मानव , जनसंख्या और पर्यावरण
डॅा. रामनिवास यादव
ऐसा माना जाता है कि ४० लाख वर्ष पूर्व जैवमंण्डल में एक ऐसे जीव का विकास हुआ जिसने जलमंडल और वायुमंडल पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया है । वह जीव मानव है । पहले मानव एक शिकारी से सग्रंहक बना और फिर कृषक बना । खेती करने के बाद मानव एक ही स्थान पर स्थायी रूप से रहने लगा । मानव के सांस्कृतिक और तकनीकी विकास के परिणामस्वरूप औद्योगिक क्रांति का सूत्रपात हुआ। इस क्रान्ति से संसार की अर्थव्यवस्था मेंएक नए युग का प्रारम्भ हुआ। आज हम ओद्योगिक क्रान्ति के दौर में हैं और अपनी पूर्व पीढ़ियों की बजाय कई गुणा अधिक प्राकृतिेक संसाधनों का दोहन करके पर्यावरण में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न कर रहे हैं । हमने जिस गति से आर्थिक एवं सांस्कृतिक विकास किया है उससे अधिक गति से मानव जनसंख्या मेंवृद्धि हुई है । बढ़ती हुई पर्यावरण आश्रित जनसंख्या ने वैश्विक संसाधनों पर बढ़ते बोझ के कारण विश्व समाज के लिए हमें एक और पर्यावरणीय संसाधनों के दोहन पर नियन्त्रण करना होगा दूसरी और तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या को नियंत्रित करना होगा । विभिन्न राष्ट्रों के मध्य जनंसख्या वृद्धि में भिन्नता जनंसख्या वृद्धि- किसी भौगोलिक क्षेत्र की जनसंख्या के आकार में एक निश्चित समय में होने वाले परिवर्तन को जनसंख्या वृद्धि कहा जाता है। जनंसख्या वृद्धि मापने की दो विधिया है - पहली विधि प्रतिस्थापन प्रक्रिया विधि और दुसरी विधि अवलोकित परिवर्तन विधि है । प्रतिस्थापन प्रक्रिया विधि में मृत्यु का प्रतिस्थापन जन्म से माना जाता है । अर्थात् जनंसख्या वृद्धिजन्म दर व मृत्यु दर के शुद्ध अन्तर के आधार पर आकलित की जाती है जैसे जनसंख्या = प्राकृतिक वृद्धि(जन्म दर -मृत्यु दर)/मध्य वर्षीय जनसंख्या द १०० अवलोकित परिवर्तन विधि में किसी प्रदेश में दी गई जनगणना केदो क्रमिक आकंड़ों का प्रयोग किया जाता है। इसका सूत्र है -जनंसख्या वृ़़द्धि = झ१ -झ२ झ२ =द्वितीय जनगणना में वृद्धिझ१ = प्रथम जनगणना में वृद्धि संसार में जनसंख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है जो निम्न तालिका से स्पष्ट है - वर्ष जनसंख्या १६५० ई० ५० करोड़ १८५० ई० १०० करोड़ृ १९३० ई० २०० करोड़ १९६२ ई० ३०० करोड़ १९७५ ई० ४०६ करोड़ १९८७ ई० ५०० करोड़ृ १९९९ ई० ६०० करोड़ २००१ ई० ६१३ करोड़ २३०० ई० ९०० करोड़
स्त्रोत: थिश्रीव ऊर्शींशश्रििााशिीं ठशििीीं २००२ उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि संसार की जनंसख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है । विश्व जनसंख्या में यह वृद्धि अनेक प्रकार की सामाजिक , आर्थिक व पर्यावरणीय समस्याआें में वृद्धिकर मानव जीवन की गुणवता को कम कर रही है । जनंसख्या वृद्धि में प्रादेशिक भिन्नता: जनंसख्या वृद्धि संसार के भिन्न - भिन्न प्रदेशों में एक समान नहीं है । वरन् इसमें स्थानिक भिन्नता रही है । जनसंख्या वृद्धि में में भिन्नता विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों के मध्य स्पष्ट रूप से प्रतीत होती है । निम्न तालिका में प्रादेशिक जनसंख्या वृद्धि दर में भिन्नता को दिखाया गया है । तालिका - विभिन्न महाद्वीपोंं की जनसंख्या वृद्धि दर -२००१महाद्वीप जन्मदर मृत्युदर प्राकृतिक कुल प्रतिहजार प्रतिहजार वृद्धि दर उत्पादक दर एशिया २२ ८ १.४ २.७अफ्रीका ३८ १४ २.४ ५.२ यूरोप १० ११ -०.१ १.४उत्तरी १४ ९ ०.५ २.० अमेरिकादक्षिणी २३ ७ १.६ २.६ अमेरिकाओशोनिया १८ ७ १.१ २.५विश्व २२ ९ १.३ २.