स्वास्थ्य
अनिवार्य लाइसेसिंग पर हंगामा क्यों नहीं ?
सुश्री लता जिशनु
कैंसररोधी दवा जिसका बाजार मूल्य एक माह के उपचार के लिए दो लाख अस्सी हजार रूपए था,का मूल्य अनिवार्य लायसेसिंग के बाद घटकर महज आठ हजार आठ सौ रूपए प्रतिमाह पर आ जाने के बाद भी बहुराष्ट्रीय दवाई कंपनियों की चुप्पी बता रही है कि अंदर ही अंदर कुछ चल रहा है । बहरहाल यह बात तो सभी के सामने आ गई है कि दवाई कंपनिय७ां कितने अधिक लाभ पर कार्य कर रही हैं । सवाल उठता है कि क्या भारत सरकार अपनी दृढ़ता कायम रख पाएगी ।
कोई भी ऐसी औषधि सस्ती नहीं हो सकती यदि वह बीमारियों के सम्राट केंसर जैसी प्राणघातक बीमारी से मुकाबला कर रही हो । अतएव स्वाभाविक ही था कि जब पेटेंट नियंत्रक पी.एच. कुरियन द्वारा बेयर कारर्पोरेशन की सोरेफेनिब टोजीलेट के जेनेरिक संस्करण को बनाने का अनिवार्य लायसेंस (कंपल्सरी लायसेंस) देंगे तो हंगामा तो बरपेगा । यह एक जीवन अवधि बढ़ाने वाली केंसर औषधि है जिसे एक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी नेक्सावर के ब्रांड नाम से बेचती है । कुरियन के इस युगान्तकारी निर्णय के फलस्वरूप किडनी और लीवर के उपचार में सहयोगी नेक्सावार के लिए अब मरीज को दो लाख अस्सी हजार रूपए प्रतिमाह के स्थान पर नेटको द्वारा बताए गए अविश्वसनीय मूल्य यानि आठ हजार आठ सौ रूपए प्रतिमाह ही खर्च करना होंगे ।
आवेदन और पेटेंट नियंत्रक का निर्णय दोनों ही अभूतपूर्व हैं । पहला, तो यह कि सार्वजनिक स्वास्थ्य आकस्मिकता पर बजाए सरकार के एक निजी निर्माता में अनिवार्य लायसेंस की मांग की । दूसरा यह कि हम भी यह जांच पाए कि विशाल दवा निर्माता कंपनियां किस स्तर पर लाभ कमा रही हैं । पेटेंट अधिनियम का पहला परीक्षण इस पैमाने पर होता है कि औषधि का मूल्य आम आदमी द्वारा वहन कर सकने लायक हो । १२ मार्च को कुरियन द्वारा दिए गए निर्णय ने और भी कई चीजें स्पष्ट कर दी हैं । इसमें इस बात को दोहराया गया है कि अनिवार्य लायसेंसिंग बौद्यिक संपदा अधिकार के व्यापार संबंधित पक्ष (ट्रिप्स) की पूरक ही है और विकसित देशों ने भी औषधियों की अपनी आवश्यकताआें के चलते अनिवार्य लायसेंसिंग को लागू किया है ।
इस युगान्तकारी निर्णय के अंतर्गत नेटको को नेक्सवार के जेनेरिक संस्करण के निर्माता एवं बिक्री की अनुमति इस शर्त पर दी गइ्र है कि वह अपनी शुद्ध बिक्री पर ६ प्रतिशत की दर से बेयर को रायल्टी देगा । यह निर्णय कई मायनों में महत्वपूर्ण है इसमें यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पेटेंट धारक को अपने पेटेंट से संबंधित कार्य भारत में करना होंगे एवं सीमित मात्रा में औषधि के आयात भर से काम नहीं चलेगा ।
