, १६ हाईड्राक्सी और फोरबेल जैसे रसायन पाए जाते हैं, जिन्हें कैंसर व दूसरे त्वचा रोगों के लिए जिम्मेदार माना जाता है इसके अलावा रतनजोत से बनने वाला बायोडीजल फेंफड़ो को भी नुकसान पहुंचाता है ।
९ ज्ञान विज्ञान
मौसम के लिए भी होगा टीवी चैनल अब शायद आपसे यह गलती न हो कि आप घर से खुशनुमा मौसम का अंदाज लगा कर निकलें और रास्ते में आंधी और बारिश के घेरे में फंस जाएं । केंन्द्रीय मौसम विभाग जल्द ही मौसम चैनल लांच करने वाला है, जिसमेें आप चौबीस घंटों न केवल मौसम की जानकारी हासिल करेंगे, बल्कि मौसम और प्रकृति से जुड़े तमाम रहस्यों से रूबरू भी होंगे । विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मन्त्रालय की यह महत्वाकांक्षी योजना के अन्तिम चरण में हैं । यह योजना पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशीप पर आधारित है। मन्त्रालय को उम्मीद है कि यह चैनल दिसम्बर माह तक शुरू हो जाएगा। मन्त्रालय की इस योजना को सूचना और प्रसारण मन्त्रालय ने भी स्वीकृति प्रदान कर दी है । ग्याहरवीं योजना के अन्तर्गत केन्द्र सरकार ने मौसम केन्द्रों को तकनीकी विकास के लिए ९ बिलियन रूपये आबंटित किए है । इसी राशि का एक अंश इस कार्य मेंभी इस्तेमाल किया जा रहा है । अमेरीका व यूके मेंपहले से ही इस तरह का चौबीसों घंटों का चैनल है । वहां के मौसम चैनल की सफलता को देखते हुए भारत में भी इस तरह के चैनल की शुरूआत की योजना बनाई गई । इस चैनल के लिए विभिन्न स्तर पर कार्य चल रहा हैं, एक में चैनल में दिखाए जा रहे कार्यक्रमों के लिए प्रायोजकों से बातचीत चल रही है, क्योंकि यह चैनल पूरी तरह पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप पर आधारित होगा ।यह योजना बनाई जा रही है कि चैनल में उनके द्वारा दिखाए जा रहे कार्यक्रमों की रूपरेखा क्या होगी, उनके लक्षित दर्शक कौन होंगे और भाषा किस तरह होगी । इस सन्दर्भ में अभी तक ये फैसले रहे है कि क्योंकि भारत कृषि प्रधान देश हैं और देश की अब भी बड़ी आबादी खेती के लिए मौसम पर निर्भर करती हैं, इसलिए उनके टारगेटेड दर्शक गांव के लोग होंगे । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि दूरदर्शन के कृषि दर्शन जैसे कार्यक्रम इसमें दिखाए जाएंगे, जो पूरीतरह कृषि पर आधारित होंगे । भाषा हिन्दी और अंगे्रजी दोनों होगी , लेकिन ज्यादा कार्यक्रम हिन्दी में होंगे । यह योजना कुछ हद तक ज्योगाफिकल चैनल से प्रभावित है, लेकिन इसका क्षेत्र इतना विस्तृत नहीं होगा । मौसम के विभिन्न आयाम पृथ्वी अंतरिक्ष और भूमण्डल,प्रदूषण, ग्लोबल वार्मिंग, सभी विषयों पर इस चैनल में कार्यक्रम दिखाए जएगें । शुरू में यह चैनल सात घंटे प्रयोगिक तौर पर चलाए जाएगें, बाद में इसे चौबीस घंटे कर दिया जाएगा ।
