बुधवार, 17 अगस्त 2011

हमारा भूमण्डल

हमारा भूमण्डल
सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य अभी दूर
कनग राजा
विश्व स्वास्थ्य आंकड़े २०११ वास्तव में हमारी आंखे खोलने को पर्याप्त् आधार दे रहे है । विश्वभर में भारत की कुल आबादी (करीब ११० करोड़) जितने व्यक्तियों को शौचालय या साफ सफाई की किसी भी तरह की सुविधा ही उपलब्ध नहीं है । वैश्विक संदर्भ में बीमारियों की गंभीरता और व्यापकता में कमी तो आ रही है लेकिन जितनी तीव्रता से यह कार्य होना चाहिए था वह नहीं हो पा रहा हे । अतएव सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों की प्रािप्त् अभी दूर की कौड़ी है ।
विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा हाल ही में जारी रिपोर्ट विश्व स्वास्थ्य आंकड़े - २०११ में बताया गया है कि ऐसे देशों की संख्या बढ़ती जा रही है जिनमें बीमारी का कहर दोहरा हो गया है । एक ओर यहां असंक्रामक रोग जैसे ह्दय रोग, मधुमेह व कैंसर की संख्या बढ़ रही है वहीं दूसरी ओर संक्रामक रोगों के कारण वे मातृ-शिशु मृत्युदर में भी कमी नहीं कर पा रहे हैं । विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वैश्विक रूप से ह्दयरोग, ह्दयघात, मधुमेह व कैंसर जैसे रोगों से मरने वालों की संख्या कुल मृतकों की संख्या की दो तिहाई तक पहुंच गई है । इसकी वजह है बढ़ती उम्र और वैश्वीकरण एवं शहरीकरण से जुड़े खतरों में विस्तार ! इसके अलावा अनेक विकासशील देश निमोनिया, दस्त और मलेरिया जैसी स्वास्थ्य समस्याआें से लड़ रहे हैं जिनकी वजह से ५ से कम उम्र के बच्च्े बड़ी तादाद में मारे जाते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के टाइस बोइरामा का कहना है तथ्य बताते है कि दुनिया का कोई भी देश स्वास्थ्य समस्याआें को संक्रामक अथवा असंक्रामक में से किसी एक नजरिए से देखकर उनसे नहीं निपट सकता । इसे तो परिपूर्णता में ही देखना होगा । विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि रिपोर्ट १९३ सदस्य देशों एवं अन्य स्त्रोतों से स्वास्थ्य के १०० बिन्दुआें को ध्यान में रखकर तैयार की गई है । साथ ही इसमें स्वास्थ्य संबंधी सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों को भी ध्यान में रखा गया है । रिपोर्ट में पाया गया है कि विश्व के अनेक भागों में बच्च्े अभी भी अल्प-पोषण का शिकार हैं । इतना ही नहीं करीब १७.८ करोड़ बच्च्े अत्यधिक कुपोषण का शिकार हैं । वैसे विश्वभर में बाल मृत्युदर में कमी आ रही है और वर्ष २०००-२००९ के मध्य इसमें वर्ष १९९० के दशक की बनिबस्त काफी कमी आई । विश्व के कई हिस्सोंखासकर अफ्रीका और कम आय वाले देशों में यह अभी भी चिंताजनक स्थिति में है ।
रिपोर्ट के अनुसार निमोनिया और दस्त आज भी बच्चें की मृत्यु के सबसे बड़े कारण बने हुए है और सन् २००८ में इनसे पांच वर्ष के कम उम्र के क्रमश: १८ व १५ प्रतिशत बच्चें की मृत्यु हुई है । इन बीमारियों से अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया में सर्वाधिक मौतें हुई हैं और ये देश सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्य में निर्धारित बाल मृत्युदर के लक्ष्य (दो तिहाई कमी) को भी प्राप्त् नहीं कर पाए हैं ।
