प्रदेश चर्चा
महाराष्ट्र: जंगल लकड़ी की दुकान नहीं है ?
महाराष्ट्र: जंगल लकड़ी की दुकान नहीं है ?
सुश्री कुसुम कर्णिक
पश्चिमी घाट के भीमशंकर वन और उसमें निवास कर रहा महादेव कोली आदिवासी समुदाय एक ऐसी तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं जो कि हमारे सुखद व सुरक्षित भविष्य की कंुजी है । जिस भावना और कुशलता से वे, आधुनिक पर्यावरणविदों की भाषा में कहें तो वन प्रबंधन कर रहे हैं उससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है । आधुनिक शहरी समाज को अपनी अति उपभोगवादी जीवनशैली को बदलना होगा और स्वीकारना होगा कि जंगल उसके घरों को लकड़ी की आपूर्ति की दुकान भर नहीं है ।
भीमशंकर वन महाराष्ट्र के पुणे जिले में पश्चिम घाट के अत्यधिक वर्षा वाले पहाड़ी ढलान में अम्बेगांव विकास खंड में स्थित है । यह एक अनछुआ, बारहमासी,चार तलीय वन है, जहां बादल भी अठखेलिया करते नजर आते हैं, जिसमें उपजाऊ मिट्टी उथली है और उसके नीचे कठोर चट्टाने हैं । यहां भूगर्भ जल है ही नही अतएव यदि एक बार ये वन नष्ट हो गए तो उनका दोबारा फलना फूलना बहुत कठिन है । यहां पर चलने वाली तेज हवाआें और भारी भूक्षरण को ये वन संभाल लेेते हैं । लम्बे वृक्ष, मध्यम वृक्ष, झड़ियां, घास आदि मिलकर वर्षा के जल को अपने में समाहित कर मिट्टी का संरक्षण करते हैं ।
महादेव कोली जनजाति यहां सदियों से निवास कर रही है । उन्होनें ऐसी जीवनशैली व दर्शन को अपना लिया है जो कि यहां के पर्यावरण के अनुकूल है । वे अपनी अधिकांश आवश्यकताआें के लिए वनों पर ही निर्भर है । इनका स्वयं के लिए उपयोग करते हुए वे इस बात के लिए सचेत रहते हैं कि इससे इन वनों के स्थायित्व को चोट न पहुंचे । उनका आपस में गुंथा हुआ सामुदायिक जीवन, सहकारिता के सिद्धांत पर आधारित है और यहीं उनकी शक्ति भी है ।
अपनी दैनिक आवश्यकताआें के लिए आदिवासी भोजन, चारा, ईधन और रेशों का संग्रहण करते हैं । उनके भोजना में फूल, कलियां, पत्तियां, फल, कंद/जड़े, कुकुरमुत्ते आदि सम्मिलित रहते हैं । वे अपने पोषण और वन्यजीवों की जनसंख्या को नियंत्रण में रखने के लिए शिकार भी करते हैं । शिकार पारम्परिक अस्त्रों से किया जाता है जिसमें शिकार और शिकारी बराबरी से जोखिम में रहते हैं । वे अतिरिक्त आहार हेतु मछली और केकड़े भी पकड़ते हैं ।
सरकार ने सन् १९८५ में इस क्षेत्र में वन्यजीव अभयारण्य के स्थापना की घोषणा कर दी । आदिवासियों से इन मामलें में सलाह मशविरा तक नहीं किया गया । उन्होंने दूसरों के द्वारा जाना कि अभयारण्य क्षेत्र के अंदर आने वाले ८ गांवों को खाली करवाया जाएगा । इसके उन्होनें उस कानून की वैधता पर सवाल उठाने शुरू कर दिए जो कि स्थानीय निवासियों के अधिकारों का न तो सम्मान करता है और न ही उन्हें विश्वास में लेता है ।
