पहुंच से दूर होता खाद्यान्न
सचिन कुमार जैन
केन्द्रीय वित्तमंत्री के आर्थिक सलाहाकार कार्तिक बसु ने जोरदार तारीके से खुदरा व्यापार मेें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की वकालत की है । इस विचार को क्या सरकार का मन्तव्य नहीं समझा जाना चाहिए ? खाद्यान्न की बढती कीमतें इसे आम आदमी की पहुंच से दूर कर रही है और दूसरी तरफ फुटकर खुदरा व्यवसाय का संभाव्य विनाश रोजगार का संकट भी पैदा कर सकता है ।
खाद्य सुरक्षा की व्यवस्था मे जितना महत्वपूर्ण उत्पादन तंत्र है उतना ही महत्वपूर्ण है बाजार का तंत्र । भारत में २.९ करोड लोग भोजन और भोजन से संबंधित सामग्री का व्यापार करते है । वे केवललाभ उद्देश्य से ये व्यापार नही करते हैं बल्कि खाद्य सुरक्षा की परिभाषा के महत्वपूर्ण हिस्से पहुंच को सुनिश्चित करने में उनकी केन्द्रीय भूमिका रहती है । अब इस बाजार पर प्रमुख भोजन व्यापार कम्पनियां अपना मिला-जुला एकाधिकार चाहती है । इनमें वालमार्ट, रिलायंस, भारती, ग्लेक्सो स्मिथ कंज्यूमर हेल्थ केयर, नेस्ले, केविनकरे, फील्ड फ्रे्रश फूड, डेलमोेंटे, बुहलर इंडिया, पेप्सीको, और कोका कोला शामिल हैैं ।
बाजार विश्लेषण करने वाली एक कम्पनी आर.एन.सी.ओ.एस. की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भोजन का बाजार भारत मेें ७.५ प्रतिशत की दर से हर साल बढ. रहा है और वर्ष २०१३ मे यह ३३० अरब डालर के बराबर होगा । एपीडा (एग्रीकल्चयरल एण्ड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलमेन्ट कार्पोेरेशन अथारिटी) के मुताबिक वर्ष २०१४ में भारत से २२ अरब डालर के कृषि उत्पाद नि र्ात हो सकते है । जबकि वर्ष २००९-१० मे फूलों, फलों, सब्जियों, पशु उत्पाद प्रोसेस्ड फूड और बारीक अनाज का निर्यात ७३४.७० करोड. डॉलर के बराबर हुआ । अब सरकार खाद्य प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) के जरिये दूसरी हरित क्रांति लाने की प्रक्रिया में है । इस पर डेढ. लाख करोड. रूपये खर्च किये जायेंगे।
इस हरित क्रांति के केन्द्र में खेत और किसान नहीं बल्कि प्राकृतिक संसाधनों व उत्पादन तंत्र का नियंत्रण बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सौंपना है । तत्कालीन केन्द्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्री सुबोध कांत सहाय के मुताबिक भारत सरकार इसमें अगले ५ साल में २१.९ अरब डॉलर का निवेश करेगी । इस निवेश का मकसद होगा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और वित्तीय संस्थानों के लिये अनुकूल माहौल तैयार करना । बाजार के विश्लेषकोंका मानना है कि खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र का हिस्सा ६ प्रतिशत से २० प्रतिशत होने की पूरी संभावनाएं हैं और दुनिया के प्रसंस्करण खाद्यान्न बाजार में भारत की हिस्सेदारी १.५ प्रतिशत से बढकर ३ प्रतिशत हो जायेगी ।
इसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढकर २६.४४ करोड डॉलर का हो गया है । केवल ८ कम्पनियां (केविनकरे, नेस्ले, ग्लेक्सो, यम! रेस्टोरण्ट्स इंडिया, फ्रील फ्रेश फूड, बहलर इण्डिया, पेप्सी और कोकोकोला) ही अगले दो सालों में १२० करोड डॉलर का निवेश खाने-पीने का सामान बनाने वाले उद्योग में करने वाली हैं । इन्हें तमाम रियायतों के साथ ही पहले ५ वर्षो तक उनके पूरे फायदे पर १०० फीसदी आयकर में छूट और अगले पांच वर्षो तक २५ फीसदी छूट मिलेगी । एक्साइज ड्यूटी भी आधी कर दी गई है यानी सरकार के बजट से कंपनियों का फायदा तय किया गया है, परन्तु किसान की सारी छूटें समाप्त् कर दी गई हैं ।
