शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

३ आवरण कथा

कल्पतरू की कल्पना
डॉ. सुनील कुमार अग्रवाल
हर वृक्ष का अपना विशिष्ट आकार प्रकार एवं संस्कार होता है । वह सूक्ष्म बीज से विराट रूप संजोता है । वृक्ष ही भूमि पर शोभायमान प्रसार से पर्यावरण को अमरत्व देते है । वृक्ष ही पर्यावरण की नीरसता दूर कर उसे शीतलता एवं नीरव शांति देते हैं । धरती को स्थायित्व देते हैं । वृक्ष ही सौंदर्य को अपने पत्ती-पत्ती, बूटे-बूटे और फल में समेट लेते है। वहीं तो हमें हरापन देते है । पर्यावरण का मर्म उनकी शिराआें में रस बनकर बहता है । सदा ही परोपकार करूँगा, हर पेड़ यहाँ कहता है । वह धरती से जुड़े रहकर आकाश को ताकते है और हमारे लिए सूर्य देव से प्रकाश और ताप माँगते है । वृक्ष ही रूप रंग और रस के पारखी है । वह हमें सब कुछ प्रदान करते है जिसकी हमे अपने अस्तित्व के लिए जरूरत है । अत: हमारे लिए हर वृक्ष कल्प वृक्ष है । वह हमको मनवांछित देता है, बदले में हमसे कुछ नहीं लेता है । अगर हम उसपर कुल्हाड़ी नहीं चलायें तो देता ही रहता है हर वनस्पति का औषधीय महत्व भी है जो हमारी देह को कायाकल्प में योगदान करती है । हमारे वेद-पुराणों में रूपकमयी शैली में सुर एवं असुर शक्तियों द्वारा आहूत समुद्र मंथन का मिथक निरूपित है । मंथन के परिणाम स्वरूप समुद्र से निर्मित चौदह रत्नों में कल्पवृक्ष का विशेष महत्व है । कल्पवृक्ष का मिथक हमको वृक्षों के प्रति आत्मीय बनाता है एवं उनके प्रति हमारे अंदर कर्तव्य भावना जगाता है । कल्पवृक्ष अर्थात सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करने वाला वृक्ष । जों कुछ हमारी कल्पना में जन्म लें, वह सत्य-सार्थक हो जाये । कल्पतरू का मिथक यदि मात्र कल्पना भी है तब भी है कथा बड़ा अनुरंजक एवं पर्यावरण सचेतक । पुराण प्रसंग के अनुसार -``ततोडभवत् पारिजात: सुरलोक विभूषणम्।पूरयत्यर्थिनो यो%र्थे शश्वद् भुवि यथा भवान।।''(श्रीमद् भागवत् महापूराण ८/८/६)अर्थात-परीक्षित! इसके बाद स्वर्ग लोक की शोभा बढ़ाने वाला कल्पवृक्ष निकला । वह याचको की इच्छाएं, उनकी इच्छित वस्तु देकर वैसे ही पूर्ण करता रहता है, जैसे पृथ्वी पर तुम सबकी इच्छाएँ पूर्ण करते हो । समुद्र से प्राप्त् इस विलक्षण वृक्ष को देवताआें ने देवलोक के विशेष उद्यान में प्रतिष्ठित किया । कल्प वृक्ष केे सुन्दर फूलों का धारक ह्ी चिरयौवन पा जाता था । देवी देवता अपनी विशेष पूजा अर्चना आदि में इसके पुष्प प्रयोग करते थे । एक दिवस पार्वती ने भोलेनाथ से अपने विशेष यज्ञ के प्रयोजन से कल्पवृक्ष पारिजात को स्वर्ग लोक से कैलाश पर्वत पर ले आने का आग्रह किया । भोले बाबा को पूर्ण विश्वास था कि देवराज इन्द्र उन्हे पारिजात अवश्य ही दे देंगे अत: वह माँगने गए भी किन्तु देवराज ने नीलकण्ठ से यह कहकर साफ इंकार कर दिया कि कल्पवृक्ष पारिजात देव लोक का प्रतीक बन चुका है । देवराज की इस अहंमन्यता को भोले भण्डारी ने तो सहज भाव से लिया किन्तु भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र का अहंकार तोड़ने हेतु कौतुक रचा । श्रीकृष्ण एक असुर का पीछा करते करते देवलोक पहुँचे उनके साथ सत्यभामा भी थी उस असुर ने देवमाता अदिति के कुण्डल बलात हथिया रखे थे। श्रीकृष्ण और देवी सत्यभामा ने असुर को परास्त किया तो खुश होकर देवमाता ने सत्यभामा को चिरयौवन का आर्शीवाद दिया। देवराज ने श्री कृष्ण को कल्पवृक्ष पारिजात का पुष्प भेंट किया । श्री कृष्ण ने द्वारिका लौटने पर वह पुष्प देवी रूक्मणी को दे दिया । इस प्रसंग से सत्यभामा दर्प से भर उठी और उन्होने श्री कृष्ण से अपने विशेष यज्ञ की पूर्ति हेतु कल्प वृक्ष पारिजात को ही शपथ भरवा कर माँग लिया । देवराज ने श्री कृष्ण द्वारा पारिजात के आग्रह को भी ठुकरा दिया तो श्री कृष्ण ने देवराज को युद्ध में परास्त कर पारिजात को द्वारिका लाकर यज्ञ को पूर्णता प्रदान की और यज्ञ की सम्पन्नता के पश्चात् उसे पुन: देवलोक में ही प्रतिष्ठित किया । यह तो ज्ञात नहीं है कि देवलोक के विलक्षण कल्प वृक्ष पारिजात के संततियों के रूप में वर्तमान काल में पृथ्वी लोक में फलीभूत एण्डसोनिया डिजिटाटा नामक पारिजात वृक्ष ही वह मिथकीय कल्पवृक्ष है जिसके विलुप्त् प्राय होने से वन विभाग चिंतित है तथा क्लोनिंग की यह विधि एयर लेयरिंग बतलाई जाती है । इस विधि से केवल दुर्लभ पारिजात ही नही वरन रूद्राक्ष तथा चंदन के पेड़ो को बचाने की मुहिम भी जारी है । कुछ लोगोें का मत है कि जिस अश्वत्थ वृक्ष में स्वयं को निरूपित करते हुए श्री कृष्ण ने गीता में कहा है - ``अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणाम्'' अर्थात सब वृक्षो में अश्वत्थ हॅू वह अश्वत्थ, वही कल्पवृक्ष परिजात ही है । यदि यह मान भी लिया जायें कि वह वही कल्पवृक्ष है तो उसमें मनोरथों को पूर्ण करने का गुण कहाँ है ? क्या वह वांछित को प्रदान करता है ? नहीं, इसका कारण यह माना जा सकता है कि युगान्तरकारी परिवर्तनों के कारण उसका यह दिव्य गुण क्षीण हो चुका हो।यूँ भी देव लोक और मृत्यु लोक में कल्पवृक्ष की आधारभूत स्थितियों में जमीन आसमान का अंतर होगा । यह भी हो सकता है कि जिसे हम आज अपनी धरती पर पारिजात समझते हैं वह समुद्रमंथन द्वारा प्राप्त् मूल कल्पतरू न होकर उसका प्रतिरूप हो । क्योंकि पुराण प्रसंग के अनुसार भी जब शंकर भगवान को देवी पार्वती के यज्ञ की पूर्णता हेतु देवराज इन्द्र ने कल्पवृक्ष पारिजात को देने से इंकार कर दिया था तो सदाशिव ने अपनी शक्ति के बल पर कैलाश पर्वत पर पारिजात का जंगल ही अस्तित्वमान कर दिया था । हो सकता है कि यह पुराण प्रसंग आधुनिक क्लोनिंग (एयर लेयरिंग विधि) का ही कोई रूप रहा हो । अभी तो हमारे समक्ष पारिजात के विषय में भेद की गुत्थी भी है , प्रश्न यह भी है कि जस आिश्वत्थ का वर्णन पुराणों तथा गीता में है वही हमारे आसपास उग आने वाला पीपल है या कि काई अन्य पेड़ है । लोकजीवन में हम सदा सदा से पीपल को विष्णु रूप में तथा वट को शिव रूप में पूजते आये हैं-`` अश्वत्थ रूपी भगवानवटरूपी सदाशिव'' स्कन्द पुराण में भी यही बात लिखी है - अश्वत्थ रूपी विष्णु स्यादूट रूपी शिवोयत: `` शास्त्रों में ही लिखा है-`` पुमापुस