शीघ्र ही सरकार के साथ समझौता वार्ता प्रारंभ हो गई । आदिवासियों को भान हो गया कि उन्हें अपना स्वामित्व स्थापित करना होगा । अतएव उन्होनें इस इलाके में वर्षो से कार्यरत स्वयंसेवी संगठन शाश्वत ट्रस्ट के सहयोग से वनस्पति संबंधी स्थानीय ज्ञान और वन व वनवासियों की परस्पर निर्भरता का दस्तावेजीकरण करना शुरू दिया । वे वन उत्पाद, किस-किस उत्पाद का प्रयोग होता है, कब और क्यों होता है एवं खेती की स्थानीय पद्धतियों का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं । वे महादेव कोली समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक पद्धतियों का भी दस्तावेजीकरण कर रहे हैं जो कि उनके आर्थिक व सांस्कृतिक अस्तित्व की रीढ़ की हड्डी है । इस दौरान पुणे के कुछ व्यक्तियों जिसमें वैज्ञानिक व वन अधिकारी भी शामिल थे, द्वारा एकजुट होकर जन वन शोध संस्थान स्थापित किया गया ।
इस शोध संस्थान का नेतृत्व स्थानीय आदिवासियों के हाथ में है । प्रत्येक गांव में एक अध्ययन समूह की स्थापना की गई है और यहां के स्थानीय विशिष्ट पौधों के लिए नर्सरी प्रारंभ करने की योजना भी हाथ में ली गई है । यह शोध संस्थान अन्य आदिवासी क्षेत्रों के साथ ही साथ शहरों में भी जनचेतना कार्यक्रम आयोजित करता है ।
आदिवासी समुदायों के साथ कार्य करके आप उनकी सामुदायिक समझदारी समझ सकते है । भीमशंकर वनों में निवास करने वाले आदिवासी न्यूनतम उपभोग वाली ऐसी जीवनशैली का पालन करते है जिसमें सबकुछ बहुत मितव्यता से इस्तेमाल किया जाता है ं उनके घर पत्थर और मिट्टी के बने होते हैं और इन लोगों के पास कुछ बहुत आवश्यक वस्तुएं ही होती हैं । वे ऐसे आत्मीय समुदायों में रहते हैं जहां आपसी सहयोग ही जीवन जीने का तरीका है । वे एक साथ योजना बनाते हैं और कार्य करते हैं, झूम खेती के लिए स्थानों का चयन करते हैं, बुआई करते और धान रोपते हैं और अन्य पर्वतीय मोटे अनाज लगाते हैं, जंगली जानवरों से अपनी फसलों की रक्षा करते हैं और शिकार करते हैं एवं मछली मारते हैं । अधिकांश निर्णय समुदाय द्वारा सामूहिक रूप से लिए जाते हैं और सभी मिलकर जिम्मेदारियां वहन करते हैं । यही वह जीवनशैली है जिसने उन्हें वर्षो से इन जंगलों से आबाद रखा है । किसी भी वन में आप लापरवाह नहीं हो सकते, अकेले नहीं जा सकते या अनावश्यक जोखिम नहीं ले सकते ।
उनकी संस्कृति का केन्द्र बिन्दु हैं देवराई या मंदिर/पवित्र उपवन । भीमशंकर के आसपास के प्रत्येक क्षेत्र में एक या अधिक देवराइयां स्थित हैं । ये देवता के नाम कर दिए गए वन हैं और इनका बहुत अच्छे से संरक्षण किया जाता है । प्रत्येक देवराई में विशिष्ट किस्म के पौधों का सम्मिलिन रहता है अतएव प्रत्येक के लिए पृथक कानून और नियमावली बनाई गई हैंजिनका कड़ाई से पालन होता है । ये देवराइयां उस क्षेत्र के जीन संग्रहण केन्द्र भी हैं जहां से पशुआें और पक्षियों द्वारा बीज फैलाए जाते हैं ।