८डिीर्लीश: िििर्श्रीरींिि ठशषशीशलिश र्इीीशर्री थरीहळसिींिि,२००१ उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि विभिन्न महाद्वीपों की जनंसख्या वृद्धि दर भिन्न-भिन्न रही है । इस कारण महाद्वीपों में जनांकिकीय, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक कारकों की प्रकृति में भिन्नता का होना है जो जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करते हैं । अफ्रीका महाद्वीप में उच्च् जन्म दर ३८ व्यक्ति प्रति हजार होने के कारण प्राकृतिक वृद्धि दर २.४ है जो विश्व में सार्वधिक है। दूसरे स्थान पर दक्षिणी अमेरिका जहां वृद्धि दर १.६ है तथा तीसरे स्थान पर एशिया महाद्वीपों के अनुसार विश्व में जनंसख्या वृद्धि का तुलनात्मक विवरण निम्नलिखित है - एशिया महाद्वीप - १. एशिया महाद्वीप मानव जाति के उद्भव एवं वैभव का केन्द्र रहा है । यहां आरम्भ से ही जनंसख्या अधिक रही है । सन् १६५० में एशिया की जनंसख्या ३५ करोड़ थी जो कि विश्व की कुल जनंसख्या की ६०प्रतिशत थी । सन् १८०० में बढ़कर ५९ करोड़ १९०० में ९१ करोड़,१९५० में १३७ करोड़ तथा २००१ में बढ़कर ३७२ करोड़ हो गई अत: सन् १६५० के बाद से जनसंख्या में तीव्र वृद्धि हुई है । एशिया के देशों में जन्म दर का अधिक होना, मृत्यु दर पर नियंत्रण,खाद्यान उत्पादन में वृद्धि कृषि का मशीनीकरण , रोजगार के साधनों में वृद्धि तथा नगरीकरण की बढ़ती गति ने जनसंख्या विस्फोट की स्थिति उत्पन्न कर दी ।२.यूरोप महाद्वीप - यूरोप महाद्वीप में जनंसख्या वृद्धि दर एशिया महाद्वीप से कम रही । सन् १७५० में यूरोप की जनसंख्या १४ करोड़ थी, १८५० में २७ करोड़,१९५० में ३९ करोड़ तथा २००१ में ५८ करोड़ हो गई । यूरोपिय राष्ट्रों ने विकसित अर्थव्यवस्था में उच्च् जीवन स्तर बनाए रखने की संकल्पना बनाई । फलस्वरूप सन् १९०० से १९५० के मध्य जनसंख्या में गिरावट आई तथा १९५० से २००१ के दौरान अनेक देशों में ऋणात्मक वृदि्घ दर अंकित की गई । वर्तमान में यूके्रन की वृदि्घ दर ७ ०.७, रूस की -०.७ ,हंगरी की -०.४ तथा लाटविया की वृदि्घ दर -०.६ है।३. अफ्रीका महाद्वीप - अफ्रीका महाद्वीप का अधिकतर भाग शुष्क मरूस्थलों, गहन वनों, सवाना घास, पठारी तथा पहाड़ी क्षेत्र से युक्त होने के कारण सघन मानव आवास के अनुकूल नहीं रहा है । १६५० में अफ्रीका की जनसंख्या १० करोड़ थी जबकि सन् १८०० मंे घटकर ९ करोड़ रह गई । अनुपयुक्त जलवायु, प्राकृतिक आपदाएं एवं महामारियां तथा उच्च् मृत्यु दर जनसंख्या में गिरावट के प्रमुख कारण थे । यहंा सन् १६५० से १९०० तक २५० वर्षोंा में केवल ३ करोड़ जनसंख्या ही बढ़ सकी । २० वीं शताब्दी में धीरे- धीरे जनसंख्या बढ़ने लगी । कृषि उत्पादन बढ़ने तथा दूसरे महाद्वीपों से प्रवास करके आने वाले लोगों के कारण उस महाद्वीप की जनसंख्या में वृदि्घ हुई । सन् १९५० में १२ करोड़ १९९० में ६४ करोड़ तथा सन् २००१ में बढ़कर ८१ करोड़ हो गई । पूर्वी एवं मध्य अफ्रीका के देशों में जनसंख्या वृदि्घ दर सर्वाधिक है तथा जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है ।४. उत्तरी अमेरिका - सन् १६५० में उत्तरी अमेरिका महाद्वीप की जनसंख्या केवल १० लाख थी जो १७५० तक स्थिर रही । १८ वीं शताब्दी के उत्तराद्र्घ से यहंा यूरोपीय लोगों का आगमन प्रारम्भ हुआ जो १९ वीं शताब्दी तक तीव्र हो गया । यूरोपीय लोगों के भारी संक्रेदण से अमेरिका की जनसंख्या सन् १९०० तक ८.१ करोड़ हो गई तथा सन् १९५० तक बढ़कर १६.६ करोड़ हो गई ।५. दक्षिणी अमेरिका - सन् १६५० से १९९० तक यहंा की जनसंख्या मे २५ गुना वृद्धि हुई है । इस वद्धि का कारण प्राकृतिक वृद्धि दर के साथ ही प्रवासियों की प्रमुख भूमिका रही है । सन् १९०० में दक्षिणी अमेरिका की जनंसख्या ६.३ कराे़ड थी जो बढ़कर १९५० में १६.६ करोड़ तथा २००१ में ३५ करोड़ हो गई । इस महाद्वीप में ब्राजील सर्वाधिक जनसंख्या वाला राष्ट्र है जहां १७.१८ करोड़ लोग रहते है जो सम्पूर्ण महाद्वीप की ४८ प्रतिशत जनसंख्या है । सर्वाधिक वृद्धि दर पराग्वे की २.