रिपोर्ट में कहा गया है कि गर्भावस्था और बच्च्े को जन्म देने के दौरान महिलाआें की मृत्यु में करीब ३४ प्रतिशत की कमी आई है । सन् १९९० में इनकी संख्या ५ लाख ८० हजार थी वह सन् २००८ में घटकर ३ लाख ५८ हजार रह गई । हालांकि यह प्रगति ध्यान आकर्षित तो करती है लेकिन यह अभी भी निर्धारित लक्ष्य ५.५ प्रतिशत से आधी से भी कम यानि २.३ प्रतिशत ही है । यह भी पाया गया है कि सन् २००८ में प्रसव के दौरान मृत में से अधिकांश महिलाएं यानि ९९ प्रतिशत विकासशील देशों की थी । हालांकि दक्षिण पूर्व एशिया में मातृ मृत्यु में सर्वाधिक कमी आई है लेकिन अफ्रीका देशों में यह सन् २००८ में उच्च् स्तर यानि १ लाख जीवित जन्मों में ६२० थी ।
रिपोर्ट में कहा गया है कि दूसरी तरफ मातृ मृत्युदर कम करने हेतु हस्तक्षेप बढ़ा है और इसमें परिवार नियोजन कार्यक्रम सेवा का प्रावधान व सभी महिलाआें को गर्भावस्था, शिशु जन्म एवं जन्म के उपरांत कुशल स्वास्थ्य सेवाएं शामिल है ।
मलेरिया के संबंध में रिपोर्ट में पाया गया है कि ऐसे देशों की संख्या में वृद्धि हो रही है जहां पर सन् २००० के बाद से मलेरिया के मामलों में अस्पतालों में भर्ती और मृत्यु के आंकड़ों में कमी आई है । राष्ट्रव्यापी प्रयासों के कारण जहां सन् २००० में मलेरिया से अनुमानित मौतें १० लाख थीं वे वर्ष २००९ में घटकर ७ लाख ८१ हजार पर आ गई । वहीं सन् २००५ में मलेरिया से पीड़ित लोगों की संख्या बढ़कर २४ करोड़ ४० लाख हो गई जो कि सन् २००० में २३ करोड़ ३० लाख थी । परन्तु सन् २००९ में यह पुन: घटकर २३ करोड़ ५० लाख पर आ गई ।
टी.बी. के मामले में रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक तौर पर इसकी संख्या में थोड़ी बहुत वृद्धि हुई है । सन् २००९ में इसके कुल मामले १.२ करोड़ से १.६ करोड़ के मध्य थे और इसमें से करीब ९४ लाख नए मामले थे । यह भी अनुमान लगाया गया है कि सन् २००९ में १३ लाख एच.आई.वी. नेगेटिव व्यक्ति टी.बी. से मारे गए है । रिपोर्ट में निष्कर्ष निकाला गया है कि इस बीमारी से होने वाली मौतों में सन् १९९० के मुकाबले एक तिहाई की कमी आई है । अगर वैश्विक रूप से गिरावट की वर्तमान दर बनी रहती है तो टी.बी. को लेकर सहस्त्राब्दी लक्ष्यों में निर्धारित मृत्यु के लक्ष्य को सन् २०१५ तक पाया जा सकता है ।
विश्वभर में जीवित एचआईवी पॉजिटिव व्यक्तियों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है और यह सन् २००९ में ३.३ करोड़ तक पहुंच गई है जो कि सन् १९९९ से २३ प्रतिशत अधिक है । अनुमानत: सन् २००९ में करीब २६ लाख नए लोग इस संक्रमण से ग्रसित हुए और इस दौरान एचआईवी/एड्स से संबंधित १८ लाख व्यक्तियों की मृत्यु हुई । यह भी पाया गया कि एच.आई.