पारिजातोडश्वत्थ खदिरादधि'' अर्थात् जिस प्रकार खादिर '(खैर) के वृक्ष के ऊपर अश्वत्थ उत्पन्न होता है उसी प्रकार वीर पुरूष पैदा होते हैं और शत्रुआें का वध कर देते हैं । पीपल में सम्पूर्ण देवाधिष्ठान है । उसकी जड़ में विष्णु, तने में केशव, शाखाआें में नाराण, पत्तों मे ंश्री हरि और फूलों में विविध देवताआें के साथ अच्युत सदा निवास करते हैं अश्वत्थ का वनस्पति विज्ञानी फाइकस रिलीजियोसा नाम बतलाते हैं जो स्वयं वृक्ष को धर्म से जोड़ता है । संस्कृत में अश्वत्थ को `पिप्पल' कहते हैं । पीपल के लिए वाड़्गमय में ही लिखा है -मूले ब्रह्मा त्वचा विष्णु शाखायाम महेश्वर।निवसन्ति पत्रे-पत्रे सर्वानिदेवा वृक्षराज नमोस्तुते ।। नि:संदेह वृक्ष चाहे किसी भी प्रजाति के हों हमें हरित विश्वास तो देते ही हैं अपने आंचल से हमको छाया देते हैं स्वयंधूप में निडर खड़े रहते हें उनके हर पत्ते में प्रेम छिपा होता है । वृक्ष में ही देवताअमूर्त ेस मूर्तमान होते हैं । वृक्ष ही सम्पूर्ण सृष्टि की विकसन प्रक्रिया और विकास के विस्तार के साक्षी हें । पेड़ों पर पक्षियों का कलरव किसी पूजा अर्चना की आरती से कम नहीं होता है । वृक्षारोपण से मनचाहे फल की बात कल्पित नहीं वरन् यथार्थ है । वृक्ष लगाईये और मनवांछित फल पाईये । कोई भी मिथक मिथ्या नहंी होता है वह सत्य का बीज ही संजोता है । वृक्ष हमें बहुत कुछ देते हैं साथ ही हमारे मन की मुराद भी पूरी करते हैं । विभिन्न कामनाआें की पूर्ति हेतु तथा ग्रहों की शांति के लिए हम मुद्रिकाआें में कीमती रत्नों के रूप में हीरे पन्ना मोती मूंगा पुखराज नीलम सुनहला या अन्य रत्न धारण करते हैं । हमारे आर्ष ग्रन्थ इसका सस्ता एवं सरल विकल्प बतलाते हैं जिससे हमारे पर्यावरण को भी अमरत्व मिलता है प्राचीन ग्रंथों के अनुसार किसी व्यक्ति की जन्मकुण्डली के नक्षत्र ग्रह प्रााव के आधार पर विशेश प्रजाति के पेड़ रोपने से शांति एवं लाभ मिलता है । मन की मुरादें पूरी होती हैं विभिन्न ग्रहों के दोष निवारण हेतु अलग-अलग पेड़-पौधों का निर्धारण है उदाहरणार्थ राहु की शांति के लिए दूब रोपण तथा केतु की शंाति के लिए कुश रोपण का विधान है । शनि की शांति के लिए पीपल का रोपण तथा प्रदक्षिणा का प्रावधान है । विशेष वृक्ष लगाने से विशेष फल मिलता है। वृक्ष हमेंकभी भी निराश नहीं करते हैं । वह हमें हरित विश्वास ही देते हैं । अनुमान के मुताबिक एक सरसब्ज पेड़ अपने जीवनकाल में तथा जीवन के बाद भी लाखों रूपये का मूल्य देकर हमें मालामाल करता है । कई लाख रूपया मूल्यकी ऑक्सीजन हमें देता हे । प्रदूषकों की रोकथाम अवशोषण द्वारा कर कई लाख का लाभ पहुंचाता है । लकड़ी पत्र पुष्प फल जलचक्र, जमीन की उर्वरा शक्ति तथा अन्य योगदान मिलाकर २५-३० लाख का आकलित होता है । ऐसे वृक्षों को छोड़कर, उनके फूल तोड़कर और अन्य देवों के शीर्ष चढ़ाकर हम भला क्यों रिझाते हैं ? तरू देवता में सब देवता समा जाते हैं । एक ही पौधे में ब्रह्मा , विष्णु, महेश की प्रतिष्ठा मानते हुए कबीर दासजी कहते हैं कि पत्ती में ब्रह्मा,पुष्प में विष्णु तथा फल में महादेव निवास करते हैं फिर तुम इसे तोड़कर किस देवता की सेवा करना चाहते हो ?