ऊंचे पहाड़ भूमध्य रेखा के नज़दीक क्यों है ?
दुनिया की सर्वाधिक ऊंची पर्वत श्रंृखलाएं निम्न अक्षांश पर यानी भूमध्य रेखा के आसपास ही पाई जाती है । क्या यह महज़ इत्तेफाक है ? ऐसा लगता है कि यह संयोग मात्र नहीं है । हो सकता है कि गर्म वातावरण पर्वतों की वृद्धि को बढ़ावा देता है । कोई भी पर्वत श्रंृखला कितनी ऊंची हो सकती है यह तीन बातों पर निर्भर करता है - पर्वत के नीचे की भूपर्पटी कितनी शक्तिशाली है, ऊपर की ओर धक्का देने वाले टेक्टोनिक बल का परिमाण कितना है और अपरदन की मात्रा कितनी है जो पर्वतों की ऊंचाई कम करती है । यह तो काफी समय से पता रहा है कि दुनिया भर की ऊंची पर्वत श्रंृखलाआें के नीचे की भूपर्पटी सशक्त है किन्तु अब तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया था कि दुनिया की ऊंची-ऊंची चोटियों के पीछे किस चीज़ का प्रमुख हाथ है - उसे ऊं चे उठाने वाले कारकों यानी टेक्टोनिक बलों का ज़्यादा असर है या अपरदन दर के कम होने का। इस सवाल का जवाब पानें के लिए ऑरहस विश्वविद्यालय, डेनमार्क के डेविड इगोल्म और उनके सहकर्मियों ने उपग्रह से प्राप्त् चित्रों की मदद से ६० डिग्री उत्तर और ६० डिग्री दक्षिण में स्थित सभी पर्वत श्रंृखलाआें का मानचित्र तैयार किया। इसमें मुख्य रूप से पर्वतों की भूसतह का क्षेत्रफल और ऊंचाई का ग्राफ बनाया । इसके अलावा उन्होंने प्रत्येक पर्वत पर हिम रेखा की औसत ऊंचाई और उसके अक्षांश की भी तुलना की । उन्होंने ग्लेशियर अपरदन के प्रभाव का मॉडल भी तैयार किया। उन्होने पाया कि निम्न अक्षांशों का गर्म वातावरण हिम रेखा को ऊपर की ओर धकेलता है और पर्वत अधिक ऊंचा होता है । ऑरहस विश्वविद्यालय के पेडर्सन बताते हैं कि हिम रेखा के ऊपर अपरदन की प्रक्रिया काफी तेज़ होती है जहां अपरदन मुख्यत: ग्लेशियरों के क्षरण का नतीजा होता है । पर्वतों की चोटियां आम तौर पर हिम रेखा के ऊपर ज़्यादा उठी नहीं होती । हिम रेखा के ऊपर पर्वत बमुश्किल १५०० मीटर से ज़्यादा ऊंचे होते हैं । इसका मतलब है कि निम्न अक्षांश की हिमालय जैसी पर्वत श्रंृखलाआें को शुरू से ही फायदा मिलता है क्योंकि इनकी हिमरेखा काफी ऊंचाई पर है। यदि हिम रेखा नीचे हो, तो पर्वत उसके बाद बहुत ज़्यादा ऊंचा नहीं हो सकता ।चींटियों को होता है मौत का पूर्वाभास चींटियों के बीच पाई जाने वाली मजदूर चींटियां अपने जीवन की संभावना को भांप लेती हैं । जब उन्हें लगता है कि उनके दिन अब कम बचे हैं तो वे ज़्यादा ज़ोखिम भरे काम करने लगती है। चींटी, मधुमक्खी और ततैया जैसे सामाजिक कीटों का मज़दूर वर्ग अपनी उम्र के अनुसार अपने काम में परिवर्तन करता है। उम्रदराज मज़दूर अपनी बांबी या छत्ते से बाहर निकलकर खतरे वाले काम करते हैं जबकि कमसिन मज़दूर बिल के अंदर रख-रखाव जैसे सुरक्षित काम करते हैं । इस तरह मज़दूर चीटिंयों की औसत आयु बढ़ जाती है और पूरी बस्ती की फिटनेस बढ़ जाती है। वैसे अभी यह पता नहीं है कि मज़दूर चींटियों के बीच पाया जाने वाला इस तरह काम का बंटवारा उम्र के साथ होने वाले शारीरिक बदलाव के चलते होता है या किसी अन्य कारण से । इसका पता लगाने के लिये डेविड मोरॉन और उनके सहकर्मियों ने पोलैण्ड के येगीलोनियन विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला में मिर्मिका स्रब्रिनोडिस प्रजाति की चींटियों की ११ बस्तियां बनाइंर्। इनमें सभी कम उम्र की मज़दूर चींटियां थी। सभी कालोनियों की कम से कम आधी चींटियों की संभावित आयु कृत्रिम रूप से कम कर दी गई थी । इसके लिए या तो उन पर कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ी गई थी जिससे उनका रक्त अम्लीय और तंत्रिका तंत्र क्षतिग्रस्त हो गया था या उनकी बाहरी सतह को संक्रमित कर दिया गया था । पहचान के लिए इन चींटियों को रंगीन पेंट कर दिया गया। अगले पांच सप्तह में चिन्हित चींटियां कॉलोनी से बाहर जाने लगीं । वे अन्य अनुपचारित चींटियों के मुकाबले जल्दी बाहर जाने लगीं थीं और ज़्यादा बार। इससे यह अनुमान लगाया गया है कि चींटियां अपनी उम्र के हिसाब से काम नहीं बदलती बल्कि अपनी बची हुई उम्र का अनुमान लगाकर उसके अनुसार काम करती हैं ।