सोमवार, 11 जून 2012

शिक्षा जगत
                         कॉलेजों में डिसेक्शन पर रोक
                                                                                                                        डॉ. सुशील जोशी

    हाल ही में विश्वविघालय अनुदान आयोग ने देश के महाविघालयों में जंतुआें के विच्छेदन (आम बोलचाल में डिसेक्शन) पर रोक लगाने का निर्णय लिया है । इस निर्णय के तहत अब स्नातक कक्षाआें के छात्र डिसेक्शन नहीं करेंगे । यह निर्णय मूलत: जंतु अधिकार संगठनों के आग्रह (दबाव) में लिया गया है । इस फैसलेपर मिली-जुली प्रतिक्रिया हुई है ।
    पिछले वर्ष जनवरी में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया था । इस समिति को यह फैसला करना था कि क्या विश्वविद्यालयों व कॉलेजों में डिसेक्शन प्रयोग बंद कर दिए जाएं ।
    उपरोक्त निर्णय करते हुए विशेषज्ञ पैनल ने स्वीकार किया है कि उपलब्ध शैक्षिक शोध के अवलोकन से इस बात की पुष्टि होती है कि काफी बड़ी संख्या में छात्र जंतुआें के डिसेक्शन व अन्य प्रयोगों को लेकर असहज होते हैं और कई छात्र तो मात्र इसी वजह से जीव विज्ञान लेना पंसद नहीं करते है ।
    पीपुल फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स (पेटा-जंतुआें के साथ नैतिकतापूर्ण सलूक के पक्षधर) नामक समूह काफी समय से स्कूल-कॉलेजों में डिसेक्शन पर रोक के लिए अभियान चलाता आ रहा है । पेटा का कहना है कि देश के करीब २५ लाख स्नातक व स्नातकोत्तर छात्र प्रति वर्ष अनुमानित १.९ करोड़ जंतुआें का डिसेक्शन करते हैं । इनमें मेंढक, कॉकरोच, मछलियां, चूहे, केंचुए वगैरह शामिल हैं । जंतु अधिकारों के हिमायतियों का मत रहा है कि यह जंतुआें पर अत्याचार है और जीवन की बरबादी   है ।
    दूसरी ओर, जीव विज्ञान (खास तौर से प्राणी विज्ञान) के शिक्षक व वैज्ञानिकों का मत रहा है कि जंतुआें का डिसेक्शन करना जीव विज्ञान में शिक्षा का एक अनिवार्य अंग है । मसलन, दिल्ली विश्वविद्यालय के श्री वेंकटेश्वर कॉलेज की वर्तिका माथुर ने नेचर को बताया कि डिसेक्शन अनिवार्य हैं क्योंकि इनसे छात्रों को जंतु शरीर रचना (एनाटॉमी) का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त् होता है । इस बात को कोई अर्थ नहीं है कि कभी किसी जंतु को हाथ लगाए बगैर आपको प्राणी विज्ञान में उपाधि हासिल हो जाए । इस प्रकार से यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन की पुराजीव वैज्ञानिक अंजलि गोस्वामी कहती हैं कि डिसेक्शन से आपको विभिन्न अंगों की जमावट का एक सर्वथा भिन्न परिप्रेक्ष्य मिलता है ।
    इसके विपरीत पेटा व अन्य जंतु अधिकार संगठनों का मानना है कि आज के जमाने में उपरोक्त परिपे्रक्ष्य हासिल करने के कई तरीके हैं जिनमें जंतुआें की हत्या करना जरूरी नहीं है । विश्वविघालय अनुदान आयोग ने भी अपने निर्णय में कहा है कि प्रयोगों में जंतुआें का उपयोग करने की बजाए आधुनिक गैर-जंतु युक्तियों का उपयोग किया जाए । इनमें कम्प्यूटर मॉडल का उल्लेख विशेष तौर पर किया गया है ।
    विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के निर्णय के पीछे प्रमुख कारण यही लगता है कि स्कूल-कॉलेजों में किए जा रहे डिसेक्शन की वजह से जंतुआें पर अनावश्यक हिंसा होती है और खास तौर से आज की स्थिति में इसे जायज नहीं ठहराजा जा सकता जब शारीरिक ज्ञान हासिल करने के कई वैकल्पिक तरीके उपलब्ध हैं । वैसे इस मामले में एक और बुनियादी मसला शिक्षा संबंधी है । सवाल यह है कि जंतुआें का डिसेक्शन क्यों किया जाता है । बताया जाता है कि इन जंतुआें का डिसेक्शन करके इनकी आंतरिक रचना को समझने-सीखने के पीछे कारण यह है कि इससे छात्रों को मनुष्य शरीर की आंतरिक रचना समझने में मदद मिलती है । इसके पीछे सोच यह है कि जिन जंतुआें का डिसेक्शन किया जाएगा वे मनुष्य से मिलते-जुलते होंगे । क्या यह धारणा हकीकत में अपनाई गई है ? क्या मेढ़क, कॉकरोच, केंचुए, घोंघे, सीपें, मछलियां वगैरह वे जंतु हैं जिनकी मदद से हम मनुष्य की आंतरिक रचना का अंदाज लगा सकते है ? दूसरे शब्दों में क्या ये सही मॉडल जंतु हैं ?
