शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

११ विश्व वानिकी दिवस पर विशेष

वन है मानव जीवन के आधार
डॉ. खुशालसिंह पुरोहित
प्रतिवर्ष २१ मार्च को विश्व वानिकी दिवस मनाया जाता है । यह परंपरा सन् १८७२ में नेबरास्का (अमेरिका) में शुरू हुई । इसका श्रेय जे-स्टर्लिंग मार्टिन को जाता है, जिन्होेंने पेड़ों की खूबसूरती से वंचित नेबरास्का में अपने घर के आस-पास बड़ी संख्या में पौधें लगाए थे । एक समाचार पत्र के संपादक बनने के बाद उन्होंने अन्य नगरवासियों को भूमि संरक्षण, इंर्धन, इमारती लकड़ी, फल-फूल, छाया और खूबसूरती हेतु पौधे लगाने की सलाह दी । उन्होंने राष्ट्रीय कृषि बोर्ड को भी पौधें लगाने के लिए एक अलग दिन रखने को मना लिया । इस प्रकार विश्व वानिकी दिवस की शुरूआत हुई । प्रथम वानिकी दिवस पर एक लाख से ज्यादा पौधे लगाए गए । धीरे-धीरे पूरी दुनिया में यह दिवस मनाया जाने लगा । मानव जीवन के ३ बुनियादी आधार शुद्ध हवा, ताजा पानी और उपजाऊ मिट्टी मुख्य रूप से वनों पर ही आधारित हैं । इसके साथ ही वनों से कई प्रत्यक्ष लाभ भी हैं। इनमें खाद्य पदार्थ, औषधीयाँ, फल-फूल, ईधन, पशु आहार, इमारती लकड़ी, वर्षा संतुलन, भू-जल संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता आदि प्रमुख हैं । प्रसिद्ध वन विशेषज्ञ प्रो.तारक मोहनदास ने अपने शोध अध्ययन में बताया है कि ५० साल के जीवन में पैदा की गई एक ५० टन वजनी मध्यम आकार के वृक्ष से प्राप्त् वस्तुआें एवं अन्य प्रदत्त सुविधाआें की कीमत लगभग १५.७० लाख रूपये होती है । वन विनाश आज समूचे विश्व की प्रमुख समस्या है । सभ्यता के विकास और तीव्र औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप आज दुनिया वन विनाश के कगार पर खड़ी है । वनों के विनाश का सवाल इस सदी का सर्वाधिक चिंता का विषय बन गया है । पिछले २-३ दशकों से इस पर बहस छिड़ी हुई है और वनों का विनाश रोकने के प्रयास भी तेज हुए हैं । देश में पर्यावरण और वनों के प्रति जागरूकता आई है, लेकिन हरित पट्टी में किसी तरह का विस्तार कम ही हुआ है । पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में औद्योगिक विकास की गति काफी धीमी रही, किंतु स्वतंत्रता के बाद तीन गुना बढ़ी जनसंख्या का दबाव वन एवं वन्य प्राणियों पर पड़ना स्वाभाविक ही था । यही कारण है कि हमारे समृद्ध वन क्षेत्र सिकुड़ते गए और वन्य प्राणियोंं की अनेक जातियाँ धीरे-धीरे समात्ति की और कदम बढ़ाने लगीं । हमारे देश के संबंध में यह सुखद बात है कि प्रकृति के प्रति प्रेम का संदेश हमारे धर्मग्रंथों और नीतिशतकों में प्राचीनकाल से ही रहा है । पूजा-पाठ में तुलसी पत्र और वृक्ष पूजा के विभिन्न पर्व की हमारी समृद्ध परंपरा रही है । यह लोक मान्यता रही है कि साँझ हो जाने पर पेड़ पौधों से छेड़-छाड़ नहीं करना चाहिए, क्योंकि पौधों में प्राण हैं और वे संवेदनशील होते हैं । हमारे देश में एक तरफ तो वनों के प्रति श्रद्धा और आस्था का यह दौर चलता रहा और दूसरी ओर बड़ी बेरहमी से वनों को उजाड़ा जाता रहा ह्ै । यह सिलसिला अभी भी थमा नहीं है । अनुमान है कि प्रति वर्ष १५ लाख हेक्टेयर वन कटते हैं । हमारी राष्ट्रीय वन नीति में कहा गया था कि देश के एक तिहाई हिस्से को हरा-भरा रखेंगे लेकिन पिछले वर्षो में भू-उपग्रह के छाया चित्रों से स्पष्ट है कि देश में ३३ प्रतिशत के बजाए १३ प्रतिशत ही वन क्षेत्र रह गया है । भारत में जैव-विविधता की समृद्ध परंपरा रही है । वर्तमान में भारत की जैव-विविधता दुनिया के ३.