कार है ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण ग्लोबल वार्मिंग पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है । ग्लोबल वार्मिंग के विभिन्न कारकों में परिवहन भी एक प्रमुख कारक है । वैज्ञानिकों के एक शोध के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण परिवहन साधन हैं । इनमें कार सबसे ज्यादा हैं । कार के बाद ग्लोबल वार्मिंग बड़ाने का दूसरा कारण विमानन क्षेत्र है । परंतु पानी के जहाज का मामला बेहद जटिल है । एनवायरमेंट न्यूज नेटवर्क की एक रिपोर्ट के मुताबिक सीआईसीईआरओ (सेंटर फॉर इंटरनेशनल क्लाइमेट एंड एनवायरमेंट रिसर्च) के पांच शोधकर्ताआें ने परिवहन क्षेत्र को चार उपक्षेत्रों में बांटा है । इनमें सड़क परिवहन, उड्डयन, रेल और जहाजरानी हैं । शोध में प्रत्येक उपक्षेत्र का ग्लोबल वार्मिंग में योगदान को आंका गया । इसके लिए रेडिएटिव फोर्स (आरएफ) को देखा गया, जो गाड़ियों से निकलने वाले धुएं से होता है। अध्ययन के अनुसार औद्योगिकीकरण के पहले से १५ प्रतिशत आरएफ मानव निर्मित कार्बन डायऑक्साइड के उत्सर्जन से होता है । परिवहन क्षेत्र इसकी जड़ है । ओजोन के लिए परिवहन को ३० प्रतिशत तक जिम्मेदार माना जा सकता है । अध्ययन के अनुसार ज्यादा से ज्यादा ध्यान तेजी से बन रही सड़कों की और भी दिया जाना चाहिए । अकेले कार्बन डायऑक्साइडके उत्सर्जन में सड़क यातायात ने दो-तिहाई योगदान दिया है । अगले सौ साल में यह स्थिति और बिगड़ेगी यानी सड़क यातायात का योगदान ग्लोबल वार्मिंग में तेजी से बढ़ेगा । जहां तक पानी के जहाजों की बात है तो स्थिति और जटिल है । अभी तक यह माना जाता रहा है कि जहाजों से ज्यादा नुकसान नहीं होता । नाइट्रोजन उत्सर्जित होती है । इनका असर ठंडा होता है । चूंकि ये गैसें ज्यादा समय तक वातारण में नहीं रहती हैं और आने वाले समय मेंे कार्बन डायऑक्साइड इसका असर खत्म कर देगी । ऐसे में सड़क परिवहन को ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा दोषी करार दिया गया, जिसमें कारों का योगदान सबसे ज्यादा होता है ।
लौहमानव करेेंगे धमाकों से मुकाबला देश में बढ़ते आतंकी हमलों से बीच डीआरडीओ ने गृह मंत्रालय को विशेष किस्म के रोबोट या लौहमानव की पेशकश की है जो बमों को निष्क्रिय करने की जिम्मेदारी निभाएंगे । डीआरडीओ ने एक शीर्ष वैज्ञानिक ने बताया कि हम अपने तीन उपकरण-दूर से नियंत्रित किए जाने वाले बम निवारण यानी आरओवी सुजाव इलेक्ट्रोनिक सपोर्ट मेजर और सफारी इलेक्ट्रानिक काउंटरमेजर- को विस्पोटक संबंधी मामलों से निबटने वाली एजेंसियों को बेचने के लिए गृहमंत्रालय से चर्चा कर रहे हैं । डीआरडीओ के पुणे स्थित रिसर्च एंड डेवलपमेंट डस्टैब्लिशमेंट (इंजीनियर्स) में विकसित आरओवी का उपयोग बमों को निष्क्रिय करने में किया जा सकता है । इसमें कोई कर्मी विस्पोटक के संपर्क में नहीं आता है । सेना तीन साल पहले से उग्रवादी प्रभावित जम्मू-कश्मीर राजस्थान और पूर्वोत्तर राज्यों में इन उपकरणों का प्रयोग कर रही है । तभी से यह कर्मियों और बम निष्क्रिय होते देखने वाले आमजन के लिए आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं । डीआरडीओ वैज्ञानिकों का कहना है कि सुरक्षा और अर्धसैनिक बल आरओवी रोबोट का उपयोग बांदी सुरंगों का पता लगाने और परमाणु-जैविक-रासायनिक (एनबीसी) खतरों का सर्वेक्षण करने में कर सकते हैं । यह सुरक्षित है क्योंकि इस ऋम में कर्मी बांदी सुरंग या एनबीसी हथियारों के संपर्क में नहीं आते । यह रोबोट पूरी तरह देशज उत्पाद हैं । इसका विकास १० इंजीनियरों ने करीब पांच साल पहले किया था और इससे शहरी युद्ध स्थितियों में कार्मिकों की मौत के मामलों को जबरदस्त ढंग से कम किया जा सकता है। आराओवी रोबोट के एक और संस्करण में उसकी कंट्रोलरइकाई ५०० मीटर की दूरी से काम करती है । यह चार कैमरों और एक भुजा से लैस है जिसका उपयोग संदिग्ध वस्तुआें को उठाने और विस्फोटकों की जांच करने के अलावा बम को निष्क्रिय करने में किया जा सकता है । ***
