शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

सामयिक

जैव विविधता हानि का गणना कैसे हो ?
लता जिशनु

पिछले दिनों सीएजी द्वारा उद्घाटित २-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की राशि का तो आकलन धन में किया जा सकता है । परंतु भारतीय जैव विविधता को बिना किसी संरक्षण के विदेशी और देशी कंपनियोंके हाथों बेच देने से देश को हो रही हानि की गणना कर पाना कमोवेश असंभव है । दूरसंचार नियामक प्राधिकरण के पश्चात राष्ट्रीय जैव विविधता नियामक प्राधिकरण का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार स्पष्ट तौर पर दर्शा रहा है कि खुलेपन की आड़ में नियामकों की सत्ता के परिणाम देश के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकते हैं।
घोटालों के इस मौसम में २-जी स्पेक्ट्रम ने अन्य सभी घोटालों की चमक फीकी कर दी है इस घोटाले से यह तो सामने आ गया है कि किस तरह व्यापारी और राजनीतिज्ञ लोकतंत्र के प्रत्येक स्तंभ को कमजोर कर रहे हैं । ऐसे में स्वाभाविक ही है कि इससे किसी भी प्रकार के घोटाले की तुलना कमतर ही जान पड़ेगी । परंतु घोटालों के पिटारे मेंअभी और भी बहुत कुछ छुपा हुआ पड़ा है । ऐसे ही अन्य घोटाले पर पिछले ही महीने नजर पड़ी है । यह घोटाला राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (एनबीए) से संबंधित हे और देश के सर्वश्रेष्ठ अंकेक्षकों के लिए भी इसे उजागर कर पाना कठिन होगा ।
स्पेक्ट्रम के मामले में भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (सीएजी) का कहना है कि इस मामले में शासकीय खजाने को करीब १,७६,३७९ करोड़ रूपये का नुकसान हुआ है । परंतु क्या वह भारत के जैविक संसाधनों को होने वाली हानि का आकलन कर सकता है ? इससे देश ने जो कुछ खोया है उसकी क्षतिपूर्ति हो ही नहींसकती । जैव विविधता संरक्षण के संबंध में सीएजी की खोज पर्यावरणविदों को हताशा में डाल सकती है । इस संदर्भ में सीएजी ने पाया है कि एन.बी.ए. ने लापरवाही पूर्वक बिना व्यवस्थित निगरानी के व्यावसायिक प्रतिष्ठानों को जैव विविधता के उपयोग की अनुमति प्रदान कर दी । जबकि सन् २००३ में इस प्राधिकरण का गठन विशेष रूप से भारतीय जैव विविधता के नियमन संरक्षण और सुस्थिर इस्तेमाल के लिए किया गया था । इसके अलावा इसके गठन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण यह था कि इस संसाधनों से होन वाले लाभों का न्यायपूर्ण बंटवारा सुनिश्चित किया जा
सके ।
सीएजी का कहना है कि अपने गठन के ६ वर्ष पश्चात भी एनबीए जैव विविधता तक पहुंच एवं शोध के नतीजों के हस्तांतरण और बौधिक संपदा संबंधी महत्वपूर्ण नियमों को अधिसूचित नहीं कर पाया । इसकी गंभीरतम चूक यह है कि वह पहले से ही संकट में औषधीय वनस्पति की न तो सूची जारी कर पाया और न ही इनके संरक्षण के तौर तरीके ही तय कर पाया । इसके अलावा वह अब तक २८ राज्योंमें से केवल ७ राज्यों की संकट में पड़ी स्थानीय वनस्पतियां की ही पहचान कर पाया है ।
साथ ही वह जैविक संसाधनों के आंकड़ों का नागरिक जैव विविधता रजिस्टर भी तैयार नहीं कर पाया है जो कि जैविक संसाधनों की सुरक्षा और संरक्षण दोनों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है । सबसे ज्यादा चोट पहुँचाने वाली बात यह है कि उसके पास न तो भारत से बाहर इसके जैव संसाधनोंको लेकर बौद्धिक सम्पदा अधिकार के अंतर्गत पेटेंट को लेकर कोई जानकारी है और न ही भारत से बाहर ले जाए गए इन जैविक संसाधनों को लेकर ही कोई जानकारी है ।