गौरतलब है कि पेटेंट (संशोधन) अधिनियम २००५ की धारा ८४ के अन्तर्गत जिन शर्तोका उल्लेख है उनका अनुपालन भी अनिवार्य है । ये धारा क्या कहती है ? इसमें कहा गया है पेटेंट किए गए आविष्कार से संबंद्ध जनता की उचित आवश्यकताआें को संतुष्ट किया जाना चाहिए, पेटेंट किया गया आविष्कार आम जनता को यथोचित वहन कर सकने वाले मूल्य पर उपलब्ध होना चाहिए और पेटेंट किए गए आविष्कार पर भारत में कार्य किया जाना चाहिए । नियंत्रक ने पाया कि बेयर में इन सभी शर्तो का उल्लघंन किया था ।
विचारणीय है कि नेक्सावर मामला क्या जेनेरिक उद्योग के लिए परिवर्तनकारी सिद्ध होगा ? क्या यह देश में अनिवार्य लायसेंसिंग की प्रवृत्ति तय कर देगा ? क्या यह उस बाजार में हलचल मचा देगा, जिसमें वर्ष २००५ के संशोधन के बाद दवा निर्माताआें को अपने उत्पाद को पेटेंट करवाने की अनुमति मिल गई है तथा जिसने उच्च् मूल्यों वाली आयात की हुई उन पेटेंट दवाईयों की बाढ़ भी देख ली है, जिनमें से अनेक केवल कुछ चुने हुए वितरकों के माध्यम से ही उपलब्ध होती हैं। क्या भारत में कुछ और नई दवाइयों का उत्पादन प्रारंभ हो पाएगा ? इसका एक संकेत उद्योग के बड़े खिलाड़ियों द्वारा इस संबंध में बरती गई चुप्पी में छुपा है । इस संबंध में एकमात्र आधिकारिक आलोचना भारत के दौरे पर आए अमेरिका वाणिज्य सचिव जॉन ब्रायसन की ओर से आई है, जिन्होनें गत माह वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री के साथ हुई बैठक में अनिवार्य लायसेंसिंग का मसला उठाया था ।
दि इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार ब्रायसन ने आनंद शर्मा से कहा कि औषधि निर्माण एक प्रतिस्पर्धी क्षेत्र है और इसके अन्तर्गत शोध एवं विकास में अत्यधिक निवेश की आवश्यकता पड़ती है । अतएव अंतर्राष्ट्रीय पेटेंट व्यवस्था में किसी भी तरह का हस्तक्षेप (अधिकारों में कमी) अमेरिका के लिए चिंता का विषय है । वैसे शर्मा इस मामले में पूर्ण रूप से दृढ़ थे कि अनिवार्य लायसेंसिंग पूर्णतया विश्व व्यापार संगठन के निर्देशों के अनुरूप ही है । अतएव औषधियों की भिन्न-भिन्न प्रकार की मूल्य सूची अब एक मानक बन सकती है और इसे लेकर बाजार पहले से ही गर्म हो चुका है । अनिवार्य लायसेंसिंग संबंधी निर्णय आने के तुरन्त बाद एक प्रमुख दवाई कंपनी रोश ने घोषणा की कि वह अपनी सबसे ज्यादा बिकने वाली केंसर औषधि के काफी कम मूल्य वाले संस्करण को हैदराबाद स्थित एक अन्य कंपनी ईनक्योर फार्मास्यूटिकल के माध्यम से भारत के बाजारों में लाने की योजना बना रही है । इस तरह के गठबंधन उन भारतीय कंपनियों के लिए मील का पत्थर साबित हो सकते हैं, जो कि नेटको के उदाहरण का अनुकरण करना चाहती हैं ।
वैसे मूल्य सभी को लुभा रहे हैं क्योंकि ऐसी अनेकों महंगी कैंसर औषधियां हैं, जो कि कम लागत वाले निर्माताआें के लिए धन की बौछार कर सकती हैं । परन्तु समस्या यह है कि कई अग्रणी जेनेरिक दवाई निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ ऐसे लायसेंसिंग समझौते में उलझे हुए हैं, जो कि अपनी प्रकृति में बहुत ही प्रतिबंधात्मक हैं । ये मूलत: प्राथमिक निर्माण अनुबंध हैं, जिसमें उत्पाद की बिक्री को लेकर प्रतिबंधात्मक शर्ते मौजूद हैं । अतएव इस बात की कम ही संभावना है कि ये निर्माता अनिवार्य लायसेंसिंग को लेकर उथल-पुथल मचाने की चेष्टा करें ।
