हिरोशिमा अभी भी जल रहा है
चिन्मय मिश्र
जापान पर ६ अगस्त १९४५ को परमाणु बम फेंककर अमेरिका ने दूसरे विश्व युद्ध को समाप्त् मान लिया था । इसके बाद वैज्ञानिकों ने इस विध्वंसक ऊर्जा को वरदान में बदलने की ठान ली और परमाणु विद्युत संयंत्र प्रचलन में आ गए ।
इससे पहले द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए निर्मित खतरनाक रसायनों की खपत हेतु खेती को माध्यम बनाया गया और आज खेती से प्रयोग में आने वाले तकरीबन सभी खतरनाक कीटनाशक इन रसायनों के सहायक उत्पाद ही है । भोपाल के यूनियन कार्बाइड मे हुई दुर्घटना को हम दुनिया की भीषणतम औद्योगिक दुर्घटना के रूप में पुकारते है परंतु यह कमोवेश द्वितीय विश्वयुद्ध की निरंतरता का ही परिणाम है, जिसने सर्वप्रथम भारत के भोपाल, में उसके बाद रूस के चेरनोबिल में और अब जापान के फुकुशिमा में अपनी महती उपस्थिति दर्ज कराई है ।
मीडिया में अधिकांशत: जापान के दाईची स्थित फुकुशिमा परमाणु संयंत्र की चर्चा हो रही है। परंतु वास्तविकता यह है कि जापान के उत्तरपूर्व में स्थित दो अन्य संयंत्रों ओनागावा और तोकाई में भी ठीक इसी समय समस्याएं सामने आई थी परंतु समय रहते उन्हें संभल लिया गया । मगर फुक ुशिमा में स्थितियां बेकाबू होती चली गयी । यहां इस बात पर भी गौर करना आवश्यक है कि जापान के परमाणु सुरक्षा प्रबंध दुनिया में सर्वश्रेष्ठ माने जाते है । यह बात फुकुशिमा परमाणु संयंत्र के बारे में भी कहीं जा सकती है । यहां यदि एक सुरक्षा उपाय असफल होता है तो दूसरा स्वमेव प्रारंभ हो जाता है। भूकंप का आभास होते ही यहां के परमाणु संयंत्रों ने कार्य करना बंद कर दिया था और ठीक उसी समय डीजल जनरेटरों ने संयंत्र को ठंडा रखने की प्रक्रिया भी प्रारंभ कर दी थी । परंतु एक घंटे बाद नामालूम कारणों से इन जनरेटरों ने कार्य करना बंद कर दिया और स्थितियां बेकाबू हो गई ।
गौरतलब है कि इस परमाणु संयंत्र का डिजाइन अमेरिका की जनरल इलेक्ट्रिक्स ने किया था भारत के मुबंई स्थित तारापुर संयंत्र का डिजाइन भी इसी कंपनी ने बनाया है । साथ ही इन दोनों संयंत्रों में एक समानता यह भी है कि दोनों संयंत्रों के कार्यकाल की अवधि १० वर्ष बढ़ाई गई है ।
२६ अप्रैल १९८६ को चेरेनोबिल मेु हुई दुर्घटना के बाद इस हेतु रूस की लापरवाह नौकरशाही को जिम्मेदार ठहराया जा रहा था । लेकिन जापान के ऊपर तो ऐसा कोई आरोप नहीं है ।
इससे यह बात एकदम साफ हो जाती है कि प्राकृतिक आपदाआें से होने वाली क्षति का पूर्वानुमान लगा पाना असंभव है और इस आपदाआें से कोई भी सुरक्षित नहीं है यहां तक कि दुनिया की सर्वाधिक सुरक्षित परमाणु तकनीक भी । चेरनोबिल में हुई दुर्घटना के करीब १५ दिन बाद १० मई १९८६ के आसपास भारत में कल्पक्कम और कुंदनकुलम परमाणु संयंत्र की भौतिक स्वास्थ्य प्रयोगशालाआें में अतिरिक्त परमाणु विकिरण (रेडियो एक्टिव आयोडीन) के तत्व पाए गए थे । वहीं फुकुशिमा परमाणु संयंत्र से निकली रेडियो धर्मिता ८०० कि.मी. दूर रूस स्थित ब्लादीवोस्तक में पहुंच चुकी है । रेडियोधर्मिता का वहां पहुंचना दुनिया की एक सैन्य महाशक्ति रूस और आर्थिक महाशक्ति जापान जो कि दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, को चेता रहा है कि अब मानवता को बचाने के लिए सैन्य और आर्थिक महाशक्ति बनने के अलावा कुछ और ही होना पडेगा ।
