शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

सामाजिक पर्यावरण


अच्छा भोजन अमीरों की बपौती नहीं
डॉ.वंदना शिवा

भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम अनेक विरोधाभासों से ग्रसित है । आम व्यक्ति के भोजन को बहुराष्ट्रीय या देशी कंपनियोंको सौंपने से स्थितियां और भी बिगड़ेगी और देश के समक्ष ऐसा संकट खड़ा हो सकता है जिससे कि हमारी सार्वभौमिकता को ही चोट पहुंच सकती है ।
भारत के भूख की राजधानी के रूप में उभरने को इस तथ्य से सत्यापित किया जा सकता है कि यहां प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपभोग जो सन् १९९१ में १७८ किलो या वह २००३ में घटकर १५५ किलो रह गया है । इतना ही नहीं पिछले १७ वर्षोंा में सबसे निचले स्तर पर रहने वाली २५ प्रतिशत आबादी के दैनिक उपभोग में भी कमी आई है । अतएव खाद्य असुरक्षा को समाप्त् करने की दिशा में उठाया गया कोई भी कदम राष्ट्रीय आपदा को टालने की दिशा में उठाया गया कदम साबित होगा ।
हमारे यहां घरों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक खाद्य सुरक्षा को लेकर सर्वाधिक शोचनीय तथ्य है खाद्य उत्पादन और खाद्य उत्पादक की अनदेखी । आप व्यक्तियों को तब तक खाद्यान्न उपलब्ध नहीं करवा सकते जब तक कि आपे सर्वप्रथम यह सुनिश्चित नहीं कर लिया हो कि हम पर्याप्त् मात्रा में खाद्यान्न उत्पादकों (किसानों) की जीविका सुरक्षित हो । इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि किसानों द्वारा खाद्यान्न उत्पादन का अधिकार ही खाद्य सुरक्षा का आधार है । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह विचार खाद्यान्न सार्वभौमिकता के अधिकार के रूप में उभरा है ।
खाद्यान्न सार्वभौमिकता का विचार सामाजिक आर्थिक मानवाधिकार से लिया गया है जिसमें भोजन का अधिकार और ग्रामीण समुदाय के लिए भोजन के उत्पादन का अधिकार भी शामिल है । पीटर रोजर ने इस संबंध में मंथली रिव्यु के अपने लेख में लिखा है खाद्य सार्वभौमिकता का तर्क है कि राष्ट्र के नागरिकों को भोजन उपलब्ध करवाना राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला है । अगर किसी देश की जनसंख्या अपने अगले समय के भोजन के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था की सनक या भावोंमें उतार-चढ़ाव या लम्बे समुद्री मार्ग से आने की अनिश्चितता और अत्यधिक लागत पर निर्भर है तो वह देश न तो राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से और न ही खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से सुरक्षित है ।
इस तरह से खाद्य सार्वभौमिकता का विचार खाद्य सुरक्षा के विचार से काफी अलग हैं क्योंकि खाद्य सुरक्षा इस बारे में मौन है कि भोजन कहा से आता है या उसका उत्पादन किस प्रकार किया जाता है । वास्तविक सार्वभौमिकता पाने के लिए आवश्यक है कि ग्रामीणों की पहुंच उपजाऊ भूमि तक हो और उन्हें उनकी फसल का इतना दाम मिले की वे राष्ट्र के लोगों की क्षुधापूर्ति करते हुए स्वयं भी बेहतर जीवन जी सकें । भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लेकर की जा रही वर्तमान पहले में भी खाद्य सुरक्षा के निम्न दो पहलुआें तो कमोवेश लुप्त् हो गए
हैं । पहला पहलु है खाद्यान्न उत्पादन का अधिकार और दूसरा है राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा । ये दोनों की पहलू खाद्यान्न सार्वभौमिकता से संबंधित है ।
कोई भी देश जो खाद्यान्न उत्पादन की अनदेखी करता है वह अपनी वास्तविक खाद्य सुरक्षा को भी खतरे में डालता है । भारत में यह खतरा और भी बढ़ जाता है क्योंेकि हमारी दो तिहाई आबादी कृषि और खाद्यान्न उत्पादन में लगी हुई है । १२० करोड़ की जनसंख्या वाले हमारे देश को छोटे किसान पारम्परिक रूप से खाद्य सुरक्षा उपलब्ध करवाते रहे हैं । इसके बावजूद आज वे स्वयं संकट में हैं । कृषि संकट का सामना कर रहे देश का सबसे त्रासदायी पक्ष यह है कि पिछले एक दशक में २ लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अगर हमारे खाद्यान्न उत्पादक ही जिंदा नहीं बचेंगे तो हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा ही कहां बचेगी ?