इस सबसे पृथक एक तथ्य यह भी है कि सभी जेनेरिक औषधि निर्माण कंपनियों के पास इन श्रेष्ठतम औषधियों के निर्माण हेतु तकनीकी विशेषज्ञता भी नहीं है । इसके अलावा जैसा कि नेटकों के अधिकारियों ने इस लेखक को बताया कि अनिवार्य लायसेंसिंग की तैयारी भी आसान नहीं है । किसी भी औषधि को संचालित करने वाले विभिन्न पेटेंटो को समझने के लिए अत्यन्त धैर्य, दृढ़ता और साधनों की आवश्यकता पड़ती है । यदि इस सौभाग्यशाली कंपनी को छोड़ दें, जो कि कह रही है कि वह भविष्य में अन्य संभावनाआें को टटोलेगी तो भी इस बात की बहुत कम उम्मीद नजर आ रही है कि निकट भविष्य में अनिवार्य लायसेंसिंग के आवेदनों की संख्या में एकाएक वृद्धि हो सकती है । इसके अलावा इसका रास्ता अभी भी स्पष्ट नहीं है । इस बात की भी संभावना है कि बेयर इस निर्णय को अपीलेट बोर्ड या उसके भी आगे चुनौती दे सकता है ।
संभवत: यह एक कारण है कि भारत द्वारा पहले अनिवार्य लायसेंस दिए जाने के निर्णय जिसका कि दुनियाभर के स्वास्थ्यकर्ताआें एवं मरीज समूहों ने स्वागत किया है, को लेकर बड़ी दवाई कंपनियों ने कोई शोर शराबा नहीं मचाया । हमें सचेत रहकर इंतजार करना होगा ।
अनिवार्य लाइसेसिंग पर हंगामा क्यों नहीं ?
सुश्री लता जिशनु
कैंसररोधी दवा जिसका बाजार मूल्य एक माह के उपचार के लिए दो लाख अस्सी हजार रूपए था,का मूल्य अनिवार्य लायसेसिंग के बाद घटकर महज आठ हजार आठ सौ रूपए प्रतिमाह पर आ जाने के बाद भी बहुराष्ट्रीय दवाई कंपनियों की चुप्पी बता रही है कि अंदर ही अंदर कुछ चल रहा है । बहरहाल यह बात तो सभी के सामने आ गई है कि दवाई कंपनिय७ां कितने अधिक लाभ पर कार्य कर रही हैं । सवाल उठता है कि क्या भारत सरकार अपनी दृढ़ता कायम रख पाएगी ।
कोई भी ऐसी औषधि सस्ती नहीं हो सकती यदि वह बीमारियों के सम्राट केंसर जैसी प्राणघातक बीमारी से मुकाबला कर रही हो । अतएव स्वाभाविक ही था कि जब पेटेंट नियंत्रक पी.एच. कुरियन द्वारा बेयर कारर्पोरेशन की सोरेफेनिब टोजीलेट के जेनेरिक संस्करण को बनाने का अनिवार्य लायसेंस (कंपल्सरी लायसेंस) देंगे तो हंगामा तो बरपेगा । यह एक जीवन अवधि बढ़ाने वाली केंसर औषधि है जिसे एक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी नेक्सावर के ब्रांड नाम से बेचती है । कुरियन के इस युगान्तकारी निर्णय के फलस्वरूप किडनी और लीवर के उपचार में सहयोगी नेक्सावार के लिए अब मरीज को दो लाख अस्सी हजार रूपए प्रतिमाह के स्थान पर नेटको द्वारा बताए गए अविश्वसनीय मूल्य यानि आठ हजार आठ सौ रूपए प्रतिमाह ही खर्च करना होंगे ।
