महाराष्ट्र : सिंचाई योजनाआें का निजीकरण
निधि जामवाल
महाराष्ट्र ने सिंचाई योजनाआें के निजीकरण के लिए योजनाआें के क्रियान्वयन में हुई असाधारण विलम्ब को अपना हथियार बनाया है । विलम्ब के लिए जिम्मेदार अधिकारियों/कर्मचारियों को दंडित करने के बजाए इन योजनाआें का निजीकरण कर उपभोक्ताआें को ही दंडित किया जा रहा है । सन् १९८४ मेें प्रारंभ होकर अभी तक अधूरी महाराष्ट्र की निरा देवघर सिंचाई परियोजना एक बार पुन: संकट में फस गई है । महाराष्ट्र जल नियामक प्राधिकरण के तीन सदस्यों ने अपने हाल के निर्णय में पूना जिले की भोर तालुका स्थित इस परियोजना के निजीकरण पर स्थगन लगा दिया है । इस ४५ हजार हेक्टेयर भूमि की सिंचाई को लक्ष्य कर आकल्पित परियोजना की अनुमानित लागत ६२ करोड़ रू. थी । जबकि राज्य सरकार इस अधूरी परियोजना पर २००७ तक ४५० करोड़ रू. का व्यय कर चुकी है । ताजा आधिकारिक अनुमानों के अनुसार इस परियोजना को पूर्ण करने के लिए अभी भी ८७० करोड़ रू. की और आवश्यकता है । जो कार्य बकाया है उनमें ५ प्रतिशत बांध निर्माण और १६४ कि.मी. की नहरों के निर्माण के अतिरिक्त जल वितरण का ताना-बाना बुना जाना है । एक ओर जहां राज्य का खजाना खाली होता जा रहा हैंवहीं महाराष्ट्र को अपनी अधूरी पड़ी १२०० परियोजनाआें को पूरा करने के लिए ३६,६३० करोड़ रू. की आवश्यकता है । इस स्थिति के चलते सरकार ने गत सितम्बर में एक शासकीय इकाई, महाराष्ट्र कृष्णा घाटी विकास प्राधिकरण (एमकेवीडीसी) के माध्यम से विज्ञापन जारी कर निजी भागीदारी को आमंत्रण दिया । हालिया निर्णय से मजबूर निगम को १७ दिसम्बर को अपना उक्त विज्ञापन वापस लेना पड़ा । परन्तु नियामक प्राधिकरण का आदेश उस सरकारी प्रस्ताव के विपरीत है जो कि इस तरह की परियोजनाआें में निजी क्षेत्र की भागीदारी की अनुमति देता है । निरा देवघर परियोजना में निजी निवेषक की भूमिका थी । बांध का निर्माण पूरा करना, नहर का निर्माण करना और जल वितरण तंत्र तैयार करना। बदले में निजी निवेशक को बांध और इसके जल पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त् हो जाता है । विज्ञापन के प्रकाशन के बाद पूना की एक गैर सरकारी संस्था `प्रयास' ने महाराष्ट्र जल संसाधन नियामक प्राधिकारी से हस्तक्षेप की मांग की । जनवरी २००८ की अपनी याचिका में प्रयास ने इस विज्ञापन को चुनौती देते हुए कहा था कि यह विज्ञापन प्राधिकारी को सम्मिलित (प्रकिया में) किये बिना जारी हुआ है, जो कि महाराष्ट्र जल संसाधन नियामक अधिनियम २००५ के अंतर्गत एक अनिवार्यता है । इसमें अन्य हितग्रहियों जैसे जल उपभोक्ता समितियों किसानों और गैर सरकारी संगठनों को भी सम्मिलित किए जाने को भी कहा गया था, जिसे प्राधिकरण ने अस्वीकार कर दिया । प्रयास के शोध सहायक सचिन वारघाड़े का कहना है ``इस तरह की परियोजनाआें में पारदर्शिता का अभाव होता है और सरकार की ओर से भी स्पष्टता की कमी रहती है । साथ में इस बात पर पशोपेश भी है कि नियामक इकाई को अधिकार सम्पन्न किया जा रहा है या उसकी भूमिका सीमित की जा रही है ? नियामक प्राधिकारी ने सुनवाई के बाद एमकेवीडीसी को आदेश दिया कि वह उक्त विज्ञापन वापस ले एवं इसे तब तक पुनर्प्रकाशित न करे जब तक कि २००३ के प्रस्ताव