सामाजिक पर्यावरण
लोकपाल विधेयक के सफल उदाहरण
लोकपाल विधेयक के सफल उदाहरण
सुश्री रोली शिवहर
भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ाई को जीतने में हांगकांग ने काफी हद तक सफलता पाई है । लेकिन यह जनता और सरकार के आपसी सामंजस्य से ही संभव हो पाया है । हमारी सरकार तो इस कानून के मसले पर पहले ही दिन से टकराहट पर जोर दे रही है तथा लगातार भ्रम फैलाकर व्यापक जनआंकाशाआें की अवहेलना कर रही है ।
दक्षिण एशिया में हांगकांग एक ऐसा देश है जहां कि सरकार ने भ्रष्ट व्यवस्था से तंग आकर एक ऐतिहासिक फैसला लिया और समािप्त् के लिए एक स्वतंत्र आयोग का गठन कर दिया । इस आयोग को आज तक ना तो वित्तीय दिक्कतों का सामना करना पड़ा और ना ही इसके किसी काम मेंकभी सरकारी हस्तक्षेप ही हुआ । नतीजन वर्ष २०१० में जारी हुई ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार विश्व में भ्रष्टाचार के मामले में हांगकांग घटकर १३ वें स्थान पर आ गया है । आज हांगकांग लोकतंत्र की सौंधी खुशबू का मजा देता है । मगर भारत में बहुप्रतीक्षित लोकपाल कानून के प्रस्तावित प्रारूप में ही बहुत सारी कमियां नजर आती हैं । भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिये कानून से पहले सरकारों की दृढ़ इच्छा की जरूरत है ।
ए.राजा, कनिमोझी और अब दयानिधी मारन, हालांकि यह सूची बहुत लंबी हो सकती है लेकिन इनकी बदौलत आज भारत में रोजाना सामने आ रहे नए घोटालों की चर्चा पूरी दुनिया में है। वहीं दूसरी ओर भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आंदोलन की खबर भी दुनिया भर में फैल चुकी है । जिसे देखो वह अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले इस आंदोलन की ही बात कर रहा है । देश का हर वर्ग आज भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने को तैयार है । ऐसा भी नहीं है कि यह सब एकाएक ही हो रहा है, बल्कि लोग इस भ्रष्ट व्यवस्थासे आजिज आ चुके थे । महात्मा गाँधी ने आजादी के बाद तुरन्त ही चेतावनी देते हुए कहा था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कार्यवाही करने की जरूरत है नहींतो यह पूरे देश को नुकसान पहुंचाएगा । भारत के केन्द्रीय सतर्कता आयोग के भूतपूर्व आयुक्त नागार्जुन विट्ठल ने कहा था कि देश की जनता को जागरूक करने की जरूरत है और उन सभी को एक साथ लाने की जरूरत है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाना चाहते हैं ।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल, २०१० के आंकड़ों पर नजर दौडाएं तो हम पाते है कि भारत दुनिया के १७८ देशों में पारदर्शिता के मानक अनुसार ८७ वें स्थान पर है । जबकि २००९ में यह ८४वें स्थान पर था । अर्थात् भारत में पिछले सालों की अपेक्षा भ्रष्टाचार बढ़ा है । स्विस बैंक के अनुसार भारत के अमीरों के २८० लाख करोड़ रूपये स्विटरजरलैंड में जमा है ।