९ ज्ञान विज्ञान
मौसम के लिए भी होगा टीवी चैनल अब शायद आपसे यह गलती न हो कि आप घर से खुशनुमा मौसम का अंदाज लगा कर निकलें और रास्ते में आंधी और बारिश के घेरे में फंस जाएं । केंन्द्रीय मौसम विभाग जल्द ही मौसम चैनल लांच करने वाला है, जिसमेें आप चौबीस घंटों न केवल मौसम की जानकारी हासिल करेंगे, बल्कि मौसम और प्रकृति से जुड़े तमाम रहस्यों से रूबरू भी होंगे । विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मन्त्रालय की यह महत्वाकांक्षी योजना के अन्तिम चरण में हैं । यह योजना पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशीप पर आधारित है।
कार है ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण ग्लोबल वार्मिंग पूरी दुनिया के लिए सिरदर्द बनता जा रहा है । ग्लोबल वार्मिंग के विभिन्न कारकों में परिवहन भी एक प्रमुख कारक है । वैज्ञानिकों के एक शोध के मुताबिक ग्लोबल वार्मिंग का सबसे बड़ा कारण परिवहन साधन हैं । इनमें कार सबसे ज्यादा हैं । कार के बाद ग्लोबल वार्मिंग बड़ाने का दूसरा कारण विमानन क्षेत्र है । परंतु पानी के जहाज का मामला बेहद जटिल है । एनवायरमेंट न्यूज नेटवर्क की एक रिपोर्ट के मुताबिक सीआईसीईआरओ (सेंटर फॉर इंटरनेशनल क्लाइमेट एंड एनवायरमेंट रिसर्च) के पांच शोधकर्ताआें ने परिवहन क्षेत्र को चार उपक्षेत्रों में बांटा है । इनमें सड़क परिवहन, उड्डयन, रेल और जहाजरानी हैं । शोध में प्रत्येक उपक्षेत्र का ग्लोबल वार्मिंग में योगदान को आंका गया । इसके लिए रेडिएटिव फोर्स (आरएफ) को देखा गया, जो गाड़ियों से निकलने वाले धुएं से होता है। अध्ययन के अनुसार औद्योगिकीकरण के पहले से १५ प्रतिशत आरएफ मानव निर्मित कार्बन डायऑक्साइड के उत्सर्जन से होता है । परिवहन क्षेत्र इसकी जड़ है । ओजोन के लिए परिवहन को ३० प्रतिशत तक जिम्मेदार माना जा सकता है । अध्ययन के अनुसार ज्यादा से ज्यादा ध्यान तेजी से बन रही सड़कों की और भी दिया जाना चाहिए । अकेले कार्बन डायऑक्साइडके उत्सर्जन में सड़क यातायात ने दो-तिहाई योगदान दिया है । अगले सौ साल में यह स्थिति और बिगड़ेगी यानी सड़क यातायात का योगदान ग्लोबल वार्मिंग में तेजी से बढ़ेगा । जहां तक पानी के जहाजों की बात है तो स्थिति और जटिल है । अभी तक यह माना जाता रहा है कि जहाजों से ज्यादा नुकसान नहीं होता । नाइट्रोजन उत्सर्जित होती है । इनका असर ठंडा होता है । चूंकि ये गैसें ज्यादा समय तक वातारण में नहीं रहती हैं और आने वाले समय मेंे कार्बन डायऑक्साइड इसका असर खत्म कर देगी । ऐसे में सड़क परिवहन को ग्लोबल वार्मिंग के लिए सबसे ज्यादा दोषी करार दिया गया, जिसमें कारों का योगदान सबसे ज्यादा होता है ।
