मंगलवार, 27 अक्तूबर 2009

८ जनजीवन

भारतीय संस्कृतिमें वृक्ष एवं पुष्प
डॉ. उषाकिरण त्रिपाठी
भारतीय संस्कृति को समस्त मानवीय सद्गुणों का समन्वय कहा जाता है, क्योंकि इसमें सर्वे%पि सन्तु सुखिन: का जहां शंखनाद है वहां वसुधैव कुटुम्बकम् की महान कल्याणकारी भावना है । सत्यमेव जयते पर दृढ़ विश्वास और संकल्प है वहां अहिंसा परमोधर्म: को केंद्र बिंदु मानकर प्राणीमात्र की रक्षा व दया करने का आह्वान किया है । संस्कृति का तात्पर्य है मनुष्य को श्रेष्ठतम मानवीय सद्गुणोंसे विभूषित करना, संस्कारित करना तथा सबको संवारकर सामाजिक कल्याण के लिए प्रस्तुत करना । सभी लोगों के सुसंस्कृत होने पर समाज का सर्वांगीण विकास होगा, जिससे सृष्टि के सभी प्राणी सुख- शांति से रह सकेंगें । यह भी हमारे देश की आस्था और संस्कृति का ही प्रतीक है कि हम नदी, पूर्वज, पशु-पक्षी, पेड़-पौधों, पुष्प में ईश्वर का वास मानकर उनकी पूजा करते हैं , उपासना करते हैं । इसी तारतम्य में कुछ अनुपमीय वृक्षों व पुष्पों का उल्लेख किया जा रहा है जो अपने नाम के अनुरूप गुण भी रखते हैं । अशोक शोक-दु:ख को दूर करने के कारण संभवत: इसे अशोक नाम से अलंकृत किया गया है । इसकी पुष्टि में श्रीराम का उल्लेख आवश्यक है । जब वे वनवास के समय अशोक से कहते हैं शोक को दूर करने वाले हे अशोक ! मुझे सीता का पता बताकर शोकरहित कर अपने नाम की सार्थकता सिद्घ करो । - वा.रा. अरण्यकांड ६०/१७. कामदेव के पंच पुष्प बाणों में एक अशोक भी हैं, जिसकी गरिमा का गान कवि भारवि ने किया है । वाल्मीकि रामायण में अशोक वाटिका को हनुमानजी द्वारा देखे जाने का वर्णन इस प्रकार है - सदैव पुष्पों व फलों से युक्त रहने वाली यह अशोक वाटिका सूर्योदय की आभा के समान है । वा.रा. सुन्दरकांड १५/५ । अशोक वाटिका में ही हनुमानजी ने सीताजी के दर्शन किए थे - करि सोई रूप गयउ पुनि तहवां । वन असोक सीता रह जहवां ।। - रामचरित मानस सुन्दरकांड प्राचीन साहित्य में श्रद्धा, विश्वास, पवित्रता, दु:ख निवारण के संदर्भ में अशोक की श्रेष्ठता का गुणगान भरपूर किया गया है । अशोक वृक्ष का शास्त्रों में तीन रंग में उल्लेख हुआ है - लाल, पीला व नीला अशोक अनेकों तांत्रिक औषधि गुणों से भरपूर है । मंगल की पीड़ा तथा बार-बार दुर्घटना की स्थिति में अशोक के वृक्ष के नीचे मंगल यंत्र के निर्माण से लाभ होता है, मंगल का पाठ भी इस वृक्ष के नीचे शीध्र फल देता है । यह ऋणमुक्ति तथा भूमि विवाद हल करने मेें सहायक है । तांत्रिक रूप से आवास की उत्तर दिशा में अशोक लगाना विशेष मंगलकारी माना गया है व इसके पत्ते घर मेेंे रखने से शांति रहती है । बौद्ध साहित्य में भी इसे अत्यधिक पावन माना जाता है । कल्पवृक्ष मनुष्य की सारी इच्छाआें को पूर्ण करने वाला कल्पवृक्ष देवतरू विशेषण से अलंकृत है । कामनाआें की पूर्ति के कारण ही इसे कामतरू भी कहते है । कालिदास ने इनकी गरिमा का भरपूर गान अपने गं्रथों में किया है । संस्कृत साहित्य में कल्पवृक्ष की श्रेष्ठता का अत्यन्त बखान किया गया है । इसकी महत्ता बताने के लिए इसे दिव्यतरू भी कहा गया है । स्वर्गलोक में देवांगनाएं इसके किसलय का उपयोग अपने कान के आभूषणों के रूप में करती हैं । कल्पवृक्ष से जो कुछ भी मांगा जाए, वह देता है इसी संदर्भ में कुमार संभव में एक कथा है । एक बार तारकासुर अधिक उत्पाती होकर कल्पवृक्ष को भी काटकर फेंकने लगा तब इंद्र ने कल्पवृक्ष प्राप्त् रत्न, मणि आदि प्रलोभनस्वरूप उसे देकर आमंत्रित किया , अंत में वह शिवपुत्र द्वारा मारा गया । मेघदूत के अनुसार अलकापुरी की यक्षिणियों को वस्त्र-आभूषण व श्रृंगार सामग्री भी कल्पतरू से प्राप्त् होती थी । महाकवि बाणभट्ट ने हर्षचरित्म में बताया है कि इंद्रसभा में मां सरस्वती ने कल्पवृक्ष से प्राप्त् श्वेत दुकूल धारण किए हुए थे । कवि हर्ष ने कल्पवृक्ष की दानशीलता की उपमा देते हुए राजा नल की प्रशंसा की थी - राजा नल ने याचकों को इतना अधिक धन दिया कि उनकी निर्धनता दूर हो गई । उनकी दानशीलता कल्पवृक्ष को भी मात कर देने वाली थी । डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने कल्पतरू को संकल्पशील मन का प्रतीक माना है । कल्पवृक्ष रूपी मानव मन में यदि सुन्दर आचार-विचार के फल-फूल खिलते हैं तो वह मनोवांछित सफलताएं प्राप्त् कर सकता है । दृढ़ संकल्प शक्ति होना चाहिए। पुराण के अनुसार समुद्र मंथन के समय निकले चौदह रत्नों में एक कल्पतरू है । कल्पवृक्ष हमारी संस्कृति का अक्षय कोष है । जिससे मनोवांछित फल प्राप्त् होते हैं, यह पृथ्वी लोक में अप्राप्त् है । वटवृक्ष वटवृक्ष की पावनता का गान भी हमारे धर्मग्रंथों में बहुत किया गया है । इसीलिए वटवृक्ष की पूजा बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ करते है । वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ माह की पूर्णिमा या अमावस्या को स्त्रियां वटवृक्ष की पूजा आराधना बड़े भक्तिभाव से करके अपनी मनोकामनाआें की पूर्ति के लिए प्रार्थना करती हैं, क्योंकि वटवृक्ष में विभिन्न देवों का वास होता है -वटमूलेस्थितो ब्रह्मा वटमध्ये जतार्दन:।वटाग्रेतु शिवोदेवा सावित्री वटसंश्रिता ।। भविष्य पुराण और स्कंद पुराण मेें वटवृक्ष का विशेष महात्म्य बताया है । रक्षाबंधन के अवसर पर भी वटवृक्ष की पूजा करने से पारिवारिक सुख-समृद्धि में वृद्धि होती है । भगवती सीता को वनवास के समय महर्षि भारद्वाज वट महावृक्ष के बारे में बताते हैं कि उसके नीचे सिद्ध पुरूष का वास होता है । महायोगी शिव भी अपनी समाधि वटवृक्ष के नीचे लगाकर साधना करते हैं -तहं पुनि संभु समुझि पन आपन ।बैठे बट तरू करि कमलासन ।।- रामचरित मानस बालकांड, ५७/७-८. प्राचीनकाल से हमारी संस्कृति में वटवृक्ष की पूजा की जाती रही है । कार्तिक माह में करवा चौथ के समय भी स्त्रियां वटवृक्ष की पूजा-अर्चना मनोवांछित फल पाने के लिए करती है । महाभारत में महर्षि विश्वामित्र व जमदग्नि की कथाएं इससे जुड़ी हुई हैं, पांडवों ने भी वनवास के समय प्रयाग में चतुर्मास व्रत ग्रहण करके इस अक्षय वट की पूजा-अर्चना की । अक्षय वट के मूल में भगवान विष्णु के वास के कारण इसे वट माधव भी कहते हैं । यही नहीं, ब्रह्मा को भी सृष्टि रचना के लिए अक्षय वट का सहारा लेना पड़ा । शास्त्रों की मान्यता है कि इस वृक्ष के नीचे प्राण त्याग करने पर मोक्ष मिलता है । इन्हीं सब कारणोंं से वटवृक्ष हमारी संस्कृतिमें पावन और पूजनीय माना गया है। आज भी इसके प्रति आस्था, विश्वास व श्रृद्धा है । वटवृक्ष के नीचे शनि स्त्रोत का पाठ करने से साढ़े साती व ढैया शनि के प्रभाव कम होते हैं । इसी वृक्ष के नीचे नेत्रोपनिषद् का पाठ करने से नेत्र पीड़ा दूर होती है । इसी प्रकार कुछ पुष्प भी हमारी संस्कृति के प्रतीक हैं, जिनका उल्लेख करना अनिवार्य है - पारिजात पारिजात देवतरू है जो इंद्र के नंदन कानन में है । प्राचीन ग्रंथों के अनुसार पारिजात का पुष्प कभी मुरझाता नहीं है और न ही इसकी गंध कभी समाप्त् होती है । इंद्र को इसकी प्रािप्त् समुद्र मंथन से हुई थी । महाकवि कालिदास ने इसके सुरराज वृक्ष की उपमा दी है । उन्होंने अपने रघुवंश महाकाव्यम् में महाराज अज को पारिजात एवं अन्य राजाआें को कल्पतरू के समान कहा है । बाणभट्ट ने भी अपनी कादम्बरी में वनदेवी से प्राप्त् पारिजात-मंजरी को महाश्वेता के कर्णशिखर को स्पर्श