सौर ऊर्जा से जगमगायेंगें कश्मीर वादी के गांव
कश्मीर की हरी भरी गुरेज वादी में बसे गांवों के लोगों को अब बिजली की कमी महसूस नहीं होगी क्योंकि उनके घर अब सौर ऊर्जा से जगमगाएेंगें । दूरदराज के जिन गांवों में ग्रिड और तारों के जरिए बिजली पहुंचाना संभव नहीं है उन्हें सौर ऊर्जा के माध्यम से विद्युतीकृत करने की केंद्र सरकार की योजना से उत्तर कश्मीर के गुरेज तहसील के लोगों की रातें अब सौर ऊर्जा से रोशन होंगी । नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के प्रयासों से गुरेज तहसील के २७ गांवों के ३९०० घरों को सौर ऊर्जा से रोशन करने की प्रणाली हाल में स्थापित की गई है । इससे इन गांवों के करीब ३०००० लोग लाभान्वित होंगें । इस प्रणाली की स्थापना पर करीब पांच करोड़ रूपये खर्च हुए जिनमें से साढ़े चार करोड़ रूपये केंद्र सरकार ने उपलब्घ कराए हैं तथा शेष राशि राज्य सरकार वहन करेगी । सरकारी सूत्रों के अनुसार देश के दूरदराज के गांवों को सौर ऊर्जा के माध्यम से रोशन करने के कार्यक्रम के तहत २४ राज्यों के ९४०० गांवों को लिया गया है। इसके तहत नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय परियोजना का ९० प्रतिशत खर्च वहन करता है । शेष राशि परियोजना क्रियान्वित करने वाली एजेंसी उपलब्ध कराती है । सरकारों ने ११ वीं योजना की शेष अवधि के दौरान दूरदराज के १०००० गांवों को सौर ऊर्जा से रोशन करने के लिए ८६७ करोड़ रूपये का आवंटन किया है । सूत्रों के अनुसार मंत्रालय तथा जम्मू कश्मीर सरकार इससे पहले डोडा और कुपवाड़ा जिले के ८२०० घरों को रोशन करने के लिए इसी तरह की प्रणाली स्थापित कर चुकी है । इसके प्रति लोगों के उत्साह को देखते हुए राज्य के और गांवों में भी यह सुविधा उपलब्ध कराने के प्रयास किये जा रहे हैं । अनंतनाग, कुलगाम, बड़गाम, पुलवामा और शोपियां के ६८ गांवों में यह प्रणाली स्थापित करने की परियोजना को मंजूरी दी जा चुकी है । जिस पर करीब १५ करोड़ रूपये खर्च होंगें । राज्य सरकार १५० अन्य गांवों में भी इसी तरह की सुविधा उपलब्ध कराने का प्रस्ताव तैयार कर रही है । केंद्रीय मंत्रालय इस प्रणाली के जरिये घरों को रोशन करने के अलावा अस्पतालों ,स्कूलों तथा सरकारी भवनों में अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल के लिए भी वित्तिय सहायता उपलब्ध करा रहा है । इससे राज्य सरकार को काफी मात्रा मेंें डीजल बचाने में मदद मिलेगी जिसे वह अस्पतालों, स्कूलों और सरकारी भवनों में बिजली उपलब्ध कराने पर खर्च करती है । भारतीय दो पूर्वज समूहों की संतान है भारतीयों के पूर्वजों को लेकर काफी विवाद रहा है । लगता है वैज्ञानिकों ने यह गुत्थी सुलझा ली है । भारतीयों के मानव विज्ञान के इतिहास में अपने तरह के पहले जीनोम विश्लेषण से पता चला है कि भारत के लोग दो आदि समूहों की मिली - जुली संतानें हैं । इस खोज से पता चलता है कि भारतीयों को आनुवांशिक विकृतियां होने की संभावना काफी अधिक है । भारतीय आबादी में जिन दो अलग- अलग समूहों के मिले-जुले वंशज होने के साक्ष्य मिले हैं वे दो समूह एसेस्ट्रल नार्थ इंडियंस (एएनआई) और एसेंस्ट्रल साउथ इंडियन (एएसआई) हैं । एएनआई की आनुवांशिकी पश्चिम यूरेशियाई लोगों से मिलती जुलती है । एएसआई की आनुवांशिकी बिल्कुल भिन्न है और दुनिया में कहीं भी ऐसी आनुवांशिकी नहीं मिलती है । बहरहाल दो अलग-अलग लोगों के जीनोम के क्रम में केवल ०.