७ है । ६. ओशोनिया- ओशोनिया में आस्टे्रलिया, न्यूजीलैंड, पपुआ, न्युगिनी, फिजी, फेंच आदि द्वीपीय देश शामिल हैं । सन् १६५० में ओशोनिया की जनसंख्या लगभग २० लाख थी जो आगमी २०० वर्षोंा तक स्थिर रही । यह जनसंख्या सन् १९०० तक ६० लाख पहुंच पाई । २०वीं शताब्दी में यूरोप ,एशिया तथा अमेरिका से प्रवासियों के आगमन से जनसंख्या में कुछ वृद्धि संभव हो पाई । यहां की जनसंख्या १९५० में १.३ करोड़ थी जो २००१ में लगभग ३.१ करोड़ हो गई । विश्व के विभिन्न प्रदेशों में जनसंख्या वृद्धिके तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि सर्वाधिक वृद्धि दर विकासशील एवं अर्द्धविकसित राष्ट्रों में है विकसित राष्ट्रों में जनसंख्या वृद्धि या तो सामान्य है या ऋणात्मक है ।जनसंख्या में विषमता के कारण: विकसित एवं विकासशील देशों की जनसंख्या में विषमता के निम्नलिखित कारण है । :-१. विकासशील देशों का पिछड़ापन - जनसंख्या वृद्धि में विकसित एवं विकासशील देशों में संसाधनों की कमी निर्धनता के कारण रोजगार के अवसरों का अभाव है । विकासशील देशों के लोग को जनसंख्या वृद्धि के नुकसान का ज्ञान नही है। विकसित देशों में रोजगार के साधन पर्याप्त् मात्रा में उपलब्ध हैं ।२. शिक्षा का प्रचार-प्रसार - विकसित देशों में सभी लोग शिक्षित तथा जनसंख्या वृद्धि के दुष्प्रभावों से परिचित हैं । अत: वहाँ जनसंख्या वृद्धि कमहै जबकि विकासशील राष्ट्रों में निरक्षरता के कारण लोगों में जनसंख्या वृद्धि के नुकसानों का ज्ञान नहीं है अत: जनसंख्या वृद्धि अधिक है ।३. जलवायु में अंतर - ठंडे प्रदेशों की बजाय गर्म देशों की जनसंख्या वृद्धिदर अधिक होती है । विकसित राष्ट्रों की जलवायु ठंडी है अत: जनसंख्या वृद्धिकम है जबकि विकासशील देशों की जलवायु गर्म है । अत: वहां जनसंख्या वृद्धि ज्यादा है ।४. सामाजिक मानसिकता- अधिक जनसंख्या वृद्धि वाले विकासशील देशों के लोगोें की मानसिकता पिछड़ी हुई है। जिसमेंे वहां जनसंख्या वृद्धि अधिक है जबकि विकसित राष्ट्रों के लोगों की सामाजिकता विकसित है जिसमें वहां जनसंख्या वृद्धि दर कम है। ५.सामाजिक मान्यताएं- सामाजिक मान्यताएं भी जनसंख्या वृद्धि की विषमता में अहम् भूमिका निभाती है । हिन्दु धर्म में यह मान्यता है कि लड़के के जन्म से ही मुक्ति मिलती है । अत: घर में लड़के का होना आवश्यक समझा जाता है जो जनसंख्या वृद्धि में सहायक है । लड़का पैदा करने के चक्कर में कई -कई लड़कियाँ हो जाती हैं। जिसके फलस्वरूप जनसंख्या में वृद्धि होती है । ६. मनोरंजन के साधनों का अभाव- विकासशील देशों में मनोरंजन का एकमात्र साधन पत्नी ही होती है जबकि विकसित राष्ट्रों में अनेक मनोरंजन के साधन होते है। अत: विकासशील देशों में राष्ट्रों की तुलना में जनसंख्या वृद्धि अधिक होती है ।जनसंख्या विस्फोट भारत देश प्राचीन काल से ही एक बड़ा जनसमूह रहा है ।यहां लम्बे समय तक प्राकृतिक आपदाआें व महामारियों के कारण जनसंख्या में अधिक वृद्धि नहीं हुई । भारत की जनसंख्या में उल्लेखनीय वृद्धि २० वीं सदी के तीसरे दशक से मानी जाती ह। निम्न तालिका में भारत में जनसंख्या के आकार एवं वृद्धिदर को दर्शाया गया है -तालिका: भारत में जनसंख्या का आकार एवं वृद्धि दर (१९०१-२००१)जनगणना जनसंख्या औसत जन्म दर मृत्यु दर वर्ष करोड़ में वर्षिक प्रति हजार प्रतिहजार वृद्धि दर१९०१ २३.८३ ---- ---- -----१९११ २५.२० ०.५६ ४९.२ ४२.२१९२१ २५.१३ ०.०३ ४८.१ ४८.६१९३१ २७.८९ १.०४ ४६.४ ३६.३१९४१ ३१.८६ १.३३ ४२.२ ३१.२१९५१ ३६.१० १.२५ ३९.९ २७.४१९६१ ४३.९२ १.९६ ४१.७ २२.८१९७१ ५४.८१ २.२० ४१.२ १९.०१९८१ ६८.३३ २.२२ ३७.२ ११.४१९९१ ८४.३३ २.१४ ३२.५ ११.४२००१ १०२.७० १.९३ २६.० ८.००ैंेेडिीर्लीश : उशिीीर्ी षि खविळर, २००१ जनसंख्या के आधार पर विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान भारत का है ।