आज देश में राशन कार्ड बनवाने से लेकर पेंशन लेने तक के सभी कार्यो के लिए आम आदमी को रिश्वत देनी पड़ती है । लेकिन हमारे देश की सरकार आज तक इस पर काबू करने के लिए कोई कदम नहीं उठा पाई । इससे निपटने के लिए १९९८ से एक कानून लंबित पड़ा है । इस विधेयक को इससे पहले ११ बार संसद मे ंपेश किया जा चुका है । यानि सरकार इसे पारित हीं नहीं कराना चाहती है । एन.सी. सक्सेना कमेटी के अनुसार भारत मे आधी से ज्यादा लोग गरीबी की रेखा के नीचे निवास करते हैं और देश में ४० प्रतिशत बच्च्े आज भी कुपोषित हैं । भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा यह स्वीकार कर लिया गया था कि यदि दिल्ली से १ रूपया भेजा जाता है तो जमीनी स्तर तक केवल १५ पैसे ही पहुँचते हैं । इसके बावजूद हमारे देश के सत्तानशीनों के कानों में जूं तक नहीं रेंगी । भारत सरकार कहती है कि वह भ्रष्टाचार तो मिटाना तो चाहती है लेकिन तत्काल कुछ नहीं हो सकता है ।
हालांकि ऐसा नहीं कि भ्रष्टाचार केवल भारत के लिये ही कोढ़ है बल्कि यह तो कई देशों में व्याप्त् है । हर देश में भ्रष्टाचार से संबंधी परेशानियाँ हैं जिनसे उन्होनें अपने अपने तरीका से निपटने का प्रयास किया है । एशियाई देशों में से हांगकांग एक ऐसा देश है जिसने बहुत कम समय में भ्रष्टाचार से लगभग मुक्ति पा ली है । यहां आज जनता को उनकी बात कहने का अधिकार है तथा मीडिया को लिखने और अपना पक्ष रखने का अधिकार है ।
ऐसा नहीं है कि हांगकांग की सरकार कोई अजूबा है । यहां भी भारत की तरह ही लोकतंत्र है । सन् १९५० और १९६० के दशक में हांगकांग भी वर्तमान भारत जैसा ही भ्रष्टाचार से ग्रसित था । लोग समय पर अपना काम कराने के लिए रिश्वत को ही शार्ट कट समझने लगे थे और अधिकारी भी बिना रिश्वत लिए कोई काम नहीं करना चाहते थे । परन्तु एक समय ऐसा आया जब लोगों ने जब यह तय कर लिया कि अब वे भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करेंगे । लोगों ने लामबंद होना शुरू किया और सरकार को बाध्य किया कि वो भ्रष्टाचार विरोधी कानून लाए । हांगकांग के तत्कालीन राज्यपाल सर मुर्रे मक ली होस और सरकार दोनों ने इसका समर्थन किया और १९७४ में सरकार ने एक अध्यादेश पारित करते हुए हांगकांग में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक स्वतंत्र आयोग की स्थापना की ।
आज भारत में भी यही स्थिति है । भ्रष्टाचार के संबंध में लोगों के बर्दाश्त करने की सीमा खत्म हो चुकी है और लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने को तैयार है । इस मसले पर एक बड़ा जनांदोलन खड़ा हो गया है । सबकी सिर्फ यह मांग है कि सरकार एक ऐसा कानून लाये जिसके अन्तर्गत एक इकाई का गठन किया जाये जो कि स्वतंत्र इकाई (जिसे लोकपाल का नाम दिया जा रहा है) के रूप में काम करे और उस पर किसी का जोर नहीं चले और देश में रहने वाला हर व्यक्ति इसके दायरे में आए । परन्तु वर्तमान में सरकार के इरादे नेक नजर नहीं आ रहे है । अन्ना के ५दिनों के अनशन के बाद सरकार ने जो विधेयक प्रस्तावित किया है उसका कार्य क्षेत्र बहुत ही सीमित है । सरकार के प्रस्ताव के अनुसार उन्होंने प्रधानमंत्री, न्यायपालिका और सांसदों को लोकपाल के दायरे के बाहर रखा है, जो कि न्यायसंगत नहीं है । हांगकांग के उदाहरण देखे तो वहां के अध्यादेश की परिधि में सभी आते है फिर वो चाहे वो मुख्य कार्यकारी अधिकारी (देश का प्रथम नागरिक) ही क्यों न हो ।
भारत सरकार ने अपने प्रस्ताव में लोकपाल सदस्यों की नियुक्ति के संदर्भ मेंएक चयन समिति की बात कही है जिसमें ११ में से ६ सदस्य राजनैतिक क्षेत्र से होंगे । इसके अलावा चयन संबंधी प्रक्रियाआें में पारदर्शिता की बारे में भी प्रस्ताव में कोई जिक्र नहीं किया गया है । पारदर्शिता का भी सबसे अच्छा उदाहरण हांगकांग में बनाये गये आयोग का है । यहां आयोग का सदस्य बनने के लिये कई परीक्षाएं पास करनी पड़ती है। इसके बाद ही उनका चयन होता है । ये सभी प्रक्रियाएं पारदर्शी तरीके से सम्पन्न की जाती है ।
