प्रदेश चर्चा
बिहार : राग दरबारी का बोल बाला
कुमार कृष्णन
बिहार में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर प्रेस परिषद के अध्यक्ष द्वारा उठाए गए सवालों का व्यापक बहस की आवश्यकता है । दरअसल सिर्फ बिहार ही नहीं पूरे देश का राजनीतिक तंत्र राग दरबारी के अलावा दूसरा कुछ सुनने को तैयार नहीं है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर स्थितियां दिन ब दिन प्रतिकूल होती जा रही है ।
हाल ही में बिहार के पटना विश्वविद्यालय में भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की टिप्पणियों से माहौल गरमा गया है और यह बहस का मुद्दा बन गई है । मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों का है ।
भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष ने अपने भाषण में कहा कि बिहार में सत्ता पक्ष द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता के विरूद्ध रवैया अपनाने की शिकायतें मिल रही है । ऐसी शिकायतों की जांच कराई जाएगी और मामला सही पाया गया तो संविधान के खिलाफ काम करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा । जस्टिस काटजू ने कहा कि बिहार के बारे में मैं कुछ कहना चाहूंगा । मैंने सुना है कि लालू राज की तुलना में इस सरकार ने कानून व्यवस्था को सुधारा है । पर मैंने दूसरी बात यह भी सुनी है कि पहले यहां प्रेस की स्वतंत्रता होती थी, लेकिन अब प्रेस की स्वतंत्रता नहीं है । आयोजन के दौरान ही पटना कालेज के प्राचार्य डॉ. लालकेश्वर प्रसाद ने बयान पर आपत्ति जताई और जोर देकर कहा कि ये सब गलत है । वे कुछ और बोलने लगे तो पूरे सभागार में हंगामा हो गया । बहुत से लोग यह कहकर उन पर टूट पड़े कि ये सरकार के दलाल हैंे । वैसे प्रो. प्रसाद की पत्नी उषा सिन्हा जद यू की विधायक हैं और दोनों मुख्यमंत्री के गृह जिले नालंदा के रहने वाले हैं ।
शोर-शराबे के बीच श्री काटजू ने कहा कि ये क्या तरीका है, किसी को शोर मचाकर हड़काना । गलत आदमी से पंगा ले लिया है । ये तो आप स्वयं सिद्ध कर रहे हैं कि मैं जो कह रहा हूं, वह बिल्कुल सही हैं । दबाव के लिये सरकारी विज्ञापन बंद कर दो और अखबार मालिक पर दबाव डालो । उन्होंने कहा कि टी.वी. चैनलों से लेकर सिनेमा तक इसी प्रयास में लगे रहते हैं कि लोगों को अपनी मूल समस्या और उस पर प्रतिक्रिया करने का अवसर ही नहीं मिले गरीब लोग आपराधिक अन्याय के खिलाफ गोलबंद नहीं हो सकें ।
श्री काटजू का बयान तीन मुददों की ओर इशारा करता है - नीतीश का मीडिया प्रबंधन, मीडिया का सामाजिक ढांचा और विकास के लिए तरसते बिहार में कुछ सकारात्मक बदलाव । लेकिन सबसे महत्वपूर्ण मुददा है लोकतांत्रिक अधिकारों का । हाल के वर्षो में अखबारों के पूंजीगत ढांचे में काफी परिवर्तन हुआ है और उनका व्यावसायीकरण हुआ है । विज्ञापनों की दुनिया और भाषा बदल गई है । बिहार में राजधानी पटना के अलावा मुजफ्फरपुर, गया और भागलपुर से अखबारों के जिले - जिले के संस्करण प्रकाशित होने लगे हैं । मीडिया में यह क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है । साथ ही स्थानीयता का बोध हावी हुआ है । अब राजधानी में बैठकर यह पता नहीं लगाया जा सकता है कि कहां सामंती जुल्म हो रहा है ? जनसरोकार के सवाल क्या हैं, विकास का सफर किस हद तक तय हुआ है तथा क्या सुशासन सिर्फ इश्तेहारों और होर्डिग्स में दिखते हैं ?