करने वाली मंजरी बताया है । हरिवंश पुराण में कहा गया है कि पारिजात पुष्प किसी के पास भी एक वर्ष से अधिक नहीं रहता । इस अवधि में उसे मनोवांछित सुगंध देकर वापस पारिजात वृक्ष से जुड़ जाता है । महाभारत में बताया गया है कि इसकी इतनी महत्ता है कि इसके दर्शन मात्र से स्वर्गलोक की प्रािप्त् हो जाती है, शिव को पारिजात पुष्प बहुत प्रिय है इसलिए शिवार्चन में अर्जुन पारिजात पुष्प चढ़ाते थे। मांगलिक कार्यो में भी इसका बहुत महत्व हैं । इससे मोक्ष मिलता है । फूल की परख उसकी सुगंध व सुन्दरता से की जाती है, जबकि पारिजात पुष्प सुगन्ध, सौन्दर्य और अन्य गुणों के कारण अन्य पुष्पों में श्रेष्ठ है ।ब्रह्मकमल शिवार्चन के लिए ब्रह्मकमल का प्रयोग हिमालय क्षेत्र में किया जाता है, क्योंकि यह पुष्प सब जगह प्राप्त् नहीं होता। यह पुष्प केदारनाथ और बद्रीनाथ तीर्थोंा के बीच महमहेश्वर घाटी में पाया जाता है । यहां अनेक शिवालय हैं जो भगवान शिव की महत्ता को दर्शाते हैं । यह कमल परिवार का पुष्प है । पुराणों में श्वेल, रक्त नील व ब्रह्मकमल के विवरण प्राप्त् होते है । लक्ष्मी कृपा के साथ शुक्र का आशीर्वाद, श्वेत कमल महालक्ष्मी को चढ़ाने से मिलता है। लाल कमल शिव हनुमानजी को अर्पण करने से चंडाल की शांति, नीलकमल शिव को अर्पण करने से चंद्रमा व शनि प्रसन्न रहते हैं। ब्रह्मकमल शिव को अर्पण करने से नवग्रह प्रसन्न रहते है । ब्रह्मकमल को विष्णु कमल भी कहा जाता है । कहते हैं कि भगवान विष्णु स्वयं शिव की पूजा एक हजार एक ब्रह्मकमल मंगवाकर करने लगे, पर अचानक एक फूल घट जाने पर उन्होंने अपना एक नेत्र शिव को अर्पित कर दिया । इससे शिव बहुत प्रसन्न हुए । इसी कारण इसे विष्णु कमल भी कहा जाता है । ब्रह्मकमल समुद्र सतह से पांच हजार फीट से अधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में प्राप्त् होता है तथा चैत्र से श्रावण तक प्राप्त् होता है । ब्रह्मकमल की अनुकृति या पेंटिंग घर में लगाने से सब वास्तुदोष दूर होते हैं। यह धार्मिक व औषधीय गुणों से संपन्न दिव्य पुष्प है । ***पेड़ पर घोंसला बनाने वाला मेंढक दिल्ली विश्वविद्यालय के एक वैज्ञानिक ने पश्चिमी घाट में पेड़ पर रहने वाले मेंढक का पता लगाने का दावा किया है, जो परभक्षियों से अपने अंडों की हिफाजत करने के लिए एक ही पत्ते से अपना घोंसला भी बनाता है । दिल्ली विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ इनवायरमेंटल स्टडीज के वरिष्ट वैज्ञानिक एसडी बीजू ने बताया कि पूरी दुनिया से इस तरह की यह पहली रिपोर्ट है। एशिया में इस तरह के मेंढक की यह एकमात्र प्रजाति है , जो कीटों और गर्मी से बचने के लिए घोंसला बनाता है । यह राकोफोरस जटेरालिस प्रजाति का यह दुर्लभ और देशज प्रजाति का मेंढक कर्नाटक और केरल जैसे राज्यों में सिर्फ दक्षिण पश्चिमी घाट में पाया जाता है । वे झुरमुट के पत्ते में अपने अंडे को रखते हैं, जिसे मादा मेंढक द्वारा दोनों ओर से मोड़ दिया जाता है । श्री बीजू ने बताया कि चमकीला हरा या हल्की लालिमा लिये हुए हरे रंग वाले ये विलुप्त्प्राय प्रजाति के मेंढक हैं । इन्हें एक सदी के बाद फिर से खोज निकाला गया है । यह अध्ययन वर्ष २००० से २००५ के बीच केरल में वयनाड जिले के कलपोट्टा में किया गया । अंडनिक्षेपण और निषेचन की प्रक्रिया सिर्फ एक पत्ते पर होती है, वहीं इसका घोंसला लगभग ५३ से ८० मिमी लंबा और २८.६४ मिमी चौड़ा होता है । इसमें एक साथ ४३ से ७२ अंडे समा जाते हैं । अध्ययन में बताया गया है कि मादा मेंढक को एक घोंसला बनाने में १५ मिनट से आधे घंटे तक का समय लगता है ।

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