महिलाएं और मनरेगा
रिचर्ड महापात्र
जिन राज्यों में गरीबी अधिक है वहां उम्मीद की जा रही थी कि मनरेगा के अंतर्गत महिलाआें की भागीदारी में बढ़ोत्तरी होगी । लेकिन वास्तविकता यह है कि जिन राज्यों में अत्यधिक गरीबी है वहां पर महिलाएं मनरेगा में कम भागीदारी कर रहीं हैं । वहीं दूसरी ओर जिन राज्यों में वर्तमान में कुल श्रमशक्ति में महिलाआें की संख्या कम है वहां पर महिलाआें का प्रतिनिधित्व आश्चर्यजनक रूप से बढ़ा है ।
ग्रामीण समुदाय को रोजगार देने वाले राष्ट्रीय कार्यक्रम में पुरूषों की बजाए महिलाएं ज्यादा तादाद में कार्य कर रही हैं । चालू वित्तीय वर्ष में अक्टूबर तक महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून में महिलाआें ने ५० प्रतिशत से अधिक रोजगार प्राप्त् किया । इस कानून के २००६ से लागू होने के बाद से इसमें महिलाआें की भागीदारी लगातार बढी है । यह इसलिए भी उल्लेखनीय है क्योंकि सन् २००४-०५ में हुए अंतिम राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार देश में काम करने वालों में महिलाआें की कुल भागीदारी मात्र २८.७ प्रतिशत ही है ।
पूर्व में भी सार्वजनिक मजदूरी कार्यक्रमों में महिलाआें की भागीदारी उम्मीद से अधिक थी । सन् १९७० से २००५ के मध्य भारत के मध्य भारत में रोजगार या स्वरोजगार के १७ बड़े कार्यक्रम लागू किए गए थे । सन् २००० तक लागू किए गए राष्ट्रीय ग्रामीण राजगार कार्यक्रम, भूमिहीन ग्रामीण राजगार गारंटी कार्यक्रम, जवाहर रोजगार योजना और रोजगार आश्वासन योजना के अंतर्गत निर्मित कुल रोजगारों में से एक-चौथाई पर महिलाएं काबिज हुई थीं । वही आई आरडीपी (समेकित ग्रामीण विकास कार्यक्रम) और ग्रामीण युवाआें को रोजगार हेतु प्रशिक्षण देने के उपक्रम में
सन् २००० तक महिलाआें की भागीदारी ४५ प्रतिशत तक पहुंच चुकी थी ।
मनरेगा में महिलाआें की भागीदारी कई बार अनूठे और अक्सर विरोधाभासी पक्षों की ओर इशारा करती है । पहला यह कि ऐसे राज्य जहां कि श्रमशक्ति में महिलाआेंे की भागीदारी कमोवेश कम दिखाई देती है वहां पर महिलाएं अधिक तादाद में इस कार्यक्रम में भागीदारी कर रही हैं । केरल का ही उदाहरण लें, यहां पर महिलाएं कुल श्रमशक्ति का मात्र १५ प्रतिशत ही हैं । परंतु इस कानून के अंतर्गत निर्मित कार्योंा में से ७९ प्रतिशत महिलाआें ने ही ले लिए ।
तमिलनाडु और राजस्थान दो अन्य प्रदेश है। जहां कुल श्रमशक्ति में महिलाआें की हिस्सेदारी कम है लेकिन मनरेगा के अंतर्गत निर्मित कार्योंा में इनकी भागीदारी क्रमश: ८२ एवं ६९ प्रतिशत है । दूसरी ओर ओडिशा, उत्तरप्रदेश एवं बिहार जैसे गरीब राज्यों में जहां पर छुट्टी मजदूरी की अधिक संभावनाएं हैं वहां पर महिलाआें की भागीदारी बहुत कम अर्थात मात्र २२ से २३ प्रतिशत ही है । यह प्रवृत्ति उस धारणा की विरोधाभासी हैं कि गरीबी महिलाआें को छुट्टी या आकस्मिक मजदूरी के लिए बाध्य करती है । तीसरा यह कि ऐसा विश्वास है कि जहां धान की खेती जैसी मानव श्रम आधारित खेती होती है वहां पर महिलाएं श्रमिकोंकी संख्या अधिक होती है । परंतु मनरेगा के आंकडे ओडिशा ओर पश्चिम बंगाल में ठीक इसके उलट स्थिति प्रस्तुत करते हैं ।
वैसे इस कानून के कुछ विशिष्ट पक्ष भी इस विरोधाभासी प्रवृत्ति में योगदान करते हैं । जैसे इस कानून के अनुसार एक परिवार को एक वर्ष में १०० दिन के रोजगार की गारंटी है । सभी वयस्क सदस्य इस गारंटी में हिस्सेदारी कर सकते हैं और महिलाआेंें और पुरूषों के लिए मजदूरी दर एक सी है । इससे परिवार के स्तर पर मजदूरी का बजट बनाया जाने लगा । अब पुरूष नगरोंऔर शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं और महिलाएं मनरेगा के अंतर्गत कार्य करने हेतु गांव मेंअपने घरों में रह जाती है । कानून के फलस्वरूप परिवारों की आय में वृद्धि भी हुई क्योंकि पहले तो महिलाआें को पुरूषों के मुकाबले कम मजदूरी मिलती थी। महिलाआें ने इसे आर्थिक आजादी की तरह से लिया है ।
कानून में मजदूरी में समानता से भी अधिक ध्यान जल संरक्षण को दिया है । इससे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के सदस्यों क ो अपने ही खेतों में काम करने को मिला बल्कि उसके बदले में उन्होंने भुगतान भी प्राप्त् किया । महिलाआेंें की भागीदारी से उनके अपने अनुपजाऊ खेतोंे का पानी एवं अन्य कार्योंा के माध्यम से पुनरूद्धार भी संभव हो
पाया । तमिलनाडु में हुए अनेक अध्ययनों ने इस प्रवृत्ति की पुष्टि की है । उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश के अकाल पीड़ित बुंदेलखंड के कई जिलोंमें भी अनेक परिवारों ने इसी रणनीति को अपनाया गया है ।
देश में९० प्रतिशत महिला श्रमिक या तो खेतिहर मजदूर हैं या कृषक हैं। उनके द्वारा किए गए कार्य में से अधिकांश का भुगतान भी नहीं होता क्योंकि वे अपने ही खेतों में कार्य करती हैं । मनरेगा ने इस स्थिति को बदला है । अब महिलाआें को भुगतान न किए जाने वाले कार्य जैसे भूमि का समतलीकरण और अपने ही खेतों में तालाब खोदने के लिए भी भुगतान किया जाता है । आध्रप्रदेश के वारअंगल और महाराष्ट्र के अहमदनगर जैसे अकाल प्रभावित क्षेत्रोंके समुदायों के सदस्योंका कहना है कि इससे महिलाएं इस कार्यक्रम की ओर आकर्षित हुई है ।
केरल, तमिलनाडु और राजस्थान में महिलाआें को इन योजनाआें हेतु एकत्रीकरण एवं अभियानों के इतिहास ने मनरेगा में उनकी भागीदारी सुनिश्चित की है । राजस्थान में सोशल आडिट अभियान, जिसमें महिलाआें ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है, ने मनरेगा के अंतर्गत उनकी जागरूकता और भागीदारी बढ़ाने में योगदान किया है । राज्य में कार्यस्थलों पर महिलाआें और बच्चों के लिए अच्छी व्यवस्थाएं हैं । केरल में कार्यस्थलों और अन्य आवश्यकताआें के प्रबंधन की जिम्मेदारी गरीबी निवारण मिशन कुडुम्बश्री के अंतर्गत महिला स्वयं सहायता समूह के हाथों में दे दी गई है ।
मनरेगा में महिलाआें की बढ़ती भागीदारी को इसके मुख्य उद्देश्य स्थानीय पारिस्थितिकी के पुुनुरूद्धार की प्रािप्त् के लिए उपयोग में लाया जा सकता है । अब पंचायत में भी महिलाआें की ५० प्रतिशत भागीदारी अनिवार्य कर दी गई है जो कि इन कार्यक्रमोंके कियान्वयन, जिससे विकास योजना बनाना भी शामिल है कि लिए एकअधिकृत संस्था है । अतएव पंचायतोंकी निरीक्षक की भूमिका और श्रमिकों में समानता का भाव से उपस्थिति होगी तो यह गांव और कार्यक्रम दोनों के लिए ही बेहतर होगा । ***
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