भारत की जनसंख्या तीव्रगति से बढ़ रही है । निरंतर जनसंख्या वृद्धि ने कई समस्याआें जैसे- बेरोजगारी ,भूखमरी,अशिक्षा, चोरी,डकैती तथा पर्यावरण प्रदूषण को जन्म दिया है । संसार के विभिन्न देशों में आर्थिक, सामाजिक, भौतिक और सांस्कृतिक विशिष्टताआें के कारण जनसंख्या वृद्धि भी भिन्न-भिन्न है । औद्योगिक और प्रौद्योगिकी क्रांति के परिणामस्वरूप विश्व के विकासशील देशों में जन्म - दर में वृद्धि तथा मृत्यु-दर में कमी होने से तीव्र जनंसख्या वृद्धि हुई है । बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जनसंख्या वृद्धि की दर तेज होने से विद्वानों ने एक ऐसी विस्फोटक स्थिति की कल्पना की जिसमें मानव संसाधन बुरी तरह असंतुलित हो जाएगा । इस असंतुलन का प्रभाव समाज के सभी वर्गोंा पर पड़ेगा । जनसंख्या में इस विशाल, तीव्र और निरंतर वृद्धि को जनसंख्या विस्फोट नाम दिया गया। जनसंख्या वृद्धि की दर से हिसाब से चीन व भारत अग्रणी रहे है । भारत में जनंसख्या की तीव्र के वृद्धि दर जारी है । एक अनुमान के अनुसार भारत की जनसंख्या में प्रतिवर्ष एक आस्ट्रेलिया जुड़ जाता है । जनसंख्या की इस तीव्र वृद्धि दर का परिणाम सभी विकासशील देशों की विभिन्न समस्याआें के रूप में प्रकट होता है । जनसंख्या विस्फोट के पर्यावरणीय प्रभाव : जनसंख्या विस्फोट से न केवल सामाजिक समस्याएं पैदा हो रही है । अपितु अनेक पर्यावरणीय समस्याएं भी उत्पन्न हो रही हैं । जनसंख्या वृद्धि के साथ मानवीय आवश्यकताआें में असीमित वृद्धि हो रही है। जिससे पृथ्वी के सीमित संसाधनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है । तेजी से बढ़ती जनसंख्या का पर्यावरण के विभिन्न घटकों पर प्रभाव पड़ रहा है । हमारे देश में बढ़ती हुई जनसंख्या से खाद्यान्न संकट उत्पन्न हो गया है । यद्यपि आजादी के बाद हमारे देश में अनाज का उत्पादन काफी बढ़ा है लेकिन जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि के कारण आज भी प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन बहुत कम हैं। तेजी से बढ़ती जनसंख्या का दबाव हमारे प्राकृतिक संसाधनों के वाणिज्यिक महत्व को अधिक आंका जा रहा है जबकि इनके पर्यावरणीय महत्व की उपेक्षा की जाती है । वन, वन्य जीवों, खनिज, मृदा तथा जल संसाधनों का बड़े पैमाने पर शोषण किया जा रहा है । प्राकृतिक संसाधनों तथा जनसंख्या के मध्य संतुलन बिगड़ने से अनेक पर्यावरणीय समस्याएं जैसे प्रदूषण, भूक्षरण, बाढ़, सूखा तथा महामारियां आदि विपत्तियां उत्पन्न हो रहा है । तीव्र जनसंख्या वृद्धि एंव रोजगार की तलाश में ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों की ओर जनसंख्या के स्थानांतरण के कारण देश के नगरीय क्षेत्रों में जनसंख्या के स्थानांतरण के कारण देश के नगरीय क्षेत्रों में जनसंख्या का जल आपूर्ति में कमी, कूड़े-कचरे में वृद्धि, स्लम बस्तियों का विकास व अन्य सामाजिक तथा सांस्कृतिक समस्याएं उत्पन्न होती है । जनसंख्या वृद्धि तथा ऊर्जा संकट : हमारे देश में जनसंख्या वृद्धि के कारण न केवल खाद्य संकट उत्पन्न हुआ है बल्कि भोजन पकाने व उद्योगोंतथा वाहनों के चलाने के लिए ऊर्जा संकट भी उत्पन्न हो गया है । हमारे कोयले व खनिज तेल के भंडार समाप्त् हो रहे हैं । अपनी घरेलू आवश्यकताआें को पूरा करने के लिए हम लाखों टन खनिज तेल विदेशों से आयात करते हैं जिस पर भारी स्वदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है । जनसंख्या विस्फोट/वृद्धि के कारण :१. जन्म दर : किसी क्षेत्र में प्रति हजार व्यक्तियों पर प्रति वर्ष जन्म लेने वाले बच्चें की संख्या के औसत को जन्म दर कहते हैं। जनसंख्या वृद्धि जन्म दर की वृद्धि पर निर्भर करती है । जन्म दर अधिक होने के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एंव सांस्कृतिक कारण होते हैं । विकासशील देशों में विकसित राष्ट्रों की तुलना में जन्म दर लगभग दुगनी से भी अधिक है । अत: विकासशील राष्ट्र जनाधिक्य की समस्या से ग्रस्त हैं ।