मगर अमेरिका अभी भी अपने पत्ते नहीं खोल रहा है । वैसे अमेरिका हमेशा से सेफ बना रहता है । जापान की सुरक्षा का जिम्मा भी उसी ने ले रखा है । परंतु वह जानता है की दुर्घटना तो आकस्मिक ही होती है । इसीलिए उसने अपने सातवें बेडे को जापान की समुद्री सीमा से १०० मील दूर स्थापित कर रखा है क्योंकि इन परमाणु संयंत्रों में दुर्घटना का सर्वाधिक असर १८ से ३२ मील के दायरे में होता है । इस सातवें बेडे में ५०-६० समुद्री जहाज, ३५० हवाई जहाज और ६०, ००० सैनिक है । जैसे ही उन्हें दुर्घटना की खबर मिली वे हवा की उल्टी दिशा में चल पड़े और उन पर आश्रित जापान हक्का- बक्का खड़ा रह गया । इतना ही नहीं इस बीच हेलीकाप्टर से दौरा कर आए विशेषज्ञों ने फरमाया कि परमाणु विकिरण इतना कम है कि उसे साबुन और पानी से दूर किया जा सकता है । याद करिए कुछ ऐसी ही सलाह भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड में हुई दुर्घटना के बाद भी दी गई थी।
निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले परमाणु ऊर्जा के कुछ अन्य तथ्यों पर भी गौर करना आवश्यक है । मूल यूरेनियम विखण्डन की प्रक्रिया से गुजरने के पश्चात एक अरब गुना अधिक रेडियोधर्मी (रेडियो एक्टिव) हो जाता है और एक हजार मेगावाट वाले परमाणु विद्युतगृह के पर हिरोशिमा पर फेंके गए बम जैसे १००० बमों जितना भयानक विस्फोट होगा।
परमाणु विद्युत उत्पादन में प्रयुक्त होने वाली छड़ें इतनी गरम होती है कि उपयोग के बाद उन्हेंठंडा होने में ३० से ६० वर्षो का समय लगता है और इस दौरान उन्हें बहुत ही मजबूत इमारत में रखकर उन पर लगातार पानी और हवा डालते रहना जरूरी है ।
विकिरण के चपेट में आने से बच्चें में ३०० दिन के बाद शारीरिक विकृति, रक्त व थायराइड के कैंसर सामने आता है । वयस्कों में २ से ५ वर्ष के बाद इसका पता चलता है । साथ ही ह्दयरोग व अन्य रोग भी बड़ी मात्रा में लोगों को जकड़ लेते है । कार्यरत संयंत्र को ठंडा बनाए रखने के लिए प्रति मिनट १० लाख गैलन पानी की आवश्यकता पड़ती है । पानी की आपूर्ति में एक मिनट से भी कम की बाधा आने पर इसका तापमान ५००० डिग्री फेरनहाइट पर पहुंच जाता है । जिससे सिर्फ सीमेंट कांक्रीट का ढांचा ही नहीं बल्कि उसके नीचे की धरती भी पिघल जाती है । यानि आपके पास संभलने के लिए एक मिनट से भी कम का समय है । इससे इसकी मारक क्षमता का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है । और इनके समुद्री किनारे स्थापित करने के औचित्य को भी सिद्ध किया जा सकता है ।