    दूसरा सवाल ज्यादा सामान्य महत्व का है । आम तौर पर हमारे यहां (अन्य जगहों का पता नहीं) यह धारण शिक्षा तंत्र पर हावी है कि छात्र जब पहली कक्षा में दाखिला लेते हैं, तो वे डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, शिक्षक वगैरह सब कुछ बनने वाले हैं । हर बार पाठयक्रम व पाठ्य वस्तु संबंधी फैसले होते हैैंतो यह चिंता सर्वोपरि रहती है कि छात्रों को वह सब बताया जाए, जो उन्हें उच्च् शिक्षा में उपयोगी हो । यह धारणा विज्ञान की हर शाखा में व्याप्त् है ।
    जैसे रसायन शास्त्र का स्कूली (प्राथमिक या माध्यमिक स्कूली) पाठ्यक्रम तय करते वक्त चिंता यह रहती है कि उन्हें जल्दी से जल्दी परमाणु सिद्धांत पढ़ा दिया जाए, अन्यथा आगे दिक्कत     होगी । यह धारणा हर विषय में काम करती है और पिछले कुछ दशकों  में इसके परिणाम जानलेवा रहे हैं ।
    आखिर शरीर की आंतरिक रचना की जानकारी, और वह भी इतनी विस्तृत व पुख्ता जानकारी की जरूरत किसे है, किस स्तर पर है ? कहा जाएगा कि यदि छात्र को आगे चलकर शल्य चिकित्सक बनना है, तो उसे न सिर्फ आंतरिक शरीर रचना की जानकारी होनी चाहिए, बल्कि उसे इसका प्रत्यक्ष अनुभव भी होना चाहिए । तो क्या जीव विज्ञान चुनने वाले सारे छात्र शल्य चिकित्सक बनने वाले हैं ?
    शायद हमें यह तय करना होगा कि किसी विषय के अध्यापन के उद्देश्य क्या हैं और फिर अपने तौर-तरीकों को उन्हीं  उद्देश्यों के मद्दे  नजर परिभाषित व विकसित करना होगा ।  खास तौर से जीव विज्ञान अध्यापन को लेकर एक बात गौरतलब है । जीव विज्ञान में चीरफाड़ की काफी महत्व दिया जाता है । स्कूलों से शुरू करें, तो आपको शायद ही कोई ऐसे प्रयोग नजर आएंगे जिनमें छात्रों से जीवन का पोषण करने, उसके फलने-फूलने की परिस्थितियों का अध्ययन करने का आग्रह किया जाता हो । जैसे आपको यह प्रयोग नहीं मिलेगा कि तितली या मेंढक या मच्छर के अंडे लेकर उनसे पूर्ण विकसित जीव के विकास का अध्ययन करें । या पौधों के विकास की अनुकूल परिस्थितियों का अध्ययन करें । ऐसे बहुत संुदर प्रयोग विकसित किए जा सकते हैं जिनसे छात्र जीवों, जीवन और इकॉलॉजी को समग्रता से समझ पाएंगे ।  इसके अलावा यह भी परखने की जरूरत है कि पाठ्यक्रम में डिसेक्शन संबंधी जो प्रयोग शामिल किए गए हैं, छात्र उनसे सीखते क्या हैं । मेरे ख्याल में इस पहलू का अध्ययन नहीं के बराबर किया गया है ।
    जंतु अधिकार समूहों ने एक अच्छा मुद्दा उठाया है कि जीव विज्ञान सिखाने के नाम पर अनावश्यक रूप से जंतुआें की बलि दी जा रही है । यदि जंतुआें का उपयोग अपरिहार्य है, तो किसी को यह अपरिहार्यता साबित करनी होगी । इसे सिर्फ ऐतिहासिक कारणों से जारी रखने में कोई तुक नहीं है । डिसेक्शन के हिमायतियों को यह बताना होगा कि डिसेक्शन क्यों जरूरी हैं, किस स्तर पर जरूरी हैं और ऐसे जरूरी डिसेक्शन के बाद छात्रों के सीखने संबंधी क्या परिणाम हासिल होने की उम्मीद है । इसके बाद यह साबित करना होगा कि जिस ढंग से हमारी शिक्षण संस्थाआें में ये प्रयोग किए जाते हैं, क्या उनसे इन उद्देश्यों की पूर्ति होती है । दूसरी ओर, कंप्यूटर मॉडल्स के जरिए सिर्फ जीव विज्ञान नहीं, बल्कि समूचा विज्ञान सिखाने के हिमायतियों को भी यह साबित करना होगा कि यह ज्ञान अधकचरा या अविश्वसनीय नहीं होता ।

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