यह भी एक वैश्विक तथ्य है कि विश्व के भूखे लोगों में आधे वे हैं जो स्वयं खाद्यान्न के उत्पादक हैं । इस स्थिति को सीधे- सीधे पूंजी और रसायन प्रणाली जिसे हरित क्रांति ने प्रारंभ किया था, से जोड़ा जा सकता है । अत्यधिक लागत की वजह से किसान का कर्जे में पड़ना अनिवार्य हो जाता है और कर्जे के बोझ से दबे किसान को ऋण अदायगी के लिए अपने उत्पादन को हर हाल में बेचना ही पड़ता है । इसी से किसानों में व्याप्त् वरोधाभास और बेचारगी सामने आती है । किसानों की आत्महत्या भी अत्यधिक लागत के कारण होने वाली ऋणग्रस्तता का परिणाम ही है ।
किसाना समुदाय की भूख समाप्त् करने का तरीका यह है कि कृषि की ओर पुन: मुडा जाए । साथ ही हमें इस भ्रामक विचार से बाहर भी आना होगा कि छोटे किसानों द्वारा और टिकाऊ (सुस्थिर) प्रणाली से पर्याप्त् उत्पादन नहीं होता । भारत और विश्व के अन्य हिस्सों के आंकड़े बताते हैं कि बड़ी कृषि जोतों (फार्म्स) के बजाए छोटे किसान अधिक उत्पादन करते हैं और रासायनिक एकल फसल के मुकाबले जैव विविधता वाले जैविक खेतों में अधिक खाद्यान्न पैदा होता है ।
ग्रामीणों की खाद्य सार्वभौमिकता से ही ग्रामीण समुदायों और जिन्हें वे भोजन उपलब्ध करवाते हैं, उनकी भूख नष्ट हो सकती है । भूख और कुपोषण का सामना कर रहे देश के लिए कारपोरेट खेती का ठेका खेती कमोवेश झूठे सामाधान हैं । वैसे भी कारपोरेट जगत खाद्य प्रसंस्करण का कार्य पहले ही हथिया चुका है और अब यह मध्यान्ह भोजन जैसे खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमोंें का अधिग्रहण भी कर लेना चाहता है । इन व्यापक कमियों के अलावा भी प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम पक्षपातपूर्ण और पूर्वाग्रह से ग्रस्त है । उदाहरण के लिए यदि सरकारी नीतियों को देखें तो हमें साफ नजर आता है कि उनका झुकाव कारपोरेट की ओर ही है । इसी झुकाव के तहत ही वर्तमान प्रणाली के स्थान पर खाद्य टिकट/वाउचर प्रक्रिया प्रस्तावित की जा रही है । ऐसा इस कल्पित आधार पर किया जा रहा है कि ये नियम खाद्य आपूर्ति को नियंत्रित करेंगे और सरकार गरीबों को इन नियमों से खाद्य टिकट और वाउचर के आधार पर खाद्यान्न खरीदने में सहायता करेगी । अगर ऐसा हो जाता है तो गरीबों के हिस्से में न्यूनतम पोषण वाला एवं अस्वास्थ्य भोजन आएगा जैसा कि अमेरिका जैसे देशों में पहले से ही हो रहा है ।
एक ऐसी खाद्य सुरक्षा प्रणाली जिसमेंें न तो खाद्य सार्वभौमिकता और न ही सार्वजनिक खाद्य प्रणाली बनाने का प्रयास किया गया हो, वह गरीब व्यक्तियोंें को ऐसा ही भोजन उपलब्ध कराएगी जो कि मनुष्यों के खाने के लिए अनुपयुक्त हो । ऐसा दो वर्ष पूर्व हो चुका है जब भारत ने कीटनाशकों से प्रदूषित गेहूँ का आयात किया था । चेन्नई बंदरगाह प्राधिकरण एवं महाराष्ट्र सरकार दोनों ने ही इसे मानव के उपभोग के लिए अनुपयुक्त घोषित कर दिया था । वर्तमान प्रतिमान भी इसी आधार पर दिया गया था । वर्तमान प्रतिमान भी इसी आधार पर बनाए गए है कि गरीब खराब भोजन खा सकते हैं और अच्छा भोजन तो सिर्फ अमीरों के लिए है ।