`पाती ब्रह्म पुहुयें विष्णु, फूल- फल महादेवा।तिनि देवौ एक मूर्ति, करै किसकी सेवा ।।'संत मलूक दासजी भी कहते हैं कि जो हरी टहनी अपने सजीव जीवंत होने का परिचय स्वयमेव दे रही है उसे मत तोड़ो। तोड़ने पर उसे वैसी ही पीड़ा होती है जैसे मानव को छुरा या बाण लग जाने से होती है । पेड़ों को हमें अपने समान सप्राण मानना चाहिए । ` हरी डार मत छोड़िये ,लागे छूरा बाण ।दास मलूका यों कहें, अपना-सा जीव जान ।।'हमारे धर्म ग्रंथ बार- बारे पेड़ों को अक्षुण्ण बनाये रखने का संदेश देते हैं और कहते हैं कि वृक्षों का सम्मान करने से दारिद्र्य नष्ट होता है सम्पदा और सुख शांति मिलती है । क्या अब भी हम कहेंगें कि हर वृक्ष कल्पवृक्ष नहीं है ? शास्त्रोक्ति देखिये - ``एकोहरि: सकल वृक्षागतो विभाति नानारसेन परिमादित मूर्ति देव ।वृक्षा दिवा समगमत्कमला च देवी दुखादि नाशनकरी संतत स्मृतापि ।।''(स्कन्दपुराण १७-१९) अर्थात् - भगवान विष्णु का निवास प्रत्येक वृक्ष में है । जिसके सम्मान से लक्ष्मीजी (कमला)प्रसन्न होती हैं जो हमारी निर्धनता ही नहीं अपितु हमारे सभी दु:खों को हरने की क्षमता रखती है । हमारे आर्षग्रंथों मे सृष्टि सृजन के समय वनस्पतियों की उत्पत्ति का वर्णन है । जब सृष्टि के उद्भव काल में विष्णु की नाभि से कमल प्रकट हुआ जिस पर ब्रह्मा आसीन हुए तब अन्य देवताआें से भी विभिन्न वनस्पतियां जन्मीं । यक्षों के राजा मणिभद्र से वट वृक्ष उत्पन्न हुआ इसे यज्ञ तरू भी कहते हैं । हमारे पुराणों में अनेक प्रतिकात्मक मिथकीय कथाएँ पेड़ - पौधों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में वर्णित हैं श्री हरिवंश पुराण में विशाल वट वृक्ष का वर्णन है जिसको भाण्डीरवट के नाम से जाना जाता है उसकी छाया में भगवान ने भी विश्राम किया -योग्राध पर्वतोग्रामं भाण्डीरनाम नामत: ।दृष्ट्वा तत्र मतिं चके निवासाय तत:प्रभु।। केवल हिन्दू धर्म ही कल्पतरू के रूप में वनस्पतियों को निरूपित नहीं करता है । इस्लाम में भी पेड़- पौधों को अल्लाह की नियामत बतलाया गया है तथा बंजर जमीन पर पेड़ लगा कर उसे सरसब्ज करने की ताकीद दी गई है । इस्लाम धर्म में खजूर े पेड़ की विशेष इबादत है। बौद्धधर्म में वृक्षों को काटना जघन्य अपराध बतलाया गया है । गौतम बुद्ध को तो बोधिसत्व ही पीपल के वृक्ष के नीचे मिला था । जैन धर्म के प्रणेता भगवान महावीर ने कहा किपेड़ और आदमी मे ंकोई अंतर नहीं है। आदमी की तरह वनस्पतियां भी जीवन की विभिन्न अवस्थाएँ धारण करती हैं । ईसाई धर्म तो`` क्रिसमस ट्री'' के रूप में उपहारों की सौगात `` क्रिसमस डे'' पर बांटता ही है । यह कल्प वृक्ष के प्रतीक का ही एक रूप है जो हमें प्रभु यीशू के आशीर्वाद के रूप में मिलता है। पवित्र बाईबिल (१:११-१२) कहती है कि - आरम्भ के दिनों में परमेश्वर ने पृथ्वी पर हरी-हरी घास और समस्त प्रकार के पेड़ पौघों को बनाया और फिर परमेश्वर ने कहा , पृथ्वी से हरी घास और बीज वाले छोटे- छोटे पेड़ और फलदायी वृक्ष भी जिनके बीज उन्हीं में