वर्ष २००५ में कम्पनियों को किसानों से सीधे अनाज खरीदने की अनुमति देने का परिणाम यह हुआ कि अपनी ही जरूरतें पूरी करने के लिए सरकार को दो गुना दामों पर ५३ लाख टन अनाज आस्ट्रेलिया, कनाडा और यूक्रेन से खरीदना पडा । पिछले ४ वर्षो में अनाज की खुले बाजार में कीमतें ७० से १२० प्रतिशत तक बढीं पर सरकार ने किसानों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य में महज २० प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की है । उन बढ़ी हुई कीमतों का फायदा दलाल और ट्रेडर उठा रहे हैं ।
सरकार को अनाज की कम खरीद करना पड़े इसलिये गरीबी की रेखा को छोटा किया गया ताकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली का दायरा और छोटा हो जाए । यह इसलिये भी किया गया ताकि कम्पनियों को किसानों से मनमानी कीमत पर अनाज खरीदने का मौका मिल सके । इस अनाज का उपयोग निर्यात और प्रसंस्करण दोनों के लिए भी किया जा रहा है । गेहूं से रोटी नहीं बल्कि डबलरोटी, नूडल्स, बिस्किट और डिब्बा बंद खाद्य पदार्थ बनाने के लिये उपयोग किया जाना प्राथमिक बना दिया गया है । लगभग १० लाख हेक्टेयर सबसे उपजाऊ जमीन पर फूल और ऐसे फल उगाये जा रहे है जिनसे रस, शराब और विलासिता के पेय बनते है ।
मध्यप्रदेश में तीन कम्पनियाँ अघोषित रूप से अनुबंध की खेती करके चिप्स के लिये आलू की और चटनी के लिये टमाटर-हरीमिर्च की खेती करवा रही हैैं । इससे खेती की विविधता खत्म हुई है । आदिवासी बहुल झाबुआ मे तो इसे ऐसे प्रोत्साहित किया गया है कि वहां टमाटर के लिये एक एकड खेत मेें ६०० से ८०० किलो रासायनिक ऊर्वरको को उपयोग होने लगा और अब मिट्टी की उर्वरता लगभग पूरी तरह से खत्म हो चुकी है । सब्सिडी कम करने की नीति के तहत अब यूरिया, डीएपी पर दी जाने वाली रियायत भी खत्म हो चुकी है । इससे गेहूं की उत्पादन लागत अब लगभग १६५० रूपये पर पहुंच गई है परन्तु भारत सरकार ने इस वर्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया है ११२० रूपये । किसान के लिये दालोें का समर्थन मूल्य है ३२ रूपये पर बाजार मे दालो की कीमत है ६० रूपये से ९० रूपये । क्या सरकार खुद किसानो की आत्महत्या का कारण रही है ।
खेती के विपणन व प्रसंस्करण पर कब्जा करने के बाद इन कंपनियोें ने फसल बोने पर भी अधिकार जमा लिया है । जिससे किसान न तो यह तय कर पा रहा है कि उसे क्या पैदा करना है न ही उसे यह स्पष्ट हो रहा है कि सरकार उसे क्या संरक्षण देगी । अनेक समूह ५१० सुपर मार्केट और माल्स की श्रृखंला खड.ी करने वाले हैैं । गरीब लोगों को दिल्ली, बैगलूरू, कोलकता, मुम्बई आदि मे रहने के लिये कुछ वर्गमीटर जमीन नहीं मिल पा रही है परन्तु नाईट फ्रेक इण्डिया की रिपोर्ट इण्डिया आर्गनाइज्सड रिटेल मार्केट २०१० के मुताबिक अकेले मुम्बई मेें २०१० से २०१२ के दौरान ५.५ करोड. वर्गफीट स्थान फुटकर व्यापार के लिये कम्पनियोें के लिये उपलब्ध होगा । यह जगह तो झुग्गियोें और फुटपाथ पर काम करने वालो को विस्थापित करके ही आएगी ?