आवेदन और पेटेंट नियंत्रक का निर्णय दोनों ही अभूतपूर्व हैं । पहला, तो यह कि सार्वजनिक स्वास्थ्य आकस्मिकता पर बजाए सरकार के एक निजी निर्माता में अनिवार्य लायसेंस की मांग की । दूसरा यह कि हम भी यह जांच पाए कि विशाल दवा निर्माता कंपनियां किस स्तर पर लाभ कमा रही हैं । पेटेंट अधिनियम का पहला परीक्षण इस पैमाने पर होता है कि औषधि का मूल्य आम आदमी द्वारा वहन कर सकने लायक हो । १२ मार्च को कुरियन द्वारा दिए गए निर्णय ने और भी कई चीजें स्पष्ट कर दी हैं । इसमें इस बात को दोहराया गया है कि अनिवार्य लायसेंसिंग बौद्यिक संपदा अधिकार के व्यापार संबंधित पक्ष (ट्रिप्स) की पूरक ही है और विकसित देशों ने भी औषधियों की अपनी आवश्यकताआें के चलते अनिवार्य लायसेंसिंग को लागू किया है ।
इस युगान्तकारी निर्णय के अंतर्गत नेटको को नेक्सवार के जेनेरिक संस्करण के निर्माता एवं बिक्री की अनुमति इस शर्त पर दी गइ्र है कि वह अपनी शुद्ध बिक्री पर ६ प्रतिशत की दर से बेयर को रायल्टी देगा । यह निर्णय कई मायनों में महत्वपूर्ण है इसमें यह भी स्पष्ट कर दिया है कि पेटेंट धारक को अपने पेटेंट से संबंधित कार्य भारत में करना होंगे एवं सीमित मात्रा में औषधि के आयात भर से काम नहीं चलेगा ।
गौरतलब है कि पेटेंट (संशोधन) अधिनियम २००५ की धारा ८४ के अन्तर्गत जिन शर्तोका उल्लेख है उनका अनुपालन भी अनिवार्य है । ये धारा क्या कहती है ? इसमें कहा गया है पेटेंट किए गए आविष्कार से संबंद्ध जनता की उचित आवश्यकताआें को संतुष्ट किया जाना चाहिए, पेटेंट किया गया आविष्कार आम जनता को यथोचित वहन कर सकने वाले मूल्य पर उपलब्ध होना चाहिए और पेटेंट किए गए आविष्कार पर भारत में कार्य किया जाना चाहिए । नियंत्रक ने पाया कि बेयर में इन सभी शर्तो का उल्लघंन किया था ।
विचारणीय है कि नेक्सावर मामला क्या जेनेरिक उद्योग के लिए परिवर्तनकारी सिद्ध होगा ? क्या यह देश में अनिवार्य लायसेंसिंग की प्रवृत्ति तय कर देगा ? क्या यह उस बाजार में हलचल मचा देगा, जिसमें वर्ष २००५ के संशोधन के बाद दवा निर्माताआें को अपने उत्पाद को पेटेंट करवाने की अनुमति मिल गई है तथा जिसने उच्च् मूल्यों वाली आयात की हुई उन पेटेंट दवाईयों की बाढ़ भी देख ली है, जिनमें से अनेक केवल कुछ चुने हुए वितरकों के माध्यम से ही उपलब्ध होती हैं। क्या भारत में कुछ और नई दवाइयों का उत्पादन प्रारंभ हो पाएगा ? इसका एक संकेत उद्योग के बड़े खिलाड़ियों द्वारा इस संबंध में बरती गई चुप्पी में छुपा है । इस संबंध में एकमात्र आधिकारिक आलोचना भारत के दौरे पर आए अमेरिका वाणिज्य सचिव जॉन ब्रायसन की ओर से आई है, जिन्होनें गत माह वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री के साथ हुई बैठक में अनिवार्य लायसेंसिंग का मसला उठाया था ।