वी. पॉजिटिव जीवित व्यक्तियों की संख्या बढ़ने का कारण एंटी रीट्रोवायरल थेरेपी (एआरटी) की उपलब्धता भी है । दिसम्बर २००९ में कम और मध्यम आय वाले देशों के ५० लाख व्यक्तियों को एआरटी सुविधा उपलब्ध थी । इसके अलावा इसी दौरान उच्च् आय वाले देशों में अतिरिक्त ७ लाख लोगों को यह उपचार उपलब्ध था । इसके बावजूद वैश्विक रूप से उचित प्रगति नहीं हो पा रही है । उपचार व प्रभावितों के अनुपात में अभी भी अंतर है । निम्न और मध्यम आय वाले देशों में केवल ३६ प्रतिशत प्रभावितों को ही यह उपचार मिल पा रहा है ।
रिपोर्ट में सुरक्षित पेयजल और सेनेटरी की मूलभूत आवश्यकताआें पर पहुंच को भी दृष्टिगत रखा गया है । पाया गया है कि सन् १९९० में जहां ७७ प्रतिशत आबादी सुरक्षित पेयजल की पहुंच में थी वहीं सन् २००८ में यह बढ़कर ८७ प्रतिशत तक पहुंच गई है । जहां तक सहस्त्राब्दी विकास लक्ष्यों की बात है वर्तमान दर से वृद्धि से इन्हे प्राप्त् कर पाना मुश्किल है । सन् २००८ में करीब ८८.४० करोड़ व्यक्ति बिना सुरक्षित पेयजल के थे जिनमें से ८४ प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते है ।
सेनिटेशन संबंधी सहस्त्राब्दी लक्ष्यों की पूर्ति की संभावनाएं भी कम ही नजर आ रही हैं । सन् २००८ में तकरीबन २६० करोड़ व्यक्ति विकसित सेनिटेशन सुविधाआें का उपयोग नहीं कर पा रहे थे । इनमें वे ११० करोड़ लोग भी शामिल हैं जिनके पास सेनीटेशन और शौचालय को किसी भी प्रकार की सुविधा ही उपलब्ध नहीं है ।
रिपोर्ट में यह भी पाया गया है कि विकासशील में अनिवार्य औषधियों की कमी और अधिक मूल्य की समस्याएं अभी भी विद्यमान है । ४० से अधिक देश जिनमें से अधिकांश निम्न और मध्य आय वर्ग के थे, में किए गए सर्वेक्षण से यह बात सामने आई है कि चुनिंदा जेनेरिक दवाइयां सार्वजनिक क्षेत्र की सुविधाआें में से केवल ४२ प्रतिशत में और निजी क्षेत्र में केवल ६४ प्रतिशत में उपलब्ध हैं । सार्वजनिक क्षेत्र में औषधियां की कमी से मरीज निजी क्षेत्र से दवाईयां खरीदने को मजबूर हैं जहां पर ये दवाईयां अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों के अनुसार देखें तो जेनेरिक दवाइयों से औसतन ६३० प्रतिशत तक महंगी हैं ।
असंक्रामक रोग जिसमें ह्दयरोग मधुमेह, कुछ खास तरह के कैंसर और श्वास संबंधी गंभीर बीमारियां शामिल हैं, विकसित और विकासशील देशों और सभी उम्र एवं समूहों के व्यक्तियों में लगातार बढ़ रहे हैं । इन दीर्घकालिक बीमारियों की महामारी के कारणों में अस्वास्थ्यकर भोजन, अत्यधिक खाद्य ऊर्जा ग्रहण करना, शारीरिक गतिविधियों में कमी, अधिक वजन और मोटापा, तंबाखू और शराब का हानिकारक इस्तेमाल शामिल है । रिपोर्ट में स्वास्थ्य पर किए जाने वाले अधिक व्यय और व्यक्तियों के जीवनकाल में बढ़ोत्तरी को भी रेखांकित किया गया है । सन् १९९० में जहां औसत आयु ६४ वर्ष थी वह सन् २००९ में बढ़कर ६८ वर्ष हो गई । परन्तु निम्न और मध्यम आय के देशोंमें स्वास्थ्य पर होने वाले व्यय में अत्यधिक खाई अभी भी मौजूद है ।

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