बुधवार, 17 अगस्त 2011

जनजीवन

जनजीवन
क्या कार का पेट भरना जरूरी है
डॉ. रामप्रताप गुप्त

अमेरिका ने सन् २००८-०९ के मध्य जितने खाद्यान्न का उपयोग वाहनों के लिए ईधन बनाने के लिए उतने में ५० करोड़ लोग वर्ष भर खाना खा सकते हैं । गौरतलब है इसी दौरान विश्व में भूखमरी और कुपोषण के शिकार व्यक्तियों का आंकड़ा १ अरब को पार कर गया । भारत में भी कुपोषण और भुखमरी की समस्या सुरसा के मुंह की तरह है ।
राष्ट्रों ने सहस्त्राब्दि लक्ष्यों के अन्तर्गत भुखमरी में कमी, शिक्षा का विस्तार, स्वास्थ्य सुविधाआें के विस्तार तथा स्वास्थ्य स्तर में सुधार आदि क्षेत्रों में सन् २०१५ तक की अवधि के लिए न केवल लक्ष्य निर्धारित किए थे तथा उन्हें प्राप्त् करने का निर्णय भी लिया था । इन्हीं लक्ष्यों के अन्तर्गत सन् १९९० और २०१५ के मध्य विश्व में भूख और कुपोषण की शिकार आबादी को २० प्रतिशत से कम करके १० प्रतिशत तक लाने का निश्चिय भी था । सन् १९९०-९१ से सन् २००५-०६ तक इस दिशा में प्रगति संतोषप्रद थी परन्तु सन् २००७-०८ में आई वैश्विक मंदी ने प्रगति की प्रक्रिया पर रोक सी लगा दी और विश्व में भुखमरी और कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या बढ़कर एक अरब अर्थात् कुल आबादी की १६ प्रतिशत से भी अधिक हो गई । शेष बची अवधि में इसे कम करके १० प्रतिशत तक लाना अत्यधिक कठिन ही दिखता है ।
भूख और कुपोषण की गणना वैश्विक भूख सूचकांक की गणना के लिए विश्व में कुपोषित आबादी के प्रतिशत, ५ वर्ष से कम आयु के बच्चें में अल्प वजन वालों का प्रतिशत और इसी आयु वर्ग के बच्चें की मृत्युदर को शामिल किया जाता है । इन तीनों पैमानों पर सन् २००९ काफी चिंताजनक है । इस वर्ष १२.९ करोड़ बच्च्े अल्प वजन वाले थे और १९.५ करोड़ बच्च्े कुपोषण का शिकार होकर ठिगने रह गए थे । इतना ही नहीं बालकों की तुलना में बालिकाएं कुपोषण और भूख का विशेष शिकार थीं । जब वे माताएं बनती हैं तो कुपोषित बच्च्े को ही जन्म देने की पूरी-पूरी संभावना रहती है । इस तरह समाज में कुपोषण और भूख का चक्र चलता ही रहता है । कुपोषण और भूख के सूचकांक में ५० प्रतिशत कुपोषित बच्च्े हैं । यह इस बात का प्रतीक है हम अपनी भावी पीढ़ी के प्रति अपने दायित्व के प्रति हम कितने सजग है ।
कुपोषण और भूख से निजात के प्रयासों में बच्च्े का माँ के गर्भ में आने के प्रथम दिन से लेकर २ वर्ष तक की आयु का सर्वाधिक महत्व होता है । इस आयु में कुपोषण के शिकार बच्च्े को बाद में कितना ही अच्छा पोषण क्यों न दिया जाए, २ वर्ष की आयु तक के कुपोषण की क्षतिपूर्ति संभव नहींहोती । अत: बाल कुपोषण से मुक्ति के प्रयासों में गर्भवती माताआें को भी शामिल करना आवश्यक होता है । कुपोषण और भूख की समस्या माँ के गर्भ से ही शुरू हो जाती है ।
विश्व में कुपोषण और भूख के समस्या के भौगोलिक स्वरूप पर नज डाले तो हम पाते है कि कुपोषण के गंभीर शिकार राष्ट्रों में अफ्रीका के सहारा क्षेत्र के राष्ट्र तथा दक्षिणी एशिया के राष्ट्र सबसे ऊपर आते हैं । जो राष्ट्र अपने भूख संूचकांक में १३ अंक या अधिक की गिरावट ला सके हैं, उनमें अंगोला, इथोपिया, घाना, मोजाम्बिक, निकारगुआ और वियतनाम प्रमुख हैं । परन्तु सहारा क्षेत्र के सभी ९ राष्ट्रों के भूख सूचकांक में वृद्धि हुई