बिहार में जब सत्ता परिवर्तन हुआ तो राज्य के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने विज्ञापन नीति में भी फेरबदल किए । विज्ञापन नीति में परिवर्तन के अन्तर्गत सरकारी विज्ञापनों के लिए अब केन्द्रीकृत व्यवस्था काम कर रही है । केन्द्रीकृत व्यवस्था से तात्पर्य है कि सरकार जिसे चहोगी, उसे विज्ञापन देगी । पहले विज्ञापन जिलों के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग द्वारा दिए जाते थे । केन्द्रीकृत व्यवस्था के कारण सरकार ने अखबारों पर शिंकजा कस दिया है । सरकार ने विज्ञापन को मीडिया नियंत्रित करने का हथियार बनाया है । नीतीश के सत्ता में आने से पहले विज्ञापन का बजट एक करोड़ रूपए का था । सत्ता में आने के बाद यह बढ़कर १२ करोड़ रूपए का हो गया और उनकी दूसरी पारी में इसे बढ़ाकर ३५ करोड़ रूपए कर दिया गया । राज्य सरकार की विज्ञापन सूची में लगभग ४० समाचार पत्र हैं । इससे भी मीडिया की स्वतंत्रता प्रभावित हुई है । विज्ञापन की अघोषित नीति है कि यदि किसी अखबार ने सरकार के खिलाफ छापा तो उसका विज्ञापन बंद कर दिया गया ।
इस स्थिति में मीडिया को रागदरबारी की भूमिका में लाकर खड़ा कर दिया है । बिहार सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग की विज्ञापन नीति के तीसरे पेज के चौथे कॉलम में साफ शब्दों में लिखा है कि कोई समाचार पत्र-पत्रिका, जो स्वीकृत सूची में शामिल होने की अनिवार्य पात्रता रखते हों, को स्वीकृत सूची में शामिल किया जाना समिति के लिए बाध्यकारी नहीं होगा । यह भी लिखा गया है कि यदि मीडिया का काम राज्यहित में नहीं है तो उसे दिए जा रहे विज्ञापन रोके जा सकते हैं तथा उसे स्वीकृत सूची से बाहर निकाला जा सकता है । सवाल यह है कि मीडिया का काम राज्य हित में है या नहीं यह कौन तय करेगा जनसंपर्क विभाग में तैनात नौकरशाह या भ्रष्टाचार में लिप्त् नेता ?
बिहार की विज्ञापन नीति में चौंकाने वाली बात तो यह है कि उसमें स्पष्ट लिखा है कि अगर कोई संस्थान स्वीकृत सूची में नहीं है तो उसे भी विज्ञापन दिया जा सकता है । विशेष परिस्थिति में विज्ञापन प्राधिकार समिति किसी भी राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय समाचार पत्र-पत्रिका को विज्ञापन दे सकती है । सवाल लोकतांत्रिक अधिकारों के संघर्ष का है और मीडिया की आम लोगों के प्रति जवाबदेही का है । हाल में आंधप्रदेश और बिहार के सेमिनारों में मुझे इसी विषय पर बोलने का मौका मिला । मेरी यह समझ है कि यदि लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए होने वाले संघर्षो में मीडिया की दिलचस्पी नहीं है तो मीडिया लोकतंत्र के प्रति जवाबदेह कैसे हो सकता है । मूल मुद्दों से ध्यान हटाया जा रहा है । अब इस समाचार को क्या कहेंगे कि चोरी की घटना पर मंदिर में होती है प्राथमिकी । जस्टिस काटजू का इशारा इसी ओर है ।
नीतीश के मीडिया प्रबंधन को छत्तीसगढ़ से समझना होगा । मुझे स्मरण आ रहा है कि अजीत जोगी इस राज्य के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होनेंविज्ञापनों के आधार पर अखबारों पर दबाव डालने का धंधा शुरू किया । यदि कोई चैनल खिलाफ में खबर करता था तो उस इलाके में ब्लैक आउट करवा दिया जाता था । कोई अखबार विरोध में खबर छापता तो विज्ञापन रोक देते । वहां की जनता ने अंतत: उन्हें ही बेदखल कर दिया ।
दरअसल में ऐसे प्रबंधन से सूचना के प्रवाह को रोकना और प्रतिरोध की ताकत को दबाना एक गलत कदम होगा । राज्य के पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी रामचन्द्र खान तो कहते हैं कि राज्य का लोकतांत्रिक ढांचा ही चरमरा गया है । आज न तो पार्टी में लोकतंत्र है न सरकार में । राज्य के कई मंत्रियों की व्यथा है कि अधिकारी उनकी बात ही नहीं सुनते हैं । क्या किसी भी लोकतांत्रिक सरकार को यह हक है कि अपने खिलाफ उठने वाली आवाजों को ताकत के बल पर दबा दे ? क्या सरकार के काले कारनामों को उजागर करना गलत है ? क्या समाज के निचले तबके को लेकर प्रशासनिक बेरूखी को सामने रखना अपराध है ? लोकनायक जयप्रंकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का मुद्दा जोरदार तरीके से उठाया था और नीतीश कुमार ने सूचना के अधिकार में संशोधन कर उसकी मूल भावना ही नष्ट कर डाली । क्या यही सुशासन का असली चेहरा है ?