ये लोग जंगल को अपनी मां मानते हैं और कहते हैं, उनका जीवन माँ के दूध पर निर्भर है न कि उसके खून पर । आदिवासी बाघ को अपना देवता मानते हैं । वे भले ही इसके लिए शीर्ष प्रजाति जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते हों लेकिन वे पर्यावास को नियंत्रण में रखने के लिए बाघ जैसी प्रजाति को महत्व समझते हैं । भीमशंकर में बाघ देवता का समर्पित एक मंदिर भी है ।
अंग्रेजों के भारत में आने के पूर्व ये वन स्थानीय समुदाय जिनमें अधिकांश आदिवासी थे, के हाथों में थे । ये आदिवासी समुदाय इन वनों की देखरेख करते थे और अपने अस्तित्व के लिए इनका प्रयोग करते थे । औपनिवेशिक काल में वन राजकीय सम्पत्ति बन गए और इन्हें लकड़ी के डिपो की तरह प्रयोग मेें लाया जाने लगा । जहाज और रेल निर्माण के लिए मजबूत पेड़ों को काटा जाने लगा । दो विश्वयुद्धों में भी बड़ी मात्रा में लकड़ियों का इस्तेमाल हुआ । ठीक इसी तरह बांध, खदान, कारखानों, शहरों, राजमार्गो जैसे विकास कार्यो में भी बड़ी मात्रा में लकड़ियों का उपयोग हुआ । अनगिनत गैर इमारती पेड़ों को भी कोयले और प्लायवुड के लिए काटकर विशाल और बढ़ते हुए शहरों में भेज दिया गया । इतना ही नहीं विशाल व्यावसायिक रोपण के लिए प्राकृतिक वनों को नष्ट कर दिया गया । इससे वनों का संतुलन ही बिगड़ गया जिससे स्थानीय समुदाय के साथ ही साथ वन्यजीवों का जीवन भी प्रभावित हुआ । इसके परिणाम स्वरूप जंगल अस्थिर और जोखिम भरे हो गए । हालांकि वन तो कृषि युग के आरंभ से ही सिकुड़ते जा रहे हैं लेकिन पिछली दो शताब्दियों में इस सिकुड़न की रफ्तार बहुत तेजी से बढ़ी है ।
हमारी उपभोगवादी, जीवनशैली हमारे प्राकृतिक संसाधन हड़प करती जा रही है और हमें इसके प्रलयंकारी प्रभावों को झेलना पड़ रहा है । अंतत: अब हम यह जान पाए है कि आदिवासियों के पास ह्मसे साझा करने के लिए बहुमूल्य ज्ञान का खजाना मौजूद है । इसीलिए निजी सम्पत्ति और व्यक्तिगत लाभ के बरस्क समुदाय की बेहतरी का विचार जोर पकड़ रहा है ।
भीमशंकर वन महाराष्ट्र के पुणे जिले में पश्चिम घाट के अत्यधिक वर्षा वाले पहाड़ी ढलान में अम्बेगांव विकास खंड में स्थित है । यह एक अनछुआ, बारहमासी,चार तलीय वन है, जहां बादल भी अठखेलिया करते नजर आते हैं, जिसमें उपजाऊ मिट्टी उथली है और उसके नीचे कठोर चट्टाने हैं । यहां भूगर्भ जल है ही नही अतएव यदि एक बार ये वन नष्ट हो गए तो उनका दोबारा फलना फूलना बहुत कठिन है । यहां पर चलने वाली तेज हवाआें और भारी भूक्षरण को ये वन संभाल लेेते हैं । लम्बे वृक्ष, मध्यम वृक्ष, झड़ियां, घास आदि मिलकर वर्षा के जल को अपने में समाहित कर मिट्टी का संरक्षण करते हैं ।
महादेव कोली जनजाति यहां सदियों से निवास कर रही है । उन्होनें ऐसी जीवनशैली व दर्शन को अपना लिया है जो कि यहां के पर्यावरण के अनुकूल है । वे अपनी अधिकांश आवश्यकताआें के लिए वनों पर ही निर्भर है । इनका स्वयं के लिए उपयोग करते हुए वे इस बात के लिए सचेत रहते हैं कि इससे इन वनों के स्थायित्व को चोट न पहुंचे । उनका आपस में गुंथा हुआ सामुदायिक जीवन, सहकारिता के सिद्धांत पर आधारित है और यहीं उनकी शक्ति भी है ।
