शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

जनजीवन


फूटपाथोंपर बीतती जिंदगी
प्रशान्त कुमार दुबे/रोली शिवहरे

खून जमा देने वाली ठंड में सड़क पर रात बिताने की त्रासदी भुक्तभोगी ही जान सकता है । सवोच्च् न्यायालय के आदेश के बावजूद लाखों लोगों का सड़कों पर जीवन बिताना क्या संविधान की मूल भावना का उल्लंघन नहीं है जो कि एक भारतीय नागरिक जीवन की ग्यारंटी देती है ।
मशहूर शायर कैफी आजमीने कहा है - आज की रात फूटपाथ पर नींद ना आयेगी, आज की रात बहुत सर्द हवा चलती है । जमा देने वाली इस सर्दी में भी देश के लाखों लोग सड़कों पर रह रहे हैं । आर्थिक उदारीकरण के बाद से तो यह संख्या उत्तरोत्तर बढ़ी ही है और विगत पांच वर्षोंा में इस संख्या में अत्यधिक वृद्धि हुई
है । अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों को माने तो विकासशील देशों की २ प्रतिशत जनसंख्या सड़कों पर रहती हैं यानी हमारे देश में लगभग ५७ लाख लोग बेघरबार हैं और इनमें से अधिकांश शहरों की ओर पलायन कर गए हैं । इसके पीछे कई कारण हैं उनमें से एक तो यही कि विगत पांच वर्षोंा से सूखा पड़ रहा है ? रोजगार गारंटी होने ेके बावजूद सरकारें रोजगार देने में असफल रही हैं ।
ये लोग शहर में सबसे वंचित तबके के रूप में जीवनयापन कर रहे हैं । न्यूनतम मजदूरी से भी कम मजदूरी में काम करना, ना स्वच्छ पेयजल और ना ही स्वास्थ्य की अन्य सुविधाएं, प्रतिदिन पुलिस की पिटाई तथा प्रताड़ना और इससे भी हटकर सरकारी आश्रयगृहों की अनुपलब्धता के चलते सड़कों पर खुले आसमान तले रहना और सोना इनकी नियति बन गई है । यह उनके जीवन के अधिकार के अंतर्गत आश्रय के अधिकार, स्वास्थ्य के अधिकार और शोषण के विरूद्ध उनके अधिकारों का हनन है ।
शहरों में असंगठित क्षेत्र में मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी भी तय नहीं है जिसके चलते ना तो वे आश्रय के संबंध में ही अपनी जरूरतें पूरी कर पाते हैं और ना ही उन्हें पर्याप्त् और बेहतर आहार ही मिल पाता है । इनके लिये की जाने वाली स्वास्थ्य सुविधाएं भी ताक पर रख दी जाती हैं । पिछले माह में मध्यप्रदेश में १२ शहरी बेघरबार लोगों की ठंड लगने से मौत हो गई, जिनमें छतरपुर जिले के चार बच्चे भी शामिल हैं ।
भोजन का अधिकार अभियान इसे केवलबेघरबारी का मुद्दा नहीं मानता बल्कि उसका तर्क है कि सर्दियों के दिनों में तापमान में कमी होने से लोगों की खाद्य जरूरतें बढ़ जाती हैं । इस बात को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने तकनीकी रूप से
स्थापित करते हुए कहा है कि शीतकाल में प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत तब और बढ़ जाती है जबकि उसके पास अपर्याप्त् आश्रय स्थल और कम गर्म कपड़े हों । उनका कहना है कि प्रति ५ डिग्री तापमान कम होने पर प्रति व्यक्ति १०० कैलोरी की अतिरिक्त आवश्यकता होती है ।
माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी अभियान की इस दलील को स्वीकारते हुए १० फरवरी २०१० को यह आदेश दिया था कि सरकारें तत्काल प्रभाव से ६ माह के भीतर समस्त शहरी क्षेत्रों में आश्रयहीन लोगों की अनिवार्य रूप से पहचान करें । इसके साथ न्यायालय ने अपने दूसरे आदेश में कहा है कि जेएनएनयूआरएम के तहत चिन्हित शहरों में प्रति १ लाख की जनसंख्या पर १०० लोगों के लिये वर्ष भर २४ घंटे के सुविधायुक्त आश्रयगृहों की व्यवस्था सरकार करें । इन आश्रयगृहों में से भी ३० प्रतिशत आश्रयगृह विशेष आश्रयगृह होगे जो कि महिलाआें वृद्धों और अशक्त व्यक्तियों की देखभाल हेतु होंगे ।
इस आदेश के प्रत्युत्तर में मई २०१० में मध्यप्रदेश सरकार ने माननीय उच्चतम न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत अपने शपथपत्र में कहा कि समस्त शहरी क्षेत्रों में शपथपत्र दाखिल करने के ६ माह के भीतर सर्वेक्षण कर लिया जायेगा । इस हलनामे में सरकार ने यह भी कहा कि वह महिला और पुरूषांे के लिये पृथक-पृथक आश्रयगृहों की व्यवस्था करने को तैयार है तथा चिन्हित शहरों में जनसंख्या अनुसार व्यवस्था करते हुए ५७ नवीन आश्रयगृहों का निर्माण