लौहमानव करेेंगे धमाकों से मुकाबला देश में बढ़ते आतंकी हमलों से बीच डीआरडीओ ने गृह मंत्रालय को विशेष किस्म के रोबोट या लौहमानव की पेशकश की है जो बमों को निष्क्रिय करने की जिम्मेदारी निभाएंगे । डीआरडीओ ने एक शीर्ष वैज्ञानिक ने बताया कि हम अपने तीन उपकरण-दूर से नियंत्रित किए जाने वाले बम निवारण यानी आरओवी सुजाव इलेक्ट्रोनिक सपोर्ट मेजर और सफारी इलेक्ट्रानिक काउंटरमेजर- को विस्पोटक संबंधी मामलों से निबटने वाली एजेंसियों को बेचने के लिए गृहमंत्रालय से चर्चा कर रहे हैं । डीआरडीओ के पुणे स्थित रिसर्च एंड डेवलपमेंट डस्टैब्लिशमेंट (इंजीनियर्स) में विकसित आरओवी का उपयोग बमों को निष्क्रिय करने में किया जा सकता है । इसमें कोई कर्मी विस्पोटक के संपर्क में नहीं आता है । सेना तीन साल पहले से उग्रवादी प्रभावित जम्मू-कश्मीर राजस्थान और पूर्वोत्तर राज्यों में इन उपकरणों का प्रयोग कर रही है । तभी से यह कर्मियों और बम निष्क्रिय होते देखने वाले आमजन के लिए आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं । डीआरडीओ वैज्ञानिकों का कहना है कि सुरक्षा और अर्धसैनिक बल आरओवी रोबोट का उपयोग बांदी सुरंगों का पता लगाने और परमाणु-जैविक-रासायनिक (एनबीसी) खतरों का सर्वेक्षण करने में कर सकते हैं । यह सुरक्षित है क्योंकि इस ऋम में कर्मी बांदी सुरंग या एनबीसी हथियारों के संपर्क में नहीं आते । यह रोबोट पूरी तरह देशज उत्पाद हैं । इसका विकास १० इंजीनियरों ने करीब पांच साल पहले किया था और इससे शहरी युद्ध स्थितियों में कार्मिकों की मौत के मामलों को जबरदस्त ढंग से कम किया जा सकता है। आराओवी रोबोट के एक और संस्करण में उसकी कंट्रोलरइकाई ५०० मीटर की दूरी से काम करती है । यह चार कैमरों और एक भुजा से लैस है जिसका उपयोग संदिग्ध वस्तुआें को उठाने और विस्फोटकों की जांच करने के अलावा बम को निष्क्रिय करने में किया जा सकता है । ***
१० विशेष रिपोर्ट
बुधवार, 26 नवंबर 2008
११पर्यावरण परिक्रमा
विकास नहीं, गाँव पर बाजार का दबदबा भारत की आत्मा गाँवों में बसती है, लेकिन इक्कीसबीं सदी के शहरी भारत में गाँवों की आदते भी बदल रही हैं । शहरी हो रही हैं । ऐसी नेल्सन का सर्वे भी कुछ ऐसा ही बातें करता है । सर्वे जनवरी से लेकर जुलाई २००८ के बीच ग्रामीण भारत में हुई खपत के आँकड़े पेश करता है । इसमें बताया गया है कि गाँवों में टूथपेस्ट की खपत १२.८ फीसदी बढ़ी है । तो शहरों में सिर्फ ८.७ फीसदी । गाँवों में शहरों की तुलना में शैम्पू, साबून और केश तेल का ज्यादा इस्तेमाल होने लगा है, मगर इसका कारण बहुत अजीब है । कहा गया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि और सत्तर हजार करोड़ कर्जमाफी से ऐसा हुआ है । तो क्या इस सत्तर हजार का फायदा किसानों को कम और साबुन, शैम्पू वालों ज्यादा हो रहा है । क्या किसी ने उस किसान के घर जाकर उपभोग का सर्वे किया है जो कर्जमाफी के बाद से खुद को मुक्त महसूस कर पा रहा है । वैसे भी महाजनों के चंगुल से अभी मुक्ति नहीं मिली है । हम गाँवों को नहीं जानते । भूल जाते हैं कि आखिरी आदमी तक माल पहुँचा देने की यह पूँजीवादी परिकल्पना पिरामिड के तल तक