सीएजी ने सिर्फ उतना ही सुनिश्चित किया है जितना कि वे स्वयं जानते हैं । एनबीए पर नजर रखने वाले पर्यावरण समुह लगातार चेताते रहे हैंकि प्राधिकरण की प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं है और उन्होंने बिना विधिसम्मत प्रक्रिया के कंपनियोंको भारतीय जैविक संसाधनों के इस्तेमाल की अनुमति देने पर भी प्रश्न खड़े किए हैं । कल्पवृक्ष पर्यावरण समूह की ओर से कांची कोहली एवं मशक्यूरा फ्रीडी एवं अंतराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन ग्रेन की ओर से शालिनी भूटानी द्वारा तैयार रिपोर्ट भारत में जैव विविधता अधिनियम के ६ वर्ष जिसे २००९की शुरूआत में जारी किया गया था, में एनबीए की कार्यप्रणाली में व्याप्त् गंभीर त्रुटियों की ओर इंगित किया गया
था । इस बात की शुरूआत तभी से हो गई थी जबकि भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के पूर्व वरिष्ठ वैज्ञानिक की अध्यक्षता में गठित एनबीए ने शोधकर्ताआें को प्रक्रियागत दस्तावेजों तक पहुंच प्रदान करने से इंकार कर दिया था ।
सन् २००७ में कोहली द्वारा सूचना का अधिकार कानून के अंतर्गत आवेदन करने के पश्चात ही शोधकर्ताआें की आंकड़ों तक पहुंच हो पाई । इस हेतु न केवल उन्हें आठ महीनों तक इंतजार करना पड़ा बल्कि इसके बावजूद उन्हें अंतत: आधी अधूरी जानकारी ही प्राप्त् हो पाई थी । इसके बाद उन्होंने केन्द्रीय सूचना आयोग में अर्जी लगाई जिन्होंने एनबीए को आदेश दिया कि वे शोधकर्ताआें द्वारा चाहे गए दस्तावेज उपलब्ध कराए । शोधकर्ताआें ने पाया कि प्राधिकरण की गतिविधियाँ इसलिए भी आश्चर्यजनक है क्योंकि विभिन्न स्तरों पर निर्णय लेने की प्रक्रिया के अंतर्गत नागरिक समितियों का गठन अनिवार्य है ।
सितम्बर २००८ तक के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार जैव संसाधनोंतक पहुंच के कुल के कुल ३१५ मामलोंको स्वीकृति प्रदान की गई थी जिसमें से १६१मामलों को केवल एक ही बैठक में स्वीकृति प्रदान कर दी गई थी । इनमें से २४६ को बौद्धिक सम्पदा अधिकार के अंतर्गत भी स्वीकृति प्राप्त् हो गई है । इस सबको एक ओर भी रख दें तो भी चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें से एक भी मामले में लाभ की हिस्सेदारी की बात सामने नहीं आई है तथा लाभ की पात्रता रखने वाले एक भी व्यक्ति की पहचान तक नहीं की गई है । जबकि कानून के अंतर्गत साफ तौर पर उल्लेखित है कि जैविक संसाधन समुदायों के हैं जो कि अनादिकाल से इन्हें सहेजते आए हैं । एनबीए ने न केवलइस पक्ष की अवहेलना ही की बल्कि उसने लाभ में हिस्सेदारी को लेकर कोई आचार संहिता तक नहीं बनाई ।
सीएजी की रिपोर्ट अत्यन्त सारगर्भित है । ओर उसने विदेशी व्यावसायिक उपक्रमोंके हाथों जैव विविधता को पहुंच रहे नुकसान के प्रति चिंता भी दर्शाई है । रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि जैव विविधता अधिनियम (२००२) एनबीए को अधिकृत करता है कि वह भारत से लिए गए जैव संसाधनोंया इन संसाधनों से संबंधित ज्ञान व जानकारी के संबंध में विदेशों में बौद्धिक सम्पदा अधिकार दिए जाने का विरोध करे ।
एनबीए ने नवम्बर २००५ में कानूनी विशेषज्ञ की नियुक्ति तो कर दी है लेकिन विवादास्पद बौद्धिक संपदा अधिकार प्रदान किए जाने के विरूद्ध कोई कारगर कदम नहीं उठाया । फरवरी २००६ में संसद को आवश्वासन दिए जाने के बावजूद प्राधिकरण ने भारत से बाहर आबंटित किए जा रहे बौद्धिक सम्पदा अधिकारों के संबंध में निगरानी सेल का भी अभी तक गठन नहीं किया है ।
यहां यह उल्लेख अप्रासंगिक नहीं होगा कि हाल ही में श्री गौतम ने एनबीए का कार्यभार छोड़कर पौध विविधता एवं किसान अधिकार प्राधिकरण के अध्यक्ष का पदभार ग्रहण कर लिया है ।
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