दि इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार ब्रायसन ने आनंद शर्मा से कहा कि औषधि निर्माण एक प्रतिस्पर्धी क्षेत्र है और इसके अन्तर्गत शोध एवं विकास में अत्यधिक निवेश की आवश्यकता पड़ती है । अतएव अंतर्राष्ट्रीय पेटेंट व्यवस्था में किसी भी तरह का हस्तक्षेप (अधिकारों में कमी) अमेरिका के लिए चिंता का विषय है । वैसे शर्मा इस मामले में पूर्ण रूप से दृढ़ थे कि अनिवार्य लायसेंसिंग पूर्णतया विश्व व्यापार संगठन के निर्देशों के अनुरूप ही है । अतएव औषधियों की भिन्न-भिन्न प्रकार की मूल्य सूची अब एक मानक बन सकती है और इसे लेकर बाजार पहले से ही गर्म हो चुका है । अनिवार्य लायसेंसिंग संबंधी निर्णय आने के तुरन्त बाद एक प्रमुख दवाई कंपनी रोश ने घोषणा की कि वह अपनी सबसे ज्यादा बिकने वाली केंसर औषधि के काफी कम मूल्य वाले संस्करण को हैदराबाद स्थित एक अन्य कंपनी ईनक्योर फार्मास्यूटिकल के माध्यम से भारत के बाजारों में लाने की योजना बना रही है । इस तरह के गठबंधन उन भारतीय कंपनियों के लिए मील का पत्थर साबित हो सकते हैं, जो कि नेटको के उदाहरण का अनुकरण करना चाहती हैं ।
वैसे मूल्य सभी को लुभा रहे हैं क्योंकि ऐसी अनेकों महंगी कैंसर औषधियां हैं, जो कि कम लागत वाले निर्माताआें के लिए धन की बौछार कर सकती हैं । परन्तु समस्या यह है कि कई अग्रणी जेनेरिक दवाई निर्माता बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ ऐसे लायसेंसिंग समझौते में उलझे हुए हैं, जो कि अपनी प्रकृति में बहुत ही प्रतिबंधात्मक हैं । ये मूलत: प्राथमिक निर्माण अनुबंध हैं, जिसमें उत्पाद की बिक्री को लेकर प्रतिबंधात्मक शर्ते मौजूद हैं । अतएव इस बात की कम ही संभावना है कि ये निर्माता अनिवार्य लायसेंसिंग को लेकर उथल-पुथल मचाने की चेष्टा करें ।
इस सबसे पृथक एक तथ्य यह भी है कि सभी जेनेरिक औषधि निर्माण कंपनियों के पास इन श्रेष्ठतम औषधियों के निर्माण हेतु तकनीकी विशेषज्ञता भी नहीं है । इसके अलावा जैसा कि नेटकों के अधिकारियों ने इस लेखक को बताया कि अनिवार्य लायसेंसिंग की तैयारी भी आसान नहीं है । किसी भी औषधि को संचालित करने वाले विभिन्न पेटेंटो को समझने के लिए अत्यन्त धैर्य, दृढ़ता और साधनों की आवश्यकता पड़ती है । यदि इस सौभाग्यशाली कंपनी को छोड़ दें, जो कि कह रही है कि वह भविष्य में अन्य संभावनाआें को टटोलेगी तो भी इस बात की बहुत कम उम्मीद नजर आ रही है कि निकट भविष्य में अनिवार्य लायसेंसिंग के आवेदनों की संख्या में एकाएक वृद्धि हो सकती है । इसके अलावा इसका रास्ता अभी भी स्पष्ट नहीं है । इस बात की भी संभावना है कि बेयर इस निर्णय को अपीलेट बोर्ड या उसके भी आगे चुनौती दे सकता है ।
संभवत: यह एक कारण है कि भारत द्वारा पहले अनिवार्य लायसेंस दिए जाने के निर्णय जिसका कि दुनियाभर के स्वास्थ्यकर्ताआें एवं मरीज समूहों ने स्वागत किया है, को लेकर बड़ी दवाई कंपनियों ने कोई शोर शराबा नहीं मचाया । हमें सचेत रहकर इंतजार करना होगा ।
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