सरकार के प्रस्ताव में यह स्पष्ट है कि लोकपाल या उनके दफ्तर में यदि किसी अधिकारी के ऊपर भ्रष्टाचार की शिकायत आती ही है तो लोकपाल स्वयं इस मामले की जांच करेगा । जबकि हांगकांग के इस आयोग में इसके बिलकुल उलट है । यहाँ इस कार्य हेतु एक कमेटी है जिसमें कि समुदाय के कुछ लोग (जिन्हें मुख्य कार्यकारी द्वारा नियुक्त किया जाता है), कुछ अधिकारी एवं चुने हुए प्रतिनिधि मामले की जांच करते हैं । इसके अलावा एक महत्वपूर्ण मुद्दा वित्तीय प्रावधानों को लेकर है । हांगकांग में गठित आयोग अपना बजट स्वयं बनाता है । आयोग के वरिष्ठ अधिकारियों के अनुसार आज तक उनके बजट मेंसरकार द्वारा कभी कटौती नहीं की गयी ।
बिना जनता की सहभागिता के लोकतंत्र एक अधूरी कल्पना है । हांगकांग में बनाये गए इस आयोग में एक विशेष विभाग जनता के लिए बनाया गया है जिसका काम जनता को जागरूक करने से लेकर उन्हें सलाह देने तक का है । परन्तु विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले भारत में तैयार किये जा रहे लोकपाल विधेयक में इसका भी अभाव है । हमारे यहां तो सरकारी नुमांइदे यहां तक कह देते हैं कि सिविल सोसाईटी सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश ना करे नहीं तो यह आवाज कुचल दी जायेगी । तो फिर सरकार इस कानूनी ढांचे में जनता की भागीदारी को किस हद तक स्वीकार करेगी ?
अगर भ्रष्टाचार से निपटना है तो सरकार और जनता दोनों को अपनी-अपनी जिम्मेदारी के प्रति प्रतिबद्ध होना जरूरी है । हांगकांग ने ऐसा कर दिखाया है और यदि भारत भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहता है तो उसे यह बात ध्यान में रखना होगी कि लोकपाल एक विशिष्ट कानून हैं और इसे किसी अन्य कानून की तरह नहीं अपनाया जा सकता ।
दक्षिण एशिया में हांगकांग एक ऐसा देश है जहां कि सरकार ने भ्रष्ट व्यवस्था से तंग आकर एक ऐतिहासिक फैसला लिया और समािप्त् के लिए एक स्वतंत्र आयोग का गठन कर दिया । इस आयोग को आज तक ना तो वित्तीय दिक्कतों का सामना करना पड़ा और ना ही इसके किसी काम मेंकभी सरकारी हस्तक्षेप ही हुआ । नतीजन वर्ष २०१० में जारी हुई ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट के अनुसार विश्व में भ्रष्टाचार के मामले में हांगकांग घटकर १३ वें स्थान पर आ गया है । आज हांगकांग लोकतंत्र की सौंधी खुशबू का मजा देता है । मगर भारत में बहुप्रतीक्षित लोकपाल कानून के प्रस्तावित प्रारूप में ही बहुत सारी कमियां नजर आती हैं । भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिये कानून से पहले सरकारों की दृढ़ इच्छा की जरूरत है ।
ए.राजा, कनिमोझी और अब दयानिधी मारन, हालांकि यह सूची बहुत लंबी हो सकती है लेकिन इनकी बदौलत आज भारत में रोजाना सामने आ रहे नए घोटालों की चर्चा पूरी दुनिया में है। वहीं दूसरी ओर भारत में भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे आंदोलन की खबर भी दुनिया भर में फैल चुकी है । जिसे देखो वह अन्ना हजारे के नेतृत्व वाले इस आंदोलन की ही बात कर रहा है । देश का हर वर्ग आज भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने को तैयार है । ऐसा भी नहीं है कि यह सब एकाएक ही हो रहा है, बल्कि लोग इस भ्रष्ट