पहुँचने की नई रणनीति है । यह जरूर हुआ कि जब ब्रांडेड माल इतने महँगे हो गए तो स्थानीय उत्पादों ने लोगो की जरूरतें पूरी कीं । अब ब्रांड वाले उत्पाद कम पैसे और कम मात्रा के पैकेट में लोगों की आदत बन रहे हैं । जब गाँव के लोग शहरों में जाकर अजब-गजब के काम करने लगे तो उनके पीछे परिवार के सदस्य भी नए-नए काम करने लगे हैं । मोबाइल रिचार्ज कूपन, रिंगटोन डाउनलोड, कूरियर और टाटा स्काई से लेकर डिश टीवी जैसे नए-नए धंधे पनप रहे हैं । टाटा, रिलायंस और एयरटेल के पीसीओ अब गाँव-गाँव मेंे नजर आते हैं । गाँवों में लड़कियाँ जीन्स पहन रही हैं और लड़के कैप । विकास गाँवों तक नहीं पहँुचा । बाजार पहुँच रहा है अपने विस्तार के लिए । पचास पैसे से लेकर दो रूपए के पैकेट के जरिए । गाँवों से निकला बाजार अब एक बार फिर गाँवों की तरफ मुड़ रहा है ।
नर्मदा परिक्रमा पथ का विकास होगा म.प्र. सरकार नर्मदा परिक्रमा पथ विकास परियोजना को पूरा करने के लिए केन्द्र की विभिन्न योजनाआें का सहारा लेगी। इसके अधिकांश काम राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (नरेगा) की राशि से पूरे किए जाएँगे । मध्यप्रदेश रोजगार गांरटी योजना परिषद ने इसके अलावा संपूर्ण स्वच्छता अभियान और ग्रामीण विकास विभाग के माध्यम से भी योजना के तहत चिन्हित कार्योें का क्रियान्वयन किया जाएगा । परियोजना के लिए विभागों के बीच समन्वय और लक्ष्य को बताने का काम जन अभियान परिषद करेगी । नर्मदा परिक्रमा पथ को विकसित करने का बीड़ा जन अभियान परिषद के माध्यम से मध्यप्रदेश सरकार ने उठाया है । नदी के दोनों और करीब २६०० किलोमीटर वाले पथ को विकसित करने के लिए सरकार राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के प्रावधानों का उपयोग सड़क निर्माण, मिट्टी कटाव को रोकने के लिए बंधान, छोटी-छोटी जल संरचनाआें के साथ फलदार और छायादार वृक्षों के रोपण जैसे कार्य में करेगी। सूत्रों के मताबिक मुख्यमंत्री की घोषणा को अमलीजामा पहनाने के लिए मध्यप्रदेश रोजगार गारंटी योजना परिषद ने प्रस्ताव तैयार करने की कवायद शुरू कर दी है । नदी के दोनों ओर फलोद्यान तैयार करने के लिए करीब ३० लाख पौधों का रोपण किया जाएगा । मुरम की ग्रेवल सड़क (जिसके ऊपर पक्की सड़क बनाई जा सकती है) भी बनाई जाएगी । परिषद के अधिकारीयों का कहना है कि इससे योजना के तहत जहाँ मजदूरों को ज्यादा काम मिलेगा, वहीं हरियाली के और नदी के किनारे बसे गाँवों में विकास कार्य भी हो सकेंगे । अर्थ वर्क का काम ग्रामीण विकास विभाग की योजनाआें के दायरे में कराया जाएगा । मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की घोषणा के तारतम्य में नदी के किनारे बसे १५ जिलों के गाँवों को निर्मल ग्राम बनाने के लिए संपूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत कार्य स्वीकृत किए जाएँगे।