करेगी । परंतु सरकार का कहना है कि अभी तक ४६ आश्रयगृह बने ही नहीं हैं । ये आश्रयगृह राशि स्वीकृत होने के एक वर्ष के भीतर बनाए जा सकेंगे । लेकिन तब तक ये लोग कहां रहेंगे इसका जवाब किसी के पास नहीं हैं ? वैसे मध्यप्रदेश में बड़े शहरों की संख्या ६० है ।
भोजन के अधिकार अभियान की टीम द्वारा भोपाल शहर में की गई जमीनी पड़ताल में सामने आया कि यहां केवल४ आश्रयगृह संचालित हैं और उनकी अधिकतम क्षमता २०० व्यक्तियों के आसपास ही है । भोपाल में संचालित आश्रयगृहों में से एक भी वर्तमान में महिलाआें, वृद्धों और अपंग व्यक्तियों की देखभाल के लिये नहीं है तथा ये आश्रय गृह रात ११ बजे बंद कर दिये जाते हैं ।
एक विशेष और चिंताजनक बात यह है कि जिस भी व्यक्ति के पास अपना पहचान पत्र होगा वही इन आश्रयगृहों में प्रवेश पायेगा अन्यथा उसे पुलिस थाने में अपनी पहचान बतानी होगी । यदि पुलिस संतुष्ट होगी तो ही उन्हें प्रवेश मिलेगा । इस तरह की व्यवस्थाआें से दिक्कत यह है कि
अधिकांश लोग अपनी पहचान बता पाने में अक्षम होते हैं और वे बाहर सोने को मजबूर होते हैं । इस बात का खुलासा तब हुआ जबकि टीम ने प्रत्येक रैनबसेरे के सामने लोगोें को सोते हुये पाया जबकि रैनबसेरे में जगह खाली थी । बेघरबारों का कहना है कि सरकार ने गावों में काम तो दिया नहीं तो हम शहर आए और अब शहर में पहचान नहीं तो चैन की नींद सो नहीं सकते । लोग सड़कों पर एक समूह में नहीं सोते हैं क्योंकि ऐसा करने पर पुलिस द्वारा उन्हें प्रताड़ित करने का खतरा रहता है ।
जो लोग बाहर सो रहे थे उनको लेकर नगर निगम के कर्मचारियों का कहना था कि ये लोग तो व्यवसायी हैं, केवल कम्बल पाने के लिये बाहर सोते हैं और रात्रि में किसी संस्था द्वारा कंबलवितरित किये जाने पर यह लोग सुबह बेच देते हैं जबकि लोगों का कहना था कि भुगतान नहीं कर सकते हैं जिसके चलते हम अंदर नहीं सो पा रहे हैं और हमें पता ही नहीं कि रैनबसेरा जैसी भी कोई चीज है ।
उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि यह व्यवस्था अस्थाई है लेकिन सरकारें सस्ती दरों पर स्थायी आवास मुहैया कराने में विफल रही हैं । अब यह समस्या विकराल रूप ले रही हैं और साथ ही साथ यह स्थाई सा रूप लेती जा रही है । सरकार की ११वीं पंचवर्षीय योजना की रिपोर्ट को मानें तो
सस्ती दरों पर आवास उपलब्ध कराने की योजना ९८ प्रतिशत से पिछड़ी हैं । जबकि अभी नवीन निर्माण में ९५ प्रतिशत निर्माण एमआईजी और एचआईजी के लिये हो रहा है । सरकार का कहना है कि नवीन निर्माण इसलिये ठप्प पड़ा है क्योंकि जमीनें उपलब्ध नहीं हैं । जबकि सरकार बिल्डरों और भूमाफियाआें को जमीनें दे रही है ।
शहरों में विकास के अनुपात में गरीबी भी बढ़ी है । १९७१में जहां गरीबी १७.७ प्रतिशत थी वह २००५ में बढ़कर २६.२ प्रतिशत हो गई । यदि शहरी विकास पर बजट की बातें करें तो भी वर्ष २००८-०९ में सरकार के पास ८५९ करोड़ रूपयों का बजट था जिसमें से कि ६७७ करोड़ रूपये ही खर्च हुआ । ०९-१०में यह बजट घटकर ८५८ करोड़ हुआ तो खर्च करने की दर और घट गई और इस वर्ष केवल५८३ करोड़ रूपया ही खर्च हुआ । १९५०-५१ में शहरी क्षेत्रों का जीडीपी में योगदान २९ प्रतिशत था जो कि अब बढ़कर ६२ प्रतिशत हो गया है और २०२१ में इसके ७५ प्रतिशत तक जाने का अनुमान है ।
जो आश्रयगृह हैं कि उनमें से किसी में भी किसी भी तरह के परामर्शदाता की कोई भी व्यवस्था नहीं है जबकि यह अनिवार्य रूप से होना चाहिये । यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि माननीय उच्चतम न्यायालय के आदेशों के बाद भी देश भर में शहरी बेघरबार लोग सड़कों पर खुले में सोने को मजबूर हैं ।
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