बिहार : राग दरबारी का बोल बाला
कुमार कृष्णन
बिहार में प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर प्रेस परिषद के अध्यक्ष द्वारा उठाए गए सवालों का व्यापक बहस की आवश्यकता है । दरअसल सिर्फ बिहार ही नहीं पूरे देश का राजनीतिक तंत्र राग दरबारी के अलावा दूसरा कुछ सुनने को तैयार नहीं है । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर स्थितियां दिन ब दिन प्रतिकूल होती जा रही है ।
हाल ही में बिहार के पटना विश्वविद्यालय में भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की टिप्पणियों से माहौल गरमा गया है और यह बहस का मुद्दा बन गई है । मामला अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों का है ।
भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष ने अपने भाषण में कहा कि बिहार में सत्ता पक्ष द्वारा प्रेस की स्वतंत्रता के विरूद्ध रवैया अपनाने की शिकायतें मिल रही है । ऐसी शिकायतों की जांच कराई जाएगी और मामला सही पाया गया तो संविधान के खिलाफ काम करने वालों को बख्शा नहीं जाएगा । जस्टिस काटजू ने कहा कि बिहार के बारे में मैं कुछ कहना चाहूंगा । मैंने सुना है कि लालू राज की तुलना में इस सरकार ने कानून व्यवस्था को सुधारा है । पर मैंने दूसरी बात यह भी सुनी है कि पहले यहां प्रेस की स्वतंत्रता होती थी, लेकिन अब प्रेस की स्वतंत्रता नहीं है । आयोजन के दौरान ही पटना कालेज के प्राचार्य डॉ. लालकेश्वर प्रसाद ने बयान पर आपत्ति जताई और जोर देकर कहा कि ये सब गलत है । वे कुछ और बोलने लगे तो पूरे सभागार में हंगामा हो गया । बहुत से लोग यह कहकर उन पर टूट पड़े कि ये सरकार के दलाल हैंे । वैसे प्रो. प्रसाद की पत्नी उषा सिन्हा जद यू की विधायक हैं और दोनों मुख्यमंत्री के गृह जिले नालंदा के रहने वाले हैं ।
शोर-शराबे के बीच श्री काटजू ने कहा कि ये क्या तरीका है, किसी को शोर मचाकर हड़काना । गलत आदमी से पंगा ले लिया है । ये तो आप स्वयं सिद्ध कर रहे हैं कि मैं जो कह रहा हूं, वह बिल्कुल सही हैं । दबाव के लिये सरकारी विज्ञापन बंद कर दो और अखबार मालिक पर दबाव डालो । उन्होंने कहा कि टी.वी. चैनलों से लेकर सिनेमा तक इसी प्रयास में लगे रहते हैं कि लोगों को अपनी मूल समस्या और उस पर प्रतिक्रिया करने का अवसर ही नहीं मिले गरीब लोग आपराधिक अन्याय के खिलाफ गोलबंद नहीं हो सकें ।
श्री काटजू का बयान तीन मुददों की ओर इशारा करता है - नीतीश का मीडिया प्रबंधन, मीडिया का सामाजिक ढांचा और विकास के लिए तरसते बिहार में कुछ सकारात्मक बदलाव । लेकिन सबसे महत्वपूर्ण मुददा है लोकतांत्रिक अधिकारों का । हाल के वर्षो में अखबारों के पूंजीगत ढांचे में काफी परिवर्तन हुआ है और उनका व्यावसायीकरण हुआ है । विज्ञापनों की दुनिया और भाषा बदल गई है । बिहार में राजधानी पटना के अलावा मुजफ्फरपुर, गया और भागलपुर से अखबारों के जिले - जिले के संस्करण प्रकाशित होने लगे हैं । मीडिया में यह क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है । साथ ही स्थानीयता का बोध हावी हुआ है । अब राजधानी में बैठकर यह पता नहीं लगाया जा सकता है कि कहां सामंती जुल्म हो रहा है ? जनसरोकार के सवाल क्या हैं, विकास का सफर किस हद तक तय हुआ है तथा क्या सुशासन सिर्फ इश्तेहारों और होर्डिग्स में दिखते हैं ?