मंगल ग्रह पर फीनिक्स ने बर्फ खोजी अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के यान फीनिक्स ने मंगल ग्रह पर बर्फ का पता लगाया है । फीनिक्स को बर्फ उस जगह से थोड़ी दूर मिली जहाँ वह उतरा था । मंगल ग्रह के बादलों की संरचना का पता लगाने और मंगल की हवा में मौजुद बर्फ के टुकड़ों को काटने में फीनिक्स पर लगे रोबोट के हाथों का इस्तेमाल किया गया। मंगल ग्रह से मिले आँकड़ों के अनुसार वहाँ बर्फ सतह पर पर आने से पहले वाष्पीकृत हो जाती है । फीनिक्स वहाँकी स्थिति पर नजर रखे हुए है । कनाडा की यार्क यूनिवर्सिटी के मौसम वैज्ञानिक और इस अभियान से जुड़े जिम वाइटवे ने बताया कि अगले महीने हम मंगल पर बर्फ मामले की जाँच बहुत बारीकी से करेंगे। उन्होंने कहा, मंगल के वातावरण में बर्फ के बनने से पहले उसका वाष्प बनकर उड़ जाने की प्रक्रिया को समझना बहुत अहम् है । इसके लिये फीनिक्स यान कई उपकरण लेकर गया है । इसका मौसम केन्द्र यान के आसपास के तापमान, दबाव और हवा की निगरानी करता रहता है । केन्द्र से मिले आंकड़ों के मुताबिक वहाँ गर्मी के मौसम के कारण तापमान अधिक है । सर्दी का मौसम शुरू होते ही तापमान कम होन लगता है । अंतिरक्ष एजेंसी नासा की ओर से पिछले दिनों जारी अन्य महत्वपूर्ण आंकड़ों के अनुसार फीनिक्स के आसपास की मिट्टी की पहचान कैल्शियम कार्बोनेट के रूप में की गई है । यह पृथ्वी पर पाये जाने वाले चूना पत्थर से काफी मिलता जुलता है । फीनिक्स ने मंगल ग्रह पर मिट्टी जैसे एक पदार्थ का भी पता लगाया है । वैज्ञानिकोें का मानना है कि ये दोनों पदार्थ पानी की मौजुदगी में ही बनते हैं। फीनिक्स में एक मानव रहित यान है । नासा अपने इस मिशन के जरिए यह जानने का प्रयास कर रहा है कि क्या मंगल पर जीवन संभव है ।
भोपाल में बनेगा गिद्ध संरक्षण प्रजनन केन्द्र वन विहार राष्ट्रीय उद्यान भोपाल द्वारा बाह्य संरक्षण की दृष्टि से केरवा केन्द्र में गिद्धो की कैप्टिव ब्रीडिंग के केन्द्र को बनाये जाने का कार्य हाथ में लिया जा रहा है । इसके लिये पांच एकड़ भूमि कैरवा के पास चयनित कर ली गई है । उल्लेखनीय है कि गिद्धों को भोजन के रूप में बकरी का मंास दिया जाता है । वयस्क गिद्धों को चार दिन में एक किलोग्राम मांस तथा बच्चें को प्रतिदिन तीन बार१००-२०० ग्राम मांस दिया जाता है । गिद्धों का हमेशा से पर्यावरण में महत्वपूर्ण योगदान रहा हे । गिद्धो की विभिन्न प्रजातियां मृत जानवरों के मांस को अपना भोजन बनाती है, जिसके कारण ये मांस के सड़ने से होने वाली बीमारियों से बचाते रहे हैं । भारत में गिद्धों की नौ प्रजातियां पाई जाती रही हैं। इनमें से मध्यप्रदेश में गिद्धों की चार प्रजातियां क्रमश: बंगाल गिद्ध , इण्डियन लोंग बिल्ड, किंग वल्चर एवं सफेद गिद्ध प्रमुख रूप से पाये जाते रहे हैं । वर्ष १९९० के उपरांत गिद्धों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है । एक अध्ययन के अनुसार १९९० से २००२ तक इनमें लगभग ९० प्रतिशत कमी पाई गई है । गिद्धों की संख्या में इस गिरावट के कारण आई. यू.सी.एन. ने गिद्धों की इन प्रजातियों को गंभीर रूप से संकटग्रस्त प्रजाति की श्रेणी में रखा है । गिद्धों की संख्या में गिरावट का मुख्य कारण पालतू जानवरों को दी जाने वाली एंटी इंफ्लामेटरी दवाई डायक्लोफेनिक है ।यह दवाई पालतू पशुआें के लीवर में पहुंच कर मांस के जरिए यह गिद्घों तक पहुंचती है । ***
१२ खास खबर
दीपावली और प्रदूषण
(हमारे विशेष संवाददाता द्वारा)