२. मृत्यु-दर: किसी क्षेत्र में प्रति हजार व्यक्तियों पर प्रतिवर्ष मरने वाले लोगों की औसत संख्या कोमृत्यु दर कहते हैं। जनसंख्या वृद्धि में मृत्यु दर की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है । विज्ञान एंव तकनीकी के विकास के बाद मृत्यु दर में काफी गिरावट आई है । सन् १९२० से पहले विकासशील देशों में २३ प्रतिशत बच्च्े जन्म लेने से एक सप्तह के अंदर ही मर जाते थे जबकि १० प्रतिशत बच्चें की मृत्यु ४ वर्ष की आयु से पहले हो जाती थी । १७५० में मनुष्य की औसत आयु ३० वर्ष मानी जाती थी। १८५० में यह बढ़कर ४१ वर्ष, १९५० में ५४ वर्ष व २००१ के आंकड़ों के अनुसार ६५ वर्ष हो गई हैं । किसी क्षेत्र की जनसंख्या में कमी या वृदि्घ का कारण जनसंख्या का स्थानांतरण भी है । १८८० से पहले विश्व में किसी तरह के बंधन नहंी थे और कोई भी व्यक्ति कहीं भी जाकर रह सकता था। प्रथम विश्व युद्घ के बाद अंतर्राष्ट्रीय नियमों में कठोरता के कारण यह स्थान्तरण कम हुआ । १८८० से १९२० के मध्य यूरोप से लगभग ५ करोड़ लोग अफ्रीका, कनाड़ा, अमेरिका व एशिया में आए । इससे यूरोप की जनसंख्या कम हुई तथा अन्य स्थानों की जनसंख्या में वृदि्घ हुई। ***
स्त्रोत: थिश्रीव ऊर्शींशश्रििााशिीं ठशििीीं २००२ उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि संसार की जनंसख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है । विश्व जनसंख्या में यह वृद्धि अनेक प्रकार की सामाजिक , आर्थिक व पर्यावरणीय समस्याआें में वृद्धिकर मानव जीवन की गुणवता को कम कर रही है । जनंसख्या वृद्धि में प्रादेशिक भिन्नता: जनंसख्या वृद्धि संसार के भिन्न - भिन्न प्रदेशों में एक समान नहीं है । वरन् इसमें स्थानिक भिन्नता रही है । जनसंख्या वृद्धि में में भिन्नता विकसित एवं विकासशील राष्ट्रों के मध्य स्पष्ट रूप से प्रतीत होती है । निम्न तालिका में प्रादेशिक जनसंख्या वृद्धि दर में भिन्नता को दिखाया गया है । तालिका - विभिन्न महाद्वीपोंं की जनसंख्या वृद्धि दर -२००१महाद्वीप जन्मदर मृत्युदर प्राकृतिक कुल प्रतिहजार प्रतिहजार वृद्धि दर उत्पादक दर एशिया २२ ८ १.४ २.७अफ्रीका ३८ १४ २.४ ५.२ यूरोप १० ११ -०.१ १.४उत्तरी १४ ९ ०.५ २.० अमेरिकादक्षिणी २३ ७ १.६ २.६ अमेरिकाओशोनिया १८ ७ १.१ २.५विश्व २२ ९ १.३ २.८डिीर्लीश: िििर्श्रीरींिि ठशषशीशलिश र्इीीशर्री थरीहळसिींिि,२००१ उपरोक्त तालिका से स्पष्ट है कि विभिन्न महाद्वीपों की जनंसख्या वृद्धि दर भिन्न-भिन्न रही है । इस कारण महाद्वीपों में जनांकिकीय, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक कारकों की प्रकृति में भिन्नता का होना है जो जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करते हैं । अफ्रीका महाद्वीप में उच्च् जन्म दर ३८ व्यक्ति प्रति हजार होने के कारण प्राकृतिक वृद्धि दर २.४ है जो विश्व में सार्वधिक है। दूसरे स्थान पर दक्षिणी अमेरिका जहां वृद्धि दर १.६ है तथा तीसरे स्थान पर एशिया महाद्वीपों के अनुसार विश्व में जनंसख्या वृद्धि का तुलनात्मक विवरण निम्नलिखित है - एशिया महाद्वीप - १. एशिया महाद्वीप मानव जाति के उद्भव एवं वैभव का केन्द्र रहा है । यहां आरम्भ से ही जनंसख्या अधिक रही है । सन् १६५० में एशिया की जनंसख्या ३५ करोड़ थी जो कि विश्व की कुल जनंसख्या की ६०प्रतिशत थी । सन् १८०० में बढ़कर ५९ करोड़ १९०० में ९१ करोड़,१९५० में १३७ करोड़ तथा २००१ में बढ़कर ३७२ करोड़ हो गई अत: सन् १६५० के बाद से जनसंख्या में तीव्र वृद्धि हुई है । एशिया के देशों में जन्म दर का अधिक होना, मृत्यु दर पर नियंत्रण,खाद्यान उत्पादन में वृद्धि कृषि का मशीनीकरण , रोजगार के साधनों में वृद्धि तथा नगरीकरण की बढ़ती गति ने जनसंख्या विस्फोट की स्थिति उत्पन्न कर दी ।२.