बिहार में जब सत्ता परिवर्तन हुआ तो राज्य के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने विज्ञापन नीति में भी फेरबदल किए । विज्ञापन नीति में परिवर्तन के अन्तर्गत सरकारी विज्ञापनों के लिए अब केन्द्रीकृत व्यवस्था काम कर रही है । केन्द्रीकृत व्यवस्था से तात्पर्य है कि सरकार जिसे चहोगी, उसे विज्ञापन देगी । पहले विज्ञापन जिलों के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग द्वारा दिए जाते थे । केन्द्रीकृत व्यवस्था के कारण सरकार ने अखबारों पर शिंकजा कस दिया है । सरकार ने विज्ञापन को मीडिया नियंत्रित करने का हथियार बनाया है । नीतीश के सत्ता में आने से पहले विज्ञापन का बजट एक करोड़ रूपए का था । सत्ता में आने के बाद यह बढ़कर १२ करोड़ रूपए का हो गया और उनकी दूसरी पारी में इसे बढ़ाकर ३५ करोड़ रूपए कर दिया गया । राज्य सरकार की विज्ञापन सूची में लगभग ४० समाचार पत्र हैं । इससे भी मीडिया की स्वतंत्रता प्रभावित हुई है । विज्ञापन की अघोषित नीति है कि यदि किसी अखबार ने सरकार के खिलाफ छापा तो उसका विज्ञापन बंद कर दिया गया ।
इस स्थिति में मीडिया को रागदरबारी की भूमिका में लाकर खड़ा कर दिया है । बिहार सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग की विज्ञापन नीति के तीसरे पेज के चौथे कॉलम में साफ शब्दों में लिखा है कि कोई समाचार पत्र-पत्रिका, जो स्वीकृत सूची में शामिल होने की अनिवार्य पात्रता रखते हों, को स्वीकृत सूची में शामिल किया जाना समिति के लिए बाध्यकारी नहीं होगा । यह भी लिखा गया है कि यदि मीडिया का काम राज्यहित में नहीं है तो उसे दिए जा रहे विज्ञापन रोके जा सकते हैं तथा उसे स्वीकृत सूची से बाहर निकाला जा सकता है । सवाल यह है कि मीडिया का काम राज्य हित में है या नहीं यह कौन तय करेगा जनसंपर्क विभाग में तैनात नौकरशाह या भ्रष्टाचार में लिप्त् नेता ?
बिहार की विज्ञापन नीति में चौंकाने वाली बात तो यह है कि उसमें स्पष्ट लिखा है कि अगर कोई संस्थान स्वीकृत सूची में नहीं है तो उसे भी विज्ञापन दिया जा सकता है । विशेष परिस्थिति में विज्ञापन प्राधिकार समिति किसी भी राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय समाचार पत्र-पत्रिका को विज्ञापन दे सकती है । सवाल लोकतांत्रिक अधिकारों के संघर्ष का है और मीडिया की आम लोगों के प्रति जवाबदेही का है । हाल में आंधप्रदेश और बिहार के सेमिनारों में मुझे इसी विषय पर बोलने का मौका मिला । मेरी यह समझ है कि यदि लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए होने वाले संघर्षो में मीडिया की दिलचस्पी नहीं है तो मीडिया लोकतंत्र के प्रति जवाबदेह कैसे हो सकता है । मूल मुद्दों से ध्यान हटाया जा रहा है । अब इस समाचार को क्या कहेंगे कि चोरी की घटना पर मंदिर में होती है प्राथमिकी । जस्टिस काटजू का इशारा इसी ओर है ।
नीतीश के मीडिया प्रबंधन को छत्तीसगढ़ से समझना होगा । मुझे स्मरण आ रहा है कि अजीत जोगी इस राज्य के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होनेंविज्ञापनों के आधार पर अखबारों पर दबाव डालने का धंधा शुरू किया । यदि कोई चैनल खिलाफ में खबर करता था तो उस इलाके में ब्लैक आउट करवा दिया जाता था । कोई अखबार विरोध में खबर छापता तो विज्ञापन रोक देते । वहां की जनता ने अंतत: उन्हें ही बेदखल कर दिया ।
दरअसल में ऐसे प्रबंधन से सूचना के प्रवाह को रोकना और प्रतिरोध की ताकत को दबाना एक गलत कदम होगा । राज्य के पूर्व आई.पी.एस. अधिकारी रामचन्द्र खान तो कहते हैं कि राज्य का लोकतांत्रिक ढांचा ही चरमरा गया है । आज न तो पार्टी में लोकतंत्र है न सरकार में । राज्य के कई मंत्रियों की व्यथा है कि अधिकारी उनकी बात ही नहीं सुनते हैं । क्या किसी भी लोकतांत्रिक सरकार को यह हक है कि अपने खिलाफ उठने वाली आवाजों को ताकत के बल पर दबा दे ? क्या सरकार के काले कारनामों को उजागर करना गलत है ? क्या समाज के निचले तबके को लेकर प्रशासनिक बेरूखी को सामने रखना अपराध है ? लोकनायक जयप्रंकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति का मुद्दा जोरदार तरीके से उठाया था और नीतीश कुमार ने सूचना के अधिकार में संशोधन कर उसकी मूल भावना ही नष्ट कर डाली । क्या यही सुशासन का असली चेहरा है ?
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