४ प्रतिशत प्राणियों एवं ७ प्रतिशत वनस्पतियों का प्रतिनिधित्व करती है, जबकि हमारा वन क्षेत्र विश्व के २ प्रतिशत से भी कम है और इसे विश्व की १५ प्रतिशत से अधिक जनसंख्या का दबाव झेलना पड़ता है । भारत में कुल ८१ हजार प्राणी-प्रजातियाँ एवं ४५ हजार वनस्पति प्रजातियाँ पाई जाती हैं । प्राणियों में सर्वाधिक ५६ हजार प्रजातियाँ कीट पतंगों की हैं । इनमें सबसे कम ३७२ प्रजातियाँ स्तनधारी प्राणियों की हैं । वनस्पतियाँ प्रजातियों का एक तिहाई यानी १५ हजार प्रजातियाँ उच्च् वर्गीय पौधों की हैं । शेष प्रजातियों में २३ हजार फफूंद, १२ हजार कवक और ३ हजार ब्रायोफाइट शामिल हैं । जैव विविधता की समृद्धि की प्रसन्नता के साथ ही यह कम दुखद नहीं है कि हमारे देश में १५०० वनस्पति प्रजातियाँ, ८९ स्तनधारी प्राणी प्रजातियाँ, १५ सरीस्त्रप, ४७ पक्षी, ३ उभयचर और अनेक कीट-पतंगों की प्रजातियाँ विलुिप्त् की कगार पर हैं । वन महत्वपूर्ण प्राकृतिक संपदा है, जो न केवल देश की समृद्धि को बढ़ाते है, वरन देश के पर्यावरण संतुलन को भी बनाए रखते हैं। आज विश्व की जलवायु में आश्चर्य परिवर्तन हो रहे हैं । इसमें वन कटाई प्रमुख कारण है । इस विषय पर अब तक अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बहस हो चुकी है । जलवायु परिवर्तन वर्तमान में महत्वपूर्ण मुद्दा है । जलवायु परिवर्तन और स्थायी विकास के मुद्दों में गहरा संबंध है । हमारे देश में जलवायु परिवर्तन से सामाजिक संकट आने की संभावना बनी रहती है, क्योंकि भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था जलवायु संतुलन से ही संतुलित रहती है। भारतीय संस्कृति मूलत: अरण्य संस्कृति रही है । हमारे मनीषियों ने वनों के सुरम्य, शांत और स्वच्छ परिवेश में चिंतन-मनन कर अनेक महान ग्रंथों की रचना की, जो आज भी विश्व मानवता का मार्गदर्शन कर रहे है । भारत में पर्यावरण संरक्षण से संबंधित २०० से ज्यादा कानून हैं । सन् १९७३ में ४२ वें संविधान संशोधन के जरिए संविधान में पर्यावरण संबंधी मुद्दे शामिल किए गए । राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों में अनुच्छेद ४८ `अ' जोड़ा गया, जिसमें कहा गया है कि राज्य देश के प्राकृतिक पर्यावरण वनों एवं वन्य जीवों की सुरक्षा तथा विकास के लिए उपाय करेगा । मौलिक कर्तव्यों से संबंधित अनुच्छेद ५१ `अ' में कहा गया है कि वनों, झीलों, नदियों और वन्य जीवन की सुरक्षा व विकास तथा सभी जीवों के प्रति सहानुभूति हरेक नागरिक का कर्तव्य होगा। इसके साथ ही वन एवं वन्य जीवन से जुड़े सवालों को राज्य सूची से समवर्ती सूची में शामिल कर दिया गया लेकिन इतना होने के बाद भी देश को हरा भरा करने के लिए एक जन- आंदोलन की आवश्यकता अभी शेष है । ***अंटार्कटिका में है दफन पहाड़ों की श्रृंखला अंटार्कटिका को लेकर हुए हालिया खुलासे से ग्लोबल वार्मिंग और उससे बर्फ पिघलने की प्रक्रिया से बढ़ने वाले समुद्र जल स्तर के प्रति दुनिया भर के विशेषज्ञों के बीच चिंता का दौर शुरू हो गया है । इसका सबब बनी है एक नई खोज जो बताती है कि अंटार्कटिका में सैकड़ों साल पुरानी पर्वत श्रृंखला बर्फ में धंसी पड़ी है । बर्फ में दबे पहाड़ों के बारे में जानने के लिए विशेषज्ञों को रडार और ग्रेविटी सेंसर्स का इस्तेमाल करना पड़ा । अचंभित करने वाली बात यह है कि ढूंढे गए पहाड़ एल्प्स पर्वत श्रृंखला के आकार के हैं, जिसमें बड़ी - बड़ी चोटियां भी हैं। बर्फ के नीचे मिले पहाड़ सहत से करीबन दो मील अंदर दफन हैं । वैज्ञानिक यह भी बताते हैं कि बर्फ धीरे - धीरे जमने की स्थिति में दफन पहाड़ों की चोटियां टूटकर समतल हो सकती थीं, लेकिन बहुत जल्दी जमने से चोटियां यथावत रहीं ।

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