व्यवस्थासे आजिज आ चुके थे । महात्मा गाँधी ने आजादी के बाद तुरन्त ही चेतावनी देते हुए कहा था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सख्त कार्यवाही करने की जरूरत है नहींतो यह पूरे देश को नुकसान पहुंचाएगा । भारत के केन्द्रीय सतर्कता आयोग के भूतपूर्व आयुक्त नागार्जुन विट्ठल ने कहा था कि देश की जनता को जागरूक करने की जरूरत है और उन सभी को एक साथ लाने की जरूरत है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाना चाहते हैं ।
ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल, २०१० के आंकड़ों पर नजर दौडाएं तो हम पाते है कि भारत दुनिया के १७८ देशों में पारदर्शिता के मानक अनुसार ८७ वें स्थान पर है । जबकि २००९ में यह ८४वें स्थान पर था । अर्थात् भारत में पिछले सालों की अपेक्षा भ्रष्टाचार बढ़ा है । स्विस बैंक के अनुसार भारत के अमीरों के २८० लाख करोड़ रूपये स्विटरजरलैंड में जमा है ।
आज देश में राशन कार्ड बनवाने से लेकर पेंशन लेने तक के सभी कार्यो के लिए आम आदमी को रिश्वत देनी पड़ती है । लेकिन हमारे देश की सरकार आज तक इस पर काबू करने के लिए कोई कदम नहीं उठा पाई । इससे निपटने के लिए १९९८ से एक कानून लंबित पड़ा है । इस विधेयक को इससे पहले ११ बार संसद मे ंपेश किया जा चुका है । यानि सरकार इसे पारित हीं नहीं कराना चाहती है । एन.सी. सक्सेना कमेटी के अनुसार भारत मे आधी से ज्यादा लोग गरीबी की रेखा के नीचे निवास करते हैं और देश में ४० प्रतिशत बच्च्े आज भी कुपोषित हैं । भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा यह स्वीकार कर लिया गया था कि यदि दिल्ली से १ रूपया भेजा जाता है तो जमीनी स्तर तक केवल १५ पैसे ही पहुँचते हैं । इसके बावजूद हमारे देश के सत्तानशीनों के कानों में जूं तक नहीं रेंगी । भारत सरकार कहती है कि वह भ्रष्टाचार तो मिटाना तो चाहती है लेकिन तत्काल कुछ नहीं हो सकता है ।
हालांकि ऐसा नहीं कि भ्रष्टाचार केवल भारत के लिये ही कोढ़ है बल्कि यह तो कई देशों में व्याप्त् है । हर देश में भ्रष्टाचार से संबंधी परेशानियाँ हैं जिनसे उन्होनें अपने अपने तरीका से निपटने का प्रयास किया है । एशियाई देशों में से हांगकांग एक ऐसा देश है जिसने बहुत कम समय में भ्रष्टाचार से लगभग मुक्ति पा ली है । यहां आज जनता को उनकी बात कहने का अधिकार है तथा मीडिया को लिखने और अपना पक्ष रखने का अधिकार है ।
ऐसा नहीं है कि हांगकांग की सरकार कोई अजूबा है । यहां भी भारत की तरह ही लोकतंत्र है । सन् १९५० और १९६० के दशक में हांगकांग भी वर्तमान भारत जैसा ही भ्रष्टाचार से ग्रसित था । लोग समय पर अपना काम कराने के लिए रिश्वत को ही शार्ट कट समझने लगे थे और अधिकारी भी बिना रिश्वत लिए कोई काम नहीं करना चाहते थे । परन्तु एक समय ऐसा आया जब लोगों ने जब यह तय कर लिया कि अब वे भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं करेंगे । लोगों ने लामबंद होना शुरू किया और सरकार को बाध्य किया कि वो भ्रष्टाचार विरोधी कानून लाए । हांगकांग के तत्कालीन राज्यपाल सर मुर्रे मक ली होस और सरकार दोनों ने इसका समर्थन किया और १९७४ में सरकार ने एक अध्यादेश पारित करते हुए हांगकांग में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक स्वतंत्र आयोग की स्थापना की ।