में संशोधन नहीं हो जाता । वहीं निगम के अधिकारियों ने प्राधिकारी को सौंपी अपनी लिखित रिपोर्ट में इसे वर्तमान प्रचलित कानूनों के अनुरूप बताया और अपनी कार्यवाही को उचित ठहराते हुए कहा कि रूचि `प्रदर्शन' (ईओआई) विज्ञापन को अल्प टेंडर नोटिस ही मानना चाहिए जिसमेें केवल एमकेवीडीसी ही सम्मिलित है । रूचि प्रदर्शन विज्ञापन में में रद्दोबदल/परिवर्तन किया जा सकता है । बोली हेतु अंतिम दस्तावेज सभी शंकाआें से मुक्त होगा । रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि चूँकि परियोजना को १९८४ में ही प्रशासनिक स्वीकृति मिल चुकी थी, अतएव इसे नई परियोजना नहीं माना जा सकता है । इसी कारण से इसे प्राधिकारी की समीक्षा से भी बाहर रखा गया । प्राधिकारी ने निगम के विचारों से असहमति जताते हुए कहा कि एक `नए घटक' के यप में निजी विकासकर्ता के जुड जाने से नवीन आर्थिक समीक्षा की आवश्यकत है। क्योकि यह (निजी निवेशक) लागत वहन करेगा और लाभ भी कमाएगा । प्राधिकारी का कहना था कि इसका जलदरों सहित संपूर्ण परियोजना पर प्रभाव पड़ेगा । श्री वारघाड़े का कहना है ``प्राधिकारी ने एकदम सही बात को लक्ष्य किया है कि इससे जल दरों में वृद्धि हो सकती है । निर्माण कंपनी परियोजना में अपने द्वारा किए गए निवेश की वापसी के साथ ही साथ इसके लाभ भी कमाना चाहेगी । ऐसे किसी भी राजस्व प्रस्ताव को स्वीकृत करने के पूर्व उसकी खोजबीन तो होनी ही चाहिए।'' राज्य सरकार इस संदर्भ में २००३ की राज्य जल नीति का हवाला दे रही है जिसमें अधूरी परियोजनाआें को निजी भागीदारी से पूर्ण करने की बात कही गई है । इसमें निजी क्षेत्र हेतु बी.ओटी (निर्माण, संचालन व हस्तांतरण) से संबंधित मार्गदर्शिका का प्रस्ताव भी दर्शाया गया है ।'' शासकीय रिकार्डो के अनुसार मार्च २००७ तक १२४६ परियोजनाएं अधूरी थी । ***विशाल अमीबा की खोज समुद्र तल में जो जीवाश्म चिन्ह मिलते हें, वे शायद विशालकाय अमीबाआें की करतूत हैं । ऐसे अमीबा १.८ अरब वर्ष पूर्व समुद्र के पेंदे में रहा करते थे । यहां विशालकाय शब्द का प्रयोग सिर्फ आजकल के अन्य अमीबाआें को देखते हुए किया जा रहा है । हाल ही में टेक्सास विश्वविद्यालय के मिखैल मैट्ज़ ने बहामास के समुद्र की छानबीन करते हुए अमीबा की एक नई प्रजाति की खोज की है । इस प्रजाति को ग्रोमिया स्फेरिका नाम दिया गया है । अंगूर की साईज का यह अमीबा जब समुद्र के पेंदे में लुढ़कता है , तो यह मिट्टी को निगलता है और वापिस थूकता है । इस प्रक्रिया में यह अपने पीछे क्यारियां सी छोड़ता जाता है । प्राचीन काल के कीचड़ में भी इस तरक की क्यारियां मिलती हं जो पूरा जीव वैज्ञानिकों को चक्कर में डालती रही हैं । वैज्ञानिकों का मानना था कि इस तरह की क्यारियां बनाने की क्षमता सिर्फ कुछ बहु - कोशिकीय जंतुआें में रही होगी, जो करीब साढ़े बावन करोड़ साल पहले, केम्ब्रियन युग मेंरहे होंगें । मगर इस तरह के जीवों के कोई जीवाश्म नहीं मिले हैं जो इन क्यारियों से मेल खाएं । इसकी व्याख्या के लिए यह सोचा गया कि शायद ये जीव मुलायम शरीर वाले रहें होंगें , जिनके जीवाश्म आम तौर पर नहीं मिलते या बहुत कम मिलते हैं ।
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