अपनी दैनिक आवश्यकताआें के लिए आदिवासी भोजन, चारा, ईधन और रेशों का संग्रहण करते हैं । उनके भोजना में फूल, कलियां, पत्तियां, फल, कंद/जड़े, कुकुरमुत्ते आदि सम्मिलित रहते हैं । वे अपने पोषण और वन्यजीवों की जनसंख्या को नियंत्रण में रखने के लिए शिकार भी करते हैं । शिकार पारम्परिक अस्त्रों से किया जाता है जिसमें शिकार और शिकारी बराबरी से जोखिम में रहते हैं । वे अतिरिक्त आहार हेतु मछली और केकड़े भी पकड़ते हैं ।
सरकार ने सन् १९८५ में इस क्षेत्र में वन्यजीव अभयारण्य के स्थापना की घोषणा कर दी । आदिवासियों से इन मामलें में सलाह मशविरा तक नहीं किया गया । उन्होंने दूसरों के द्वारा जाना कि अभयारण्य क्षेत्र के अंदर आने वाले ८ गांवों को खाली करवाया जाएगा । इसके उन्होनें उस कानून की वैधता पर सवाल उठाने शुरू कर दिए जो कि स्थानीय निवासियों के अधिकारों का न तो सम्मान करता है और न ही उन्हें विश्वास में लेता है ।
शीघ्र ही सरकार के साथ समझौता वार्ता प्रारंभ हो गई । आदिवासियों को भान हो गया कि उन्हें अपना स्वामित्व स्थापित करना होगा । अतएव उन्होनें इस इलाके में वर्षो से कार्यरत स्वयंसेवी संगठन शाश्वत ट्रस्ट के सहयोग से वनस्पति संबंधी स्थानीय ज्ञान और वन व वनवासियों की परस्पर निर्भरता का दस्तावेजीकरण करना शुरू दिया । वे वन उत्पाद, किस-किस उत्पाद का प्रयोग होता है, कब और क्यों होता है एवं खेती की स्थानीय पद्धतियों का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं । वे महादेव कोली समाज की सामाजिक-सांस्कृतिक पद्धतियों का भी दस्तावेजीकरण कर रहे हैं जो कि उनके आर्थिक व सांस्कृतिक अस्तित्व की रीढ़ की हड्डी है । इस दौरान पुणे के कुछ व्यक्तियों जिसमें वैज्ञानिक व वन अधिकारी भी शामिल थे, द्वारा एकजुट होकर जन वन शोध संस्थान स्थापित किया गया ।
इस शोध संस्थान का नेतृत्व स्थानीय आदिवासियों के हाथ में है । प्रत्येक गांव में एक अध्ययन समूह की स्थापना की गई है और यहां के स्थानीय विशिष्ट पौधों के लिए नर्सरी प्रारंभ करने की योजना भी हाथ में ली गई है । यह शोध संस्थान अन्य आदिवासी क्षेत्रों के साथ ही साथ शहरों में भी जनचेतना कार्यक्रम आयोजित करता है ।
आदिवासी समुदायों के साथ कार्य करके आप उनकी सामुदायिक समझदारी समझ सकते है । भीमशंकर वनों में निवास करने वाले आदिवासी न्यूनतम उपभोग वाली ऐसी जीवनशैली का पालन करते है जिसमें सबकुछ बहुत मितव्यता से इस्तेमाल किया जाता है ं उनके घर पत्थर और मिट्टी के बने होते हैं और इन लोगों के पास कुछ बहुत आवश्यक वस्तुएं ही होती हैं । वे ऐसे आत्मीय समुदायों में रहते हैं जहां आपसी सहयोग ही जीवन जीने का तरीका है । वे एक साथ योजना बनाते हैं और कार्य करते हैं, झूम खेती के लिए स्थानों का चयन करते हैं, बुआई करते और धान रोपते हैं और अन्य पर्वतीय मोटे अनाज लगाते हैं, जंगली जानवरों से अपनी फसलों की रक्षा करते हैं और शिकार करते हैं एवं मछली मारते हैं । अधिकांश निर्णय समुदाय द्वारा सामूहिक रूप से लिए जाते हैं और सभी मिलकर जिम्मेदारियां वहन करते हैं । यही वह जीवनशैली है जिसने उन्हें वर्षो से इन जंगलों से आबाद रखा है । किसी भी वन में आप लापरवाह नहीं हो सकते, अकेले नहीं जा सकते या अनावश्यक जोखिम नहीं ले सकते ।