१ फीसदी अंतर होता है लेकिन यह बारीक सा अंतर कई सूचनाओं का केंद्र होता है । इससे आधुनिक आबादी के ऐतिहासिक स्रोत को पुन: तैयार करने में मदद मिल सकती है । जींस में भिन्नता के कारण कुछ बीमारियों का खतरा बढ़ सकता है । हाल के वर्षोंा में मानव जींस में भिन्नता के क्रम में दुनिया भर के लोगों की विविधता के बारे में नई जानकारी दी है । लेकिन अब तक भारत में ऐसे कोई संकेत नहंी मिले थे । सेंटर फार सेल्युलर एंड मालीक्यूलर बायोलाजी (सीसीएमबी) के एकवरिष्ठ वैज्ञानिक कुमारस्वामी थंगराज के मुताबिक नई खोज से पता चला है कि भारतीय समूह दो पूर्वज आबादियों की संतान है । यही बात परंपरागत उच्च् व निम्न जातियों व जनजातीय समूहों पर भी लागू होती है । अलग - अलग भारतीय समूहों को उनके पूर्वजोंके ४० से ८० फीसदी लक्षण विरासत मंे उस आबादी से मिले हैं जिसे हम एएनआई कहते हैं । एएनआई पश्चिमी यूरेशियाई लोगों से संबंधित हैं । शेष लक्षण एएसआई से मिले हैं जिनका संबंध भारत के बाहर किसी भी समूह से नहीं है । अध्ययन में अंडमान द्वीप समूह के मूल निवासियों को अपवाद बताया गया है । अंडमान में इन मूलनिवासियों की संख्या एक हजार से कम है । इन्हें एएसआई से संबंधित माना जाता है । आधुनिक मानव की उत्पत्ति करीब १.६ लाख साल पहले अफ्रीका में हुई थी । पूर्व के शोधों में भी कहा गया था कि अंडमान की जनजातियां ( आेंगे) पहले आधुनिक मानव हैं जो अफ्रीका से ६५ से ७० हजार साल पहले अन्यत्र चले गए । करीब पांच हजार साल पहले द्रविड़ों का आगमन हुआ और लोग तितर-बितर होकर छोटे- छोटे समुदाय बनाने लगे । यूरेशियाई लोगों के आगमन के बाद द्रविड़ों को दक्षिण की ओर जाना पड़ा । वैज्ञानिकों की राय में आनुवांशिक रूप से भारत एक विशाल आबादी वाला देश नहंी है । बल्कि छोटी-छोटी आबादियों वाले पृथक समूहों का मेल है । हैदराबाद सीसीएमबी और अमेरिका के हावर्ड मेडिकल स्कूल के वैज्ञानिकों का कहना है कि भारतीयों में आनुवांशिक बीमारियों के मामले शेष दुनिया की आबादी से अलग हैं। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि भारत में एक जीन की विकृति संबंधी बीमारियाँ (रिसेसिव डिजीज) बहुतायत में होगी । रिसेसिव डिजीज उस स्थिति में होती है जब व्यक्ति में खराब जीन की दो प्रतिकृतियां मौजूद होती हैं । इन बीमारियों के ईलाज और दवा बनाने में काफी मेहनत करनी होगी । केरल में सिंधु घाटी सभ्यता के संकेत मिले केरल के अवानड जिले की एकडकल गुफाआें में चट्टान पर उकेरी गई आकृतियों से हड़प्पा संस्कृति के स्पष्ट संकेत मिलते हैं जिससे पता चलता है कि सिंधु घाटी सभ्यता का दक्षिण भारत से संबंध था । इतिहासकार एमआर राघव वेरियर का कहना है कि कर्नाटक और तमिलनाडु में सिंधु घाटी सभ्यता के संकेत मिलते रहे हैं, लेकिन नई खोज से पता चलता है कि हड़प्पा सभ्यता इस क्षेत्र में भी मौजूद थी । इससे लौह युग के पूर्व के केरल के इतिहास का पता चल सकता है । हड़प्पा और मोहनजोदड़ो क्षेत्रों में पाई गईपाकिस्तान तक फैली सिंधु घाटी सभ्यता के अद्भुत प्रतीक राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई के दौरान हाल ही में गुफाआें में पाए गए । उत्खनन कार्य का नेतृत्व करने वाले वेरियर ने बताया कि इस दौरान ४२९ चीजों की पहचान की गई जिनमें से एक में एक व्यक्ति जारकप के साथ दिखाई देता है जो सिंधु घाटी सभ्यता का अद्भुत प्रतीक है । कुछ अक्षर भी मिले जो २३०० से १७०० ईसा पूर्व दक्षिण भारत में फैली हड़प्पा संस्कृति के प्रतीक चिह्न् हैं । श्री वेरियर ने कहा कि जार के साथ आदमी की आकृति उन क्षेत्रों में अक्सर पाई जाती रही है जहंा कभी सिंधु घाटी सभ्यता मौजूद थी । उन्होंने कहा कि एडक्कल में किए गए उत्खनन में अलग शैली अपनाई गई, क्योंकि इसमें द्विआयामी मानव आकृति को खोजने की कोशिश की गई । एडक्कल गुफाआें में पाए गए प्रतीक और चित्रों को पहली बार १९०१ में तत्कालीन मालाबार जिले के पुलिस अधिकारी फासेट ने अध्ययन का विषय बनाया था ।परिंदों की गंध से होती हैं कई व्याधियां दूर वे एक हाथ में अनाज से भरी बाल्टी लिए दूसरे हाथ से मैदान के चारों तरफ बिखेरते हैं । धीरे - धीरे पक्षियों का जमावड़ा शुरू होता है । वे दाने डालते जाते हैं और पक्षियों का दाना चुगने के साथ ही शुरू होती है कलरव और चहचहाट । जी हां, रामस्नेही संत रमताराम, जो गत ३५ वर्षोंा से इन परिंदों कीसेवा में लगे हुए हैं और राजस्थान में चित्तौड़गढ़ के रामद्वारा में नियमित एक क्विंटल दाना डालते हैं । अब पक्षी इन्हें तो क्या इनकी गंध को भी बखूबी पहचानने लगे हैं । जब ये दाना डाल रहे होते हैं तो पक्षी उनके पैरों पर आकर दाना चुगने लगते हैं और उनके साथ अठखेलियां करते हैं । यदि कोई अन्य व्यक्ति उनके बीच चला जाए तो वे उड़ जाते हैं । कई बार परिंदों के घायल हो जाने पर वे उनकी देखभाल करते हैं । घायल पक्षियों को वे उठाकर छत पर छोड़ देते हैं । पक्षियेां के दानों में शामिल होते है मक्की और गेहूँ के दाने क्योकि ये परिंदे इन्हें ही ज्यादा पसंद करते हैं । १०० वर्ष पूर्व अपने गुरू से शुरू हुई परम्परा को आगे बढ़ाने वाले श्री रमताराम कहते हैं कि परिंदों की गंध से व्यक्ति जीवन में कभी बीमार नहीं हो सकता। इनकी गंध सबसे तीव्र औषधि का काम करती है । कबूतर की गंध के सम्पर्क में आने से लकवे जैसी गंभीर बीमारी से छुटकारा मिलता है वहीं तोते का झूठा खाने से हकलाने या तुतलाने वाले व्यक्ति की आवाज सही हो सकती है । दाना चुगने के लिए कबूतर और तोते ही सबसे ज्यादा आते हैं। इन परिंदों की भी यहां आते हुए कई पीढ़ियां गुजर गई हैं । परिंदों की सेवा सबसे बड़ा पुण्य है । ***
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