यूरोप महाद्वीप - यूरोप महाद्वीप में जनंसख्या वृद्धि दर एशिया महाद्वीप से कम रही । सन् १७५० में यूरोप की जनसंख्या १४ करोड़ थी, १८५० में २७ करोड़,१९५० में ३९ करोड़ तथा २००१ में ५८ करोड़ हो गई । यूरोपिय राष्ट्रों ने विकसित अर्थव्यवस्था में उच्च् जीवन स्तर बनाए रखने की संकल्पना बनाई । फलस्वरूप सन् १९०० से १९५० के मध्य जनसंख्या में गिरावट आई तथा १९५० से २००१ के दौरान अनेक देशों में ऋणात्मक वृदि्घ दर अंकित की गई । वर्तमान में यूके्रन की वृदि्घ दर ७ ०.७, रूस की -०.७ ,हंगरी की -०.४ तथा लाटविया की वृदि्घ दर -०.६ है।३. अफ्रीका महाद्वीप - अफ्रीका महाद्वीप का अधिकतर भाग शुष्क मरूस्थलों, गहन वनों, सवाना घास, पठारी तथा पहाड़ी क्षेत्र से युक्त होने के कारण सघन मानव आवास के अनुकूल नहीं रहा है । १६५० में अफ्रीका की जनसंख्या १० करोड़ थी जबकि सन् १८०० मंे घटकर ९ करोड़ रह गई । अनुपयुक्त जलवायु, प्राकृतिक आपदाएं एवं महामारियां तथा उच्च् मृत्यु दर जनसंख्या में गिरावट के प्रमुख कारण थे । यहंा सन् १६५० से १९०० तक २५० वर्षोंा में केवल ३ करोड़ जनसंख्या ही बढ़ सकी । २० वीं शताब्दी में धीरे- धीरे जनसंख्या बढ़ने लगी । कृषि उत्पादन बढ़ने तथा दूसरे महाद्वीपों से प्रवास करके आने वाले लोगों के कारण उस महाद्वीप की जनसंख्या में वृदि्घ हुई । सन् १९५० में १२ करोड़ १९९० में ६४ करोड़ तथा सन् २००१ में बढ़कर ८१ करोड़ हो गई । पूर्वी एवं मध्य अफ्रीका के देशों में जनसंख्या वृदि्घ दर सर्वाधिक है तथा जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है ।४. उत्तरी अमेरिका - सन् १६५० में उत्तरी अमेरिका महाद्वीप की जनसंख्या केवल १० लाख थी जो १७५० तक स्थिर रही । १८ वीं शताब्दी के उत्तराद्र्घ से यहंा यूरोपीय लोगों का आगमन प्रारम्भ हुआ जो १९ वीं शताब्दी तक तीव्र हो गया । यूरोपीय लोगों के भारी संक्रेदण से अमेरिका की जनसंख्या सन् १९०० तक ८.१ करोड़ हो गई तथा सन् १९५० तक बढ़कर १६.६ करोड़ हो गई ।५. दक्षिणी अमेरिका - सन् १६५० से १९९० तक यहंा की जनसंख्या मे २५ गुना वृद्धि हुई है । इस वद्धि का कारण प्राकृतिक वृद्धि दर के साथ ही प्रवासियों की प्रमुख भूमिका रही है । सन् १९०० में दक्षिणी अमेरिका की जनंसख्या ६.३ कराे़ड थी जो बढ़कर १९५० में १६.६ करोड़ तथा २००१ में ३५ करोड़ हो गई । इस महाद्वीप में ब्राजील सर्वाधिक जनसंख्या वाला राष्ट्र है जहां १७.१८ करोड़ लोग रहते है जो सम्पूर्ण महाद्वीप की ४८ प्रतिशत जनसंख्या है । सर्वाधिक वृद्धि दर पराग्वे की २.७ है । ६. ओशोनिया- ओशोनिया में आस्टे्रलिया, न्यूजीलैंड, पपुआ, न्युगिनी, फिजी, फेंच आदि द्वीपीय देश शामिल हैं । सन् १६५० में ओशोनिया की जनसंख्या लगभग २० लाख थी जो आगमी २०० वर्षोंा तक स्थिर रही । यह जनसंख्या सन् १९०० तक ६० लाख पहुंच पाई । २०वीं शताब्दी में यूरोप ,एशिया तथा अमेरिका से प्रवासियों के आगमन से जनसंख्या में कुछ वृद्धि संभव हो पाई । यहां की जनसंख्या १९५० में १.३ करोड़ थी जो २००१ में लगभग ३.१ करोड़ हो गई । विश्व के विभिन्न प्रदेशों में जनसंख्या वृद्धिके तुलनात्मक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि सर्वाधिक वृद्धि दर विकासशील एवं अर्द्धविकसित राष्ट्रों में है विकसित राष्ट्रों में जनसंख्या वृद्धि या तो सामान्य है या ऋणात्मक है ।जनसंख्या में विषमता के कारण: विकसित एवं विकासशील देशों की जनसंख्या में विषमता के निम्नलिखित कारण है । :-१. विकासशील देशों का पिछड़ापन - जनसंख्या वृद्धि में विकसित एवं विकासशील देशों में संसाधनों की कमी निर्धनता के कारण रोजगार के अवसरों का अभाव है । विकासशील देशों के लोग को जनसंख्या वृद्धि के नुकसान का ज्ञान नही है। विकसित देशों में रोजगार के साधन पर्याप्त् मात्रा में उपलब्ध हैं ।