सोमवार, 25 जुलाई 2011

सामयिक

पास्को का राजा से जयराम तक सफर
भारत डोगरा

तत्कालीन पर्यावरण मंत्री ए०राजा ने पर्यावरण मंत्रालय के अपने कार्यकाल में उड़ीसा में पास्को परियोजना को प्रारंभिक अनुमति दी तो दूसरी तरफ वर्तमान पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने स्वयं के द्वारा नियुक्त विशेषज्ञों की सलाह को ठुकराते हुए पास्को परियोजना को अंतिम स्वीकृति दे दी । भारत के प्राकृतिक संसाधनों की लूट का सिलसिला बदस्तूर जारी है ।
हमारे देश में जो परियोजनाएं संसाधनों की लूट, पर्यावरण की तबाही और परम्परागत आजीविका के विनाश के कारण बेहद विवादग्रस्त हुई हैं, उन परियोजनाआें में उड़ीस की पास्को अग्रणी पंक्ति में रही है ।
पास्को दक्षिण कोरिया की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी है जिसका पूरा नाम है - पोहांग ऑयरन एंड स्टील कंपनी । इस परियोजना के बारे में पहली नजर में जो संदेह होता है उसका कारण यह है कि इतने बडे स्तर पर इस्पात उत्पादन करवाने के लिए किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को सरकार देश का लौह अयस्क क्यों उपलब्ध करवा रही है । १२० लाख टन वार्षिक इस्पात उत्पादन करने के प्रस्ताव वाली इस परियोजना का लक्ष्य देश की पांच-छ सबसे विख्यात बडी इस्पात परियोजनाआें के कुल उत्पादन से भी ज्यादा है । सवाल यह है कि इतना लौह अयस्क परियोजना की लंबी अवधि के दौरान हम प्रतिवर्ष इस बहुराष्ट्रीय कंपनी को क्यों उपलब्ध करवाएं ? ध्यान रहें कि वर्ष २००० के बाद अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में लौह अयस्क की कीमत बहुत तेजी से बढी है व इस परियोजना की विशालता को देखते हुए पास्को की लौह अयस्क में मुनाफा कूटने की क्षमता भी बहुत बढ गई है । लौह अयस्क की विश्व बाजार में कमी व बढते मूल्य को देखते ह्ुए हमें यह भी ध्यान में रखना है कि देश में लौह अयस्क के भंडारों का बहुत जल्दी दोहन न किया जाए ताकि भविष्य की अपनी जरुरतों के लिए पर्याप्त् भंडार बचा रहे । पर पास्को जैसी परियोजना तो ३० वर्षो तक बहुत बडे पैमाने पर लौह अयस्क की नियमित आपूर्ति पर आश्रित है ।
आखिर देश की अमूल्य खनिज संपदा को इतने बडे पैमाने पर एक ही कंपनी को सौंपने की इतनी जल्दबाजी क्यों है बड़े पैमाने पर लौह अयस्क खनन से व्यापक स्तर पर पर्यावरण की तबाही ह्ोगी, विशेषकर जब परियोजना के शुरु होने के बाद साल-दर-साल तीन दशकों तक इतने बडे पैमाने पर लौह अयस्क उपलब्ध करवाना एक मजबूरी बन जाएगा । इस कारण विस्थापन भी होगा । अत समस्याएं वहीं तक सीमित नहीं हैं जहां इस्पात बनाने का कारखाना लग रहा है । पर्यावरण व विस्थापन की समस्याएं इससे कहीं व्यापक हैं ।
जगतसिंहपुर जिले में समुद्र तट के पास स्थापित होने वाली इस परियोजना में एक बंदरगाह का निर्माण भी प्रस्तावित है । हालांकि इसे अलग परियोजना के रुप में दिखाने का प्रयास किया जाता है ताकि पर्यावरण की क्षति को कम करके दिखाया जा सके । इस बंदरगाह को एक छोटी परियोजना के रुप में स्वीकृति दिलवाई गई जबकि वास्तव में प्रस्तावित बंदरगाह एक बडा बंदरगाह है ।
समग्रता से किए गए आकलनों में यह सच्चई सामने आई कि इससे जितने रोजगारों का सृजन होगा उससे कहीं अधिक रोजगार इससे उजडेंगे । पर्यावरण व वन्य जीवों की जो तबाही होगी सो अलग । सरकारी स्तर पर इस परियोजना का औचित्य ऐसे अध्ययन के आधार पर बताया गया है जिसके लिए धन प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से इस कंपनी ने ही उपलब्ध करवाया था । ऐसे अध्ययन को कितनी मान्यता मिलनी चाहिए दूसरी ओर पर्यावरण मंत्रालय द्वारा भेजे गए विशेषज्ञों ने बार-बार इस ओर ध्यान दिलाया है कि इस परियोजना से कितनी व्यापक तबाही हो सकती है ।