जबकि खाद्य सुरक्षा में सुरक्षित, स्वास्थ्यकर, सांस्कृतिक रूप से उचित एवं आर्थिक रूप से सक्षम खाद्यान्न के अधिकार को सम्मिलित किया गया है लेकिन खाद्य टिकट इसकी ग्यारंटी नही ंदे सकते । इतना ही नहीं वर्तमान में प्रचलित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) भी कोई एक तरफा प्रणाली नहीं है । इसके अंतर्गत खाद्यान्नों का सरकारी खरीदी और खाद्यान्न वितरण प्रणाली दोनों ही आते हैं । इसे खाद्य वाउचर से बदलने से किसानों की खाद्य सार्वभौमिकता नष्ट होगी और ये बाजार की सनक के शिकार हो जाएगें जिससे कि अंतत: उनकी जीविका ही नष्ट हो जाएगी ।
इससे ६५ करोड़ ग्रामीणों के सामने विस्थापन का संकट खड़ा हो जाएगा और इन भूखे व्यक्तियोंें से भूख की ऐसी समस्या उठ खड़ी होगी जिसका समाधान कोई भी सरकार या बाजार नहीं कर
सकता । इसीलिए यदि हमें अपनी खाद्य सुरक्षा को मजबूत व सुरक्षित बनाना है तो हमें हर हाल में अपनी खाद्य सार्वभौमिकता और सार्वजनिक प्रणाली को मजबूत बनाना होगा । प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम इस मायने में भारत के संविधान के विरोध दिखाई देता है क्योंकि इसका कहना है एक केंद्रीय इकाई गरीबों की पहचान करेगी । अच्छे और प्रत्येक खेतों में प्रचुर मा भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम अनेक विरोधाभासों से ग्रसित है । आम व्यक्ति के भोजन को बहुराष्ट्रीय या देशी कंपनियोंको सौंपने से स्थितियां और भी बिगड़ेगी और देश के समक्ष ऐसा संकट खड़ा हो सकता है जिससे कि हमारी सार्वभौमिकता को ही चोट पहुंच सकती है ।
भारत के भूख की राजधानी के रूप में उभरने को इस तथ्य से सत्यापित किया जा सकता है कि यहां प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपभोग जो सन् १९९१ में १७८ किलो या वह २००३ में घटकर १५५ किलो रह गया है । इतना ही नहीं पिछले १७ वर्षोंा में सबसे निचले स्तर पर रहने वाली २५ प्रतिशत आबादी के दैनिक उपभोग में भी कमी आई है । अतएव खाद्य असुरक्षा को समाप्त् करने की दिशा में उठाया गया कोई भी कदम राष्ट्रीय आपदा को टालने की दिशा में उठाया गया कदम साबित होगा ।
हमारे यहां घरों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक खाद्य सुरक्षा को लेकर सर्वाधिक शोचनीय तथ्य है खाद्य उत्पादन और खाद्य उत्पादक की अनदेखी । आप व्यक्तियों को तब तक खाद्यान्न उपलब्ध नहीं करवा सकते जब तक कि आपे सर्वप्रथम यह सुनिश्चित नहीं कर लिया हो कि हम पर्याप्त् मात्रा में खाद्यान्न उत्पादकों (किसानों) की जीविका सुरक्षित हो । इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि किसानों द्वारा खाद्यान्न उत्पादन का अधिकार ही खाद्य सुरक्षा का आधार है । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह विचार खाद्यान्न सार्वभौमिकता के अधिकार के रूप में उभरा है ।
खाद्यान्न सार्वभौमिकता का विचार सामाजिक आर्थिक मानवाधिकार से लिया गया है जिसमें भोजन का अधिकार और ग्रामीण समुदाय के लिए भोजन के उत्पादन का अधिकार भी शामिल है । पीटर रोजर ने इस संबंध में मंथली रिव्यु के अपने लेख में लिखा है खाद्य सार्वभौमिकता का तर्क है कि राष्ट्र के नागरिकों को भोजन उपलब्ध करवाना राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला है । अगर किसी देश की जनसंख्या अपने अगले समय के भोजन के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था की सनक या भावोंमें उतार-चढ़ाव या लम्बे समुद्री मार्ग से आने की अनिश्चितता और अत्यधिक लागत पर निर्भर है तो वह देश न तो राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से और न ही खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से सुरक्षित है ।