उनकी संस्कृति का केन्द्र बिन्दु हैं देवराई या मंदिर/पवित्र उपवन । भीमशंकर के आसपास के प्रत्येक क्षेत्र में एक या अधिक देवराइयां स्थित हैं । ये देवता के नाम कर दिए गए वन हैं और इनका बहुत अच्छे से संरक्षण किया जाता है । प्रत्येक देवराई में विशिष्ट किस्म के पौधों का सम्मिलिन रहता है अतएव प्रत्येक के लिए पृथक कानून और नियमावली बनाई गई हैंजिनका कड़ाई से पालन होता है । ये देवराइयां उस क्षेत्र के जीन संग्रहण केन्द्र भी हैं जहां से पशुआें और पक्षियों द्वारा बीज फैलाए जाते हैं ।
ये लोग जंगल को अपनी मां मानते हैं और कहते हैं, उनका जीवन माँ के दूध पर निर्भर है न कि उसके खून पर । आदिवासी बाघ को अपना देवता मानते हैं । वे भले ही इसके लिए शीर्ष प्रजाति जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते हों लेकिन वे पर्यावास को नियंत्रण में रखने के लिए बाघ जैसी प्रजाति को महत्व समझते हैं । भीमशंकर में बाघ देवता का समर्पित एक मंदिर भी है ।
अंग्रेजों के भारत में आने के पूर्व ये वन स्थानीय समुदाय जिनमें अधिकांश आदिवासी थे, के हाथों में थे । ये आदिवासी समुदाय इन वनों की देखरेख करते थे और अपने अस्तित्व के लिए इनका प्रयोग करते थे । औपनिवेशिक काल में वन राजकीय सम्पत्ति बन गए और इन्हें लकड़ी के डिपो की तरह प्रयोग मेें लाया जाने लगा । जहाज और रेल निर्माण के लिए मजबूत पेड़ों को काटा जाने लगा । दो विश्वयुद्धों में भी बड़ी मात्रा में लकड़ियों का इस्तेमाल हुआ । ठीक इसी तरह बांध, खदान, कारखानों, शहरों, राजमार्गो जैसे विकास कार्यो में भी बड़ी मात्रा में लकड़ियों का उपयोग हुआ । अनगिनत गैर इमारती पेड़ों को भी कोयले और प्लायवुड के लिए काटकर विशाल और बढ़ते हुए शहरों में भेज दिया गया । इतना ही नहीं विशाल व्यावसायिक रोपण के लिए प्राकृतिक वनों को नष्ट कर दिया गया । इससे वनों का संतुलन ही बिगड़ गया जिससे स्थानीय समुदाय के साथ ही साथ वन्यजीवों का जीवन भी प्रभावित हुआ । इसके परिणाम स्वरूप जंगल अस्थिर और जोखिम भरे हो गए । हालांकि वन तो कृषि युग के आरंभ से ही सिकुड़ते जा रहे हैं लेकिन पिछली दो शताब्दियों में इस सिकुड़न की रफ्तार बहुत तेजी से बढ़ी है ।
हमारी उपभोगवादी, जीवनशैली हमारे प्राकृतिक संसाधन हड़प करती जा रही है और हमें इसके प्रलयंकारी प्रभावों को झेलना पड़ रहा है । अंतत: अब हम यह जान पाए है कि आदिवासियों के पास ह्मसे साझा करने के लिए बहुमूल्य ज्ञान का खजाना मौजूद है । इसीलिए निजी सम्पत्ति और व्यक्तिगत लाभ के बरस्क समुदाय की बेहतरी का विचार जोर पकड़ रहा है ।
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