आज भारत में भी यही स्थिति है । भ्रष्टाचार के संबंध में लोगों के बर्दाश्त करने की सीमा खत्म हो चुकी है और लोग भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने को तैयार है । इस मसले पर एक बड़ा जनांदोलन खड़ा हो गया है । सबकी सिर्फ यह मांग है कि सरकार एक ऐसा कानून लाये जिसके अन्तर्गत एक इकाई का गठन किया जाये जो कि स्वतंत्र इकाई (जिसे लोकपाल का नाम दिया जा रहा है) के रूप में काम करे और उस पर किसी का जोर नहीं चले और देश में रहने वाला हर व्यक्ति इसके दायरे में आए । परन्तु वर्तमान में सरकार के इरादे नेक नजर नहीं आ रहे है । अन्ना के ५दिनों के अनशन के बाद सरकार ने जो विधेयक प्रस्तावित किया है उसका कार्य क्षेत्र बहुत ही सीमित है । सरकार के प्रस्ताव के अनुसार उन्होंने प्रधानमंत्री, न्यायपालिका और सांसदों को लोकपाल के दायरे के बाहर रखा है, जो कि न्यायसंगत नहीं है । हांगकांग के उदाहरण देखे तो वहां के अध्यादेश की परिधि में सभी आते है फिर वो चाहे वो मुख्य कार्यकारी अधिकारी (देश का प्रथम नागरिक) ही क्यों न हो ।
भारत सरकार ने अपने प्रस्ताव में लोकपाल सदस्यों की नियुक्ति के संदर्भ मेंएक चयन समिति की बात कही है जिसमें ११ में से ६ सदस्य राजनैतिक क्षेत्र से होंगे । इसके अलावा चयन संबंधी प्रक्रियाआें में पारदर्शिता की बारे में भी प्रस्ताव में कोई जिक्र नहीं किया गया है । पारदर्शिता का भी सबसे अच्छा उदाहरण हांगकांग में बनाये गये आयोग का है । यहां आयोग का सदस्य बनने के लिये कई परीक्षाएं पास करनी पड़ती है। इसके बाद ही उनका चयन होता है । ये सभी प्रक्रियाएं पारदर्शी तरीके से सम्पन्न की जाती है ।
सरकार के प्रस्ताव में यह स्पष्ट है कि लोकपाल या उनके दफ्तर में यदि किसी अधिकारी के ऊपर भ्रष्टाचार की शिकायत आती ही है तो लोकपाल स्वयं इस मामले की जांच करेगा । जबकि हांगकांग के इस आयोग में इसके बिलकुल उलट है । यहाँ इस कार्य हेतु एक कमेटी है जिसमें कि समुदाय के कुछ लोग (जिन्हें मुख्य कार्यकारी द्वारा नियुक्त किया जाता है), कुछ अधिकारी एवं चुने हुए प्रतिनिधि मामले की जांच करते हैं । इसके अलावा एक महत्वपूर्ण मुद्दा वित्तीय प्रावधानों को लेकर है । हांगकांग में गठित आयोग अपना बजट स्वयं बनाता है । आयोग के वरिष्ठ अधिकारियों के अनुसार आज तक उनके बजट मेंसरकार द्वारा कभी कटौती नहीं की गयी ।
बिना जनता की सहभागिता के लोकतंत्र एक अधूरी कल्पना है । हांगकांग में बनाये गए इस आयोग में एक विशेष विभाग जनता के लिए बनाया गया है जिसका काम जनता को जागरूक करने से लेकर उन्हें सलाह देने तक का है । परन्तु विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का दंभ भरने वाले भारत में तैयार किये जा रहे लोकपाल विधेयक में इसका भी अभाव है । हमारे यहां तो सरकारी नुमांइदे यहां तक कह देते हैं कि सिविल सोसाईटी सरकार पर दबाव बनाने की कोशिश ना करे नहीं तो यह आवाज कुचल दी जायेगी । तो फिर सरकार इस कानूनी ढांचे में जनता की भागीदारी को किस हद तक स्वीकार करेगी ?
अगर भ्रष्टाचार से निपटना है तो सरकार और जनता दोनों को अपनी-अपनी जिम्मेदारी के प्रति प्रतिबद्ध होना जरूरी है । हांगकांग ने ऐसा कर दिखाया है और यदि भारत भ्रष्टाचार से मुक्ति चाहता है तो उसे यह बात ध्यान में रखना होगी कि लोकपाल एक विशिष्ट कानून हैं और इसे किसी अन्य कानून की तरह नहीं अपनाया जा सकता ।
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