२. शिक्षा का प्रचार-प्रसार - विकसित देशों में सभी लोग शिक्षित तथा जनसंख्या वृद्धि के दुष्प्रभावों से परिचित हैं । अत: वहाँ जनसंख्या वृद्धि कमहै जबकि विकासशील राष्ट्रों में निरक्षरता के कारण लोगों में जनसंख्या वृद्धि के नुकसानों का ज्ञान नहीं है अत: जनसंख्या वृद्धि अधिक है ।३. जलवायु में अंतर - ठंडे प्रदेशों की बजाय गर्म देशों की जनसंख्या वृद्धिदर अधिक होती है । विकसित राष्ट्रों की जलवायु ठंडी है अत: जनसंख्या वृद्धिकम है जबकि विकासशील देशों की जलवायु गर्म है । अत: वहां जनसंख्या वृद्धि ज्यादा है ।४. सामाजिक मानसिकता- अधिक जनसंख्या वृद्धि वाले विकासशील देशों के लोगोें की मानसिकता पिछड़ी हुई है। जिसमेंे वहां जनसंख्या वृद्धि अधिक है जबकि विकसित राष्ट्रों के लोगों की सामाजिकता विकसित है जिसमें वहां जनसंख्या वृद्धि दर कम है। ५.सामाजिक मान्यताएं- सामाजिक मान्यताएं भी जनसंख्या वृद्धि की विषमता में अहम् भूमिका निभाती है । हिन्दु धर्म में यह मान्यता है कि लड़के के जन्म से ही मुक्ति मिलती है । अत: घर में लड़के का होना आवश्यक समझा जाता है जो जनसंख्या वृद्धि में सहायक है । लड़का पैदा करने के चक्कर में कई -कई लड़कियाँ हो जाती हैं। जिसके फलस्वरूप जनसंख्या में वृद्धि होती है । ६. मनोरंजन के साधनों का अभाव- विकासशील देशों में मनोरंजन का एकमात्र साधन पत्नी ही होती है जबकि विकसित राष्ट्रों में अनेक मनोरंजन के साधन होते है। अत: विकासशील देशों में राष्ट्रों की तुलना में जनसंख्या वृद्धि अधिक होती है ।जनसंख्या विस्फोट भारत देश प्राचीन काल से ही एक बड़ा जनसमूह रहा है ।यहां लम्बे समय तक प्राकृतिक आपदाआें व महामारियों के कारण जनसंख्या में अधिक वृद्धि नहीं हुई । भारत की जनसंख्या में उल्लेखनीय वृद्धि २० वीं सदी के तीसरे दशक से मानी जाती ह। निम्न तालिका में भारत में जनसंख्या के आकार एवं वृद्धिदर को दर्शाया गया है -तालिका: भारत में जनसंख्या का आकार एवं वृद्धि दर (१९०१-२००१)जनगणना जनसंख्या औसत जन्म दर मृत्यु दर वर्ष करोड़ में वर्षिक प्रति हजार प्रतिहजार वृद्धि दर१९०१ २३.८३ ---- ---- -----१९११ २५.२० ०.५६ ४९.२ ४२.२१९२१ २५.१३ ०.०३ ४८.१ ४८.६१९३१ २७.८९ १.०४ ४६.४ ३६.३१९४१ ३१.८६ १.३३ ४२.२ ३१.२१९५१ ३६.१० १.२५ ३९.९ २७.४१९६१ ४३.९२ १.९६ ४१.७ २२.८१९७१ ५४.८१ २.२० ४१.२ १९.०१९८१ ६८.३३ २.२२ ३७.२ ११.४१९९१ ८४.३३ २.१४ ३२.५ ११.४२००१ १०२.७० १.९३ २६.० ८.००ैंेेडिीर्लीश : उशिीीर्ी षि खविळर, २००१ जनसंख्या के आधार पर विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान भारत का है ।भारत की जनसंख्या तीव्रगति से बढ़ रही है । निरंतर जनसंख्या वृद्धि ने कई समस्याआें जैसे- बेरोजगारी ,भूखमरी,अशिक्षा, चोरी,डकैती तथा पर्यावरण प्रदूषण को जन्म दिया है । संसार के विभिन्न देशों में आर्थिक, सामाजिक, भौतिक और सांस्कृतिक विशिष्टताआें के कारण जनसंख्या वृद्धि भी भिन्न-भिन्न है । औद्योगिक और प्रौद्योगिकी क्रांति के परिणामस्वरूप विश्व के विकासशील देशों में जन्म - दर में वृद्धि तथा मृत्यु-दर में कमी होने से तीव्र जनंसख्या वृद्धि हुई है । बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जनसंख्या वृद्धि की दर तेज होने से विद्वानों ने एक ऐसी विस्फोटक स्थिति की कल्पना की जिसमें मानव संसाधन बुरी तरह असंतुलित हो जाएगा । इस असंतुलन का प्रभाव समाज के सभी वर्गोंा पर पड़ेगा । जनसंख्या में इस विशाल, तीव्र और निरंतर वृद्धि को जनसंख्या विस्फोट नाम दिया गया। जनसंख्या वृद्धि की दर से हिसाब से चीन व भारत अग्रणी रहे है । भारत में जनंसख्या की तीव्र के वृद्धि दर जारी है । एक अनुमान के अनुसार भारत की जनसंख्या में प्रतिवर्ष एक आस्ट्रेलिया जुड़ जाता है । जनसंख्या की इस तीव्र वृद्धि दर का परिणाम सभी विकासशील देशों की विभिन्न समस्याआें के रूप में प्रकट होता है । जनसंख्या विस्फोट के पर्यावरणीय प्रभाव : जनसंख्या विस्फोट से न केवल सामाजिक समस्याएं पैदा हो रही