हाल के समय में सरकार ने ऐसे कुछ मामलों में बढती संवेदनशीलता का संदेश दिया था जिससे उम्मीद बंधी थी कि विस्थापन व वन-विनाश की संभावना को न्यूनतम करने के टिकाऊ ग्रामीण आजीविका की रक्षा के प्रयास तेज होंगे । उडीसा की नियमगिरि पर्वतमाला में बाक्साईट खनन पर रोक लगी तो उस समय इन उम्मीद को बहुत बल मिला था। पास्को परियोजना क्षेत्र में भी विस्थापन के विरुद्ध अहिंसक संघर्ष बहुत समय से चल रहा है । इस तरह के अहिंसक संघर्षो की मांगों पर सरकार समुचित ध्यान दे तो इससे देश में लोकतंत्र और मजबूत होगा । जब सरकार के अपने विशेषज्ञों की रिपोर्टोंा से भी संघर्ष समिति के आरापों को समर्थन मिल रहा था तो सरकार से व पर्यावरण मंत्रालय से उम्मीद की जा रही थी कि वह गांववासियों की टिकाऊ आजीविका व यहां के पर्यावरण को बचाने के प्रयास करेंगे ।
पर्यावरण मंत्रालय ने अपने जो विशेषज्ञ मौके पर स्थिति जानने के लिए भेजे थे उन्होंने भी उडीसा के संबंधित अधिकारियों द्वारा तथ्य छिपाने या तोडने-मरोडने तथा कंपनी के अधिकारियों की सांठ-गांठ से अन्य अनियमितताएं करने के आरोप लगाए थे । सवाल यह है कि ऐसे उदाहरण सामने आने पर पर्यावरण मंत्रालय को दंडात्मक कार्यवाही करनी चाहिए या इन सब अनुचित कार्योंा पर परदा डालकर मंजूरी दे देनी चाहिए, जैसा कि उसने वास्तव में किया है यह सवाल इस कारण और भी महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि पास्को परियोजना को आगे बढ़ाने में बार-बार नियमों का उल्लघंन हुआ है व कुछ अधिकारियों का व्यवहार तो ऐसा रहा है जैसे पास्को को आगे बढ़ाना ही उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण कार्य हो ।
पर्यावरण संबंधित आरंभिक स्वीकृतियां इस परियोजना को तब मिली थी जब ए.राजा पर्यावरण मंत्री थे । यह स्वीकृतियां कितनी अनुचित थीं इसका कुछ समय बाद तब पता चला ज्रब नए पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने वर्ष २०१० में विशेषज्ञों की एक जांच समिति नियुक्त की । इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में स्पष्ट कहा है कि परियोजना द्वारा बहुत गंभीर पर्यावरणीय परिणामों के लिए नियोजन तो करना दूर, उनका ठीक से आकलन भी नहीं किया गया है । समिति ने आगे कहा कि परियोजना के संभावित अति खतरनाक परिणामों के प्रति संबंधित अधिकारियों की अत्यधिक लापरवाही खतरनाक है व इससे समिति स्तब्ध है ।
भ्रष्टाचार के संकेत तो इस तथ्य से भी मिलते हैं कि इस परियोजना के लिए खदानों के आवंटन के कार्य को दो बार अदालती कार्यवाही से रोकना पड़ा । पर्यावरण मंत्रालय की समितियों के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो गया कि समुद्री तटीय नियमन क्षेत्र के नियमों का उल्लघंन इस परियोजना में हो रहा है । वन-अधिकार कानून आदि के संदर्भ में प्रभावित गांववासियों व उनकी ग्रामसभाआें ने भी परियोजना के विरूद्ध अपने हस्ताक्षर वाले दस्तावेज सरकार को उपलब्ध करवाए । पर इन सभी की अवेहलना करते हुए पर्यावरण मंत्रालय ने तथ्यों को नजरअंदाज करते हुए निर्णय लिया व पास्को परियोजना को हरी झंडी दिखा दी ।
इस परियोजना की स्वीकृति के पीछे भ्रष्टाचार की एक बड़ी कहानी हो सकती है । अत: सरकार को चाहिए कि भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से बचने के लिए व खनिज संसाधनों की लूट को रोकने के लिए तुरन्त इस योजना को रद्द कर दे व साथ ही प्रभावित गांववासियों की अब तक हुई क्षति के लिए उन्हें सहायता पहुंचाए ।
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