रोशनी का पर्व दिवाली दीपों का त्योहार है । हमारे पुराणों में अग्नि की उजाले का प्रतीक माना गया है । यदि किसी कारण उजाले का अभाव हो तो आवाज को भी खुशियां मनाने का तरीका माना गया है दीपावली पर दीपक एवं पटाखे जीवन में उसी रोशनी और आवाज को प्रदर्शित करते है एवं ये दोनो ही खुशी मनाने के स्वरूप में स्वीकार करते है । लेकिन बदलते परिदृष्य में न सिर्फ खुशियां जाहिर करने के तरीके में बदलाव आया है, बल्कि त्योहार मनाने के तरीकों में काफी बदलाव आया है । दीपावली पर इस बार भी पिछले वर्ष की तरह रिकॉर्ड पटाखे छुटाए जाने की आशंका है । इस सबके बीच सुखद ये कि वर्षो बाद भी एंटी क्वेकर अभियान प्रभाव नहीं छोड़ रहा । केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मुताबिक, दीपालवली के दौरान राजधानी के वातावरण में सल्फर डाईआक्साइड की मात्रा काफी बढ़ जाती है कि पटाखे छौड़ने का वातावरण पर प्रभाव दीपावली क समय मौसम की स्थिति व वायु के प्रवाह पर भी निर्भर करता है । मौसम अधिक आद्र रहा तो वातावरण की मिक्सिंग हाइट कम रह जाती है और हवा में घुल चुके प्रदूषक तत्व ऊपर नहीं उठ पाते । पिछले साल और २००४ में ऐसी ही स्थिति थी इसलिए प्रदूषक तत्व हवा में कई दिनों तक बने रहे थे । दोनों साल दीपावली नवंबर के पहले हफते के बाद आई थी । इस साल २८ अक्टूबर को दीपावली है, लिहाजा मौसम ज्यादा आद्र रहने की संभावना नहीं है । प्रदूषक तत्व व परीक्षण की व्यवस्था : दीपावली से पहले और उस दिन केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की ओर से राजधानी की वायु गुणवत्ता की जांच प्रतिवर्ष की जाती है । दिल्ली के विभिन्न हिस्सो में बोर्ड की तरफ से दस जगहों पर अंशकालिक व चार जगह २४ घंटे परीक्षण की व्यवस्था की जाती है । बोर्ड के कर्मी कनॉट प्लेस, इंडिया गेट, पीतमपुरा, मॉडल टाउन, मयूर विहार फेज दो, लाजपत नगर, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, न्यू फ्रेंड कॉलानी और पूर्वी अर्जुन नगर में पटाखे से होने वाले वायु प्रदूषण व शोर स्तर की जांच अंशकालिक तौर पर प्रात: ६ बजे से रात के ग्यारह बजे तक करते है । शोर स्तर की जांच के लिए ६ घंटे के औसत पर कमला नगर, आईटीओ व दिलशाह गार्डन में भी मॉनिटरिंग की जाती है । इसके अलावा, पूर्वी अर्जुन नगर, आईटीओ, सीरीफोर्ट व दिल्ली कॉलेज आफ इंजीनियरिंग पर २४ घंटे वायु प्रदूषण की मानिटरिंग होती है । बोर्ड इन्हीं जगहों पर दीपावली से पहले भी आंकड़े जुटाने के बाद उनका तुलानात्मक अध्ययन का पटाखे से होने वाले दुष्प्रभावों का पता लगाता है । प्रदुषक तत्व है सेहत के दुश्मन : पटाखे से हवा में सल्फर डाइआक्साइड, नाइट्रोजन डाइआक्सााइड, निलंबित विविक्त कण व निलंबित विविक्त कणों मे इज़ाफा हो जाता है । ध्वनि प्रदूषण का स्तर तकरीबन हर जगह सामान्य दिनों से ज्यादा हो जाता है । शोर का मानक स्तर दिन में ५५ डेसिबल व रात में ४५ डेसिबल है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि २००७ में दीपावली पर ध्वनि प्रदूषण का स्तर ६३ से ८७ डेसिबल के बीच रहा जबकि २००६ में दीपावली पर यह स्तर ५६ से ७४ डेसिबल के बीच थाा दीपावली वाले दिन सल्फर उाइआक्साइड की मात्रा हवा में लगभग दो गुनी हो जाती है । इसी तरह निलंबित विविक्त कण ( आरएसपीएम) की मात्रा में भी हर जगह बढ़ोतरी होती है । प्रदूषक तत्वों का मानव जीवन पर प्रभाव पर केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. एस.