पर्यावरण परिक्रमा
देश में बाघों की आबादी में २० फीसदी की बढ़ोतरी
देश में बाघों की आबादी में २० फीसदी की बढ़ोतरी
एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले वर्ष बाघों की जनसंख्या में २० फीसदी बढ़ोतरी हुई है । पिछले दिनों यह रिपोर्ट वन और पर्यावरण मंत्रालय के अतिरिक्त महानिदेशक जगदीश किशवान ने जारी की, जिसमें वर्ष २०१० के दौरान बाघों की स्थिति पर रोशनी डाली गई है ।
रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछली बार २००६ में सर्वेक्षण किया गया था जब देश में बाघों की अनुमानित संख्या १४११ थी, जबकि पिछले वर्ष २० फीसदी बढ़ोतरी के साथ बाघों की अनुमानित संख्या १७०६ है । यह बढ़ोतरी अतिरिक्त क्षेत्रों में किए गए सर्वेक्षण और गहन-घनत्व वाली आबादी में बाघों की संख्या में हुई बढ़त पर आधारित है ।
बाघों की आबादी की जनसंख्या आँकने में १७ राज्यों को शामिल किया गया । इसमें फॉरेस्ट स्टॉफ के ४,७७,००० कार्य दिवसों को शामिल किया गया । इनक अलावा, पेशेवर जीव विज्ञानियों ने भी ७० हजार कार्य दिवसों में काम किया । इस प्रकार का सर्वेक्षण प्रत्येक चार वर्ष में किया जाता है जिसमें नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी, द वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया, बाघों की आबादी वाले राज्य और बाहरी विशेषज्ञ शमिल होते हैं । श्री किशवान ने कहा कि उत्तराखंड, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और कर्नाटक में बाघों का घनत्व बढ़ा है । इस गिनती में सुंदरवन, पूर्वोत्तर के कुछ इलाकों और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों को भी शामिल किया गया है जिसके चलते बढ़ोतरी संभव हुई और इनकी संख्या आँकने के लिए दोहरी सैम्पलिंग तरीके को अपनाया गया ।
रिपोर्ट में यह चेतावनी दी गई है कि इस अच्छी खबर के बावजूद बाघ खतरे में है, क्योंकि उनके रिहायशी इलाके में कुल मिलाकर १२.६ फीसद की कमी हुई है । इसका अर्थ यह भी है कि छोटे क्षेत्रों में अधिक बाघों को बसाया जा रहा है । इस स्थिति के चलते इनके फैलाव में कमी हो सकती है । बाघों की जनसंख्या के बीच जीन सबंधी आदान-प्रदान का नुकसान होगा और मनुष्य तथा बाघ के टकराव के मामले बढ़ेगे ।
सन्२०३१ में होगी अन्य ग्रहों के प्राणी से मुलाकात
रूसी वैज्ञानिकों ने संभावना व्यक्त की है कि बार-बार धरती पर दस्तक देकर एक रहस्य छोड़ जाने वाले बाहरी ग्रह के प्राणियों से २०३१ तक पृथ्वी पर मनुष्य की सीधी मुठभेड़ हो जाएगी ।
रूस की सरकारी संवाद समिति इंटरफैक्सने रूसी विज्ञान अकादमी के अंतरिक्ष संस्थान के एक शीर्ष वैज्ञानिक के हवाले से खबर दी है कि पृथ्वी से इतर अन्य ग्रहों पर निश्चित रूप से जीवन है और संभावना है कि धरती के मनुष्य का अगले दो दशकों में उन प्राणियों से आमना सामना हो जाएगा । ज्ञातव्य है कि आकाशगंगा में हमारे सौरमण्डल के अतिरिक्त भी अनगिनत सौरमण्डल हैं, जिनके अपने अपने सूर्य हैं ।
अंतरिक्ष संस्थान के निदेशक एवं प्रसिद्ध अंतरिक्ष वैज्ञानिक एंडीफिकेलस्तीन ने कहा कि इन बाहरी सौरमण्डलों में अपने अपने सूर्य की परिक्रमा करने वाले ज्ञात ग्रहों में से १० प्रतिशत पृथ्वी जैसे ही है । यदि उन ग्रहों पर पानी है तो फिर वहां जीवन होने की पूरी-पूरी संभावना है । उनका कहना है कि बाहरी ग्रहों के प्राणियों के भी पृथ्वी के मनुष्य के तरह ही दो हाथ, दो पांव और एक सिर है । उन्होनें कहा कि हो सकता है कि उनकी चमड़ी का रंग अलग हो, लेकिन इस तरह की विविधता तो पृथ्वी के मनुष्यों में भी विद्यमान रहती ही है । उन्होने कहा कि उनका संस्थान अन्य ग्रहों पर जीवन की मौजूदगी का पता लगाने के काम में पूरी तरह से जुटा हुआ है और अगले २० वर्षो में यह रहस्य पूरी तरह से खुल जाने की उम्मीद है ।
नारियल की जटा से बनेंगी सड़के
मध्यप्रदेश की ग्रामीण सड़कें अब नारियल की जटाआें से बनेगी । इसके लिए मप्र ग्रामीण विकास प्राधिकरण ने पांच जिलों का चयन किया है । इससे स़़डकें मजबूत और टिकाऊ बनेगी ।