इस तरह से खाद्य सार्वभौमिकता का विचार खाद्य सुरक्षा के विचार से काफी अलग हैं क्योंकि खाद्य सुरक्षा इस बारे में मौन है कि भोजन कहा से आता है या उसका उत्पादन किस प्रकार किया जाता है । वास्तविक सार्वभौमिकता पाने के लिए आवश्यक है कि ग्रामीणों की पहुंच उपजाऊ भूमि तक हो और उन्हें उनकी फसल का इतना दाम मिले की वे राष्ट्र के लोगों की क्षुधापूर्ति करते हुए स्वयं भी बेहतर जीवन जी सकें । भारत सरकार द्वारा प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लेकर की जा रही वर्तमान पहले में भी खाद्य सुरक्षा के निम्न दो पहलुआें तो कमोवेश लुप्त् हो गए
हैं । पहला पहलु है खाद्यान्न उत्पादन का अधिकार और दूसरा है राष्ट्रीय खाद्यान्न सुरक्षा । ये दोनों की पहलू खाद्यान्न सार्वभौमिकता से संबंधित है ।
कोई भी देश जो खाद्यान्न उत्पादन की अनदेखी करता है वह अपनी वास्तविक खाद्य सुरक्षा को भी खतरे में डालता है । भारत में यह खतरा और भी बढ़ जाता है क्योंेकि हमारी दो तिहाई आबादी कृषि और खाद्यान्न उत्पादन में लगी हुई है । १२० करोड़ की जनसंख्या वाले हमारे देश को छोटे किसान पारम्परिक रूप से खाद्य सुरक्षा उपलब्ध करवाते रहे हैं । इसके बावजूद आज वे स्वयं संकट में हैं । कृषि संकट का सामना कर रहे देश का सबसे त्रासदायी पक्ष यह है कि पिछले एक दशक में २ लाख से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। अगर हमारे खाद्यान्न उत्पादक ही जिंदा नहीं बचेंगे तो हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा ही कहां बचेगी ?
यह भी एक वैश्विक तथ्य है कि विश्व के भूखे लोगों में आधे वे हैं जो स्वयं खाद्यान्न के उत्पादक हैं । इस स्थिति को सीधे- सीधे पूंजी और रसायन प्रणाली जिसे हरित क्रांति ने प्रारंभ किया था, से जोड़ा जा सकता है । अत्यधिक लागत की वजह से किसान का कर्जे में पड़ना अनिवार्य हो जाता है और कर्जे के बोझ से दबे किसान को ऋण अदायगी के लिए अपने उत्पादन को हर हाल में बेचना ही पड़ता है । इसी से किसानों में व्याप्त् वरोधाभास और बेचारगी सामने आती है । किसानों की आत्महत्या भी अत्यधिक लागत के कारण होने वाली ऋणग्रस्तता का परिणाम ही है ।
किसाना समुदाय की भूख समाप्त् करने का तरीका यह है कि कृषि की ओर पुन: मुडा जाए । साथ ही हमें इस भ्रामक विचार से बाहर भी आना होगा कि छोटे किसानों द्वारा और टिकाऊ (सुस्थिर) प्रणाली से पर्याप्त् उत्पादन नहीं होता । भारत और विश्व के अन्य हिस्सों के आंकड़े बताते हैं कि बड़ी कृषि जोतों (फार्म्स) के बजाए छोटे किसान अधिक उत्पादन करते हैं और रासायनिक एकल फसल के मुकाबले जैव विविधता वाले जैविक खेतों में अधिक खाद्यान्न पैदा होता है ।
ग्रामीणों की खाद्य सार्वभौमिकता से ही ग्रामीण समुदायों और जिन्हें वे भोजन उपलब्ध करवाते हैं, उनकी भूख नष्ट हो सकती है । भूख और कुपोषण का सामना कर रहे देश के लिए कारपोरेट खेती का ठेका खेती कमोवेश झूठे सामाधान हैं । वैसे भी कारपोरेट जगत खाद्य प्रसंस्करण का कार्य पहले ही हथिया चुका है और अब यह मध्यान्ह भोजन जैसे खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमोंें का अधिग्रहण भी कर लेना चाहता है । इन व्यापक कमियों के अलावा भी प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम पक्षपातपूर्ण और पूर्वाग्रह से