के. त्यागी बताते है कि वायु में सल्फर व नाइट्रोजन के ऑक्साइड जैसे प्रदूषक तत्वों के बढ़ने से सांस की बीमारी से पीड़ित व्यक्तियों पर ज्यादा असर पड़ता है । वायु में इनका असर एक से दो दिन में कम हो जाता है, लेकिन मानव शरीर में कई दिनों तक इनका दुष्प्रभाव बना रहता है । इसी तरह एसपीएम व आरएसपीएम भी सांस की बीमारी को बढ़ा देती हैं । इन पर मौजूद कार्सिनोजैनिक तत्व गले में श्लेष्मा झिल्ली पर प्रभाव छोड़ता है और फेंफड़े तक पहुंच कर रक्त से मिल जाती है । ऐसे में किडनी, लीवर व ब्रेन पर भी इनका असर पड़ता है । लंबे समय तक ऐसे प्रदूषक तत्वों का मानव शरीर पर प्रभाव पडे तो कैंसर भी हो सकता है । दीपों के मंगल त्यौहार में सजना- संवरना, दीप जलाना और पटाखे चलाना हर किसी को भाता है, पर दिवाली की असली खुश्यिां सुरक्षित दीवाली से ही संभव है । पटाखों का शोर और उनसे निकलने वाले धुएं से न सिर्फ पर्यावरण संबंधी समस्याएं पैदा होती है, बल्कि स्वास्थ्य संबंधी समस्याआें की आशंका भी बढ़ जाती है ।इस बार दिवाली पर प्रदूषण कम हो व वातावरण स्वच्छ रहे इसके लिए कुछ सरकारी व गैर सरकारी संस्थाएं अभी से जनजागरूकता अभियान चला रही है । अनेक गैर - सरकारी संगठन और पर्यावरणविद् लोगों में यह जागरूकता फैलाने का प्रयास कर रहे हैं कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले पटाखों का इस्तेमाल न करें या कम से कम करें । ये लोग पटाखों के शोर से होने वाले प्रदूषण को कम करने के लिए काफी संघर्ष कर रहे हैं । आखिरकार वे लोगों को यह समझाने में सफल होगए है कि अधिक पटााखे फोड़ने से ध्वनि प्रदूषण का स्तर कई गुना बढ़ जाता है, जो लोगों की बर्दाश्त की हद पार कर उनकी सुनने की क्षमता प्रभावित करता है । परिणामस्वरूप इस वर्ष न केवल त्यौहान पर कुल व्यय में पटाखों का प्रतिशत गिरा है, बल्कि ऐसे पटाखों की खरीदारी भी बढ़ी है जिनसे आवाज नहीं होती या फिर कम आवाज होती है । ऐसे पटाखों की मांग ३५ फीसदी तक पहुंच गई है । पोटेशियम नाइट्रेट, कार्बन और सल्फर वाले पटाखें बाजार में बहुत कम देखने को मिल रहे हैं । ये पटाखे अधिक शक्तिशाली होेते हैं और फोड़ने पर अधिक शोर करते हैं । पिछले कुछ वर्षोंा में उत्तर भारत के शहरों जैसे दिल्ली व चंडीगढ़ में शोर करने वाले पटाखे फोड़ने का रूझान कम हुआ है । दक्षिणी राज्यों में भी लोग पटाखों पर कम खर्च कर रहे हैं ।पिछले कुछ सालों में दीपावली के समय में होने वाले प्रदूषण के स्तर में कुछ कमी भी आई है खासतौर से महानगरों में । वर्ष २००६ में दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण समिति डीपीसीसी द्वारा किए गए एक अध्ययन में यह निष्कर्ष सामने आया है कि दिवाली पर दिल्ली में अन्य वर्षोंा की तुलना में कम प्रदूषण फैला है । यह एक अच्छी शुरूआत है आशा है हम इस दिशा में और आगे बढ़ेंगें । ***