शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

प्रदेश चर्चा

अरूणाचल : विकास और आदिम संस्कृति
सुपर्णोलाहिड़ी

अरूणाचल में सैकड़ों की संख्या में प्रस्तावित जलविद्युत परियोजनाएं इस प्रदेश की आदिम संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था के नष्ट कर देंगी । इतना ही नहीं ये परियोजनाएं अंतत: विश्व के सर्वाधिक जैव विविधता वाले क्षेत्रों में से एक अरूणांचल को अपूरणीय पर्यावरणीय हानि भी पहुंचाएंगी ।
भारत के उत्तरपूर्वी भाग में स्थित अरूणांचल प्रदेश का इडु मिशमि समुदाय पवित्र नदी तलोह द्वारा सींची गई डिबांग घाटी और निचली डिबांग घाटी के अपने पेतृक गांवों में निवास करता है । प्रशासनिक दृष्टि से घाटी को दो जिलों में बाटा गया है जो कि पूर्वी हिमालय में ३०० मीटर ऊँची पहाडियों से लेकर ५००० मीटर की ऊँचाई तक फैली हुई हैं। बर्फीले पहाड़, स्वतंत्र प्रवाहित नदियां एवं झरने घने वन दुरूह तथा ऊबड-खाबड़ भू-भाग और नदियों के पठार इसकी सीमा और रूपरेखा को परिभाषित करते हैं ।
अपनी ही भूमि पर अल्पसंख्यक बने इडु आज भारत का सर्वाधिक खतरे में पड़ा समुदाय है जिसकी कुल जनसंख्या करीब १२००० है । अरूणांचाल प्रदेश एक आदिवासी बहुल राज्य है जो कि भूटान, चीन और म्यांमार के साथ अंतर्राष्ट्रीय सीमाएं साझा करता है । राज्य के कुल क्षेत्रफल (६७३५३ वर्ग कि.मी.) का ९१ प्रतिशत वनाच्छादित है । और इसमें डिबांग घाटी में राज्य का सर्वाधिक वन क्षेत्र है। जो कि ९३१७ वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है । इन वनों में से अधिकांश वन आदिवासी समुदायों के प्रभावशाली नियंत्रण में हैं और इन्हें आधिकारिक तौर पर अवर्गीकृत वनों के रूप में चिन्हित किया गया है । घाटी की बहुत की समृद्ध और विविधतापूर्ण परिस्थितिकी है, जिसमें उष्ण कटिबंधीय वन से लेकर उप पर्वत श्रंखला और पर्वतीय घास के मैदान भी शामिल हैं। इस क्षेत्र का ५० प्रतिशत से अधिक इलाका सघन वनों से आच्छादित है। दिबांग नदी के केचमेण्ट क्षेत्र में आई भूमि का ९८.८० प्रतिशत क्षेत्र वनों का ही है ।
इसी तरह डिबांग घाटी अपने में अदभुत जैव विविधता को समेटे हुए है । यहां पर प्राकृतिक पेड़-पौधों की दृष्टि से उष्ण कटिबंधीय वनस्पति से लेकर उत्तरध्रुवीय पहाड़ी वनस्पतियों की श्रंखला पाई जाती है, जैसे उष्ण कटिबंधीय चौड़े पत्ते वाले वृक्ष उप उष्ण कटिबंधीय चीड़, शीतोष्ण चौड़ी पत्तियों वाली वनस्पती, शीतोष्ण कोनिफर या शंकुवृक्ष, उप पर्वत श्रंखला की लकड़ी वाली
झाडियां, घांस के पहाड़ी मैदान(उत्तर धु्रवीय पहाड़ी) बांस की झाडियां एवं घास के
मैदान । यहां पर पाए जाने वाले १५०० प्रकार के फूलों के पौधे सिद्ध करते हैंयहां कितनी जबरदस्त वानस्पतिक प्रजातियों का उद्भव हुआ है ।
यहां के कुछ पौधे आदिम प्रजातियों के रूप में भी सूचीबद्ध हैं । यहां के पारम्परिक चिकित्सकों के पास अपने पर्यावरण का जबरदस्त ज्ञान हैं और इसीलिए नृजातीय जैविक समृद्धि का यहां सामाजिक आर्थिक महत्व भी हैं । अरूणांचल के किसी भी अन्य आदिवासी समुदाय की तरह ही डिबांग घाटी के इडु मिशमि को भी पारम्परिक स्वामित्व के एवं पहाड़ों, नदियों, झरनों और इनके वनों के प्रबंधन के अधिकार प्राप्त् हैं । वन विभाग का केवल डिबांग एवं मेहाओ वन्यजीव अभ्यारण्यों, देवपानी के सुरक्षित वनोंऔर निचली डिबांग घाटी के छोटे-छोटे हिस्सों पर ही पूर्ण अधिकार प्राप्त् हैं ।
उत्तर पूर्व के कुछ राज्यों में समुदाय /वंशों द्वारा अपने पारम्परिक कानूनों एवं रीति रिवाजों के माध्यम से वनों एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनोें पर नियंत्रण की असाधारणता संपत्ति एवं अधिकारों तक निश्चयात्मक पहुंच की सामाजिक अव्यवस्था की ओर भी इंगित करती है । संपत्ति के अधिकार की सामाजिक व्यवस्था अरूणांचल प्रदेश में इडु मिशमियों जैसे अन्य आदिवासी समुदायों के पारम्परिक आर्थिक एवं जीविका संबंधी अधिकारों की भी पुष्टि करती है ।