सबसे कम संभावित आयु वाली चींटियों ने सबसे पहले कॉलोनी छोड़ी । दूसरी ओर, जिन चींटियों की त्वचा को संक्रमित किया गया था उनमें संक्रमण की मात्रा और काम के बदलाव का ऐसा संबंध नहीं देखा गया। हो सकता है कार्बन डाईआक्साइड की बजाय संक्रमण की वजह से घटी हुई संभावित मृत्यु का अंदाजा लगाना अधिक मुश्किल होने के कारण ऐसा हुआ हो ।कमल के पत्तों पर पानी की बूंदें क्यों बनती हैं ? आपने भी देखा होगा कि कमल के पत्तों पर पानी गिरे तो पत्ता गीला नहीं होता बल्कि पत्ते पर पानी की बंूदे बन जाती है और लुढ़कती हैं । आखिर क्यों ? इसका जवाब पाने के लिए शोध -कर्ताआें ने कमल के पत्ते की सतह का अवलोकन इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से किया । उनहोंने जो कुछ भी देखा वह शायद काफी उपयोगी साबित होगा । इसकी मदद से कारों के लिए ऐसे विंडशील्ड बनाए जा सकेंगे जिन पर पानी कोहरे के रूप में जमा नहीं होगा, ऐसे कपड़े बनाए जा सकेंगे जो खुद को साफ कर सकेंगे और समुद्री जहाज़ों के लिए बेहतर पेंट बनाए जा सकेंगे । आई.आई.टी. कानपुर के मटेरियल्स एण्ड मेटलर्जिकल इंजीनियरिंग विभाग और फ्लोरिडा इंटरनेशनल विश्व -विद्यालय के शोध -कर्ताआें ने कमल की ताज़ा पत्तियों का अवलोकन करने पर पाया कि कमल के पत्ते की सतह पर अत्यंत छोटे-छोटे उभार होते हैं । ये सूक्ष्म उभार अतिसूक्ष्म रोआें से आच्छादित होते हैं । एक रोएं की लंबाई ४००-१००० नैनोमीटर और मोटाई ५०-१३० नैनोमीअर होती है । इन अतिसूक्ष्म रोआें की वजह से पत्ते की सतह का खुरदरापन बढ़ जाता है और इसमें जलद्वैषी गुण पैदा हो जाते हैं यानी सतह पानी को अपने से दूख रखना चाहती है । परिणाम यह होता है कि सतह पर पानी गिरे तो वह फैल नहीं पाता बल्कि बूंद के रूप मेंे टिका रहता है । बूंद का लु़ढकना भी उपरोक्त रोआें की वजह से ही होता है । ये रोएं लगातार मुड़ते और सीधे होते रहते हैं । इसकी वज़ह से पानी की बूंद पत्ते पर टप्पे खाती रहती है। यानी सूक्ष्म उभार तो प्राथमिक खुरदरा बनाने के अलावा बूंदों के लुढ़कने का इन्तज़ाम भी करते हैं । यह पहला अध्ययन है जिसमें नैनो रोआें की यांत्रिक क्रिया को कमल के पत्ते के जलद्वैषी गुणों को जोड़ा गया है । इस तरह की सतह कृत्रिम रूप से बनाई जाए तो यही उपयोगी गुण प्राप्त् किया जा सकेगा ।हाथियों को डराने का नया नुस्खा अफ्रीकी किसानों ने हाथियों से अपनी ज़मीन और फसलों को बचाने के लिए क्या-क्या नहीं किया, कभी बागड़ बनाई तो कभी तेज़ रोशनी दिखाई और यहां तक कि रबर से बने जूतों के तले तक जलाए लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली । किसान अपनी फसलों को बचाने के लिए अभी तक प्रयासरत हैं । और इस प्रयास से एक सवाल पैदा हुआ है । अब इस सवाल का जवाब खोज निकाला गया है । ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी में कार्यरत ल्यूसी किंग का कहना है कि मधुमक्खियों की भिनभिनाती आवाज़से यह काम हो सकता है । किंग को किसी ने बताया कि जहां मधुमक्खियों का छत्ता होता है वहां हाथी कभी नहीं जाते हैं। उन्हें किसी ने यह भी बताया था कि एक बहुत बड़े हाथी को मधुमक्खी ने काट लिया था, तो वह पूरी तरह पगला गया था । किंग ने इस विचार को आज़माने पर सही पाया। सुश्री किंग कहती हैं कि मधुमक्खी के छत्ते किसान खेत में लगाएेंगें तो हाथी के झुण्ड पास नहीं आएेंगें । ***
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