शेरों में जीन शुद्धता
डॉ. चन्द्रशीला गुप्त
एशियाई सिंहों के संरक्षण में जुटे संरक्षणवादियों से यह पूछना गलत नहीं होगा कि क्या जीन शुद्धता बनाए रखने के नाम पर एशियाई सिंह (पेंथरा लियो पर्सिका) व उनके अफ्रीकी एशियाई संकरों को चिड़ियाघरों में पृथक रखना जरूरी है ? क्या दोनों उप प्रजातियों की आकारिकी, आकारमिती, अस्थियों व अनुवांशिकी का गहन अध्ययन दोनों में समानताआें से ज़्यादा असमानताएं दर्शाता है ? निश्चित ही जवाब नहीं में होगा। हालांकि अक्सर ये बातें ज़ोर देकर कही जाती है कि एशियाई सिंह की दाढ़ी व नीचे की ओर की त्वचा की सिलवटें छोटी होते हैं एवं ये छोटे-छोटे झुंड में रहते है। कुछ वैज्ञानिकों का यह दृढ़ मत है कि जब इन दो उप - प्रजातियों का इतिहास व जातिवृत्त देखा जाए तो इनका पृथक विकास सिद्घ होता है । लेकिन यहां प्रजातिकरण का तर्क कुछ ठीक नहीं लगता संरक्षण के लिए किसी प्रजाति का समग्र रूप से संरक्षण ज़्यादा महत्त्वपूर्ण होना चाहिए, न कि साधारण से अंतरों की वजह से उप- प्रजातियों में बांटे और ज़रूरत होने पर भी एक न होने दें । हमारे देश में बारहसिंगों का ही उदाहरण देखें - वर्तमान में तीन उप प्रजातियां है जो छोटे -छोटे बाह्य व आवासीय अंतरों की वजह से पृथक मानी गई है । यदि इन तीनों आबादियो को घुलने मिलने का मौका दिया जाए तो उनके अस्तित्व का खतरा एक हद तक टल जाएगा । विकासवाद के अनुसार संकरण से अनुवांशिक भिन्नताएं बढ़ती हैं जिससे किसी प्रजाति के फलने - फूलने की संभावना भी बढ़ती है । नए जीन्स के प्रवेश से पुनर्गठन होता है व वातावरण में बदलाव के अनुरूप जीनों का भिन्न नियमन होता है । भारतीय चिड़ियाघरों के संकर सिंह इसके जीते जागते प्रमाण हैं । हमारे देश में सिंहों का संकरण भारतीय सर्कसों में अफ्रीकी सिंह के आने के साथ से ही शुरू हो गया था । बाद में प्रशासन ने पिंजरों में कैद इन पशुआें को अपने आध्पित्य में लेकर विभिन्न चिड़ियाघरों को भेजा, जहां एशियाई सिंहों के साथ इनका संकरण हुआ । वर्तमान में चिड़ियाघरों में करीब ५०० सिंह है जो कि गिर वन में ३५९ की संख्या से लगभग दुगने हैं । इन ६०० सिंहों में से अधिकतर संकर हैं और भारतीय परिस्थितियमें अच्छी तरह अनुकूलित हैं । केन्द्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण के अनुसार ये अच्छी तरह प्रजनन कर रहे हैं । अपवाद में पंजाब का छतबीर चिड़ियाघर है जहां कुछ सिंह तंत्रिका समस्याआें से ग्रस्त पाए गए हैं । वैसे विशेषज्ञों का कहना है कि तंत्रिका रोग संकरण की वजह से हो , ऐसा जरूरी नहीं है । गुजरात में सक्करबाग चिड़ियाघर में गिरवन से लाए गए शुद्ध नस्ल के एशियाई सिंहों में भी यह रोग देखा गया है । दूसरी ओर, गिर सिंहों को चिड़ियाघरों में प्रजनन कराने के प्रयासों में कोई सफलता नहीं मिल रही है । अब एक अन्य समस्या यह है कि क्या चिड़ियाघरों में उनकी बढ़ती संख्या सरकार पर भार नहीं होगी । सरकारी आंकड़ों के अनुसार सिंहों (शुद्ध व संकर दोनों के रखा रखाव ) पर करीब ६ करोड़ रूपए प्रतिवर्ष खर्च होते हैं । अतिरिक्त सिंहों को चिन्हित अभ्यारण्यों में भेजा जा सकता है, जैसे मध्यप्रदेश के कूनो या उत्तर प्रदेश के चन्द्रप्रभा अभ्यारण्य । यहां तकनीकी बाधा यह है कि किसी संकर का प्रवेश आईयूसीएन के निर्देशों के अनुसर मान्य नहंी है । साथ ही वे संकर सिंहों को लुप्त्प्राय प्रजाति में शुमार नहीं करते हैं । करण्ट साइन्स के अक्टूबर २००८ में छपे आलेख में ज़वियर्स का कहना है कि प्रचुरता में आ रहे इन सिंहों के सक्षम प्रबंधन के लिए इन जंतुआें को एक ही प्रजाति के दो