एक- एक कीजाति के अनुसार होते हैं पृथ्वी पर उगें और वैसा ही हो गया, तो पृथ्वी से हरी घास और छोटे - छोटे पेड़ जिनमें अपनी - अपनी जाति के अनुसार बीज आते हैं और फलदायी वृक्ष जिनके बीज एक- एक की जाति के अनुसार होते हैं , उगे और परमेश्वर ने देखा कि यह अच्छा था ।'' अत: हमारा कर्त्तव्य है कि हम पीपल (अश्वत्थ), वट (न्योग्रोथ) , पाखड़ (पिलखन), गूलर के पेड़ तो लगायें ही साथ ही नीम , आम, जामुन, कदम्ब, गुलमोहर, अमलताश, अर्जुन, मौलश्री, इमली आदि का रोपण करें । फल, फूल लकड़ी, चारा, रेशे और औषधि प्रदायक पेड़ भी लगायें । बांज (ओक), बुरांश, बांस, देवदार, शीशम,साल, टीक, बेल, बबूल, सेमल, चन्दन, कुरियाल, तनु, निगाल, रोबीनिया, नारियल, रूद्राक्ष आदि को भी रोपें । जिन पेड़ों की जड़े मजबूती के साथ धरती में गहराई तक जाती हैं उनहें अधिक से अधिक लगायें जाकि मृदा संरक्षित रहे । श्री रामजी ने वनवास में पंचवटी में पर्णकुटी बनाई वहां पर बड़, पीपल, पाखड़ , गूलर और आम के पेड़ थे, जिन्हें `पंच पल्लभ' कहा जाता है । अग्नि पुराण में उल्लेख है कि उत्तर दिशा में शुभ प्लक्ष अर्थात् पिलखन लगाना चाहिए पिलखन को ही पाखड़ भी कहते है, पूर्व दिशा में वट अर्थात् न्यग्रोथ लगाना चाहिए, दक्षिण दिशा में गूलर तथा पश्चिम दिशा में अश्वत्थ उत्तम होता है ।उत्तरेण शुभ: प्लक्षो वट:प्राक्स्याद् गहादित:।उदुम्बरश्च चायमेन पश्चिमेडश्वत्थ उत्तम: ।। उक्त चारों प्रकार के वृक्षों के अलावा कटहल भी फाइकस कुल का वृक्ष होता है इन पाँचों को क्षीर वृक्ष कहते हैं क्योकि इनकी शाखाआें से दूध के जैसा द्रव पदार्थ निकलता है । वृक्षों की महिमा का गुणगान साधु-संतों, ऋषि महर्षियों, अवतारी देवों तथा मनीषियों ने स्थान - स्थान पर किया है । महात्मा गौतम बुद्ध ने कहा कि पत्ती फूल फल छाया जड़ छाल, लकड़ी गन्ध और राख से संसार की सेवा करने वाले तरू की जय हो -`पत्र पुष्प फलच्छाया मूल वल्कल दारूभि:।गन्ध निर्यास भस्मास्थि तोक्ये: कामान्वितन्वते।।' श्रीमद् भागवत गीता के अनुसर प्रलय काल में जब सम्पूर्ण सृष्टि जल में समा गई तब स्वयं परमात्मा ने माया शिशु के रूप में दिव्य दर्शन दिया - `` विश्व युगन्ति वट पत्र एक: शेते स्म मायाशिशुरड़्धिपान'' वट पत्र पर नन्हा शिशु निश्चिंत होकर अपना अंगूठा चूस रहा था । यह संकेत ध्वंस के बाद सृजन का , विनाश के बाद नवनिर्माण का है । वट में जीवन की अपार क्षमता है । वह प्रतिकूल परिस्थितिया में भी उग जाता है। वृक्ष महात्म्य चर्चा के बाद अब हम पुन: अपनी चर्चा के प्रस्थान बिन्दु पर आते हैं कि क्या आज भी हमारी धरतीपर कल्पवृक्ष उपलब्ध है ? और यदि है तो क्या वह पीपल है ? अथवा कोई अन्य वृक्ष । लोककजीवन में तो पीपल को ही अश्वत्थ माना जाता है किन्तु कछ चिंतकों के अनुसार तथ्य कुछ और ही संकेत दे रहे हैं । गीता में श्री कृष्ण ने कहा है -`` उर्ध्वमूलमध: शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।द्दंदांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।।