परंतु भारत में इन्हें न केवल समुद्र किनारे बल्कि मध्य में भी निर्मित किया जा रहा है । और पानी की घटती उपलब्धता भारत में किस संयंत्र को कब फुकुशिमा बना देगी कहा नहीं जा सकता । वहीं यदि समुद्र तटों पर वर्तमान में कार्यरत व प्रस्तावित परमाणु संयंत्रों पर गौर करें तो स्थिति की नजाकत को आसानी से समझा जा सकता है । भारत में हिंद महासागर, अरब सागर और प्रशंात महासागर आकर मिलते है । ध्यान दें तो हम पाएगें कि हिंद महासागर के क्षेत्र में तमिलनाडु के कुंदन कुलम, कर्नाटक के कै गा महाराष्ट्र के जैतापुर के और तारापुर में प्रशांत महासागर के नजदीक तमिलनाडु में कलपक्कम, आंध्रप्रदेश में कोवादा और पश्चिम बंगाल में हरिपुर में तथा अरब सागर के समीप गुजरात में मीठी विर्दी और काकरापारा में इन संयंत्रों की स्थापना या तो हो चुकी है या प्रस्तावित है । इस प्रकार भारत का कोई भी हिस्सा अब पूर्ण रूप से सुरक्षित नहीं बचा है ।
पीटर हेडफील्ड ने सन् १९९१ में एक पुस्तक लिखी थी । साठ सेकण्ड जो कि दुनिया बदल देगें । इस पुस्तक में उन्होनें टोक्यों के आसपास आए भीषण भूकंप के बाद दुनियाभर में आने वाले परिवर्तनों का पूर्वानुमान लगाते हुए लिखा था इससे बाकी का विश्व जापान से भी ज्यादा बुरी तरह से प्रभावित होगा । आज २० वर्ष पश्चात उनकी बात शब्दश: सही साबित हो रही है । भारत जो कि पूर्व में कैगा और नरोरा परमाणु बिजलीघरों में छोटी दुर्घटनाओ का शिकार हो चुका है जापाना में हुई दुर्घटना से सबक लेने को तैयार नही है । मंत्रालयों की आपसी खींचतान और प्रधानमंत्री के व्यक्तिगत हठ के आगे पूरा भारत नतमस्तक सा नजर आ रहा है ।
अमेरिका से हो रहे परमाणु समझौते के समय अनेक संगठनोंऔर व्यक्तियों ने परमाणु ऊर्जा के खतरों से आगाह भी किया था लेकिन हमें यह मानने पर मजबूर कर दिया गया कि परमाणु ऊर्जा ही एकमात्र विकल्प है । उत्तरपूर्वी जापान में आई सुनामी और भूकम्प को महज एक दुर्घटना की तरह लेने की बात नहीं बनेगी । इसे एक चेतावनी के रूप में लेना होगा, और सारी विध्वंसक तकनीकों के इस्तेमाल पर पुनर्विचार करना होगा । इसके लिए आवश्यक है कि हम अपनी जीवनशैली और उपभोगवादी प्रवत्ति में परिवर्तन लाएं । जापान में हुई परमाणु दुर्घटना के बाद जापान सरकार की पहली सरकारी सलाह यह थी कि एयर कंडीशनर न चालये जाएं । फैज अहमद फैज ने लिखा है
हर एक दौर में, हर जमाने में हम
जहर पीते रहे, गीत गाते रहे
जान देते रहे, जिन्दगी के लिए ।
वहीं जापानी कवि ताकीनावा भी अपनी ही हड्डी बनने बात करते है । महात्मा गांधी ने बहुत पहले साध्य के लिए साधन की पवित्रता का सिद्धांत प्रतिपादित कर दिया था । अब यह हमारे ऊपर है कि हम उस बारे में क्या सोचते है । परंतु हम अपने बच्चें के भविष्य के बारे में तो अवश्य ही सोचते है । तो सोचिए कि वे कैसे एक सुरक्षित, शांत व सहज जीवन जी सकेंगे । ***
1 टिप्पणी:
nice sharing
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