निचली डिबांग घाटी के पंचायत सदस्य जिणि पुलु बताते हैंहमारे पूर्वज तिब्बत से सियांग नदी के साथ-साथ आए एवं धीरे-धीरे डिबांग घाटी मेंबस गए और मेण्डा और पुलु वंश अन्य लिंग्गी मेकोला व मिठी वंशों के साथ आपसी सहमति से सामूहिक संपत्तियों को बांटते हुए उसकी सीमाआें को नदियों, पहाड़ों और वनों से चिन्हित करते हुए तलोह (इसे डिबांग भी कहा जाता है) के समतल मैदानों में बस
गए । इपराह मकोला का कहना है प्रत्येक वंश जिसमें उनका ग्रामीण समुदाय भी शामिल है, ने स्पष्ट तौर पर अपनी साझा संपत्तियों के क्षेत्र की स्पष्ट पहचान जिसमें झूम खेती की भूमि शिकार एवं मछली मारने के मैदान शामिल हैं, कर रखी है ।
इडु सांस्कृतिक एवं साहित्य सोसाइटी के सचिव डॉ.मिटी लिंग्गी ने जानकारी देते हुए कहा कि हमारे इडु गांव आत्मनिर्भर ग्राम राज्य की तरह होते हैं और हमारा ग्राम प्रमुख एक राजा की मानिंद होता
है । हम चावल, मोटे अनाज (मिलेट), कपास, मक्का और मिठे आलू उपजाते हैं और अपने वनों से इमारती लकड़ी, जलाऊ लकड़ी, केन, फल, मेवे और औषणीय पौधे प्राप्त् करते हैं । हमारे पास अपने मिथुनों के चरने के लिए घास के मैदान हैं। एक इडू जब भी किसी जानवर को मारता है या वनों से लकड़ी या पौधे प्राप्त् करता है तो वह ईश्वर की प्रार्थना करता है और उसे भोजन व जीविका उपलब्ध करवाने हेतु धन्यवाद भी देता है । हम हमारी संस्कृति, हमारे वनों, नदियों और भूमि से केवल उतना ही लेते हैं जितना कि हमें जिन्दा रहने के लिए आवश्यक होता है । वहीं इपराह जोर देते हुए कहते हैं, बड़ी संख्या में जानवरों को मारना और आवश्यकता से अधिक संसाधनों का इस्तेमाल इडुआेंमें निषिद्ध है । हमने हमारे पर्यावरण और पारिस्थितिकी को सुचारू बनाए रखने के लिए न केवल स्पष्ट नियम बना रखे हैं बल्कि इन्हें नियंत्रित रखने हेतु कठोर दंड के प्रावधान भी कर रखें हैं ।
डिबाग घाटी में प्रस्तावित बड़े बांधों के निर्माण के संदर्भ में जिबि पूछते हैं, हमारे वनों को विकसित होने में हजारों हजार वर्ष लगे हैं । हमारे पूर्वजों ने हमारी धरती के वनों, जानवरों और इस समृद्ध जैव विविधता को सहेजा है । हम इन तथाकथित विकास योजनाआें जिनका जीवन महज से २० से ५० वर्ष का ही है, के लिए अपनी भूमि व वनों को नष्ट करने की अनुमति कैसे दे सकते हैं ?
इरपाह याद दिलाते हुए कहते हैं कि वन विभाग एक ओर तो हमें वन्यजीव, वन एवं जानवरों को संरक्षित रखने के लिए प्रवचन देता है वहीं दूसरी ओर वह हमें कृषि व्यवसाय के नाम पर हमारी ही भूमि पर पौधारोपण और फलोंके बाग लगाने को प्रोत्साहित कर रहा है । हमारे लोग ऐसी कृत्रिम खाद और कीटनाशकोंका प्रयोग करना सीख रहे हैं जिनके परिणामों एवं प्रभावों के बारे में वे जागरूक ही नहीं हैं । मैं इन व्यावसायिक खादों के इस्तेमाल क्के एकदम खिलाफ हूं क्योंकि ये हमारी भूमि को नष्ट कर देंगे । हम जो भी उगाते हैं वह जैविक होता है और हमें वन विभाग को इन्कार करने का पूरा अधिकार है क्योंकि यह भूमि हमारी है । साथ यह केवल हम ही तय करेंगे कि हम हमारी जमीन से क्या उपजाएं और हम हमारे वनों और नदियों का क्या इस्तेमाल करें । एक आदरणीय इडु बुजुर्ग इंगोरी चिंतातुर होते हुए बताते हैं कि ये बड़ी विकास परियोजनाएं और पौधारोपण की योजनाएं हमसे हमारी जमीने ले लेंगी ओर हमारे वनों को नष्ट कर देंगी । हम इडु पूर्णतया स्वतंत्र हैं और हम हमारी पूरी शक्ति से बाहरी व्यक्तियों के प्रभाव, वन विभाग के मशीनीकरण और हमारे संसाधनोंके व्यावसायिकरण का विरोध करेंगे । अन्यथा हमारी भावी पीढ़ियां जिंदा ही नहीं रह
सकती । वनविभाग के कर्मचारी, बाहरी कंपनियां और व्यापारी हमारी भूमि को नष्ट कर देंगे और हमारे लोगों को दरिद्र बनाकर अपना फायदा कमाएंगे ।
***

कोई टिप्पणी नहीं: