हिमालय भारत का मुकुट
पृथ्वी पर कुछ स्थान ऐसे मनोरम, रोमांचक ओर विस्मयकारी हैं जो हमेशा से विश्व जगत के लिए आकर्षण का केन्द्र रहे हैं। उन्हीं में एक है भारत का मुकुट कहा जाने वाला हिमालय पर्वत । इस पर्वत की सुंदर श्रृंखला में एवरेस्ट की महान चोटी है, तो कई ऐसे दुर्लभ पशु पक्षी भी हैं जो दुनिया में कहीं नहीं मिलते हैं । दुनिया इस विराट पर्वत को माउंट एवरेस्ट के नाम से जानती हैं । यह नाम इसे ब्रिटिश इंडिया कंपनी के सर्वेक्षण विभाग ने उस समय के अध्यक्ष सर जॉर्ज एवरेस्ट के नाम पर दिया गया था । इसको पृथ्वी की सबसे ऊंचे पर्वत के रूप में पुष्टि की गई थी । नेपाल और तिब्बत की सीमाआें पर स्थित इस पर्वत की धरती से चोटी तक ऊँचाई १८५० में २६,००२ फूट यानी ८,८४० मीटर मापी गई थी । अलबत्ता १९८१ में एक सेटेलाइट ट्रांजिट सर्वे ने साथ ही के माऊंट गॉडविन आस्टेन जिसे के२ के नाम से भी जाना जाता है, पर गए एक अमेरिकी अभियान के साथ मिलकर यह निष्कर्ष निकाला कि के२ चोटी जिसे काफी लंबे समय से विश्व की दूसरी सबसे ऊंची चोटी के रूप में जाना ताजा है । दरअसल २६,२२८ फूट यानी ८,९९० मीटर ऊंची है।, जिससे यह एवरेस्ट से भी ऊंची चोटी बन जाती है । १९८१ में किया गया अध्ययन उस समय संभवत: अधिक सटीक अध्ययन हो । जिनमें लेजर रेंज फाइडर्स और पृथ्वी की कक्षा में चक्कर लगा रहे उपग्रहों का प्रयोग किया गया था । लेकिन ज्यादातर इस नई खोज से सहमत नहीं थे और एवरेस्ट को ही विश्व की सबसे ऊंची पर्वत चोटी मानते हैं । अधिकतर स्रोतों ने जिनमें १९९४ की ऑक्सफोर्ड एनसाईक्लोपेडिक वर्ल्ड एटलस भी शामिल है, मे एवरेस्ट की ऊंचाई २९,०२९ फुट यानी ८,८४८ मीटर बताई और के२ की २८,२५१ फुट यानी, ८,६११ मीटर । इस दौरान १९९४ की गिनीज बुक ऑफ रिकार्डस ने रिसर्च कांउसिल ऑफ रोम की १९८७ की व्यवस्था के हवाले से एवरेस्ट की ऊंचाई २९,०७८ फुट यानी ८,८६३ मीटर और के२ की २८,२३८ फुट यानी ८,६०७ मीटर बताई । काफी लंबे समय तक यह समझा जाता रहा था कि इस चोटी पर चढ़ना असंभव है। इस पर चढ़ने की इच्छा रखने वाले कई लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी । इससे इस पर्वत पर चढ़ने की संभावना लोगों को सचमुच असंभव लगने लगी । लेकिन अंतत: इस पर चढ़ाई का पहला सफल प्रयास काफी कठिनाईयों के बाद सफल हुआ । पहली बार २९ मई १९५३ की न्यूजीलैंड के एडमंड हिलेरी और उनके शेरपा सहयोगी तेनजिंग नोर्गेइस पर विजय प्राप्त् करने में सफल
रहे । तब से एवरेस्ट की चोटी नापने में कुछ लोग दुनिया के इस अद्भुत शिखर पर अपनी कामयाबी का झंडा फहराने मेंकामयाब रहे । आंग रिता नामक शेरपा
ने बिना आक्सीजन साथ लिए १९८३ से १९९२ के दौरान सात बार एवेरेस्ट पर विजय प्राप्त् करने का रिकार्ड उनके नाम किया
है । इस चोटी पर पहुंचने वाली प्रथम महिला जापान की जुन्को ताबे थीं। यह १९७५ में इस पर चढ़ीं । सारा सफर अकेले तय कर इस पर चढ़ने वाले पहले पर्वतारोही थे इटली के रेनहोल्ड मेसनर, जो १९८० में इस चोटी पर पहुंचे । वैज्ञानिकांे के मुताबिक लगभग ७ करोड़ वर्ष पहले यह विशाल पर्वत समुद्र के नीचे था । परन्तु पृथ्वी की पपड़ी की प्लेट्स ने इसे एक पर्वत श्रंृखला बनाने के लिए ऊपर उठा दिया जो अब भी बढ़ रही है । एवरेस्ट की नवीनतम अधिकारिक ऊंचाई २९,०३५ फुट यानी ८,८५० मीटर है ।
ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा रही कास्मिक किरणें
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो के पूर्व प्रमुख एवं प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी डॉ.यूआर राव ने जलवायु परिवर्तन के लिए कार्बन उत्सर्जन से ज्यादा ब्रह्मांड से आने वाली अंतरिक्ष की किरणोंकी तीव्रता की कमी को जिम्मेदार बताकर जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल आईपीसीसी की रिपोर्ट को चुनौती दे दी है ।
डॉ.राय के पत्र के अनुसार पिछले डैढ़ सौ वर्षोंा में सौर गतिविधियों में तेजी से बढ़ोतरी हुई है, जिससे अंतरिक्ष की किरणों की तीव्रता में नो प्रतिशत की कमी आई है । इस कमी के कारण धरती के ऊपर आच्छादित बादलोंकी गहनता भी कम हो गई , जिससे उष्मा अंतरिक्ष में वापस जाने की बजाय धरती पर ही अवशोषित ही रही
है ।
इस प्रक्रिया के कारण धरती का तापमान बढ़ रहा है, जिससे जलवायु में परिवर्तन हो रहा है । यह एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसके लिए मनुष्य कही से भी जिम्मेदार नहींहै । जलवायु परिवर्तन पर अंतरिक्ष की किरणों के असर का पहले भी अध्ययन किया जा चुका है । लेकिन प्रोफेसर राव के पत्र मेंइसके प्रभाव का प्रतिशत पहले से ज्यादा बताया गया है ।
आईपीसीसी की रिपोर्ट में कार्बन उत्सर्जन समेत सभी मानव गतिविधियों का ग्लोबल वार्मिंग पर असर में योगदान जहां दशमलव ६ वाट प्रति वर्गमीटर तथा सूर्य की
किरणों तथा अन्य कारकों का कुल योगदान
१.१२ वाट प्रति वर्गमीटर बताया गया है, वहीं डॉ.राव के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग पर अंतरिक्ष की किरणों के प्रभाव का योगदान १.१ वाट प्रति वर्ग मीटर है, जिससे गैरमानवीय गतिविधियों के कारकों का योगदान १.१२२ है ।
डॉ.राव के पत्र के अनुसार वातावरण में सीओटू का उत्सर्जन बढ़ने से ग्लोबल वार्मिंग पर उतना अधिक असर नहीं पड़ेगा, जितना कि आईपीसीसी ने दावा किया था । ग्लोबल वार्मिंग के कारण ०.७५ डिग्री सैल्सियस तापमान में सीओटू की वृद्धि का योगदान मात्र ०.४२ डिग्री होगा । शेष तापमान में बढ़ोतरी का कारण अंतरिक्ष की किरणों में तीव्रता में कमी होगी ।
भारतीय वैज्ञानिक खोजेंगे डी.एन.ए. का रहस्य
भारतीय वैज्ञानिकों की वैश्विक स्तर पर धाक, पहचान और पूछताछ बढ़ती जा रही है । यही कारण है कि योरपीय अनुसंधान परिषद (ईआरसी) ने भारतीय वैज्ञानिक डॉ.रमेश पिल्लई को एक अनुसंधान परियोजना के लिए ६करोड़ रूपये का अवार्ड दिया है ।
न्यूज चैनल सीएनएन-आईबीएन के अनुसार थिरूवनंतपुरंम में महात्मा गाँधी कॉलेज और आईआईटी रूड़की के छात्रडॉ.पिल्लई फ्रांस की एक लैब मेंअगले पाँच सालों तक मानव डीएनए के रहस्यों पर अनुसंधान करेंगे । साधारण शब्दों में डीएनए सूचनाआें का वह भंडार होता है , जो हमें अपने माता-पिता से हस्तांतरित होता हे । इनमें कोशिकाएँ होती है जो डीएनए से सूचनाआें के प्रवाह को नियंत्रित करती हैं ।
डॉ.पिल्लई ने कहा कि हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि कोशिकाएँ किस तरह डीएनए के भीतर जेनेटिक सूचनाआें के प्रवाह को नियंत्रित करती हैं । डॉ.पिल्लई के अनुसार इससे हमें शायद कृत्रिम अणु बनाने में मदद मिले ।
अभी तक सिर्फ चार भारतीयों को
ही योरपीय अनुसंधान परिषद से अनुसंधान का इस तरह अवार्ड मिला है । हालाँकि परिषद पूरी दुनिया में १६०० अनुसंधानकर्ताआें को धन मुहैया कराती हैं । डॉ. पिल्लई का परिवार बहुत खुश है । उनके लिए यह जैकपॉट है । डॉ.पिल्लई को पीएचडी के बाद १२ साल की मेहनत का फल अब जाकर मिला है । डॉ.पिल्लई ने स्वीकार किया कि अमेरिका वैज्ञानिकों और अनुसंधान छात्रों का एक बड़ा केन्द्र है ।
अफ्रीकी गेंडों को शिकारियों से खतरा
हाथियों और बाघ के अवैध शिकार के कारण बदनाम हो चुके चीन का नाम अब अफ्रीकी महाद्वीप में गेंडे के शिकार में भी आ रहा है । यहां कई और निर्माण स्थलों पर चीनी मौजूदगी के बाद यह खतरा और बढ़ जाता है ।
आशंका है कि गेंडे के संरक्षण के लिए पिछले तीन दशक में जो मेहनत की गई है, हेलिकॉप्टरों, नाइट गॉगल और साइलेंसर वाली राइफलों के सहारे चीनी शिकारी उस पर पानी फेर देंगे । वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) के आंकड़ों के मुताबिक अफ्रीकी महाद्वीप में गेंड़ों का
अवैध शिकार पिछलेे डेढ़ दशक में सबसे गंभीर स्तर पर पहुंच चुका है । दक्षिण अफ्रीका में सफेद गेंडों का कुछ संख्या मेंशिकार मान्यता प्राप्त् है, लेकिन पिछले साल यहां ३३३ गेंडे मारे गए, जिनमें १० तो विलुप्त्प्राय काले गेंडे थे । वर्ष २००९ में यहां १२२ गेंडे मारे गए थे और ताजा आंकड़े इस संख्या मेंतकरीबन तीन गुना इजाफे को जाहिर कर रहे हैं। पिछले एक साल में दक्षिण अफ्रीका में गेंडों के मारे जाने की घटनाआें में १७३ फीसदी का इजाफा देखा गया है ।
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