पृथक आबादियेां का संकर मानना चाहिए ,ऐसे संकर जिनमें अभी भी काफी समानताएं हैं । इसके अलावा संकर सिंहों की आगामी पीढ़ियों में माता-पिता से प्राप्त् बाह्य अंतरों का धीरे-धीरे खत्म होना भी यह दर्शाता है कि भौगोलिक रूप से पृथक्कृत इन सिंहों में विकास दर न्यूनतम है व अपेक्षा से धीमी गति से है या फिर इनका पृथक्करण इतना पुराना नहीं होगा जितना मान लिया गया है । नए अभयारण्यों में इनका प्रवेश छोटे- छोटे समूहों में किया जा सकता है। वैसे यह अभी सुनिश्चित किया जाना बाकी है कि क्या प्राकृतवास में भेजने पर ये संकर पशु स्वतंत्र रूप से एशियाई सिंहों के साथ घुल-मिल जाएेंगें। यदि ऐसा होता है , तो यह पक्का हो जाएगा कि भौगोलिक पृथक्करण के बावजूद ये अलग- अलग उप प्रजातियां नहीं बने हैं। बेहतर होगा कि इन संकर सिंहों को प्रयोगात्मक तौर पर नए अभयारण्यों में भेजा जाए व इनकी सख्त निगरानी की जाए । वैसे तो नए अभयारण्यों के प्रस्ताव के साथ चिड़ियाघरों के लिए भी अनुदान रखा गया है । लेकिन प्रकृति में संख्या अधिकाधिक होते रहने की आशंका निराधार है क्योंकि जनसंख्या के साथ- साथ वातावरणीय प्रतिरोध भी बढ़ जाएंगे व जनसंख्या वहन क्षमता के आसपास भी बनी रहेगी । वैसे वर्तमान में हमारे जंगलों में सिंह क्षमता से कम हैं । इसके अलावा चिड़ियाघरों में गर्भनिरोधी उपायों से अत्यधिक वृद्धि को रोका ज सकता है । कभी- कभी संकर सिंहों को छांटकर मारने की सलाह भी दी जाती ह। अनुवांशिक रूप से स्वस्थ सिंहों की छंटनी उचित नहीं ठहराई जा सकती । हमारे यहां सिंह को पूजनीय माना जाता है व पौराणिक कथाआें, लोक कथाआें व राज्य के शौर्य का प्रतीक रहा है । एक ओर चिड़ियाघरो में प्रजनन तकनीकों की बदौलत अस्तित्व में लाए गए लाइगॉर व टाइगॉन जैसे अनुपयुक्त व वन्घ्य संकर प्राणियों की भी छंटनी भारतीय नैतिकता में नहीं आती, उन्हें भी उदारतापूर्वक अपनी उम्र पूरी करने दिया जाता है । संकर प्राणियों का पूर्ण खात्मा करने की सिफारिश निश्चित ही अवैज्ञानिक होगी । कुछ मान्यताआें के अनुसार जैव विविधता संरक्षण में मानवीय हस्तक्षेप जारा भी नहीं होना चाहिए तथा अफ्रीकी व एशियाई सिंहों के साथ छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए । लेकिन ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं जहंा जीन पूल को संरक्षित करने में मानवीय हस्तक्षेप कारगर सिद्ध हुआ है। यह ज्ञात ही है कि कभी अमेरिकी सरकार ने लाल भेड़िए को बचाने के लिए प्राकृतिक संकरण में हस्तक्षेप किया था, यहां तक कि संकर भेड़िए को भी संरक्षण कार्यक्रम में शामिल किया गया था । प्राकृतिक आपदाएं जैसे बाढ़, दावानल, सूखा आदि में भी मानव संकटग्रस्त प्राणियों का संरक्षण करता ही है । हमारे यहां उत्तर - पूर्वी भारत में बरसात में वन्य जीवों के आश्रय के लिए कृत्रिम आवास निर्मित किए गए हैं, जहां ब्रह्मपुत्र का पानी बढ़ने पर गेंडे भी शरण ले सके । अब आज जब प्राकृतवास नष्ट हो रहे हैं , सरकार को वन्य गलियारे बनाना चाहिए जो विभिन्न आवास खण्डों को जोड़ें ताकि संकरण संभव हो सके । मानव के स्वयं की अस्तिव् रक्षा के सिलसिले में प्रकृति में लाभप्रद हस्तक्षेप अपरिहार्य है । गौरतलब है कि विभिन्न मानव आबादियों में जिनेटिक, शारीरिक व व्यवहार संबंधी भिन्नताआें के बावजूद इन्हें पृथक उप- प्रजातियों नहीं माना जाताा है।जिनेटिक शुद्धता बनाए रखने के लिएइन पर प्रजनन पृथकता थोपी नहंी गई है। तो क्या प्राणियों के लिए अलग पैमाने रखें जाएं जबकि मानवस्वयं एक प्राणी है।**
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