म.प्र.: हानिकारक बीजों की दस्तक
प्रमोद भार्गव
अनुवांशिक तकनीक से रूपांतरित बीजों को खुली भूमि में बोकर फसल तैयार करने का विवादास्पद परीक्षण मध्यप्रदेश में भी शुरू हो गया है । यह प्रयोग जबलपुर के राष्ट्रीय बीज विज्ञान अनुसंधान केन्द्र में शुरू हुआ है । अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी मोनसेंटो द्वारा तैयार मक्के के बीज खुले आसमान के नीचे बोये गए हैं । जबकि इस तकनीक से तैयार फसल का मानव शरीर के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता है , ये परीक्षण नहीं हुए हैं । इसलिए ये प्रयोग खतरनाक साबित हो सकते हैं । हैरत की बात यह है कि मध्यप्रदेश की जो सरकार पूरे प्रदेश में जैविक खेती को संरक्षण देते हुए बढ़ावा देने की बात कर रही है उसी राज्य में ये प्रयोग पर्यावरण एवं मानव स्वास्थ्य की कोई चिंता किए बिना धड़ल्ले से किए जा रहे हैं । दरअसल आनुवांशिक रूपांतरित बीज ऐसे बीजों से तैयार किए जाते हैं जिनमें पैदावार बढ़ाने व पौष्टिकता लाने की दृष्टि से आनुवांशिक गुणों में परिवर्तन लाया जाता है । कीटाणुनाशक व खरतरवार रोधी बनाने का लक्ष्य भी इन बीजों के निर्माण में निहित होता है । ये बीज अन्य बीजों व जीवों से जीन्स लेकर विभिन्न फसलों व सब्जियों के बीजों में संक्रमित किए जाते हैं। इन बीजों के परिणाम भिन्न भौगोलिक, पारिस्थितिकी व जलवायु में भिन्न होते हैं, इसलिए इनके नतीजे हमेशा ही आशंकित रहने के साथ पारंपरिक खेती के लिए विनाशकारी साबित हुए हैं । इन वजहों से जीएम फसलोंं के पर्यावरणीय एवं स्वास्थ्य प्रभावों को लेकर पूरी दुनिया में बहस चल रही है । अनेक अध्ययनों में इनका मानव व जीवों पर असर शरीर के विकास, रोग प्रतिरोधात्मक व प्रजनन क्षमता पर नकारात्मक पाया गया है । जबलपुर में जिस मक्के के बीज को फलिहाल बतौर परीक्षण खेत मंे बोया गया है , आस्ट्रिया सरकार द्वारा किए गए एक अध्ययन में इसी बीज से उत्पन्न मक्का चूहों को खिलाई गई तो उनके प्रजनन क्षमता पर बेहद नकारात्मक प्रभाव सामने आए है ं। इस लिहाज से मध्यप्रदेश में इन बीजों के खुले में परीक्षण किए जाने से पर्यावरणविद् चिंता जता रहे हैं । खेती विरासत मिशन से जुड़ी कविता कुरूंगति का कहना हे कि जीएम फसल से आसपास की फसल के संक्रमित होने और बीज के गैरकानूनी रूप से बाजार में पहुंचने की आशा बनी रहती है । इसी तरह २००१-२००२ में महाराष्ट्र में बीटी कपास की फसलें पैदा करके किसान को परंपरागत खेती से बेदखल कर दिया गया । नतीजतन विदर्भ के लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। २००८ में इन आनुवांशिक बीजों के विस्तार की योजना जबसे परवान चढ़ने लगी तब परमाणु करार के हो-हल्ले में कृषि क्षेत्र में अमेरिका में ऐसा समझौता गुपचुप हो गया, जिस पर बहस मुबाहिशा को सर्वथा नजरअंदाज कर दिया गया । फलस्वरूप झारखण्ड व उत्तरप्रदेश में बीटी राइस और कर्नाटक में बीटी बैंगन के बीजों के प्रयोगों के मार्फत परम्परागत खेती किसानी बरबाद किए जाने का सिलसिला शुरू हो गया । उत्तरप्रदेश मेंतो आजकल धान बचाओ, जीई भगाओ आंदोलन चल रहा है । केन्द्र सरकार द्वारा कुछ समय पूर्व ही देश के उत्तरप्रदेश, झारखण्ड, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में चावल उत्पादक बहुल बारह क्षेत्रों में धान के प्रयोग को मंजूरी दी है । इन क्षेत्रों में उत्तरप्रदेश का वह इलाका भी है जो बासमती चावल के उत्पादन का प्रमुख क्षेत्र माना जाता है । यह क्षेत्र