(गीता १५/१)अर्थात् - ऊपर की ओर मूलवाले तथा नीचे की ओर शाखावाले जिस संसाररूप अश्वत्थ वृक्ष को (प्रवाह रूप से) अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसार - वृक्ष को जो जाता है, वह सम्पूर्ण वेदों को जाने वाला है । यहां अश्वत्थ का अर्थ यह है कि संसा में परिवर्तनों के पश्चात् भी कुछ व्यय नहीं हाता अर्थात् अन्त नहीं होता । गीता के उक्त श्लोक को आधार मानकर ही मनीषी यह कह रहे हैं कि पीपल की उर्ध्व मूल नहीं होती तथा मूल मजबूत नहीं होती । अर्थात् न तो पीपल उर्ध्व मूल है और न ही दृढ़मूल है । उनके अनुसर अश्वत्थ, शाल्मली द्वीप अफ्रीकी मूल का वृक्ष बाओबाब है जिसे गोरख इमली भी कहा जाता है । किन्त अब विलुप्त् होने लगा है । यह दीर्घजीवी भी है जो हमारों वर्षोंा तक जीवित रहता है । कल्पवृक्ष की अस्तित्व मानता पर दरअसल भ्रम एवं संशय की स्थिति है । हो सकता है कल्पवृक्ष लुप्त हो और हम मिलते जुलते वृक्षों में उस पौराणिक मिथकीय वृक्ष को तलाश रहे हों । हो सकता है कि श्री कृष्ण ने गीता में जिस उर्ध्वमूलक वृक्ष का जिक्र किया वह केवल उनकी कल्पना में हो । इलाहाबाद में संगत तट पर ६ मीटर तने की मोटाई वाले वृक्ष को जिसका वर्णन चीनी यात्री ह्वेनसांग ने किया है कुछ पीपल कहते हैं तो कुछ बाओबाब बतलाते हैं । संशय तो श्री कृष्ण ने स्वयं पंद्रहवें अध्याय में तीसरे श्लोक में व्यक्त कर दिया है - `` न रूपम स्येह तथोपलश्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा'' अर्थात् इस संसार वृक्ष का जैसा रूप देखने में आत है , वैसा यहंा (विचार करने पर मिलता नहीं, क्योकि इसका न तो आदि है, न अन्त है और न स्थिति ही है ।'' अर्थात् यह तो श्री कृष्ण की कल्पना ही जान पड़त है हमे ंतो यही स्वीकारना चाहिए कि हर वृक्ष ही कल्पवृक्ष ही है । । ***पर्यावरण संरक्षण की जिम्मेदारी संयुक्तराष्ट्र महासचिव बान की मून की भारत, चीन और ब्राजील जैसे विकासशील देशों से विकसित राष्ट्रों के साथ मिलकर पर्यावरण संरक्षण के लिए मोर्चा संभालने की अपील निस्संदेह स्वागत योग्य है । बढ़ते प्रदूषण और प्रकृति के बेतरतीब दोहन की वजह से पृथ्वी पर जीवन और मानव सभ्यता के लिए खतरा बढ़ता जा रहा है, इसलिए इस पर पूरी दुनिया को एकजुट होकर काम करना होगा । जब मून ने कहा कि पर्यावरण संरक्षण की जिम्मेदारी सभी देशों की है, तब विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने उचित ही कहा कि भारत पर्यावरण में होने वाले बदलावों को लेकर बेहत गंभीर है, क्योंकि इसका सबसे बुरा असर विकासशील देशों पर ही पड़ रहा है, जिसमें भारत भी शामील है । मुखर्जी का यह कहना भी सही है कि औद्योगिक देशों ने पिछले कई बरसों से वातावरण प्रदूषित किया है, जबकि आज भी एशिया, योरप और अफ्रीका के उन देशों में प्रकृति और पर्यावरण ज्यादा सुरक्षित है, जिन्हें विकास की दौड़ में पीछे माना जाता है, लेकिन इसका यह अर्थ भी नहीं है कि मानव विकास की गति को ही रोक दें । आवश्यकता विकास के ऐसे मॉडल को विकसित करने की है, जो पर्यावरण को बिगाड़े बिना उन्नति के दरवाजे खोले ।

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