इन बाजारों से फुटकर बाजार को संचालित करने वालों के सामने जीविका का संकट खडा़ हो गया है । इस व्यवस्था के जरिये बडे समूह अब यह तय करने लगे है कि उपभोक्क्ता क्या खायेंगे और क्या पियेंगे । इस सुनियोजित व्यापारिक षडयंत्र से किसान और समाज दोनों को ही लाचारी महसूस हो रही है ।
खाद्य सुरक्षा की व्यवस्था मे जितना महत्वपूर्ण उत्पादन तंत्र है उतना ही महत्वपूर्ण है बाजार का तंत्र । भारत में २.९ करोड लोग भोजन और भोजन से संबंधित सामग्री का व्यापार करते है । वे केवललाभ उद्देश्य से ये व्यापार नही करते हैं बल्कि खाद्य सुरक्षा की परिभाषा के महत्वपूर्ण हिस्से पहुंच को सुनिश्चित करने में उनकी केन्द्रीय भूमिका रहती है । अब इस बाजार पर प्रमुख भोजन व्यापार कम्पनियां अपना मिला-जुला एकाधिकार चाहती है । इनमें वालमार्ट, रिलायंस, भारती, ग्लेक्सो स्मिथ कंज्यूमर हेल्थ केयर, नेस्ले, केविनकरे, फील्ड फ्रे्रश फूड, डेलमोेंटे, बुहलर इंडिया, पेप्सीको, और कोका कोला शामिल हैैं ।
बाजार विश्लेषण करने वाली एक कम्पनी आर.एन.सी.ओ.एस. की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भोजन का बाजार भारत मेें ७.५ प्रतिशत की दर से हर साल बढ. रहा है और वर्ष २०१३ मे यह ३३० अरब डालर के बराबर होगा । एपीडा (एग्रीकल्चयरल एण्ड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलमेन्ट कार्पोेरेशन अथारिटी) के मुताबिक वर्ष २०१४ में भारत से २२ अरब डालर के कृषि उत्पाद नि र्ात हो सकते है । जबकि वर्ष २००९-१० मे फूलों, फलों, सब्जियों, पशु उत्पाद प्रोसेस्ड फूड और बारीक अनाज का निर्यात ७३४.७० करोड. डॉलर के बराबर हुआ । अब सरकार खाद्य प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) के जरिये दूसरी हरित क्रांति लाने की प्रक्रिया में है । इस पर डेढ. लाख करोड. रूपये खर्च किये जायेंगे।
इस हरित क्रांति के केन्द्र में खेत और किसान नहीं बल्कि प्राकृतिक संसाधनों व उत्पादन तंत्र का नियंत्रण बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को सौंपना है । तत्कालीन केन्द्रीय खाद्य प्रसंस्करण मंत्री सुबोध कांत सहाय के मुताबिक भारत सरकार इसमें अगले ५ साल में २१.९ अरब डॉलर का निवेश करेगी । इस निवेश का मकसद होगा बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और वित्तीय संस्थानों के लिये अनुकूल माहौल तैयार करना । बाजार के विश्लेषकोंका मानना है कि खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र का हिस्सा ६ प्रतिशत से २० प्रतिशत होने की पूरी संभावनाएं हैं और दुनिया के प्रसंस्करण खाद्यान्न बाजार में भारत की हिस्सेदारी १.५ प्रतिशत से बढकर ३ प्रतिशत हो जायेगी ।
इसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढकर २६.४४ करोड डॉलर का हो गया है । केवल ८ कम्पनियां (केविनकरे, नेस्ले, ग्लेक्सो, यम! रेस्टोरण्ट्स इंडिया, फ्रील फ्रेश फूड, बहलर इण्डिया, पेप्सी और कोकोकोला) ही अगले दो सालों में १२० करोड डॉलर का निवेश खाने-पीने का सामान बनाने वाले उद्योग में करने वाली हैं । इन्हें तमाम रियायतों के साथ ही पहले ५ वर्षो तक उनके पूरे फायदे पर १०० फीसदी आयकर में छूट और अगले पांच वर्षो तक २५ फीसदी छूट मिलेगी । एक्साइज ड्यूटी भी आधी कर दी गई है यानी सरकार के बजट से कंपनियों का फायदा तय किया गया है, परन्तु किसान की सारी छूटें समाप्त् कर दी गई हैं ।