है । गृहयुद्ध से जर्जर कांगो का स्थान इसमें सबसे ऊपर है । इसकी तीन-चौथाई आबादी भूख और कुपोषण का शिकार है जो पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय होना चाहिए । बरूण्डी, गिनी बिसाऊ, लाइबेरिया और उत्तरी कोरिया में भी कुपोषण की स्थिति अत्यन्त चिंताजनक है । दक्षिणी एशियाई राष्ट्रों में महिलाआें की निम्नस्तरीय सामाजिक स्थिति के कारण उनमें भी कुपोषण का स्तर अधिक होता है और परिणामस्वरूप उनकी संताने भी कुपोषित होने का श्राप भुगतने का विवश होती हैं ।
विश्व संगठनों को इन राष्ट्रों पर और अधिक ध्यान देना चाहिए । अब तक के प्रयासों के कारण दक्षिणी एशियाई राष्ट्रों के भूख सूचकांको में २५ और सहारा क्षेत्र के राष्ट्रों में १४ अंकों की गिरावट आई है । इसकी तुलना में पूर्वी एशिया के राष्ट्रों तथा उत्तरी अफ्रीका के सूचकांक में ३३ अंकों की कमी आई है । मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि जिन राष्ट्रों की आर्थिक प्रगति का स्तर बेहतर रहा है, वे अपने भूख सूचकांको में भी अच्छी कमी ला सकते हैं । यद्यपि यह बात हर राष्ट्र के संबंध मेंसही ही हो ऐसा आवश्यक नहीं है ।
कुपोषण और भूख के सूचकांकों के ऊँचे स्तर और उनमें अपेक्षाकृत सुधार न होने के पीछे एक बड़ा कारण अमेरिका द्वारा खाघान्नो का बढ़ती मात्रा में गैर खाघान्नों के रूप में ंउपयोग है । वह पशु खाघान्न के रूप में तो खाघान्नों का उपयोग करता तो है ही, पिछले वर्षो में तेल की कीमतों में वृद्धि के फलस्वरूप वह इनसे जैव ईधन का निर्माण भी करने लगा है । जैव ईधन के रूप में मक्का, गेहूँ, रायड़ा, सूरजमुखी, सोयाबीन आदि फसलों का उपयोग किया जाता है, विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार सन् २००८-०९ में १२.५ करोड़ टन अनाजों का उपयोग जैव ईधन बनाने के लिए उपयोग किया गया । इस मात्रा से ५० करोड़ आबादी की खाघान्नों की आवश्यकता पूरी की जा सकती है ।
इनती बड़ी मात्रा में जैव ईधन के उत्पादन के लिए खाघान्नों का उपयोग होने से सन् २००६ और २००८ की अवधि में विश्व खाद्यान्न कीमतों में ७५ प्रतिशत की वृद्धि तथा गेहूँ, चावल और मक्का की कीमतों में तो १२६ प्रतिशत की वृद्धि हुई है । खाघान्नों की कीमतों में आए इस भारी उछाल से खाघान्नों के आयातक तथा अल्प आय वाले ८२ राष्ट्रों के आयात बिल में भारी वृद्धि हो गई । खाघान्नों की कीमतों में प्रत्येक १० प्रतिशत की वृद्धि से इनके आयात बिल में ४.५ अरब डॉलर की वृद्धि हो जाती है । कुल मिलाकर अमेरिका और अन्य विकसित राष्ट्रों द्वारा खाघान्नों के गैर खाद्य उपयोग के कारण सन् २००८ में उनकी वैश्विक कीमतों में ३० से ७५ प्रतिशत की वृद्धि हुई और आयातक गरीब राष्ट्रों के लिए उनका आयात असंभव हो गया । इसी वजह से उनके भूख सूचकांक में सन् २००८ के बाद की अवधि में तमाम प्रयासों के बावजूद उनमें सुधार संभव नहीं हुआ । अनेक राष्ट्रों के भूख सूचकांक में वृद्धि हुई है।
विश्व भूख सूचकांक में कमी के सहस्त्राब्दी लक्ष्यों को प्राप्त् करने के लिए हमें खाद्यान्नों के गैर खाद्यान्न उपयोग पर रोक लगाना होगी । आज की परिस्थितियों में इस मामले में प्रमुख दोषी अमेरिका को इसके लिए बाध्य करना ही होगा ।

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