किसान के जीवनयापन एवं उसकी समृदि्घ का प्रमुख आधार है । महाराष्ट्र हाईब्रीड सीड कंपनी मायको धान की अनुवांशिक बीजों के प्रयोग की कोशिश में लगी है । चावल की विभिन्न किस्मों का पारंपरिक ज्ञान व तकनीक के बूते उपजाने वाले किसानों को आशंका है यदि इन बीजों का प्रयोग धान बहुल क्षेत्रों में किया जाता है तो इसके विषाणु दूसरे खेतों में फैल सकते हैं । यदि ऐसा हुआ तो बासमती और काली मूंछ जैसे चावलों की अद्वितीय किस्में जहरीली हो जाएंगी, जो मानव स्वास्थ्य और खेती की उर्वरा शक्ति को प्रभावित करेंगी नतीजतन कालांतर में किसान और जीएम चावल उपभोक्ता को अर्थ और स्वास्थ्य दोनों ही दृष्टियों से हानि पहुंचाएंगें । दरअसल आनुवांशिक आधार पर बीजों से खेतों के लिए सुरक्षा के व्यापक व कड़े इंतजाम करने होते हैं ताकि इन प्रयोगों का घातक असर अन्य फसल पर न पड़े । इसी लापरवाही के चलते अमेरिका का अरबों डालर का कारोबार करने वाला चावल उद्योग चौपट हो गया । चावल का निर्यात रूक गया । अमेरिका मे निर्मित हुए इन हालातों से कोई सबक लेने के बजाए हमारे देश में इन विनाशकारी प्रवृत्तियों को दोहराया जा रहा है । जबकि फ्रांस में जीएम बीजों से फसल उत्पादन पूरी तरह प्रतिबंधित है । गोया, संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन की रिपोर्ट एनर्जी यूज इन फूड सिस्टम २००७ दर्शाती है कि भारत में चावल उत्पादन की दृष्टि से जैविक खेती के परिणाम सकारात्मक है । इन पर जलवायु परिवर्तन का असर भी एकाएक नहीं पड़ता । कपास, चावल और मक्का के बीजों की तरह ही कर्नाटक में कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय धारवाड़ में बैंगन का जीएम बीज तैयार किया जा रहा है । इसके तहत बीटी बैंगन यानी जीन मिला हुआ बैंगन खेतों में बोया गया है । इस प्रयोग के तहत बहाना यह बनाया जा रहा है कि बीटी बैंगन कीटों के हमले से बचा रहेगा जबकि राष्ट्रीय पोषण संस्थान हैदराबाद के ख्याति उपलब्ध जीव विज्ञानी रमेश भट्ट ने चेतावनी दी है कि बीटी जीन की वजह से यहां बैंगन की स्थानीय किस्म मट्टगुल्ला बुरी तरह प्रभावित होगी । मट्टगुल्ला किस्म के पैदावार का सिलसिला पन्द्रहवी सदी में संत वदीराज कहने से मट्टू गांव के लोगों ने की थी । बाद में यह किस्म अपने विशिष्ट स्वाद और पौष्टिक विशिष्टता के कारण पूरे कर्नाटक में फैल गई । इस कारण इस हरे रंग के भटे को स्थानीय पर्वोंा के अवसर पूजा भी जाता है । खाली पेट इस भटे को कच्च खाने से यकृत के विकार प्राकृतिक रूप से ठीक होते हैं । इन बीजों के प्रयोग के सिलसिले में सोचनीय पहलू यह है कि जीएम बीज एक मर्तबा प्रयोग के बार परंपरागत रूप से प्रयोग में नहंी लाया जा सकता है । निर्माता कंपनी से ही इसे खरीदने की बाध्यता होगी । जिस बीटी कपास को २००२ में चलन में लाया गया था, उसकी अब तक खपत दस हजार करोड़ रूपए की हो चुकी है । यदि यह धन किसानों की जेब से न निकला होता तो देश में ढाई लाख किसानों को शायद आत्महत्या के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता । बहरहाल मध्यप्रदेश में मक्का के बीजों के प्रयोग पर अंकुश नहीं लगाया गया तो इसके परिणाम न खेती के हित में होंगें और न ही किसान के हित में होंगें । ***एक आत्मीय आग्रह यह पत्रिका स्वयं पढ़ने के बाद इसे अन्य मित्रों एवं सहयोगियों को पढ़ने को दे कर पर्यावरण चेतना के आलोक को जन-जन तक पहुँचाने में सहभागी बनें । - सम्पादक
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