वर्ष २००५ में कम्पनियों को किसानों से सीधे अनाज खरीदने की अनुमति देने का परिणाम यह हुआ कि अपनी ही जरूरतें पूरी करने के लिए सरकार को दो गुना दामों पर ५३ लाख टन अनाज आस्ट्रेलिया, कनाडा और यूक्रेन से खरीदना पडा । पिछले ४ वर्षो में अनाज की खुले बाजार में कीमतें ७० से १२० प्रतिशत तक बढीं पर सरकार ने किसानों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य में महज २० प्रतिशत की बढ़ोत्तरी की है । उन बढ़ी हुई कीमतों का फायदा दलाल और ट्रेडर उठा रहे हैं ।
सरकार को अनाज की कम खरीद करना पड़े इसलिये गरीबी की रेखा को छोटा किया गया ताकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली का दायरा और छोटा हो जाए । यह इसलिये भी किया गया ताकि कम्पनियों को किसानों से मनमानी कीमत पर अनाज खरीदने का मौका मिल सके । इस अनाज का उपयोग निर्यात और प्रसंस्करण दोनों के लिए भी किया जा रहा है । गेहूं से रोटी नहीं बल्कि डबलरोटी, नूडल्स, बिस्किट और डिब्बा बंद खाद्य पदार्थ बनाने के लिये उपयोग किया जाना प्राथमिक बना दिया गया है । लगभग १० लाख हेक्टेयर सबसे उपजाऊ जमीन पर फूल और ऐसे फल उगाये जा रहे है जिनसे रस, शराब और विलासिता के पेय बनते है ।
मध्यप्रदेश में तीन कम्पनियाँ अघोषित रूप से अनुबंध की खेती करके चिप्स के लिये आलू की और चटनी के लिये टमाटर-हरीमिर्च की खेती करवा रही हैैं । इससे खेती की विविधता खत्म हुई है । आदिवासी बहुल झाबुआ मे तो इसे ऐसे प्रोत्साहित किया गया है कि वहां टमाटर के लिये एक एकड खेत मेें ६०० से ८०० किलो रासायनिक ऊर्वरको को उपयोग होने लगा और अब मिट्टी की उर्वरता लगभग पूरी तरह से खत्म हो चुकी है । सब्सिडी कम करने की नीति के तहत अब यूरिया, डीएपी पर दी जाने वाली रियायत भी खत्म हो चुकी है । इससे गेहूं की उत्पादन लागत अब लगभग १६५० रूपये पर पहुंच गई है परन्तु भारत सरकार ने इस वर्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया है ११२० रूपये । किसान के लिये दालोें का समर्थन मूल्य है ३२ रूपये पर बाजार मे दालो की कीमत है ६० रूपये से ९० रूपये । क्या सरकार खुद किसानो की आत्महत्या का कारण रही है ।
खेती के विपणन व प्रसंस्करण पर कब्जा करने के बाद इन कंपनियोें ने फसल बोने पर भी अधिकार जमा लिया है । जिससे किसान न तो यह तय कर पा रहा है कि उसे क्या पैदा करना है न ही उसे यह स्पष्ट हो रहा है कि सरकार उसे क्या संरक्षण देगी । अनेक समूह ५१० सुपर मार्केट और माल्स की श्रृखंला खड.ी करने वाले हैैं । गरीब लोगों को दिल्ली, बैगलूरू, कोलकता, मुम्बई आदि मे रहने के लिये कुछ वर्गमीटर जमीन नहीं मिल पा रही है परन्तु नाईट फ्रेक इण्डिया की रिपोर्ट इण्डिया आर्गनाइज्सड रिटेल मार्केट २०१० के मुताबिक अकेले मुम्बई मेें २०१० से २०१२ के दौरान ५.५ करोड. वर्गफीट स्थान फुटकर व्यापार के लिये कम्पनियोें के लिये उपलब्ध होगा । यह जगह तो झुग्गियोें और फुटपाथ पर काम करने वालो को विस्थापित करके ही आएगी ?
इन बाजारों से फुटकर बाजार को संचालित करने वालों के सामने जीविका का संकट खडा़ हो गया है । इस व्यवस्था के जरिये बडे समूह अब यह तय करने लगे है कि उपभोक्क्ता क्या खायेंगे और क्या पियेंगे । इस सुनियोजित व्यापारिक षडयंत्र से किसान और समाज दोनों को ही लाचारी महसूस हो रही है ।
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