ग्रस्त है । उदाहरण के लिए यदि सरकारी नीतियों को देखें तो हमें साफ नजर आता है कि उनका झुकाव कारपोरेट की ओर ही है । इसी झुकाव के तहत ही वर्तमान प्रणाली के स्थान पर खाद्य टिकट/वाउचर प्रक्रिया प्रस्तावित की जा रही है । ऐसा इस कल्पित आधार पर किया जा रहा है कि ये नियम खाद्य आपूर्ति को नियंत्रित करेंगे और सरकार गरीबों को इन नियमों से खाद्य टिकट और वाउचर के आधार पर खाद्यान्न खरीदने में सहायता करेगी । अगर ऐसा हो जाता है तो गरीबों के हिस्से में न्यूनतम पोषण वाला एवं अस्वास्थ्य भोजन आएगा जैसा कि अमेरिका जैसे देशों में पहले से ही हो रहा है ।
एक ऐसी खाद्य सुरक्षा प्रणाली जिसमेंें न तो खाद्य सार्वभौमिकता और न ही सार्वजनिक खाद्य प्रणाली बनाने का प्रयास किया गया हो, वह गरीब व्यक्तियोंें को ऐसा ही भोजन उपलब्ध कराएगी जो कि मनुष्यों के खाने के लिए अनुपयुक्त हो । ऐसा दो वर्ष पूर्व हो चुका है जब भारत ने कीटनाशकों से प्रदूषित गेहूँ का आयात किया था । चेन्नई बंदरगाह प्राधिकरण एवं महाराष्ट्र सरकार दोनों ने ही इसे मानव के उपभोग के लिए अनुपयुक्त घोषित कर दिया था । वर्तमान प्रतिमान भी इसी आधार पर दिया गया था । वर्तमान प्रतिमान भी इसी आधार पर बनाए गए है कि गरीब खराब भोजन खा सकते हैं और अच्छा भोजन तो सिर्फ अमीरों के लिए है ।
जबकि खाद्य सुरक्षा में सुरक्षित, स्वास्थ्यकर, सांस्कृतिक रूप से उचित एवं आर्थिक रूप से सक्षम खाद्यान्न के अधिकार को सम्मिलित किया गया है लेकिन खाद्य टिकट इसकी ग्यारंटी नही ंदे सकते । इतना ही नहीं वर्तमान में प्रचलित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) भी कोई एक तरफा प्रणाली नहीं है । इसके अंतर्गत खाद्यान्नों का सरकारी खरीदी और खाद्यान्न वितरण प्रणाली दोनों ही आते हैं । इसे खाद्य वाउचर से बदलने से किसानों की खाद्य सार्वभौमिकता नष्ट होगी और ये बाजार की सनक के शिकार हो जाएगें जिससे कि अंतत: उनकी जीविका ही नष्ट हो जाएगी ।
इससे ६५ करोड़ ग्रामीणों के सामने विस्थापन का संकट खड़ा हो जाएगा और इन भूखे व्यक्तियोंें से भूख की ऐसी समस्या उठ खड़ी होगी जिसका समाधान कोई भी सरकार या बाजार नहीं कर
सकता । इसीलिए यदि हमें अपनी खाद्य सुरक्षा को मजबूत व सुरक्षित बनाना है तो हमें हर हाल में अपनी खाद्य सार्वभौमिकता और सार्वजनिक प्रणाली को मजबूत बनाना होगा । प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा अधिनियम इस मायने में भारत के संविधान के विरोध दिखाई देता है क्योंकि इसका कहना है एक केंद्रीय इकाई गरीबों की पहचान करेगी । अच्छे और प्रत्येक खेतों में प्रचुर मात्रा में उत्पादन और उसकी प्रत्येक रसोई तक पहंुचने की सुनिश्चितता की कुंजी विकेंद्रीकरण में निहित हैं । केंद्रीकरण और कारपोरेट द्वारा खाद्यान्नों का अपहरण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । वहीं विकेंद्रीकरण और खाद्य सार्वभौमिकता भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।
***उत्पादन और उसकी प्रत्येक रसोई तक पहंुचने की सुनिश्चितता की कुंजी विकेंद्रीकरण में निहित हैं । केंद्रीकरण और कारपोरेट द्वारा खाद्यान्नों का अपहरण एक ही सिक्के के दो पहलू हैं । वहीं विकेंद्रीकरण और खाद्य सार्वभौमिकता भी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।
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