इस तकनीकी का कॉयर जियो टेक्सटाइल (सीजीट) नाम दिया गया है। इसका इस्तेमाल पॉयलट प्रोजेक्ट के तहत गुना, दमोह, जबलपुर, इन्दौर और बैतूल जिलों में किया जाएगा । इन जिलों में ५८ किलोमीटर लंबाई की १२ सड़कों का निर्माण किया जा रहा है । सेंट्रल कॉयर रिसर्च इंस्टिट्यूट इसकी विस्तृत परियोजना रिपोर्ट (डीपीआर) तैयार कर रहा है। ज्ञात हो कि राष्ट्रीय ग्रामीण सड़क विकास एजेंसी (एनआरआरडीए) ने मप्र सहित आठ राज्यों को पत्र लिखकर प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत ग्रामीण सड़कों में सीजीट का इस्तेमाल करने को कहा था । इसके बाद ही मप्र ग्रामीण सड़क विकास प्राधिकरण ने इस दिशा में कार्य शुरू किया ।
सेंट्रल कॉयर रिसर्च इंस्टिट्यूट (कलावूर, केरल) के डायरेक्टर डॉ उमाशंकर शर्मा ने बताया कि ग्रामीण क्षेत्र में सड़कें ऐसी सतह पर बनाई जाती है जो खिसकती बहुत है । इससे सड़कें कमजोर हो जाती है । इसी को रोकने के लिए ग्रामीण इलाकों में इस तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है । इसमें नारियल की जटाआें से जालियां बनाई जाती है । इनको मिट्टी पर बिछाया जाता है, जो धीरे-धीरे मिट्टी की पकड़ को मजबूत कर देती है । इन जालियों के ऊपर मुरम और अन्य सामग्री बिछाई जाती है । इस तकनीकी को इंडियन रोड़ कांग्रेस ने भी मान्यता दे दी है ।
केन्द्र सरकार से मंजूरी मिलते ही इन सड़कों का कार्य प्रारंभ कर दिया जायेगा । प्राधिकरण के अधिकारियों का मानना है कि कम से कम मप्र में इतना जरूर फायदा होगा कि बाद में इसका मेंटनेंस सस्ता पड़ेगा ।
बैतूल में देश का चौथा कार्बन अनुमापन केन्द्र
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्था (इसरो) द्वारा वन विभाग के सहयोग से बैतूल जिले के तावड़ी परिक्षेत्र के सुकवान बीट क्षेत्र में परिस्थितिकीय तंत्र कार्बन अनुमापन केन्द्र की स्थापना की गई है । इस केन्द्र में बने टॉवर पर विभिन्न प्रकार के सेंसर्स का परीक्षण शुरू हो गया है ।
बैतूल में स्थापित यह केन्द्र देश का चौथा केन्द्र है । इसके पूर्व हलद्वानी, सहारनपुर और बरकोट (ऋषिकेश) में ऐसे केन्द्र स्थापित किये गये है । देश में कुल १५ केन्द्रों की स्थापना की जानी है । केन्द्र पर बनाय गये टॉवर पर अलग-अलग ऊँचाई और जमीन के नीचे विभिन्न प्रकार के सेंसर लगाये गये
हैं जो हवा की गति, तापमान एवं आर्द्रता संबंधी आँकड़े एकत्र करेंगे । यह आँकड़ें विश्लेषण के लिये हैदराबाद स्थित इसरो के राष्ट्रीय सुदूर संवेदन केन्द्र भेजे जायेंगे ।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान विभाग में ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में अपने जियोस्फीअर-बायोस्फीअर कार्यक्रम के अन्तर्गत, देश के अलग-अलग पारिस्थितिकीय क्षेत्रों में स्थलीय अभिवाह मापन के लिये एक योजना आरंभ की है जिसमें चार टॉवरों की स्थापना की गई है । बारहवीं पंचवर्षीय योजना में इन अभिवाह टॉवरों का कार्यजाल अवलोकन, अन्य महत्वपूर्ण भारतीय पारिस्थितिकी तंत्रों के लिये विस्तृत और गहन करने की आवश्यकता है । इस कार्यक्रम के अन्तर्गत वन विभाग के सहयोग से बैतूल के निकट, सुखवान में की गई है ।
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान द्वारा स्थापित इस केन्द्र में अत्यन्त संवेदनशील वैज्ञानिक उपकरणों एवं विधियों से वातावरण में कार्बन अथवा कार्बनडाईऑक्साइड के वातावरण से वनस्पति में परिगमन एवं मात्रा परिवर्तन को मापा जाता है । अधिक संख्या में व्यक्तियों का समूह, वाहनों का समूह एवं उनका चालन वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि करता है, जिससे यहाँ स्थापित उपकरणों में अशुद्ध आँकड़ें प्राप्त् होते हैं जो वैज्ञानिक अनुसंधान को बाधित करते हैं । अत: यहां व्यक्तियों एवं वाहनों का आवागमन नियंत्रित रहेगा ।
प्रौघोगिक क्रांति के आरंभ से, कार्बन डाई-ऑक्साइड की विश्वव्यापी औसत सांद्रता लगभग २८० पीपीएम से बढ़कर ३८० पीपीएम से भी अधिक हो गई है एवं अन्य ग्रीन हाऊस गैसों के स्तर में निरन्तर वृद्धि वैज्ञानिक और नीति-निर्धारकों के लिये गहन चिंता का विषय है । इसके फलस्वरूप पृथ्वी की सतह का तापमान बढ़ने लगता है, ध्रुव क्षेत्रों पर जमे हिम खण्ड पिघलने लगते हैं और समुद्र का स्तर बढ़ जाता है । अनेक एवं कृषि योग्य भूमि, उप-नगरीय एवं नगरीय भूखण्डों में रूपांतरित हो गई है और अनेकों उष्ण कंटिबंधीय वन, निष्क्रिय एवं क्षरित होेकर चारागाहों में परिवर्तित हो गये हैं । वन संरचना में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष कोई भी विक्षोभ, इसकी कार्बन-उपार्जन एवं जल वाष्पोत्सर्जन क्षमता को प्रभावित करता है ।
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