है । अपितु अनेक पर्यावरणीय समस्याएं भी उत्पन्न हो रही हैं । जनसंख्या वृद्धि के साथ मानवीय आवश्यकताआें में असीमित वृद्धि हो रही है। जिससे पृथ्वी के सीमित संसाधनों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है । तेजी से बढ़ती जनसंख्या का पर्यावरण के विभिन्न घटकों पर प्रभाव पड़ रहा है । हमारे देश में बढ़ती हुई जनसंख्या से खाद्यान्न संकट उत्पन्न हो गया है । यद्यपि आजादी के बाद हमारे देश में अनाज का उत्पादन काफी बढ़ा है लेकिन जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि के कारण आज भी प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उत्पादन बहुत कम हैं। तेजी से बढ़ती जनसंख्या का दबाव हमारे प्राकृतिक संसाधनों के वाणिज्यिक महत्व को अधिक आंका जा रहा है जबकि इनके पर्यावरणीय महत्व की उपेक्षा की जाती है । वन, वन्य जीवों, खनिज, मृदा तथा जल संसाधनों का बड़े पैमाने पर शोषण किया जा रहा है । प्राकृतिक संसाधनों तथा जनसंख्या के मध्य संतुलन बिगड़ने से अनेक पर्यावरणीय समस्याएं जैसे प्रदूषण, भूक्षरण, बाढ़, सूखा तथा महामारियां आदि विपत्तियां उत्पन्न हो रहा है । तीव्र जनसंख्या वृद्धि एंव रोजगार की तलाश में ग्रामीण क्षेत्रों से नगरीय क्षेत्रों की ओर जनसंख्या के स्थानांतरण के कारण देश के नगरीय क्षेत्रों में जनसंख्या के स्थानांतरण के कारण देश के नगरीय क्षेत्रों में जनसंख्या का जल आपूर्ति में कमी, कूड़े-कचरे में वृद्धि, स्लम बस्तियों का विकास व अन्य सामाजिक तथा सांस्कृतिक समस्याएं उत्पन्न होती है । जनसंख्या वृद्धि तथा ऊर्जा संकट : हमारे देश में जनसंख्या वृद्धि के कारण न केवल खाद्य संकट उत्पन्न हुआ है बल्कि भोजन पकाने व उद्योगोंतथा वाहनों के चलाने के लिए ऊर्जा संकट भी उत्पन्न हो गया है । हमारे कोयले व खनिज तेल के भंडार समाप्त् हो रहे हैं । अपनी घरेलू आवश्यकताआें को पूरा करने के लिए हम लाखों टन खनिज तेल विदेशों से आयात करते हैं जिस पर भारी स्वदेशी मुद्रा खर्च करनी पड़ती है । जनसंख्या विस्फोट/वृद्धि के कारण :१. जन्म दर : किसी क्षेत्र में प्रति हजार व्यक्तियों पर प्रति वर्ष जन्म लेने वाले बच्चें की संख्या के औसत को जन्म दर कहते हैं। जनसंख्या वृद्धि जन्म दर की वृद्धि पर निर्भर करती है । जन्म दर अधिक होने के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एंव सांस्कृतिक कारण होते हैं । विकासशील देशों में विकसित राष्ट्रों की तुलना में जन्म दर लगभग दुगनी से भी अधिक है । अत: विकासशील राष्ट्र जनाधिक्य की समस्या से ग्रस्त हैं ।२. मृत्यु-दर: किसी क्षेत्र में प्रति हजार व्यक्तियों पर प्रतिवर्ष मरने वाले लोगों की औसत संख्या कोमृत्यु दर कहते हैं। जनसंख्या वृद्धि में मृत्यु दर की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है । विज्ञान एंव तकनीकी के विकास के बाद मृत्यु दर में काफी गिरावट आई है । सन् १९२० से पहले विकासशील देशों में २३ प्रतिशत बच्च्े जन्म लेने से एक सप्तह के अंदर ही मर जाते थे जबकि १० प्रतिशत बच्चें की मृत्यु ४ वर्ष की आयु से पहले हो जाती थी । १७५० में मनुष्य की औसत आयु ३० वर्ष मानी जाती थी। १८५० में यह बढ़कर ४१ वर्ष, १९५० में ५४ वर्ष व २००१ के आंकड़ों के अनुसार ६५ वर्ष हो गई हैं । किसी क्षेत्र की जनसंख्या में कमी या वृदि्घ का कारण जनसंख्या का स्थानांतरण भी है । १८८० से पहले विश्व में किसी तरह के बंधन नहंी थे और कोई भी व्यक्ति कहीं भी जाकर रह सकता था। प्रथम विश्व युद्घ के बाद अंतर्राष्ट्रीय नियमों में कठोरता के कारण यह स्थान्तरण कम हुआ । १८८० से १९२० के मध्य यूरोप से लगभग ५ करोड़ लोग अफ्रीका, कनाड़ा, अमेरिका व एशिया में आए । इससे यूरोप की जनसंख्या कम हुई तथा अन्य स्थानों की जनसंख्या में वृदि्घ हुई। ***
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें